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सोमदेव, अमितगति आदि श्रेष्ठ आचार्यों द्वारा श्रावकाचार के सन्दर्भ में प्रभत सामग्री लिखी गई है। परन्तु आचार्यों की यह परम्परा वहीं नहीं समाप्त हो जाती। वह परम्परा तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु (18वीं शती ई.) तक आती है। आचार्य भिक्षु ने बारह व्रत की चौपाई शीर्षक से श्रावकाचार प्रतिपादक ग्रंथ लिखा । श्रावकाचार-प्रतिपादन की चरम परिणति मिलती है आचार्य तुलसी-प्रणीत श्रावक सम्बोध में जिसकी रचना 20वीं शती में हुई है।
___भारतीय धर्म, संस्कृति एवं साहित्य के इतिहास में गुरु एवं शिष्य के अनेक ऐसे युग्म हुए हैं जिन्होंने समन्वित रूप से महान् लोकोपकार के कार्य किये। वैशम्पायन-याज्ञवल्क्य, कुमारिलभट्ट, प्रभाकर, अभिनवगुप्त- क्षेमेन्द्र, हेमचन्द्र-रामचन्द्र, रामकृष्ण परमहंसविवेकानन्द आदि युग्म उस परम्परा के पावन प्रतीक हैं। तेरापंथ के नवम एवं दशम आचार्य, आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ इस गुरुशिष्य परम्परा की नवीनतम कड़ी है जिन्होंने अपने अणुव्रत आन्दोलन द्वारा राष्ट्र कल्याण एवं विश्वशांति की स्थापना की दिशा में विलक्षण योगदान दिया है। इतना ही नहीं, भारतीय समाज में भी अपनी संशोधित एवं नवीकृत श्रावकाचार-पद्धति द्वारा एक अद्भुत आकर्षण पैदा कर दिया है-इच्छारहित सरल-जीवन व्यतीत करने के लिये।
आचार्य महाप्रज्ञ अपने गुरु आचार्य तुलसी की आध्यात्मिक चेतना, अन्तः प्रज्ञा एवं कवित्वप्रतिभा के सुयोग्य उत्तराधिकारी तो हैं ही, वह मौलिक चिन्तन एवं क्रान्तदृष्टि के भी धनी हैं। यही कारण है कि आचार्य तुलसी द्वारा प्रवर्तित अणुव्रत आन्दोलन आज प्रगतिपथ पर आरूढ़ है। अणुव्रत के विषय में कुछ कहने से पूर्व उसकी पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है।
वस्तुतः भगवान् महावीर से पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ ने चतुर्याम धर्म का प्रवचन किया था। यही धर्म साधुओं एवं गृहस्थों दोनों को मान्य था । इस धर्म की पूर्ण अर्थात् सांगोपांग आराधना करने वालों में साधु एवं साध्वियों थीं जबकि इसके अंशाराधक श्रावक एवं श्राविकायें थी। कालान्तर में भगवान् महावीर ने साधुओं एवं गृहस्थों के लिये पृथक् धर्मों की स्थापना की।
एक बार भगवान् महावीर अस्थिक ग्राम के यक्ष-मन्दिर में रुके। रात में उन्होंने दस महास्वप्न देखे जिनमें चतुर्थ स्वप्न था-दो रत्न मालायें। प्रातः जब उन्होंने जनसमूह के समक्ष स्वप्नों का विवरण प्रस्तुत किया तो भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी उत्पल ने प्रश्न किया दो रत्नमालाओं के रहस्य के विषय में। भगवान् महावीर ने उन्हीं दो रत्नमालाओं का रहस्य विशद करते हुए बताया कि वे द्विविध धर्म की प्रतीक हैं-आगारिक तथा अनागारिक । तभी से भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिष्ठापित चतुर्याम धर्म के स्थान पर आगारिक एवं अनागारिक धर्म का प्रचलन हुआ।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AT
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