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जीव होने पर शंका है कि चूल्हे में जो भी डाला जाए वह भस्म हो जाता है, इस दृष्टि से चूल्हे को वधस्थल कहा गया है या यहां अग्नि निरन्तर प्रज्ज्वलित होते रहने के कारण वधस्थल कहा गया है। यदि प्रथम दृष्टि है तो वहां अग्नि के जीव होने पर शंका है जबकि दूसरी दृष्टि होने पर अग्नि को जीव मानकर उसकी निरन्तर हिंसा होने के कारण वह वधस्थल है।
नित्यकर्म या जीविकोपार्जन हेतु जीवों को पकड़ना या उनकी हत्या को हिंसा के अन्तर्गत समाहित करना हिंसा की सूक्ष्मदृष्टि है। इसे लौकिक हिंसा मानकर अहिंसा के रूप में इसकी स्वीकृति ऋषि पराशर ने नहीं दी है। स्मृति में यह स्पष्टतः कहा गया है-जाल बिछाकर जीवों को पकड़ने वाला मछेरा, बहेलिया, चिड़ीमार और कुछ न देने वाला किसान, ये पांचों समान पाप के भागी हैं। वृक्षों को काटने वाला, भूमि का भेदन कर और पशुओं एवं कीड़ों को मारकर किसान द्वारा भूमि का जोते जाना हिंसा के अन्तर्गत समाहित है। वृक्षों की कटाई और पशुओं और कीड़ों की भूमि जोते जाने के दौरान हिंसा तो स्पष्टतः हिंसा है ही किन्तु विचारणीय यह है कि ऋषि ने भूमि के भेदन को भी हिंसा क्यों माना है? निश्चय ही सर्वज्ञानी ऋषि मिट्टी को भी जीव मानते हैं जो जैनों के समकक्ष है। प्रो. सी.एल. वकील ने अपनी पुस्तक इकोनॉमिक्स ऑफकाउ प्रोटेक्शन में कहा है--- हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मिट्टी, वनस्पति, पशु और मानव का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। जिस प्रकार मानव में जीवन है, पशु और वृक्ष आदि सजीव है, उसी प्रकार मिट्टी भी सजीव हैं। कोट्याकोटी अतिसूक्ष्म आर्गनिज्म मिट्टी में सदा क्रियारत रहते हैं।
ऋषि ने कई कर्मों एवं व्यवसायों को निषिद्ध माना है। इसका आधार भी यह है कि इन कर्मों को करने से अथवा ऐसे व्यवसाय करने से हिंसा अधिक होती है जैसे तिल और रस को विक्रय योग्य नहीं माना है। लवण, मधु, तेल, दही और घृत आदि के विक्रय का सीमित प्रावधान रखा गया है। सम्भवतः इसका आधार यह रहा है कि तेल एवं अन्य रस प्राप्त करने में अधिक हिंसा के साथ अधिक क्रूरता का भाव भी निहित होता है। मद्य और मांस के विक्रय को भी प्रतिबन्धित किया गया है। क्योंकि ये दोनों ही हिंसा के जनक हैं। किसी भी कर्म अथवा व्यवसाय द्वारा प्रकृति, पशु अथवा वनस्पति के सम्पूर्ण दोहन को निषिद्ध करते हए कहा गया है बाग में माली की तरह एक-एक पुष्प को चुनें, कोयला बनाने वाले की तरह उसका मूलोच्छेद न करें।
ऋषि ने अति भारारोपण अथवा अति उपयोग द्वारा पशुओं के शोषण को हिंसाजन्य कहकर उसे निषिद्ध किया है। उन्होंने अशक्य, निर्बल पशुओं के उपयोग को भी निषिद्ध किया है। स्मृति में कहा गया है कि भूखे, प्यासे और थके हुए बैल को न जोतें। विकलांग, रोगी और नपुसंक बैल से न हल चलाए, न गाड़ी में जोतें।' उन्होंने पुष्ट, स्वस्थ एवं दृढ़ अंगों वाले बैल को भी आधे दिन तक ही चलाने का निर्देश किया है। दो बैलों वाले हल को दिन के चौथाई भाग, चार बैलों वाले हल को दोपहर तक, छः बैलों वाले हल को तीन प्रहर तक एवं 92 AMITING
INITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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