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इसके अतिरिक्त इस सन्दर्भ में रामपुरखा का भी एक स्तम्भ लेख दृष्टव्य है 1. देवानंपिये पियदसि लाज हेव आह (1) दुवाइस वसाभिसितेन मे धमेलिपि
लिखापित लोकस हित सुखाये (1) से तंअपहट। 2. तं तं धंम बढि पायो व (1) हेव लोकस हित-सुखे ति पटिवेखामि अथ इयं
नातिसु हेवं पथासंनेसु हेव अपकठेसु किम कानि। 3. सुखं आवहामी ति तथा च विदहामि (1) हेमेव ।
सव-(नि) कायेसु पटिवेखामि (1) सव-पासंडा पि मे पूजित विविधाय पूजाय
(1) ए चुहयं। 4. अतन पचू पगमने से मे माख्यमुते (1) सडुवीस (ति) वसाभिसितेन मे इयं
धम्म-लिपि लिखापित (II)। देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी अशोक ने ये शिला-लेख अपने धर्म को फैलाने के लिए और अपने राज्याधिकारियों को अपनी धर्मनीति या राजनीतिक दृष्टि को अवगत कराने के लिए खुदवाये । यद्यपिये शिलालेख एक ही भाषा में लिखे गये हैं, तथापि इनको भाषा में स्थलानुसार भेद सम्भव है, क्योंकि कोई भी भाषा स्थानीय बोली से प्रायशः प्रभावित हो जाती है।
फिर भी, इतना निश्चित है कि उपर्युक्त शिलालेखों से प्राकृत के विकास में बिहार के देन की महार्घता तो प्रतीत होती ही है। बिहार की तत्कालीन भाषा-परिस्थिति को समझने के लिए इनसे पर्याप्त सहायता भी प्राप्त होती है।
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MINIS
ANTI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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