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________________ आचार्य तुलसी द्वारा प्रतिष्ठित यह नौ-सूत्री श्रावकाचार कितना युगानुकूल एवं प्रासंगिक हैं, यह सहृदयों द्वारा बड़ी सरलता से जाना और समझा जा सकता है। दोनों ही आचार्य अणुव्रत के महान् पक्षधर हैं। अणुव्रत क्या है? वस्तुतः श्रावकाचार के सन्दर्भ में उपदिष्ट द्वादशव्रतों में से प्रथम पांच को ही आचार्य तुलसी अणुव्रत कहते हैं। इन पांचों में भी प्रथम व्रत है अहिंसा जो जिनशासन की धुरी है। इस अहिंसा को ही जैनाचार्यों ने 'अहिंसा परमो धर्म' : कहकर प्रतिष्ठित किया है। अहिंसा क्या है? आचार्य तलुसी एवं महाप्रज्ञ की दृष्टि में संकल्पपूर्वक निरपराध प्राणी की हत्या न करना ही अहिंसा है। आज कश्मीर या पूर्वोत्तर राज्यों में यही तो हो रहा है। आतंकवादियों द्वारा सारी हत्यायें संकल्पपूर्वक की जा रही है, साथ ही साथ ये हत्यायें अपराधियों की नहीं, प्रत्युत् निरपाधियों की हो रही है। यह हिंसा का नग्न ताण्डव है। यदि यह हिंसा बन्द हो जाय तो आतंकवाद स्वतः समाप्त हो जायेगा। आचार्य महाप्रज्ञ इस हिंसा के नौ प्रमुख कारण मानते हैं-लोभ, भय, वैर-विरोध, क्रोध, अहंकार, क्रूरता, असहिष्णुता, निरपेक्ष चिन्तन तथा निरपेक्ष व्यवहार | इस प्रकार की हिंसा को मैत्री, क्षमाभाव, विनम्रता, करुणा, साम्प्रदायिक सद्भाव, सापेक्ष व्यवहार, अभयप्रशिक्षण तथा शरीर एवं पदार्थ के प्रति अमूर्छाभाव के प्रशिक्षण से ही समाप्त किया जा सकता है। इस प्रकार अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से दोनों ही आचार्यों ने अहिंसा से जुड़े समस्या एवं समाधान दोनों पक्षों पर विस्तारपूर्वक विचार किया है। आचार्य महाप्रज्ञ के व्यक्तित्व में अद्भुत समन्वय है चिरन्तन एवं नूतनता का। एक ओर तो वह प्राचीन सुप्रतिष्ठापित जैनागम के पारदृश्वा आचार्य हैं और दूसरी ओर जैनधर्म की प्रासंगिकता एवं युगानुकूलता के भी समर्थ व्याख्याकार | यदि आचार्य तुलसी एवं महाप्रज्ञ का अवतरण न होता तो निश्चय ही जिनशासन एवं आर्हत दर्शन रूढ़ियों में ही बंधे रह जाते। परन्तु तेरापंथ के माध्यम से आज जैसी प्रासंगिकता, नवीनता, उदग्रता, ताजापन तथा व्यावहारिक क्षमता जैनधर्म में आई है, वैसी अन्य धर्मों या सम्प्रदायों में नहीं दिखती। जहां आज इस्लाम शरीयत की स्थापना में लगा है वहीं तेरापंथ श्रावकाचार तथा अनेकान्त की अभिनव व्याख्या तथा स्थापना में लीन है ताकि विश्वशान्ति की स्थापना हो सके। जैनधर्म अध्यात्म की ऊंचाई तक पहंचने के लिये व्रत-सोपान को अनिवार्य मानता है। साधना की क्रमिक परिपक्वता के साथ ही साथ व्यक्ति ऊपर उठ पाता है। सबकी आचरण क्षमता भी एक जैसी नहीं होती। जो क्षमता श्रमण में होगी, वही श्रावक अथवा श्राविका में भी हो, भला यह कैसे संभव है? फलतः आचरणक्षमता के आधार पर मनुष्यों की तीन श्रेणियां सम्भव हैं - अव्रती, व्रताव्रती, व्रती। । अधर्मी, धर्माधर्मी, धर्मी। । असंयमी, संयमासंयमी, संयमी। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 WILY 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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