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अप्रकम्प अवस्था में मां, बंध- जाल से हुई विमुक्त, अब न बनेगी मकड़ी जाला, निज सत्ता में नियत नियुक्त |
कहा ऋषभ ने मां मरुदेवा, 'सिद्धा सिद्धा', यह सिद्धि क्षण, संप्रदाय से मुक्त धर्म की, भाषा से आभाषित कण-कण । सर्ग 9, पृ. 154-156
हाथी पर आसीन अवस्था में ही मरुदेवा ने सिद्धि प्राप्त कर ली । मरुदेवा की देहयष्टि कर सब प्रभु की सन्निधि में पहुँचे । प्रभु की अन्तरवाणी प्रस्फुटित हुई और अध्यात्म के क्षितिज पर सबने अभिनव ज्ञान - रश्मियों की अनूठी लालिमा-देखी
देह और विदेह तत्व दो, नश्वर देह अनंत विदेह, देह जनमता, मरता है वह, अमृत अजन्मा सदा विदेह ।
सुनो सुनो तुम कान ! सजग हो, निर्झर का नूतन संदेश, छिपा हुआ है अपना आश्रय, आकर्षित कर रहा विदेश ।
आत्मा सत्यं शिवं सुंदरं, आत्मा मंगलमय अभिधान, उपादान है परमात्मा का, संयम है उसका अवदान ।
सूक्ष्म तत्व है, इसीलिए वह कहीं गम्य है, कहीं अगम्य, किन्तु चेतना सर्वविदित है, सहज रम्य प्रति व्यक्ति प्रणम्य ।
पांच इन्द्रियां, पांच विषय हैं, मूर्तिमान यह विश्व वितान, अमूर्त यह चेतन आत्मा, करना उसका अनुसंधान । महासिंधु की सलिल राशि में, उठती- गिरती सहज तरंग, पुनर्जन्म के नियति-चक्र में, आत्मा के नानाविध रंग । तैल खींचती रहती बाती, आकर्षण का सूत्र महान, हर प्रवृत्ति आकर्षित करती, पुद्गल बनता कर्म-विधान ! कर्म, क्रिया का, पुनर्जन्म का, आत्मा से संबंध विशेष, इन चारों पर आधारित हो, मानव का आचार अशेष ।
मानवीय आचार-संहिता का आधार अंहिसा है, शांति भंग, दुःख-बीज वपन कर, हंसने वाली हिंसा है।
सजल जलद की जलधारा से, स्नात हुए सारे निष्णात, दूर अमा की सघन तमिस्रा, हुआ प्रभास्वर प्रवर प्रभात ।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001
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सर्ग 9, पृ. 157-159
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