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मन
विनयवादियों का कोई वेष या शास्त्र नहीं। केवल मोक्ष को ही मान्यता देते हैं। इस परम्परा के कुछ प्रमुख आचार्य इस प्रकार हैं-वशिष्ठ, पाराशर, वाल्मिकी, व्यास, इलापुत्र, सत्यदत्त आदि। विनयवादियों के बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैं
1. सुर 2. राजा 3. यति 4. ज्ञाति 5. स्थविर 6. अधम 7. माता 8. पिता मन वचन
वचन काया देशकालोचितदान इस प्रकार 8x4=32 भेद होते हैं। भाष्य, चूर्णि, निशीथ में और भी अनेक दर्शन एवं दार्शनिकों का उल्लेख मिलता है। सूत्रकृतांग के अनुसार ‘क्रियावाद' आदि चारों प्रवाद श्रमण एवं वैदिक दोनों परम्पराओं में थे। सूत्र की रचना शैली में प्रयुक्त 'एगे' शब्द द्वारा विभिन्न मतवादों का निरूपण किया गया है। कहीं-कहीं दर्शन शब्द भी मिलता है। क्षणिकवादी बौद्धों के लिये 'क्षणयोगी' शब्द का प्रयोग है। द्वितीय श्रुतस्कंध में बौद्ध शब्द भी है। सूत्रकार के सामने बौद्ध साहित्य रहा है। ऐसा प्रयुक्त शब्दों से प्रतीत होता है।
__उपनिषद्, सांख्य तथा गोशालक, संजय वेलट्टिपुत्त, पकुध कात्यायन आदि श्रमण परम्परा के आचार्यों को भी उन्होंने उपेक्षित नहीं किया। बारहवें अध्ययन में 'बंझ' शब्द है। इसका आशय है पकुध कात्यायन के अकृतवाद के अनुसार सात काय वन्ध्य कूटस्थ होते हैं। दीघनिकाय के सामञ्जस्य सुत्त में भी यही शब्द प्रयुक्त हुआ है।
भगवान महावीर का युग एक ऐसा युग था जब लोक मानस में तत्त्वज्ञान के प्रति सम्मान बढ़ा था। वे हर तत्त्व की गहराई का स्पर्श करना चाहते थे। वह दर्शन वाङ्मय के विकास का आदिकाल था। जिज्ञासा प्रेरणा जगाती है। विशेष बात यह थी कि तत्कालीन दार्शनिकों के लिये स्वतंत्र चिन्तन का उन्मुक्त वातावरण था । वे विभिन्न परम्पराओं से जुड़े हुए अवश्य थे किन्तु प्रतिबद्धता निरपेक्ष चिन्तन के लिये बाधक नहीं थी।
ब्राह्मण परम्परा और श्रमण परम्परा के रूप में दो धाराएं प्रवाहित थीं। ब्राह्मण परम्परा का प्रतिनिधित्व ब्राह्मणों के हाथ में था। सिद्धान्तों का मुख्य आधार वेद थे। श्रमण परम्परा में जैन और बौद्ध मुख्य थे। किन्तु पूर्णकाश्यप, संजय वेलट्टिपुत्त, मंखली गोशालक, पकुध कात्यायन इत्यादि आचार्य भी इसी परम्परा में माने गये हैं। ब्राह्मण परम्परा और श्रमण परम्परा का मुख्य भेद था
पहली परम्परा में ज्ञान प्रधान था, दूसरी में ज्ञान के साथ-साथ क्रिया का भी महत्त्व था। जैन दर्शन में क्रियावाद-आस्तिक्यवाद के अर्थ में और अक्रियावाद नास्तिकवाद के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह सारी चर्चा प्रवृत्ति निवृत्ति के लिए है। प्रवृत्ति से प्रत्यावर्तन और निवृत्ति 12 ATTITIVITITITITIONALI TITITII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 ..
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