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________________ पर चमकते हुए नीले रंग का ध्यान करें। विशुद्धि केन्द्र पर नीले रंग का ध्यान, दर्शन केन्द्र पर हरे रंग का ध्यान वासना-1 - विजय के लिए महत्त्वपूर्ण मंत्र है । ऊर्ध्व स्थान का प्रयोग करें। रागात्मक प्रकृति को दूर करने के लिये खड़े रहना व गमन करना अच्छा आलंबन है। ऊर्ध्वस्थान के एक प्रयोग में घुटनों को ऊंचा, सिर को नीचा कर कायोत्सर्ग करें। ऊर्ध्वस्थान की अवस्था में दोनों नेत्रों को नासाग्र या भृकुटी पर स्थिर कर अथवा बार-बार इन पर स्थिर करें। इस क्रिया से अपानवायु दुर्बल होती है और प्राणवायु प्रबल होती है । अपानवायु की प्रबलता में कामांग सक्रिय होता है और प्राण वायु की प्रबलता से यह निष्क्रिय हो जाता है। 26 अपने इष्ट मंत्रपूर्वक समवृत्ति श्वास प्रेक्षा की 25 वृत्तियां करने से भी काम उपशांत होते हैं। यह सच्चाई है कि इन्द्रियां इन्द्रियों से तृप्त होती हैं, चेतना चेतना से 27 इसीलिए सबसे पहली आवश्यकता है - विपर्यास मुक्ति की । 28 इस अंध आग्रह का परित्याग हो कि इन्द्रियों के जगत में सुख या तृप्ति मिल सकती है । भोगों की अभिलाषा व इन्द्रिय सुख का अतिक्रमण कर आत्मिक सुख के जगत् में प्रवेश करने का पुरुषार्थ जागे तो संयम व मूल्यों का महाप्रासाद स्वतः निर्मित हो जायेगा । संयम की इस उषा के साथ ही साथ न्याय, मैत्री, सत्य, प्रेम, समत्व आदि सहस्र किरणों वाले मूल्यों का सूर्योदय हो जायेगा । संयम, पुरुषार्थ, शुभ अध्यवसाय ही संयम यात्रा के सोपान बने, नैतिक मूल्यों का व्यक्तित्व निर्मित हो, इसी में शुभ भविष्य निहित है । काम परिष्कार का यह प्रयोग अर्थ शुद्धि के साथ-साथ धर्म व मोक्ष का संवाहक बने इसी में मानवता का कल्याण है। संदर्भ सूची 1. आचारांग 5/2/34, 2/5/128 2. भृर्तहरि : वैराग्यशतक 3. आचारागं 3/2/34 4. आचारागं 2/5/89 5. आचारागं 6/1/16-17 6. 7. 8. 9. पंचसूत्र 4/5 10. आचारांग 2/5/124 11. आचारांग 2/5/155 12. आचारांग 2/5/139 13. गीता 2/70 14. आचारांग 6/2/34 66 आ.चू.वृ. 75 आचारागं 2/5/96 आचारागं 2/5 / 134 Jain Education International 15. उत्तराध्ययन 9/53 16. आचारांग 6/9/94 17. आचारांग 2/5/126 18. आचारांग 6/5/108 19. आचारांग 2/5/125 20. उत्तराध्ययन 10/1 21. आचारांग 6 / 2/33 22. निशीथ भाष्य, आ. यू. पृ. 186 23. आचारांग 6/3/67,2/5/134 24. आचारांग 2/5/131, 136 25. चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा - आचार्य महाप्रज्ञ 26. आचारांग 5/4/81 27. 28. कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । पुद्गलै पुद्गलास्तृप्ति यान्त्यात्मा पुनरात्मना WWW तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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