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अप्रमाद का अनुभव नव्य, अंतश्चेतन कितना भव्य ! इन्द्रिय गण का प्रत्याहार, दृष्ट हुआ अभिनव संसार । क्रोध ! बंधुवर ! सुन लो मान ! खोजो अपना-अपना स्थान, माये ! देवि ! सुनो आह्वान, कृपया शीघ्र करो प्रस्थान। मित्र! लोभ ! जो आस्पद काम्य, वही बने सहसा विश्राम्य, त्यागो तुम सब मेरा साथ, स्वीकृति में उठ जाये हाथ । क्रोध मौन हो गया अरूप, अहंकार ने बदला रूप, माया का अस्तित्व विलीन, फिर भी लोभ रहा आसीन। देखा कोई मित्र न अत्र, चले गए हैं सभी परत्र, नहीं अकेले में उत्साह, पकड़ी उसने उनकी राह । सेनानायक मोह कराल, सारा उसका मायाजाल, शेष हो गया अंतर्द्वन्द्व, अंतर्जगत हुआ निर्द्वन्द्व । वीतराग चैतन्य विकास, दिग-दिगंत में पूर्ण प्रकाश, निस्तरंग अधुना जलराशि, कमल विकस्वर सूर्यविकासि । आवरणों का विलय अशेष, अंतराय का रहा न लेश, सकल स्रोत हुआ चित्-स्रोत, कण-कण से निकला प्रद्योत। रश्मिजाल की ज्योति प्रचंड, खंड हो गया आज अखंड, ज्ञेय हआ जो था अज्ञेय, मूर्त-अमूर्त सकल विज्ञेय।
करामलवकत् सब प्रत्यक्ष, द्रव्य और पर्याय वलक्ष, शब्द-अर्थ-संबंध-विलोप, रहा नहीं कोई आरोप।
___ सर्ग 8, पृ. 141-144 दूसरी ओर प्रभु की केवलज्ञान उपलब्धि से अनभिज्ञ माँ मरुदेवा के चिन्ताकुल मन में अतीत की स्मृतियाँ उभर रही थी। सूर्य की प्रथम रश्मि के साथ राजा भरत पद-वंदन हेतु माँ मरुदेवा के सम्मुख आये | पूछा–माते! आप उदास क्यों हैं? रुक्ष स्वर में उपालम्भ देती हुई मरुदेवा बोली-तुम वैभव के मद से विमूर्च्छित हो । माँ की मनोदशा नहीं समझोगे। तुम्हारे पिता कहां हैं? कैसे हैं? उनके सुख-दुःख की खबर तुमने कभी ली? किस तरह अपनी ममता का रस घोल कर मैं उसे अपने हाथ से भोजन कराती थी और किस तरह तब प्रकृति का पवन
और मेरे पंख का पवन दोनों मिलकर उसके मन को सहलाया करते थे। हाथी पर आरोहण करने वाला आज वह बिना पत्राण, अकेला तपते प्रस्तर खण्डों के बीच विचर रहा है। 76 AININNI
II तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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