SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पय में घृत की, सहज अस्मिता, मंथन से नवनीत निकलता । व्यंजन द्वय, सापेक्ष अकेला अभिव्यंजन के लिए मचलता ॥ एक तट पर अर्थ और दर्शन भी एकाकार हो जाते हैं। अर्थ में तब स्वतः ही दर्शन समा जाता है और दर्शन में सहज ही अर्थ प्रतिबिम्बित होने लगता है। इस रमणीक तट की नीरवता में बैठ कर जो लिखा जाता है, वह अन्तःस्थल की अतल गहराइयों से निकलता है और केवल स्वान्तः सुखाय होता है। ऋषभायण का प्रणयन भी मेरे मन में कोई संशय नहीं, स्वान्तः सुखाय हुआ है। अर्थ-विजड़ित, दर्शन - अनुप्राणित ऐसी अनन्य कृति किसी और पीठिका पर नहीं रची जा सकती । मैंने जब इस महाकाव्य को पढ़ना शुरू किया तब संभवतः मेरे मन में एक-दो बार इसकी समीक्षा लिखने के भाव उठे हों। मगर मेरे पठन ने जब अनजाने ही पारायण की सीमा में प्रवेश किया तब अचानक मुझे आभास हुआ कि इस ग्रन्थ में मेरी निमग्नता नितान्त स्वान्तः सुखाय है, अन्य किसी उद्देश्य से प्रेरित नहीं । स्वान्तः सुखाय कृति का स्वान्तः सुखाय पठन मेरे लिये तृप्ति के विरल पल रहे । सच तो यह है कि ऋषभायण के स्वरों ने मुझे इहलोक और परलोक दोनों के सुख की अनुभूति दी है। इसकी अन्तर्लय केवल अनुभूतिगम्य ही है। मगर - " अनुभव को उपलब्ध न वाणी, वाणी अनुभव - शून्य सदा । कैसे व्यक्त करूं अनुभव को, यह क्षण आता यदा कदा ।" अनुभूति अभिव्यक्ति चाहे और शब्द न मिले। मैं इस विकट स्थिति में रहा । मुझे कामायनी की एक पंक्ति याद आई - "मनु ! अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।" मेरा विकल मन शान्त हुआ। तो इस घड़ी जो मैं आपके साथ हूँ, अपनी सुखानुभूति को विस्तृत करने की इच्छा से अभिप्रेरित होकर ही । मूल है, शब्द अनुवाद । अर्थ सागर है, शब्द गागर । शब्दों का संसार सीमित है, अर्थ का असीमित | अर्थ को शब्द देने की कला सब नहीं जान पाते । मैं तो नहीं ही जानता । 1 केवल इतना जानता हूं कि आगामी पृष्ठों में, जो ऋषभायण की लघु-छाया रूप है, शब्द जो भी हों, आप उनमें वे अर्थ ढूंढ़ लेंगे, जो मनुष्य जीवन को अर्थ देते हैं और ऋषभायण का ह पृष्ठ जिनसे भीगा है । यह भी जानता हूं कि तब आप स्वयं को उस रम्य तट पर अनुभव करेंगे जहाँ अर्थ और दर्शन एकाकार होते हैं। " दिन में तारे छिप जाते हैं, तम में हो जाते ज्योतिर्मय । अग्नि अरणि में विद्यमान पर घर्षण-शून्य न होती तन्मय ॥" पृष्ठ 14 तुलसी प्रज्ञा जनवरी – जून, 2001 । Jain Education International * * * For Private & Personal Use Only 69 www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy