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________________ आठ बैलों वाले हल को सारा दिन चलाए जाने का निर्देश इस बात का द्योतक है कि पशुओं का शोषण पापकृत्य है। ऋषि ने दुर्बल एवं अशक्य बच्चों और बूढ़ों पर अनुग्रह रखने का स्पष्ट निर्देश दिया है। यद्यपि मोह अथवा लोभ के कारण, भय के कारण बिना सोचे-समझे अनुग्रह करने पर पाप का भागी कहा गया है। गाय को पशुओं का प्रतिनिधि मानते हुए यह कहा गया है-गर्मी, वर्षा, सर्दी अथवा तूफान में अपनी सामर्थ्य के अनुसार जब तक गाय का बचाव न कर दिया जाये, स्वयं का बचाव न करें। बछड़े द्वारा गाय का दूध पीते हुए किसी को न बताएं। गाय के जल पी लेने पर स्वयं जल पीएं तथा उनके विश्राम कर लेने पर स्वयं विश्राम करें। गाय की रक्षार्थ जो अपने प्राणों का त्याग करता है, जघन्यतम पापों से मुक्त हो जाता है। यद्यपि यहां गौ-रक्षार्थ उपयुक्त बातें कही गई हैं किन्तु आधुनिक काल में विचार करने पर यह कहना तर्कसंगत होगा कि पशुरक्षा हमारे अस्तित्व की रक्षा के लिए आवश्यक है। हमें अपने प्राणों की कीमत पर भी पशुओं की रक्षा करनी चाहिए | गाय की हत्या के साथसाथ उसको किसी भी तरह से प्रताड़ित करना, उसे अन्न-पानी न देना निकृष्ट पाप माना गया है। उचित मात्रा से अधिक गाय का दोहन, उचित मात्रा से अधिक बैल का हल और गाड़ी चलाने में उपयोग, उसके नासिका भेदन अथवा उसके स्वभाव के विपरीत नदी और पर्वतों में उपयोग को निषिद्ध किया गया है। रोधन, बन्धन, भार तथा प्रहार, दुर्गम स्थानों में हांकना और जोतना पशुओं के वध के छह निमित्त स्मृतिकार ने बताए हैं। ऐसे किसी कृत्य से पशु की मृत्यु को निकृष्ट माना गया है। पशु-वध के निमित्त पशु धन को बेचने वाला भी पाप को प्राप्त होता है। यहां यह द्रष्टव्य है कि चिकित्सा के लिए उन पर की जा रही शल्य क्रिया के दौरान अथवा मरे हुए गर्भ को निकालने के लिए गाय जकड़ने के दौरान अथवा सम्यक उपचार के दौरान पशु की मृत्यु पापकृत्य नहीं है। आध्यात्मिक पुरुष हिंसा से सर्वथा उपरत रहने का प्रयास करते हैं। ब्राह्मण जो कि अध्यात्म विद्या के संवाहक थे, इसलिए ऋषि ने उनके लिए कृषि आदि के द्वारा आरम्भसमारम्भ का निषेध किया। अहिंसा के लिए संविभाग को आवश्यक माना गया है। ऋषि ने उत्पादन के पश्चात उसके संविभाग की व्यवस्था कर आर्थिक समानता पर बल दिया है क्योंकि आर्थिक विषमता हिंसा की जनक है। अहिंसा की प्रतिष्ठा श्रम की भूमि पर ही हो सकती है। ऋषि ने स्वयं के श्रम से उत्पन्न हुए अनाज के द्वारा ही महायज्ञों का विधान कर श्रम की प्रतिष्ठा की है।" प्राणी हत्या के प्रायश्चित्त का वर्णन, जिसे मनुस्मृति में छोड़ दिया गया है, पाराशर स्मृति में किया गया है। यहां उपयोगिता और अपवाद के आधार पर पशु हत्या के पश्चात् प्रायश्चित्त का वर्णन है। अनजाने में हुई हत्या और जानबूझकर की गयी हत्या में अन्तर करते हुए उनके प्रायश्चित्त में भी अन्तर किया गया है। मनुष्य आदि की हत्या को भी प्रतिबन्धित करते हए उनके प्रायश्चित्त का विधान पाराशर स्मृति में किया गया है। यहां प्रायश्चित्त व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था स्पष्टतः हावी रही है। आत्म हत्या को भी तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AMITAMINS 93 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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