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पुरिसंमि पुरिससद्दो जम्माह मरणकालपजजंतो। तस्सओ बालाईया थज्जवभेया बहु विगप्या |
जैसे पुरुष में पुरुष यह शब्द जन्म से मरण तक रहता है, यह व्यंजनपर्याय है और उस पुरुष में बाल, युवा इत्यादि जो भेद है, ये सब अर्थपर्याय है। अर्थ और व्यंजनपर्याय का स्वामित्व
ज्ञानार्णव में अर्थ और व्यंजन पर्याय के अलग-अलग स्वामित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है
धमाधर्म नभः कालो अर्थ पर्याय गोचराः । व्यञ्जनाख्यस्य सम्बन्धो द्वावन्योजीवपुद्गलो ।।23
धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो अर्थपर्याय गोचर है और अन्य दो पुद्गल और जीव अर्थ और व्यंजन दोनों पर्याय हैं किन्तु तर्कणाकार दिगम्बर परम्परा की इस मान्यता से सहमत नहीं है। उनके अनुसार
यथाऽऽकृतिश्च धर्मादेः शुद्धो व्यंजनपर्यवः । लोकस्य द्रव्यसंयोगादशुद्धोऽपि तथा भवेत्।
अर्थात् धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य का आकार लोकाकाश प्रमाण स्थितरूप है। इसलिए परद्रव्य की निरपेक्षा से यह शुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्याय है और लोक के द्रव्यों के संयोग से अशुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय भी है।
व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय के स्वामित्व के पश्चात् तर्कणाकार ने आकार के साथसाथ संयोग को भी पर्याय के अन्तर्गत समाहित किया है और इसके लिए उत्तराध्ययनसूत्र को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। आचार्य भोजसागर के अनुसार
आकृतेरिव संयोगः पर्यवः कथ्यते यतः।। उत्तराध्ययनेऽभ्युक्तं पर्यायरूप हि लक्ष्णम् ।।
संयोग को भी आकृति के समान पर्याय कहा जाता है। उत्तराध्ययन में पर्याय का जो लक्षण किया गया है, उसमें संयोग भी एक है। लक्षण इस प्रकार है
एगतं च पुंहत्तं च संख्या संठाणमेव च। संयोगोवा विभागो य पज्जवाणं तु लक्खणं ।।।
एकत्व, पृथकत्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग ये पर्याय के 6 लक्षण हैं। अतः संयोग भी पर्याय है। गुण-पर्याय का खण्डन
नयचक्र के रचयिता देवसेन ने पर्यायों के जो चार भेद किये हैं, उनका उल्लेख करते हुए आचार्य भोजसागर कहते हैं
34 AIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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