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________________ का आग्रह करते। स्निग्ध, मधु भोजन और जल भरे पात्रों की भी कमी नहीं थी पर मुनिधर्मोचित भोजन उपलब्ध नहीं हुआ। ऋषभ विहार करते-करते हस्तिनापुर पहुंचे। एषणायुत दान की विधि वहाँ भी कोई नहीं जानता था। पितामह के पदार्पण की बात सुनकर पौत्र श्रेयांस रोमाञ्चित हो उठा। पुलकितमना वह परिवार को लेकर प्रभु की सन्निधि में पहुंचा । श्रद्धा से शीश झुकाया। फिर दृष्टि प्रभु के चेहरे पर ठहर गई नयन सुस्थिर, पलक ने अनिमेष दीक्षा व्रत लिया, मुक्तिदाता की शरण में, क्यों निमीलन की क्रिया ? देखता अपलक रहा, पल-पल अमृत आस्वाद है, रूप ऐसा दृष्ट मुझको, आ रहा फिर याद है। तर्क और वितर्क कर, मन से परे वह हो गया, अचल निर्मल चेतना के, गहन पथ में खो गया। स्मृति उतर आई अमित, आलोकमय दिग्गज हआ, जन्म का संज्ञान पाकर, शरद का नीरज हुआ। सर्ग 6, पृ. 129 श्रेयांस को पूर्वजन्म की स्मृति हो आई। ऋषभ तब चक्रवर्ती राजा थे और वह उनका सारथी। उस समय ऋषभ के पिता तीर्थंकर थे। उनकी उपनिषद में श्रेयांस ने मुनिवर्य-चर्या का सुनिष्ठा से पालन किया था। जातिस्मरण ज्ञान के इन क्षणों में इक्षुरस से भरे घट लोग उपहार स्वरूप लेकर आये। श्रेयांस ने इस निरवद्य पेय को भगवान से ग्रहण करने की प्रार्थना की। भगवान ने श्रद्धाभावित उस रस-दान को श्रेयांस के हाथ से अपने कर-पात्र में लिया। अक्षय-तृतीया का वह दिन इस तरह तप-पारायण का महापर्व बना । श्रेयांस ने पूर्व रात्रि में श्यामल स्वर्णगिरि के पयस से अभिषेक करने का स्वप्न देखा था। वह सच हुआ। प्रभु का शरीर भी अब तप से श्यामल हो चला था। ऋषभ पद-विहार करते हए बहली देश आये। तक्षशिला नगरी के उद्यान में रात्रिप्रवास के बाद अजस्र विहार करते हुये उनका अयोध्या में आगमन हुआ। 'चैत्य वृक्ष तट तरु कमनीय, शाखा पल्लव अति रमणीय । छाया में प्रभु को स्थित देख, लिखा प्रकृति ने नव अभिलेख ।' नव अभिलेख ! तरु-मन की चैतन्यता और मनुष्य-मन की चैतन्यता दोनों मिले। सुतरु ऋषभ के लिए बोधि-उदय में निमित्त बना- निर्मल लेश्या, निर्मल चित्त ! ज्ञानसूर्य का अमल प्रकाश और आत्मा में चैतन्य निवास-वट-वृक्ष के नीचे तीन दिन के उपवास के साथ प्रभु श्रेणी-आरोहण की साधना में लीन हये तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 20017 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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