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________________ की अनुभूति को आधार बनाया है ताकि हिंसा के विचार ही हमारे चिन्तन- फलक से दूर हो जायें, क्योंकि सारा लोक तो जीवों से भरा है। चिन्तन की बारीकियों को स्पष्ट करते हुए आपने जीव संयम और अजीव संयम दोनों सिद्धान्तों को आख्यायित करते हुए यह स्पष्ट किया है कि यही अहिंसक फलसफा पर्यावरण के संरक्षण का प्राणतत्व है । " मनुष्य और वनस्पति: दोनों हम साथी - वनस्पतियों के बिना मनुष्य का जीवन संभव नहीं है, किन्तु मनुष्य के बिना वनस्पतियाँ सकती हैं। यौगलिक युग के समस्त जीव कल्पवृक्षों पर आश्रित है । पर उसके बाद मनुष्य ने साथ रहना सीखा गांव बसाये, मकान बनाये । मनुष्य ने पहला मकान बनाया 'अंग' वृक्ष से और नाम पड़ा अगार । उसकी आवश्यकताएं बढ़ीं। पेड़ों की छालों से तन ढंकने के स्थान पर कपास से कपड़े बनाने की कला उसने सीखी। भोजन के लिये कन्दमूल के स्थान पर वह कृषि करने लगा। मनुष्य विकसित तो हो गया पर उसके विकास का सारा दारोमदार वनस्पति जगत पर निर्भर था। वह जब शहरों में भी आया तो उसने बाग बगीचे लगाये, पेड़ लगाये रास्तों पर यानी कुल मिला कर वह अपनी प्राणशक्ति वनस्पति के साथ चलाता रहा + आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने दोनों के बीच अद्भुत समानता का अहसास किया है: -- वनस्पति वनस्पति भी जन्मती है मनुष्य बढ़ता है वनस्पति भी बढ़ती है वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है मनुष्य चैतन्ययुक्त है मनुष्य छिन्न होने पर क्लान्त होता है। वनस्पति भी छिन्न होने पर क्लान्त होती हैं। मनुष्य आहार करता है मनुष्य अनित्य है। वनस्पति भी आहार करती है। वनस्पति भी अनित्य है। वनस्पति भी अशाश्वत हैं । मनुष्य अशाश्वत है। मनुष्य उपचित और अपचित होता है। वनस्पति भी उपचित और अपचित होती हैं। मनुष्य विविध अवस्थाओं को प्राप्त हैं । वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है । - मनुष्य मनुष्य जन्मता है इस तुलनात्मक सारणी का अर्थ स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है कि वनस्पति दूसरे जीवों की अपेक्षा मनुष्य के अधिक समीप हैं । वनस्पतियाँ जीवन - दायिनी हैं, उन पर मनुष्य की अधिकांश आवश्यकताएं निर्भर करती हैं, अतः मनुष्य के मानस में यह विचार पुष्पित- पल्लवित होना चाहिये कि यह हमारा उपकार करने वाला जगत है । यदि कोई क्रूरता, अनायास या सायास हो जाय तो इनसे क्षमा मांगना मनुष्य का दायित्व है । वनस्पति जगत के प्रति करुणा, सहयोग, सहृदयता, कृतज्ञता और क्षमायाचना का भाव हमारे मन में होना चाहिए। पेड़ों के काटने का मतलब है हिंसा और अपने सहयोगी का तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 Jain Education International + For Private & Personal Use Only 99 www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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