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________________ तदावरणीय कर्म के क्षयोपशम के द्वारा जाति स्मृति सनिमित्तक और अनिमित्तिक भी होता है। कुछ मनुष्यों को तदावरणीयकर्मों का क्षयोपशम होने से जातिस्मृति ज्ञान होता है, वह अनिमित्तक है और जो बाह्य निमित्त उपलब्ध होने पर चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की तरह प्राप्त होता है, वह सनिमित्तक है। "चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त के दरबार में एक नट आया, उसने अभ्यर्थना की, मैं आज मधकरी गीत नामक नाट्य प्रस्तुत करना चाहता हूं। चक्रवर्ती ने स्वीकृति दी। नाटक आरम्भ हुआ। कर्मकरी ने फूल मालाएं चक्रवर्ती को उपहृत की। उन्हें देखा और मधुकरी गीत सुना। गीत सुनते ही चक्रवर्ती के मन में विकल्प उठा— मैंने कहीं ऐसा नाटक देखा है। चिन्तन की गहराई में जाते ही ब्रह्मदत्त को जाति स्मृति का ज्ञान हो गया। ऐसा नाटक सौधर्म देवलोक के पदमगुल्म विमान में देखा था। आचार्य यशोविजयजी ने योग बिन्दु में जातिस्मरण की प्राप्ति के नौ कारण बतलाये हैं ब्रह्मचर्येण तपसा, सद्विद्याध्ययनेन च। विद्यामंत्र विशेषण, सतीर्थसेवनेन च ॥ पितृ सम्यगुपस्थानात्-ग्लान भैषज्यदानतः । देवादि शोधनाच्चैव, भवेज्जाति स्मरः पुमान् ।। (1) ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य की साधना करने से आन्तरिक विकारजन्य संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। शांत चैतसिक धरातल जातिस्मरण के लिये उपयुक्त होता है। (2) तपश्चर्या-भोजन करने से भीतर का यंत्र संचालित होता है। फलतः आन्तरिक स्थिरता खत्म हो जाती है। तप से कर्म क्षय होने से जातिस्मरण हो जाता है। (3) आत्म-विद्याध्ययन-सत् साहित्य के अध्ययन व अनुशीलन से आत्मा में स्थिरता एवं निर्मलता प्रगट हो जाती है, इसलिए निर्मल चित्त में जातिस्मृति हो जाती है। (4) मंत्र-विद्या के विशेष प्रयोग : मंत्रों की आराधना से अन्तर चक्र सजग हो जाते हैं। चक्रों के सजग होने से भी जातिस्मरण हो जाता है। (5) तीर्थसेवा : तीर्थ प्रवचन का सम्यक् आसेवन करने से आत्मा अन्तर्मुखी हो जाती है, इसलिए जातिस्मृति होना संभव है। (6) पिता की पर्युपासना-माता-पिता को आध्यात्मिक सहयोग देने से भी जातिस्मृति हो सकती है। (7) रोगी को औषधदान देने से, रोग से संत्रस्त व्यक्ति को आरोग्य का आश्वासन देने से वह आर्त्ततामुक्त होता है, इस निमित्त से भी जातिस्मृति हो जाती है। 114 TWITTIIIII IIIIIIIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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