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मानना चाहिए। क्षुल्लक श्रीजिनेन्द्र वर्णीजी ने इन्हें एकेन्द्रिय स्थावर माना है। डॉ. नन्दलाल
जैन, डॉ. सिकधर और डॉ. अशोक कुमार जैन भी बैक्टेरिया को एकेन्द्रिय वनस्पति ही मानते हैं। लेकिन कुछ बैक्टेरिया पानी तथा हवा में चलते हुये दिखते हैं, इस कारण इनके त्रस होने का भ्रम होने लगता है। चूंकि त्रस जीव वे होते हैं जो चलते हैं, इस बात से तो लगता है कि बैक्टेरिया को त्रस मानना चाहिए। किसी निर्णय पर पहंचने से पहले हमें और अधिक विचार करना चाहिए।
सर्व-प्रथम हमें निम्न बिन्दुओं पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए -
1. जैन धर्म में छने पानी के प्रयोग पर विशेष जोर दिया जाता है। यह माना जाता है कि मोटे सूती कपड़े से पानी को छानने पर पानी में स्थित त्रस जीव अलग हो जाते हैं तथा इस प्रकार जो छना पानी प्राप्त होता है वह त्रस जीवों से रहित होता है, उसमें मात्र स्थावर जीव ही रहते हैं। त्रस जीवों की हिंसा से बचने के लिए गृहस्थों को यह आवश्यक है कि वे पीने के पानी में तथा अन्य किसी कार्य में छने पानी का ही प्रयोग करें। इतना ही नहीं, मन्दिरों में मूर्ति का अभिषेक करने के लिए तथा अन्य अनुष्ठानों के लिए भी छने पानी के प्रयोग का ही विधान है। अतः यह निर्विवाद है कि छने पानी में त्रस जीवों का अभाव हो जाता है, मात्र स्थावर जीव ही उसमें रह जाते हैं। इस प्रकार छने ये पानी में यदि कोई जीव राशि मिलती है तो वह स्थावर (एकेन्द्रिय) ही होगी। जैसा कि हम जानते हैं कि छने हये पानी में भी अनेकों बैक्टेरिया होते हैं और इनकी संख्या अनछने पानी में मौजूद बैक्टेरियाओं की संख्या के लगभग बराबर ही होती है। अतः छने हुए पानी में पाये जाने वाले बैक्टेरिया को एकेन्द्रिय स्थावर ही मानना चाहिए, त्रस नहीं।
2. जिस हवा में हम श्वास लेते हैं उसमें बहुत से बैक्टेरिया होते है। इन बैक्टेरिया को किसी भी प्रकार से हवा में से हटाया नहीं जा सकता है। साथ ही यह भी सही है कि बिना हवा को ग्रहण किये हम जीवित नहीं रह सकते हैं। यदि बैक्टेरिया को त्रस माना जाये तो जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त में समस्या उत्पन्न हो जायेगी। जैन धर्म के अनुसार हमारे साधु त्रस हिंसा के पूर्ण त्यागी होते हैं तथा इस प्रकार वे अहिंसा महाव्रत का पूर्णरूपेण पालन करते है। यदि हवा में मौजूद बैक्टेरियाओं को त्रस मान लिया जाय तो साधुओं के अहिंसा महाव्रत में दोष लगेगा। इस समस्या का हल यही है कि बैक्टेरिया त्रस नहीं, स्थावर है।
3. दही तथा छाछ का प्रयोग साधु भी कर सकते हैं। लेकिन आज हम सभी जानते हैं कि दही व छाछ में अनगिनत बैक्टेरिया होते हैं। वस्तुतः बिना बैक्टेरिया के दही बन भी नहीं सकता है। यदि दही व छाछ में मौजूद बैक्टेरियाओं को हम त्रस माने तो क्या जैन दर्शन इन त्रसों को सीधा जीवित खाने की अनुमति साधुओं को दे सकता है? कदापि नहीं। अतः यह मानना ही समीचीन होगा कि बैक्टेरिया त्रस नहीं होते, स्थावर ही होते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बैक्टेरिया एकेन्द्रिय स्थावर होते हैं, त्रस नहीं। कुछ जैन दार्शनिकों ने एकेन्द्रिय वायुकायिक एवं अग्निकायिक जीवों को भी त्रस की संज्ञा दे दी तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001
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