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सुमंगला और अपने भाई की अकाल-मृत्यु से यूथ-विलग हरिणी की तरह अकेली हो चुकी एक और कन्या सुनन्दा के साथ ऋषभ का विवाह हआ। पत्नी-द्वय की यह नवरचना विधिवत सम्बन्धों की पहली लय थी और युग-परिवर्तन का एक नया प्रभात।।
सुमंगला ने युगल को जन्म दिया-पुत्र भरत और पुत्री ब्राह्मी । सुनन्दा-प्रसूत युगल था-सुत बाहुबली और सुता सुन्दरी । बहपत्नी-प्रथा और परिवार वृद्धि की इस पहली परछाई के साथ संतति-वर्धन का चक्र घूमा । सुमंगला कालान्तर में अर्धशतक युगलों की माँ बनी। एक ओर जन विस्तार, दूसरी ओर सूखते कल्पवृक्ष । सब यदि बाँट-बाँट कर खाते तो दण्ड-शक्ति आरोपित शासन आदमी के सर पर आसन न बिछा पाता | पर मनुष्य-मनुष्य में
आचार-विचार की विषमता और आवेश-आक्रोश की बढ़ती वृत्ति ने राजतंत्र को निमंत्रण दिया। युगलों के आग्रह पर कुलकर नाभि ने ऋषभ को प्रथम नृपति के रूप में अभिषिक्त
किया।
जठर-वेदना से मुरझाये युगलों को राजा ऋषभ ने कृषि शिक्षा दी। खेती से उत्पन्न फल-पत्र-मूल आहार के विकल्प बने । अकस्मात लगे दावानल ने मनुष्य को अग्नि से परिचित कराया और अन्न को पकाने का माध्यम उसके हाथ लगा। क्षुधा-पूर्ति के साधन जुटे पर आवास की समस्या थी। तभी एक गगन-पथगामी धरती पर उतरा। सौधर्म लोक के उस अधिपति ने नगर-संरचना का मंत्र-मर्म समझाया। प्रासाद बने । गृह-पंक्तियाँ खड़ी हईं और युगलों ने नगरी में प्रवेश किया। अब छत के नीचे जो था, वह धरती थी और उसके ऊपर जो था वह आकाश । अद्वैत की कोख से अनजाने ही द्वैत का जन्म हुआ।
दूध से दही प्राप्त होता है। दही मक्खन की लालसा उत्पन्न करता है। इच्छाओं का अपना चक्र है। एक बार गतिशील होने के बाद वह रुकता नहीं। कृषि ने अर्जन का अध्याय खोला। अर्जन ने रक्षक -श्रेणी की अपरिहार्यता सामने रखी। कुंभकार, लोहकार, बुनकर आदि इस क्रम में जुड़े। अब शब्द-सिद्धि और विद्या-वृद्धि की ओर ऋषभ के चरण बढ़े। शिक्षा के क्षेत्र में नारी को पुरुष के समकक्ष स्थान मिला । नारी को शिक्षा का अधिकार नहीं। ऋषभ की विस्मृति से कालान्तर में यह मिथ्यामति विषय-बेल फैली और दीर्घकाल तक नारी ने अज्ञान के तमस की व्यथा झेली। उन्होंने भरत को शब्द-शास्त्र पढ़ाया, ब्राह्मी को लिपिन्यास की शिक्षा दी और सुन्दरी को संख्या-ज्ञान की दीक्षा | बाहुबली ने मानव-मणि-पशुरक्षण का ज्ञान प्राप्त किया। फिर बन्धु-द्वय और भगिनी-द्वय ने मनुपुत्रों के बीच विद्या का विस्तार किया। उसके साथ परिवार-व्यवस्था, राज्य-व्यवस्था और दण्ड-व्यवस्था विकसित हुई।
एक चरण विन्यस्त होता है तो दूसरा आश्वस्त । वसन्तोत्सव का दिन। सुरभित उपवन में मनुष्यों का मेला | पुष्प चयन करती बालायें और हास-परिहास में निमग्न तरुण । मगर मन का साम्राज्य अद्भुत है। भावनाओं की गति का तंत्र-वितान बड़ा गूढ़ है। सुख की सबकी अलग-अलग परिभाषा सत्य को भी भ्रमित रखती है। अपने में आस्थित, ऋषभ के
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 20016
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