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सा पर्ण हो-सबकी स्वतन्त्र सत्ता है। आचार्यश्री कहते हैं-मैं इस विश्व में अकेला नहीं हैंकेवल मेरा ही अस्तित्व नहीं है; सब अलग-अलग और स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने परिपार्श्व में जीव और अजीव दोनों की ही सत्ता से बने पर्यावरण में श्वास ले रहा है। मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति सभी में जीव हैं और उनके अस्तित्व के अस्वीकार का मतलब है अपने अस्तित्व को स्वीकार करना । इस संसार में रहने वाली प्रत्येक चेतन सत्ता अचेतन की ओढ़नी ओढ़े हए है। जीव सिर्फ जीव को ही नहीं, अजीव को भी प्रभावित करता है। निष्कर्ष यह है कि दूसरों के अस्तित्व, उपस्थिति, कार्य और उपयोगिता को स्वीकार करने से ही पर्यावरण के संरक्षण और सन्तुलन की बात सोची और समझी जा सकती है, क्योंकि उसके सभी घटक जीव और अजीव उपयोगी है, परस्पर सम्बद्ध हैं और पारस्परिक प्रभाव रखते हैं। अहिंसा बनाम पर्यावरण
आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने दूसरी बुनियादी बात कही है कि अहिंसा का नया नाम है पर्यावरण का संरक्षण। आप मानते हैं कि अहिंसा सामञ्जस्य का सूत्र है और पर्यावरण संरक्षण की क्रियान्विति की तकनीक है । जिन जीवों की हिंसा किये बगैर भी जीवन-यात्रा चल सकती है, उनकी अनावश्यक हिंसा पर्यावरण के संतुलन का क्षय करती है और पदार्थों का भी अनावश्यक उपयोग/उपभोग पर्यावरण पर दबाव बढ़ाता है, जिससे असन्तुलन बढ़ता है। आचार्य श्री मानते हैं कि इच्छा और भोग तथा सुखवादी एवं सुविधावादी दृष्टिकोण ने हिंसा को बढ़ाया है। पदार्थ सीमित हैं, उपभोक्ता अधिक हैं और इच्छाएं असीम हैं। अहिंसा का अर्थ है इच्छाओं का संयम करना, अपने विवेक की कैंची से उनमें काट-छाँट करना । जो इच्छा पैदा हो, उसे उसी रूप में स्वीकार न करना, प्रत्युत् उसका परिष्कार करना । हिंसा का प्रारम्भिक बिन्दु किसी को मार डालना नहीं है, वरन वह तो है दूसरे जीवों के अस्तित्व को नकारना और पदार्थ के भी अस्तित्व को अस्वीकार करना । अहिंसा का प्रारम्भिक बिन्दु किसी को नहीं मारना मात्र नहीं है, प्रत्युत् यह तो है छोटे से छोटे जीव और छोटे से छोटे पदार्थ-परमाणु तक के अस्तित्व को स्वीकारना, उनका सम्मान करना और उनके साथ छेड़-छाड़ नहीं करना।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ कहते हैं कि अहिंसा आत्मोपम्य का पहला सिद्धान्त है। वे मानते हैं कि पदार्थ के अपरिग्रहण का सिद्धान्त अहिंसा का उच्छ्वास है, प्राणतत्व है और यही अहिंसा का सम्यग्दर्शन है। हिंसा की बाढ़ केवल आध्यात्मिक दृष्टि से अवांछनीय नहीं है, पर्यावरण के संरक्षण की दृष्टि से भी अवांछनीय है। इहलौकिक और पारलौकिक, दोनों ही दृष्टियों से अवांछनीय है। अतः यह निष्कर्ष निष्पादित किया गया है कि अहिंसा का सिद्धान्त मात्र आत्मशुद्धि का नहीं, पर्यावरणशुद्धि का भी है। इसे और पुख्ता करने के लिये उन्होंने आगम प्रामाण्य 'आयतुले पयासु' यानी प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा के समान समझने 98 A niym
TITITITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111--112
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