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क्षीण हो जाने पर तो कौन शांत नहीं हो जाता? अपितु प्रारम्भ से ही स्वभावतः शांति यहां काम्य है। शांति केवल बाहरी स्तर पर घटित परिवर्तन में स्थिरता नहीं होती। परिष्कार बाह्य का नहीं, भीतर से भीतर तक हो। भीतर के परिष्कार के बिना बाहर का परिष्कार अकिंचित्कर बन जाता है। आधुनिक शांतिविद् बताते हैं-युद्ध पहले मानव के मस्तिष्क में होता है। अस्त्रशस्त्र का निर्माण पहले मानव मस्तिष्क में होता है तब कहीं बाहर से अस्तित्व में आते हैं। यदि मनुष्य एकान्त कमरे में शांति से बैठना सीख जाए तो विश्व में भी शांति से जी सकता है। पर आज के सारे साधन-संसाधन समस्या के मूल को नजरअंदाज करते हए बाहर ही बाहर समाधान खोजना चाहते हैं। पर साधन-शुद्धि के अभाव में साध्य की शुद्धि संभव नहीं। जब मूल्य निर्मूल बन जाते हैं
आज के युग की भयंकर त्रासदी उत्पन्न करने वाली एक के साथ-साथ अनेकों की जीवन-लीला समाप्त करने वाली समस्या है-एड्स । चिकित्सक, वैज्ञानिक, स्वास्थ्यविद् सभी इसके रोकथाम के उपाय खोजने में चिंतित हैं। शोधार्थी इस समस्या को उपचारित करने की सफलता की स्थिति में आएंगे उससे पहले ही न जाने कितनी कितनी जीवन लीलाओं की आहति यह महामारी ले लेगी। समाचार पत्र ने बताया-नर्स को हॉस्पिटल से निकाल दिया गया जैसे ही उसमें एड्स के लक्षण पाये गये। नर्स का दावा है कि हॉस्पिटल में मरीज का उपचार करने के दौरान उस पर एड्स ने आक्रमण किया है। कुछ भी हो, अन्ततः नर्स के भविष्य का कोई आधार नहीं, उसका कोई वर्तमान नहीं, क्योंकि इस एड्स महामारी का स्पर्श पाते ही खून पानी बन अपना अस्तित्व खोता जाता है और शरीरिक शक्ति रीततेरीतते शीघ्र ही वह खौफनाक क्षण उपस्थित हो जाता है जब व्यक्ति तिल-तिल कर वेदना भुगतते हुए इस संसार की यात्रा को समाप्त कर देता है या फिर उस वेदना से छुटकारा पाने के लिए स्वैच्छिक मृत्यु का उपयोग कर मृत्युदानी डॉक्टर की शरण प्राप्त करता है। जीवन लीला समाप्त कर देता है । विज्ञान के अधुनातन संसाधनों के पास इसका कोई जीवनदानी उपचार नहीं। संयम का साथ जब छूट जाता है तो अतिवाद की दिशा को प्राप्त कर व्यक्ति मूल्यों को निर्मूल कर देता है। मूल्यों की मूल्यवत्ता क्यों?
- जैन-दर्शन किसी भी समस्या के मूल तक जाने की बात कहता है। कारण का परिहार करने से कार्य स्वतः समाप्त हो जाता है। समस्या के मूल तक जाकर ही समस्या को समाप्त किया जा सकता है। पौद्गालिक सुख का अपनी जगह महत्व हो सकता है। एक सीमा तक उसकी मूल्यवत्ता या उपयोगिता को स्वीकारा जा सकता है पर अति दुःख की ओर से ही ले जायेगा। चूंकि मोह से अतिशय आवृत्त मनुष्य इस पौद्गलिक अनेकांतिकता, अनिश्चिंतता को भी नहीं समझा पाता इसीलिए वासनावश वह अनेक शारीरिक-मानसिक दुःख प्राप्त
62 AMITTITITITUTILITILITITITIW तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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