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________________ सूत्रकृतांग में दो प्रकार के अज्ञानवादियों का निरूपण है - एक वे जो अल्पज्ञान पाकर गर्वोन्नत हो जाते हैं। परन्तु उनका ज्ञान पल्लवग्राही होता है। आत्मानुभूतिजन्य नहीं है। 20 दूसरे वे जो अज्ञान को ही मूल्यवत्ता देते हैं। इससे अधिक जानने की अपेक्षा नहीं। फिर संसार में अनेक मत हैं। अनेक पंथ हैं। भिन्न भिन्न शास्त्र हैं और धर्म प्रवर्तक भी एक नहीं है। किसका ज्ञान सत्य है? किसका असत्य? निर्णय कर पाना टेढ़ी खीर है। इन उलझनों से मुक्त रहने के लिये अज्ञान का सहारा हितावह है। सूत्रकृतांग के टीकाकार श्री शीलांकसूरि ने अज्ञानवाद को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है-सम्यक्ज्ञान से रहित श्रमण ब्राह्मण अज्ञानी है।” 2. बौद्धों को भी उन्होंने अज्ञानी कहा है। 3. जो अज्ञान को श्रेयस्कर मानता है वह अज्ञानी है।" अज्ञानवाद में दो प्रकार की विचारधाराएं हैं-कुछ अज्ञानी आत्मा के अस्तित्व में संदेह रखते हैं। उनका मत है कि आत्मा है तो भी जानने से क्या लाभ? दूसरी विचार धारा के अनुसार ज्ञान सब समस्याओं का मूल है। इसलिये अज्ञान ही श्रेष्ठ है। अज्ञानवाद के छः फलित हैं1. ज्ञान, मिथ्याज्ञान से उन्माद, वाद-विवाद, संघर्ष, कलह, अहंकार आदि पैदा होते हैं। 2. अज्ञान अपराध से बचने का सरल उपाय है। 3. अज्ञान से मन में रागादि भावों का उद्भव नहीं होता। 4. संसार में अनेक दर्शन हैं । वे परस्पर विरोधी होने से सत्य का निर्णय नहीं कर पाते। 5. असर्वज्ञ व्यक्ति सर्वज्ञ की पहचान नहीं कर सकता। 6. युक्ति प्राप्ति में अज्ञान ही उत्तम है। शास्त्रकार अज्ञानवाद की समीक्षा में कहते हैं कि अज्ञानवादियों ने ज्ञान के अस्तित्व को नकार कर समस्त पदार्थों का अपलाप किया है। यह अत्यंत भाषा का विरोधाभास है। अज्ञानवाद की ओर झुकाव होने के कुछ कारण हैं, जैसे 1. कुछ लोग सोचते हैं, सत्य वही है जो इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। अतीन्द्रिय सत्य का साक्षात् करने वाला कोई नहीं है। यदि कोई है तो हमें क्या पता कि वह है या नहीं? उसने अतीन्द्रिय विषय का साक्षात् किया या नहीं? इसलिये अतीन्द्रिय सत्य की चर्चा करना व्यर्थ है। अज्ञानवाद का अर्थ है अतीन्द्रिय विषयों को जानने का अप्रयत्न । इसमें अतीन्द्रिय विषय को जानने का प्रयास करना भी सार्थक नहीं समझा जाता है। 2. कुछ लोग वर्तमान में उपलब्ध विषयों से विमुख होकर अदृष्ट विषयों जैसे पुनर्जन्म इत्यादि की खोज करने को यथार्थ नहीं मानते थे। प्राप्त को छोड़कर अप्राप्त के प्रति आकांक्षा तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AIIIIII Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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