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________________ कहाँ से करें अथ एक उलझे छोर की तलाश एक मुश्किल काम है। बहुत सी समस्याएं परस्पर गुम्फित हो गयी हैं। दो विपरीत ध्रुव हैं-एक है प्रकृति के संग मैत्री, प्रेम, करुणा और साहचर्य की उदात्त भावना का और दूसरा है उसके पूर्ण दोहन का-उसे मनुष्य का अनुचर मानने का, उससे टकराव का | कैसे संरक्षित होगा वह पर्यावरण जो समस्त जीवों के विकास एवं जीवन-क्रियाओं के लिये आवश्यक सारी स्थितियों एवं प्रभाव के निर्माण से बनता है, जबकि हम पिछले डेढ़-दो-सौ सालों से चली आ रही प्रकृति के अधिकाधिक दोहन और उससे निरन्तर टकराव की पाश्चात्य अवधारणा को विकास की अहम शर्त मानते है। सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् लिण्टन के. काल्डवेल' ने बड़ी प्रासंगिक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि पर्यावरण संरक्षण का संकट मानस और नीति-बोध के संकट काल की बहिर्गत प्रव्यक्ति है। इसके अर्थबोध की अवधारणा में अब कोई ऐसी गलतफहमी नहीं होनी चाहिये जिससे मात्र यह समझा जाय कि यह विलुप्त हो रही वन्य-प्रजातियों, मानव-निर्मित कुरूपताओं और प्रदूषण से जुड़ा एक मसला है। ये इसके अहम हिस्से अवश्य है पर मुख्य रूप से यह संकट हम सब जीवों से जुड़ा है और इस परिज्ञान से ज्यादा जुड़ा है कि जदोजेहद में हमारे कार्यकलापों की सीमारेखा नीतिबोध की सीमाओं में रहनी आवश्यक है। इसी भावना की सम्पुष्टि करते हुए विख्यात पादरी श्रद्धेय जे.सी. जैक्सन ने बड़ी मार्मिक अपील की है- "वह समय अब आ गया है, जब हमें यह समझना अनिवार्य हो गया है कि पर्यावरण का संरक्षण सबसे अनिवार्य/अपरिहार्य और सस्ती विद्या है तथा ऊर्जा का न्यूनतम प्रदूषित रूप है। हमें नजदीक आना होगा और नयी दिशाएं तलाशनी होंगी। हमें अपने समाज को बदलना होगा—एक ऐसा समाज जहां सारे लोग प्रकृति के साथ ऐक्य की भावना से रहें, पारस्परिक ऐक्य के साथ सारी मानव-जातियां रहें, सारे देशों में ऐक्य की भावना रहे...। हमें हर कीमत पर अपनी उपभोक्तावादिता को घटाना होगा, पुनउपयोग, पुनर्चक्रीकरण और संरक्षण की जुगत को मजबूत करना होगा अन्यथा हमारा विनाश सुनिश्चित है।" इन दोनों ही टिप्पणियों से यह तथ्य उभर कर आता है कि संरक्षण का पूरा विधान मानसिकता के नीतिबोध से जुड़ा हआ मसला है, जो जीवन-शैली में पौर्वात्यआध्यात्मिकतावादी एवं सह-अस्तित्व के मूल्यों को बिना जोड़े पूरा नहीं हो सकता। आकलन करना होगा हमें संरक्षण की बहुआयामी समस्या के साथ अहिंसा, दया, करुणा और सहअस्तित्व के ताने-बाने रचे मानवीय मूल्यों के सिद्धान्तों का, तभी तो उभर कर आयेगी एक साफ, प्रेरक तस्वीर जिसमें दर्ज होंगे संरक्षण के समग्र सूत्र। पुढो सत्ता : एक मौलिक चिन्तन ____ आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने एक मौलिक चिन्तन प्रतिपादित किया--पुढो सत्ता प्रत्येक प्राणी की एक स्वतन्त्र सत्ता है। चाहे वह छोटा पौधा हो, नन्ही सी कोपल ही क्यों न हो, छोटा तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ATTITY Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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