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________________ जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में मूल्य चिन्तन -समणी सत्यप्रज्ञा मूल्यों की मीमांसा भारतीय संस्कृति का मूल रहा है। संयम, समता, सहिष्णुता सत्य, न्याय, मैत्री आदि सद्गुणों की चर्चा किसी न किसी रूप में प्रत्येक भारतीय दर्शन में हुई है और ये सद्गुण ही भारतीय संस्कृति के आधार हैं, भारतीय दर्शन की आत्मा है। वैदिक संस्कृति में पुरुषार्थ चतुष्टय का विशद वर्णन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय के अनुरूपही चार आश्रमों की व्यवस्था यहां की गयी है। प्रसिद्ध श्लोक हैं प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम्। तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करिष्यति। हर अवस्था के अनुरूप यहां विशेष कार्यशैली का प्रतिपादन है। पर चूंकि जैन-दर्शन विशुद्ध अध्यात्मवादी दर्शन रहा है। इसीलिए काम-अर्थ को बंधन का कारण मानते हुए प्रसंगतः इनकी चर्चा की गई है व इनसे उपरत होने की प्रेरणा दी गई है। धर्म व मोक्ष की यहां विशद चर्चा है। मूल्यों का स्वीकरण कब? अवस्था के साथ ही व्यक्ति का झुकाव अध्यात्म की ओर हो, यह जरूरी नहीं। क्योंकि शरीर -जीर्णता के साथ तृष्णा-जीर्णता का नियम नहीं है। लेकिन शरीर जीर्ण हो, इससे पहले-पहले इच्छाओं/वासनाओं/तृष्णाओं को जीर्ण कर देना साधना है। साधना के स्वरूप को व्यक्त करते हुए कहा गया पूर्वे वयसि यः शान्तः, स शांत इति मे मतिः । धातुषु क्षीयमानेषु शान्तिः कस्य न जायते॥ अर्थात् पूर्व अवस्था में जो शांत होता है वही वस्तुतः शान्त है। धातुओं के तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ATTITIONINITWITTTTTTTTINITI TINI TITIN 61 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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