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________________ इस काल के कई साहित्य-स्वरूप ऐसे हैं, जो बाहर से संस्कृत हैं, जिस पर संस्कृत का आवरण है, किन्तु नीचे प्रवाह है प्राकृत का । यह साहित्य समाज के दोनों वर्गों नागरिक और ग्रामीण में सफलतापूर्वक प्रवेश पाता रहा। इसके नमूने हैं महाभारत जैसी विशाल रचनाएं। वस्तुतः इस महान् ग्रन्थ के अन्तस्तल में प्रवाह है प्राकृत का, किन्तु बाह्य रूप है संस्कृत का । भाषा वैज्ञानिकों के लिए यह भाषा-स्वरूप के शोध का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। प्राकृत-काल का आरम्भ बिहार के विमल विभूति भगवान् महावीर के समय से होता है। सच पूछिए तो प्राकृत का उत्पत्ति - स्थल बिहार का मगध क्षेत्र माना जा सकता है। इसीलिए संभवतः इसका नाम 'अर्द्धमागधी' भी है । जिस प्रकार बौद्ध त्रिपिटक की भाषा को 'पालि' नाम दिया गया है, उसी प्रकार जैनागमों की भाषा को 'अर्द्धमागधी' कहा जाता है। निशीथचूर्णिकार के मतानुसार मगध के अर्द्धभाग में बोली जाने वाली अथवा अट्ठारह देशी भाषाओं से नियत भाषा को 'अर्द्धमागधी' कहा गया है- 'मगहद्धविसयभासानिबद्धे अद्धमागहं अहवा अट्ठारहसदेसीभासाणियतं अर्द्धमागहं ।' नवांगी टीकाकार अभयदेव के अनुसार इस भाषा में कुछ लक्षण मागधी के और कुछ अन्य प्राकृत के पाये जाते हैं, इसलिए इसे ‘अर्द्धमागधी' कहा जाता है : 'मागधभाषालक्षणं किंचित् प्राकृतभाषालक्षणं यस्यामस्ति सा अर्द्धमागधीति (भगवती सूत्र 5-4 ओववाइय टीका 34 ) । ' कतिपय भाषा वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि अर्द्धमागधी नाम इसलिए पड़ा कि यह भाषा शुद्ध मागधी नहीं थी । यह पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी के बीच के क्षेत्र में बोली जाती थी, इसलिए इसे 'अर्द्धमागधी' कहा गया। महावीर जहां विहार करते थे, इसी मिश्रित भाषा में उनका उपदेश या प्रवचन होता था । धीरे-धीरे अन्यान्य प्रान्तों की देशी भाषाओं का मिश्रण भी इसमें हुआ। जैनागमों को संकलित करने के लिए स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में मथुरा में और देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में सम्पन्न साधु-सम्मेलनों पश्चात् जैनागमों की अर्द्धमागधी में अवश्य ही तत्स्थानीय प्राकृतों का प्रभाव पड़ा होगा । प्राकृत कोई एक भाषा नहीं, अपितु यह नाम इसके कई प्रकारों के समाहृत रूप का द्योतक है। इसके प्रकारों में पालि, अर्द्धमागधी, मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची आदि विशेष उल्लेख्य हैं। उपर्युक्त मागधी प्राकृत के आविर्भाव और अभ्युदय का सर्वाधिक बिहार को ही है । यह मागधी मगध - जनपद (बिहार) की भाषा थी । मागधी भी कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं थी, अपितु इसमें शाकारी, चाण्डाली और शावरी भाषाओं का भी अन्तर्भाव हो गया था। डॉ. पिशेल का कहना है कि मागधी एक भाषा नहीं थी, वरन् इसकी बोलियाँ विभिन्न स्थानों में प्रचलित थीं । जैनागमों में प्रयुक्त अर्द्धमागधी को आर्यभाषा भी उनकी ओर से कहा गया है, जो प्राकृत को संस्कृतोद्भूत न मानकर एक स्वतन्त्र भाषा मानते हैं, परन्तु हेमचन्द्राचार्य ने जो प्राकृत को संस्कृतप्रभव मानते हैं, अपने प्राकृतव्याकरण (1-3) में 40 V तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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