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'श' और 'ष' के इन अनियंत्रित प्रयोगों से विद्वानों ने ऐसा निर्णय किया है कि कालसी में सामान्य प्रचार 'स' का मानना चाहिए। ये 'श' और 'स' लिपिकार के लिपिदोष के प्रतीक हैं, पूर्व के लेखों में स्वार्थे 'क' का प्रयोग बढ़ता जाता है। कालसी, टोपरा के लेखों में यह प्रयोग अधिक होता है।
यहाँ के लेखों की एक और विशेषता 'क' और 'ग' का तालूकरण है। उदाहरण स्वरूपकालसी-नातिक्य, चिलथितिक्य, चिलठितिक्य, ष्वामियेन, कलियेषु, अलियषुदले । टोपरा- अढकोसिक्य (अष्टक्रोशिकीय), अंबावडिक्य (आम्रवाटिका)। कहीं-कहीं स्वरान्तर्गत 'क' का घोषभाव होता हैअन्तियोग- (गिरनार-अन्तियक)। अधिगिच्य, हिद लोगम्। 'स' और 'र' से युक्त संयुक्त व्यंजनों में 'स' और 'र' का सावर्ण्य होता है:
अट (अष्टन्, अर्थ) सब, अथि (अस्थि -)। निखमंतप, अंब - (आम्र)।
संयुक्त व्यंजनों में 'त' और 'व' के अनुगामी 'य' का 'हय' होता है। 'द' और 'क' के अनुगामी 'य' का सावर्ण्य होता है।
अज (अद्य), मझ (मध्य), उदान (उद्यान), कयान (कल्याण), पजोहतविये (प्रहोतव्यः), कटविये (कर्त्तव्यः), एकतिया (गिरनार-एकचा), अपवियाता (अल्पव्ययता), वियंजनते (व्यंजनतः), दिवियानि (कालसी-दिव्यानि)।
अन्यत्र भी - मधुलियाये (मधुरताये)।
संयुक्त व्यंजनों में व्यंजन के अनुगामी 'व' का 'उव' होता है, किन्तु शब्दान्तर्गत 'त्व' का 'त्त' होता है।
सुवामिकेन (स्वामिकेन), कुवापि (क्वापि), आत्तुलना (आत्वारणा), चत्तालि (चत्वारि)। ‘स्म, ष्म का 'फ' होता है, किन्तु सप्तमी एकवचन का प्रत्यय 'स्मि, सि' ही है:
तुफे, अफाक, येतफा (एतस्मात्)। 'क्ष' का सामान्यतः 'ख' होता है, कुछ अपवाद भी है: मोख, खुद, छणति (क्षणाति)।
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IIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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