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________________ क्षणोपरान्त मरुदेवा आत्मस्थ हुई। मन में क्षोभ के भाव उभरे। बोली- नहीं भरत, तुम्हारा कोई दोष नहीं । निठुर ऋषभ ने भी तो कभी याद नहीं किया। एक बार कभी छोटा-सा संवाद ही भेज देता । माँ के पोषण को विस्मृत कर, पंख उगते ही हंस-शिशु उड़ जाता है । मरुदेवा की आँखें सजल हो आईं। मगर ऋषभ उड़े नहीं थे, उन्होंने उड़ान भरी थी एक नये क्षितिज को छूने के लिये और माँ मरुदेवा की चिन्ता उन्हें भी उसी ओर ले जाने की भूमिका मात्र थी । महामाता से आशीष प्राप्त कर भरत अपने प्रासाद में आये । अनुत्तर दो कर्णप्रिय संवाद मिले । उद्यान-पालक यमक ने सूचना दी कि पुरिमताल के सकटानन में प्रभुवर ऋषभ पधारे हैं। देवों ने स्वर्ग से उतर कर समवसरण की अद्भुत रचना की है। दूसरी दिशा से प्रहरी शमन ने आकर बतलाया कि आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है और आयुधशाला दमक उठी है। राजा भरत अतिशय आनन्द और गौरवमय उल्लास के झूले में झूलने लगे । उसी समय पनिहारिन ने माता मरुदेवा को हर्ष और आश्चर्य मिश्रित स्वर में बताया कि भगवान ऋषभ के आगमन से आकाश अचानक आभामय हो चला है और सारे उद्यान हरे भरे हो गये हैं। माता मरुदेवा के नयन-कमलों में अपने पुत्र को देखने के लिये नव-उन्मेष जगा । तत्काल सारा क्लेश विदा हो गया । ऋषभ आ गया, ऋषभ आ गया, हर्षोत्फुल्ल माँ के अन्तर्मानस में उस क्षण केवल एक ही स्वर मुखरित था । क्षण प्रकृति की विलक्षणतम कृति है। अगला क्षण जिस सहजता से इस क्षण को अतीत में भेज देता है, उसी सहजता से वह अतीत को अपने चित्रपट पर सजीव कर देता है। एक क्षण यह, एक क्षण वह दोनों कितने विलग हैं उत्सुकता का एक-एक क्षण, वर्ष-वर्ष से अधिक प्रलंब, है अनुभव सापेक्ष सत्य यह, वही त्वरित है, वही विलंब । दर्शन की उत्कट अभिलाषा, स्मृति का चित्र अधूरा है, भूत बदलता वर्तमान में, तब बनता वह पूरा है। सर्ग 9, पृ. 152-153 राजा भरत प्रभु-दर्शन हेतु माता मरुदेवा को लेने आये । दृष्ट ने मरुदेवा को सीढ़ियों से उतरते देखा। मगर अदृष्ट ने उस घड़ी उन्हें उर्ध्वारोहण के पथ पर अग्रसर होते देखा। दृष्ट पर अदृष्ट के निबन्ध की कोई लिपि नहीं होती । वह सदा अगम्य रहता है । अवरोहण में आरोहणका क्षण ही अगोचर होता है। इन दुर्लभ क्षणों को कोई अनुवाद अभिव्यक्ति नहीं दे पाता । रत्न-विजड़ित शब्दों की आभा सुरक्षित भी मूल में ही रहती है— Jain Education International हर सीढ़ी के अवरोहण के साथ हर्ष का आरोहण, अवरोहण में आरोहण का, होता कोई-कोई क्षण | तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 A For Private & Personal Use Only 77 www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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