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शिक्षा में मूल्यों की प्रतिष्ठा
-सुरेश पंडित
उच्चतर शिक्षा में मूल्यों के संकट और उनके पुनः प्रत्यारोपण के संबंध में विचार करने से पहले हमें शिक्षा से जोड़ दिये गये कतिपय मिथकों, भ्रामक तथ्यों की सही जानकारी पा लेना और उनके बारे में समझ को साफ कर लेना जरूरी है, क्योंकि दृष्टि दोषों को सुधारे बिना न तो हम सार्थक बहस कर सकते हैं और न ही किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। शिक्षा के साथ उच्चतर या निम्नतर जैसे विशेषणों के प्रयोग अंग्रेजी के Higher या Lower Education सरीखे शब्द युग्मों के अन्धानुवाद के फलस्वरूप हिन्दी में प्रचलित हुए हैं। हमारी शिक्षा के प्राचीन इतिहास अथवा शिक्षाशास्त्र में कहीं इस तरह के विशेषण देखने को नहीं मिलते। न ही आज भी हम किसी कम या अधिक पढ़े-लिखे व्यक्ति को अधोशिक्षित या अतिशिक्षित कहते हैं। शिक्षा से अभिप्राय है सीखना। यह सीखना कौशल का भी हो सकता है और ज्ञानार्जन हेतु किसी शास्त्र का भी हो सकता है। कौशल या ज्ञान प्राप्ति की मात्रात्मक उपलब्धियाँ तो हो सकती हैं, इनका विखण्डन नहीं हो सकता। दरअसल यह विखंडन पश्चिम की देन है जिसने परमाणु से लेकर शिक्षा एवं ज्ञान तक को विखंडित कर दिया है और अब तो उत्तर आधुनिकतावाद का पूरा दर्शन ही विखण्डन पर खड़ा कर दिया गया है। ज्ञान को पहले विज्ञान, वाणिज्य
और मानविकी में बाँटा गया फिर इनके भी टुकड़े दर टुकड़े कर दिये गये । परिणाम यह हआ कि कोई दिल की बीमारियों का विशेषज्ञ बना तो कोई दिमाग का। किसी ने अर्थशास्त्र में विशेषज्ञता हासिल की तो किसी ने लेखाशास्त्र में। पर ज्ञान का यह विखण्डन मनुष्य की बढ़ती ज्ञान-पिपासा को छोटे-छोटे वृत्तों में बांध नहीं पाया
और पहंचे हुए दार्शनिक, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री या शिक्षाविद् न पहले विषय विशेषज्ञ बने रहे, न आजकल बने रहते है। बट्टैन्ड रसल हों या आचार्य महाप्रज्ञ या फिर अमर्त्य सेन ही क्यों न हों, क्या कोई कह सकता है कि उनकी गति मात्र दर्शन
या अर्थशास्त्र तक ही सीमित है? तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NITITITILY
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