________________
पर्याय का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यह सदा द्रव्य पर निर्भर करता है। परिणामी नित्यत्ववादी जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार द्रव्य गुण की दृष्टि से नित्य है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। अनित्यता का सूचक पर्याय की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है—स्वभाव विभावरूप तथा याति पर्येति परिणमतीति पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्तिः । तत्त्वार्थसूत्र में तद्भावः परिणाम: कहकर परिणमन को ही पर्याय माना गया है। सर्वार्थसिद्धि में पर्याय को द्रव्य का विकार मानते हुए कहा गया है- दव्वविकारो हि पज्जवो भणिदो। तेषां विकारा विशेषात्मना भिद्यमानाः पर्यायाः द्रव्य के विकार को ही पर्याय कहते है। चूंकि द्रव्य के विकार विशेष रूप से भेद को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे पर्याय कहलाते हैं। पर्याय के अनेक पर्यायवाची शब्द कहे गये हैं। 'ववहारो य वियापो भेदो तह पज्जओत्ति एयट्ओ'8 अर्थात् व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब एकार्थक है।
श्री भोजसागर ने द्रव्यानयोगतर्कणा में पर्याय को व्याख्यायित करते हुए कहा हैपर्यायः क्रमभाव्यथ अर्थात् द्रव्य में क्रम से होने वाले परिवर्तन को पर्याय कहा गया है। जैसे स्थास, कुशूल, घट आदि । अन्यत्र भी क्रमवर्तिनः पर्यायाः का उल्लेख मिलता है। इसी को इस रूप में भी प्रस्तुत किया गया है- एकस्मिन द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत् अर्थात एक ही द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्याय कहते हैं जैसे एक ही आत्मा में हर्ष और विषाद । श्लोकवार्तिक में पर्याय को सहभावी भी माना गया है। 12 किन्तु तर्कणाकार ने सहभावी गुणोधर्मः' कहकर सहभावी को पर्याय न मानकर गुण माना गया है। पर्याय के भेद
पर्याय को परिभाषित कर लेने के पश्चात अब पर्याय के भेद पर प्रकाश डाल लेना आवश्यक प्रतीत होता है। तर्कणा में पर्याय के दो भेदों का उल्लेख मिलता है, जो इस प्रकार है
तत्र व्यंजनपर्यायस्त्रिकालस्पर्शननो मतः।
द्वितीयश्चार्थ पर्यायो वर्तमानाणुगोचरः ।। 4 अर्थात् व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय ये पर्याय के दो भेद हैं। तत्त्वार्थवृत्ति में भी व्यंजन पर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति कहकर पर्याय के ही दो भेद किये हैं।
___व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय- त्रिकालस्पर्शिनो व्यंजन पर्यायः अर्थात् जिसका स्पर्श भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में होता है वह व्यंजन पर्याय है। घटादिका, मृतिका आदि पर्याय व्यंजनपर्याय है। वर्तमानाणुगोचरः सूक्ष्मवर्तमानकालवर्ती अर्थपर्यायः अर्थात् सूक्ष्म वर्तमानकालवर्ती अर्थपर्याय है। भाव यह है कि जिस क्षण में घट विद्यमान है उसी क्षण की विद्यमानता से वह घट अर्थपर्याय है। यथाहि घटादेस्तत्तत्क्षणवर्ती पर्यायः यस्मिन्कालेवर्तमाम तथा स्थिरस्तत्कालापेक्षाकृत विद्यमानविनार्थपर्याय । 16 वसुनंदि 32 AIIMINS
AIMI MITIY तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org