________________
थी। मगर सेनापति सुषेण मौन खड़े थे। भरत बोले-विजय और उन्माद एकार्थक हैं, पर तुम सफलता के शिखर को छूकर भी जैसे अनासक्त हो । क्यों? सुषेण ने जवाब दिया मैं विजय की आसक्ति से मुक्त नहीं, उससे युक्त होकर ही यहाँ आया हूँ। चक्र नगर के बाहर अचल है। शत्-शत् यत्नों के उपरान्त भी शस्त्रागार की शोभा नहीं बढ़ा रहा । इसका एक ही अर्थ हैसमर-भेरी फिर बजेगी। भरत ने पूछा-विजय के अभियान में कौन-सा कोना बचा है ? उत्तर मिला
मंत्रिवर बोला प्रणत सिर, ज्ञात किन्तु आवाच्य है, ज्ञेय का विस्तीर्ण सागर, अल्पतम ही वाच्य है। मौन है सर्वार्थ साधन, नीति का निष्कर्ष है शांतिपूरित सब दिशाएं, प्यास का उत्कर्ष है।
सर्ग 14, पृ. 222 भरत ने आश्वासन देते हुये बतलाने का फिर आग्रह किया
अभय देता हूँ कहो सच, भूमि ही आधार है, गगन-यात्रा का निसर्गज, पंख को अधिकार है। कटुक औषध प्रिय नहीं पर, क्या न हितकर निंब है? चन्द्रमा का बिंब नभ में, सलिल में प्रतिबिंब है।
सर्ग 14, पृ. 223 मनुष्य की मति और गति पर नियति का नियंत्रण है या युक्ति का, कोई नहीं जानता । जो शब्द श्रेय का संदेश देते हैं, वे ही प्रेय में प्रीति जगा देते हैं। भरत और सुषेण के मध्य इस छोटे से संवाद ने ममत्व को अहं से आवृत्त कर दो भाइयों को युद्ध-भूमि में लाकर खड़ा कर दिया
मंत्रीसत्य कहना चाहता पर, प्रेम में विश्वास है, बन्धुता में विघ्न बनना, कुटिलता का पाश है। नयन-युग में द्वन्द्व हो, यह स्वप्न ही आतंक है, निज अनुज के सामने, भुजदण्ड केवल पंक है। भरतबाहबली है अजित, मंत्री ! क्यों यही तात्पर्य है? बंधुवर से युद्ध करना, क्या नहीं आश्चर्य है?
82 MIIII
INITIALV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org