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समवसरण के सम्मुख आए, बोला प्रांजलि भरत विनम्र, मां! देखो वह ऋषभ विराजित, विश्वश्री राजित कर कम्र। देखा मां ने विभु का वैभव, विस्मय का घन सघन हआ, स्वयं अकिंचन कांचन पीछे, लगता जैसे मगन हुआ। टूट गई अब भित्ति भ्रांति की, जो विकल्पना निर्मित थी, कष्ट-चित्र अंकित थे जिस पर, संशय लय को अर्पित थी। कैसी उज्ज्वल मुख की आभा ! कैसा है सिन्दूरी वर्ण ! दमक रहा है, चमक रहा है, हर शाखा का कोमल पर्ण । इतने दिन मैंने ढोया, अर्थहीन चिन्ता का भार, आकृति बोल रही है, दीक्षा कष्ट नहीं, मधुमय उपहार। हंत !मोहमय चिंतन मेरा, यह निर्मोह विरत आत्मज्ञ, वीतरागता में मन तन्मय, सदा सफल होता मंत्रज्ञ। तन्मयता से मिट जाता है, ध्येय और ध्याता का भेद, साध लिया पल में माता ने, चिन्मय से अनुभूति-अभेद । मरुदेवा ! तू जाग जाग री ! रही सुप्त तू काल अनंत, नींद गहनतम, गहरी मूर्छा, आओ पहली बार वसंत ! संबोधन निज को उदबोधन, अपना दर्पण अपना बिम्ब । माया का दर्शन विस्मयकर, नभ में रवि, जल में प्रतिबिम्ब। त्वरा त्वरा से चरण बढ़ाए, क्षपक श्रेणी का वरण किया, वीतराग बन बनी केवली, आत्मा का आभरण लिया। वपु ! अब तक तुम साथ रहे हो, गति वल्गन धावन संयुक्त, वाणी ! मन ! तुम दूर रहे हो, ध्वनि चिन्तन से सदा विमुक्त। वाणी का पहला स्पर्शन है, पहला दर्शन है मन का, मां बन पाई आदिनाथ की, योग मिला मानव तन का। लेती हूँ मैं आज विदाई, दाएं-बाएं अब न रहो, मन ! बोलो, बोलो तुम वाणी ! चिर-साथी तन ! इसे सहो।
IMALINI
TIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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