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________________ बुद्धिमत्ता का उपहास है। ऐसे लोग भूत-भावी दोनों पक्षों की उपेक्षा कर केवल वर्तमान को महत्त्व देते थे। ___ 3. मनुष्य अच्छे को अच्छा जानता है, बुरे को बुरा । फिर अच्छाई को स्वीकार, बुराई का बहिष्कार नहीं कर पाता तो उस ज्ञान की क्या सार्थकता? जान लेने पर भी यदि बुराई न छूटे तो जानना व्यर्थ है। इस प्रकार की मनोवृत्ति ने अज्ञानवाद को जन्म दिया। शास्त्रकार ने अज्ञानवादियों की मनोवृत्ति की समीक्षा करते हए अज्ञानवाद के दुष्परिणाम पर प्रकाश डाला है। पिंजरे में कैद पक्षी उसे खोलकर बाहर आने में समर्थ नहीं होते वैसे अज्ञानवादी भी अपने मतवाद के घेरे से बाहर नहीं निकल सकते । प्रत्युत् मिथ्यात्वरूप अज्ञान के कारण संसार के बंधन में दृढ़ता से बंध जाते हैं। अज्ञान श्रेयोवादी की तुलना भगवान महावीर के समकालीन मत प्रवर्तक संजय वेलट्टिपुत्त नामक संशयवादी आचार्य से की जा सकती है जिनकी बौद्ध वाङ्मय में विवेचना है। प्रत्येक पदार्थ के प्रश्न के सम्बन्ध में उनका उत्तर होता था-''यदि आप पूछे कि क्या परलोक है? परलोक है, मैं ऐसा भी नहीं कहता। परलोक नहीं है, ऐसा भी नहीं कहता परलोक है भी और नहीं भी, ऐसा भी नहीं कहता और परलोक न नहीं है और न है, ऐसा भी नहीं कहता। संजय वेलट्टिपुत्त ने कोई निश्चित बात नहीं कही। निष्कर्ष यह है, संजयवेट्टिपुत्त के मतानुसार तत्त्वविषयक अज्ञेयता अथवा अनिश्चितता ही अज्ञानवाद की आधारशिला है।" शास्त्रकार कहते हैं-अण्णाणिया वा कुसला वि सता। इसका आशय है, अज्ञानवादी स्वयं को कुशल समझते है किन्तु अज्ञान के कारण कोई कुशल-मंगल नहीं होता। कल्याण का साधन ज्ञान है, अज्ञान नहीं। । प्रायः सभी दर्शनों ने ज्ञान को महत्त्व दिया है। वेदान्त ज्ञानवादी है ही। बौद्ध दर्शन में प्रज्ञा-पारमिता ज्ञान के वैशिष्ट्य की सूचक है। जैन दर्शन में 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः' ज्ञान एवं आचार दोनों का समान महत्त्व आंका गया है। प्राचीन काल में अनेक धर्म और दर्शन प्रकाश में आये और विलुप्त हो गये। विलय का कारण उनकी तात्त्विक पृष्ठभूमि का शैथिल्य था । वर्तमान में अज्ञानवाद के नाम पर न कोई सम्प्रदाय है, न कोई सुव्यवस्थित चिन्तन धारा । प्राचीन काल में अज्ञानवाद के समर्थक कुछ आचार्यों का उल्लेख आचार्य अकलंक ने किया है-साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, नारायण, सात्यमुनि, काठ, माध्यन्दिनी, मौद, पैप्पलाद, वादनारायण आदि। नियुक्तिकार ने अज्ञानवाद की 67 शाखाओं का उल्लेख किया है। उसकी गाणितिक पद्धति इस प्रकार है-जीव,अजीव आदि नौ पदार्थों को सत्, असत्, सदसत्, सद् अवक्तव्य, असद् अवक्तव्य तथा सद्-असद्-अवक्तव्य-इन सात भंगों से गुणन करने पर 9x7 = 63 ANTIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 10 AM Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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