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स्वजातेश्च विजातेश्च पर्याया इत्यर्थके। स्वभावाच्च विभावाच्च गुणे चत्वार एव च ।।
जैसे द्रव्य के विषय में सजातीय और विजातीय से दो द्रव्य पर्याय होते हैं वैसे ही गुण के विषय से स्वभाव और विभावगुण ये दो पर्याय होते हैं। द्वयणुक सजातीय द्रव्य पर्याय हैं, मनुष्य आदि विजातीय द्रव्य पर्याय हैं। केवलज्ञान स्वभाव गुणपर्याय है और मतिज्ञान आदि विभाव गुण पर्याय है। देवसेन के इस पर्याय विचार को निम्न चार्ट से समझा जा सकता है
देवसेन के नयचक्र के अनुसार पर्याय
पर्याय
द्रव्य पर्याय
गुणपर्याय
सजातीयद्रव्य पर्याय विजातीय द्रव्य पर्याय स्वभावगुण पर्याय विभाव गुणपर्याय (द्वयणुक) (मनुष्य) (केवलज्ञान) (मति, श्रुतादि)
किन्तु गुणपर्याय के इस विचार का खण्डन आचार्य भोजसागर ने द्रव्यानुयोगतर्कणा में इस प्रकार किया है
गुणानां हि विकारः स्युः पर्याया द्रव्यपर्यवाः । इत्यादि कथयन्देवसेनो जानाति किं हृदि ।।28
जब गुणों का विकार पर्याय है तो द्रव्यपर्याय के साथ गुणपर्याय कैसे माना जा सकता है? द्रव्य में तो गुण अवश्यम्भावी है पर गुण में तो गुणता का अभाव होता है। अतः गणपर्याय की देवसेन की मान्यता कदापि उचित नहीं है। द्रव्यानुयोगतर्कणा के अनुसार पर्याय को हृदयंगम करने के लिए निम्न चार्ट का अवलोकन आवश्यक प्रतीत होता है
पयार्य
व्यञ्जन पर्याय
(मनुष्य)
अर्थ पर्याय (मनुष्य की विविध अवस्था)
द्रव्य व्यंजन पर्याय
गुणव्यंजन पर्याय
शुद्ध अर्थ पर्याय अशुद्ध अर्थ पर्याय
शुद्ध द्रव्य अशुद्ध द्रव्य शुद्ध गुण अशुद्ध गुण (क्षण क्षण में (कुछ क्षण अधिक व्यंजन पर्याय व्यंजन पर्याय व्यंजन पर्याय व्यंजन पर्याय पर्याय को प्राप्त में पर्याय को प्राप्त (चेतन में (मनुष्य, देव, (केवल (मति होने वाला) होने वाला) सिद्ध) नारक, तिर्यञ्च) ज्ञान) श्रुत्यादि)
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि द्रव्यानुयोग तर्कणाकार ने पर्याय के सम्बन्ध तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ATTITIY
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