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प्रतिकूल चलने का एक महान् उपक्रम है। आचार्य महाप्रज्ञ अपने प्रवचनों में अनेक बार प्रतिस्रोतगमन के लिये लोगों को तैयार होने का उद्बोधन दे चुके हैं। परन्तु उनके प्रति संपूर्ण श्रद्धा रखते हुए भी मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था को, जो निश्चय ही बाजार की माँगों की पूर्ति के लिये मनुष्य को गढ़ने में लगी है, बिना बदले क्या हम अपने उन मूल्यों को प्रतिष्ठित कर सकते हैं जो इसे किसी भी हालत में रास नहीं आते। जैसे सादा जीवन-पद्धति की प्रतिष्ठा वाले मूल्य को ही ले लें। यह कम से कम उपभोग के लिये मनुष्य को तैयार रहने की बात कहता है जबकि प्रचलित विकास का सिद्धान्त अधिक इच्छा, आवश्यकता एवं अधिक उपभोग पर जोर देता है। इसी तरह तनाव से मुक्ति की बात को लें, जहां जीवित रहने के लिये किये जाने वाले संघर्ष को इतना तीखा और स्पर्धा को इतना तेज व हिंसक बना दिया जाय वहाँ नशीली दवाओं या यौगिक क्रियाओं से अल्पकालिक राहत तो मिल सकती है, स्थायी शान्ति मिलना बहुत मुश्किल है।
इसलिये मेरा मानना है कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में कुछ संशोधन, संवर्धन कर कुछ मूल्यों को टाँक देने से कतई काम चलने वाला नहीं है। इसकी बजाय अच्छा यह होगा कि हम ऐसे मूल्यों पर आधारित अपनी शिक्षा पद्धति का निर्माण करें जो मनुष्य को न केवल आध्यात्मिक, मानसिक व शारीरिक रूप से उदात्त बनाये बल्कि पश्चिमी विकास की उस अवधारणा पर मरणान्तक प्रहार करे जो बाजारी शक्तियों के सामने मनुष्य को आत्मसमर्पण कर देने के लिए विवश करती है। कहना न होगा कि इसके लिए बहुत बड़ी संकल्पित मानव श्रृंखला की आवश्यकता होगी। अणुव्रतियों का जो एक विशाल जन समुदाय देश में फैला है, आचार्य महाप्रज्ञ के नेतृत्व में इस मुहिम को चलाने की शुरूआत कर सकता है। देश की 80 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या उनका साथ देगी, क्योंकि इस वैश्विक अर्थव्यवस्था से फायदा उठाने वाले लोगों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है, बाकी सब इससे पीड़ित ही हैं।
परन्तु यदि इतना विशाल व व्यापक अभियान छेड़ने की स्थिति में हम न हों तो कुछ भी न करने अथवा गलत काम होते देखते रहने से अच्छा यह है कि कुछ न कुछ अथवा जितना संभव है उतना तो हमें करना ही चाहिये। उस स्थिति में इस कार्यशाला की उपादेयता निर्विवाद है। आचार्यश्री बार-बार इस बात को दोहराते हैं कि जब वातावरण में हिंसा, वासना, अनाचार और उत्पीड़न बढ़ता है तभी अहिंसा, संयम, नैतिकता और पर दुःख - कातरता की आवश्यक अधिक अनुभव होती है। इसलिए शिक्षा में बढ़ती अनुशासनहीनता और घटती गुणवत्ता के दौर
मूल्यों का अधिकाधिक उपयोगी हो जाना सहज स्वाभाविक है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि इन मूल्यों के व्यक्ति में पनपने से न केवल उस व्यक्ति में ही सुधारात्मक परिवर्तन आयेगा बल्कि उसके परिवार के सदस्य बन्धु, बान्धव एवं मित्र मण्डल भी प्रभावित होंगे । देश और समाज को सुधारने का एक तरीका व्यक्ति के सुधार से ही शुरू होता है । जीवन विज्ञान की शिक्षा व्यक्ति के माध्यम से समाज को, देश को सुधारने की ओर एक कदम है । इसमें इतिहास, भूगोल, संस्कृति, साहित्य, कला के साथ-साथ अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, नीति शास्त्र, शरीर विज्ञान व मनोविज्ञान आदि ज्ञान के सभी क्षेत्रों से कुछ न कुछ लिया गया है और फिर इसे इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिससे शिक्षार्थी जानकारी
तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001
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