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________________ इन ज्ञान-रश्मियों ने नया आलोक बिखेरा। कच्छ और महाकच्छ आदि चार हजार लोग ऋषभ के साथ दीक्षित हए। नंदिकर सिद्धार्थ नामक स्निग्ध हिम-उद्यान प्रथम दीक्षा स्थल बना। ऊर्ध्व कायोत्सर्ग की मुद्रा में ऋषभ ने उस दिन एक अनूठे अपवर्ग की नींव रखी बद्ध अंजलि, प्रणत मस्तक, सिद्ध की अभिवंदना, विमलता ज्यों विमलता की, कर रही अभिनंदना। परम सामायिक निरन्तर, अब मुझे स्वीकार्य है, आचरण सावद्य अविकल, सर्वथा परिहार्य है। उच्चतम यह गगनचुम्बी, शिखर शीर्ष समत्व का, हो रहा है घटित सहसा, ग्रंथिभेद ममत्व का। चेतना की विमलता ने, कमलदल को छू लिया, आत्मवर्चस्-वेदिका पर, जल उठा अविचल दिया। सर्ग 6, पृ. 101-102 विनीता से प्रस्थान की घड़ी आई। जनता धैर्य खो बैठीजा रहे हो नाथ! हमको छोडकर अज्ञात में भेद हम कर पा रहे थे, रात और प्रभात में। चरण-सन्निधि प्राप्त कर प्रभु ! प्रात जैसी रात थी, दूर पा प्रभु-चरण-युग को, रात जैसा प्रात भी। सर्ग 6, पृ. 103 भरत, बाहुबली और उनके अट्टानवे भाई | माँ मरुदेवा, पत्नी-द्वय सुमंगला और सुनन्दा व पुत्री-द्वय ब्राह्मी और सुन्दरी । सबकी एक ही मनोदशा । सब विवश और विकल भावना का उत्स अक्षय, शब्द-सरिता बह चली, सजल नयनों से हुई, अभिषिक्त पूर्ण वनस्थली । चाहता है भरत कहना, किन्तु जलधि अथाह है, और बाहुबलि न कोई खोज पाया राह है। माता भी मरुदेवा स्तंभित, मौन मूर्ति-सी खड़ी रही, पत्नी द्वय के मानस-कंपन से आकम्पित हुई मही। विदुषी ब्राह्मी और सुन्दरी, गद्गद् स्वर में बोल रही, रागसूत्र के महाग्रंथ का, पहला पन्ना खोल रही। सर्ग 6, पृ. 104-106 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NTITIY AIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIV 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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