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________________ . विनाश। वनस्पति और मनुष्य दोनों के अस्तित्व परस्पर जुड़े हैं, उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने अपने चिन्तन के निष्कर्ष का सूत्र प्रतिपादित किया है - ''मैं अकेला नहीं हूँ, वृक्षों के साथ जी रहा हूं।" इसके अतिरिक्त आचार्यश्री आचारांग के सूत्रों का भी स्मरण कराते हैं-''कोई साधक स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है या दूसरों से कराता है या करने की अनुमति अनुमोदित करता है, वह हिंसा उसके स्वयं के लिये अहितकर होती है। आपने महावीर की इस क्रान्तदृष्टि को युगीन संदर्भ दिया है और एक नया अर्थ-बोध भी दिया है।" पृथ्वी से प्रेमः पृथ्वीकाय का रक्षण ___ आचारांग के सूत्रों की व्याख्या करते हुए आचार्य श्री ने रेखांकित किया है कि मेधावी पुरुष हिंसा के परिणामों का परिज्ञान करते हुए स्वयं पृथ्वी शस्त्र का समारंभ न करें, दूसरों से उनका समारंभ न कराएं और उसका समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करें। यह भी आग्रह किया गया है कि नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रियाओं में व्याप्त होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करने वाला व्यक्ति नाना प्रकार के अन्य जीवों की हिंसा करता है। आज खनिजों के लिये पृथ्वी का बहत ज्यादा दोहन किया जा रहा है। इन प्रवृत्तियों से मात्र पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा नहीं हो रही है प्रत्युत् वातावरण के अन्य घटकों का असंतुलन भी पैदा हो रहा है और भूकम्प जैसी अप्रत्याशित आपदाएं हमें संकटग्रस्त कर रही हैं। आप महावीर की वाणी को जन-जन तक पहुंचाते हुए कहते हैं-सर्व सर्वेण सम्बद्धम् अर्थात् सब एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। विश्व में जो कुछ है उसे उसी तरह रहने देना, उसके साथ छेड़छाड़ नहीं करना व्यावहारिक धरातल पर अहिंसक प्रयोग है जिसकी आज नितान्त आवश्यकता विकास का सीमांकन विकास मानव का स्वभाव है और वह अनवरत रूप से चल रहा है। विकास का मानवीय चेहरा और पर्यावरण, दो तटबन्ध हैं, जो टूट गये हैं। आर्थिक महत्वाकांक्षा ने मानवीय मूल्यों और पर्यावरण दोनों की ही उपेक्षा की है। विकास की प्रक्रिया की मूल आधार बनी है गति । इस गतिशीलता ने विकास और निर्माण की गति को आगे बढ़ाया है और आदमी ने अपनी कृत्रिम आवश्यकताओं का एक विशाल संसार रच डाला है। आचार्यश्री ने इस समस्या के समाधान के लिये जो मार्ग सुझाया है, वह स्वयं में अद्भुत है, अचूक है। यह है सीमाकरण' का विधान | कोई भी पदार्थ असीमित नहीं, इसलिये उनका सीमित उपयोग/उपभोग आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य भी है। उपभोग का संयम यह सूत्र जितना धर्मशास्त्रों का है, उससे कहीं अधिक पर्यावरण शास्त्र का है, जिसके लिये आख्यायित किया गया है भोगोपभोग के संयम का व्रत उपभोग के संयम द्वारा एक संतुलित जीवनशैली जिसका दार्शनिक आधार है अणुव्रत का चिन्तन । 100 AIIIIIIII W तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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