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(2) स्तन-पान की इच्छा का अभिव्यक्तिकरण होना-यह पुनर्जन्म में किये हए
आहार के अभ्यास का परिणाम है। (3) हंसना-रोना आदि वृत्तियों का होना।
इन सब वृत्तियों का होना पूर्वाभ्यास का परिचायक है। बालक की बहुत कुछ वृत्तियां भी पूर्वजन्म की स्मृति का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। शारीरिक विकास के अभाव में बहत बातें अनभिव्यक्त वैसे ही रहती हैं, जैसे सामग्री के अभाव में बीज में अंकुरण-पल्लवन आदि का अभाव।
जिस प्रकार युवक का शरीर बाल्य शरीर की उत्तरवर्ती अवस्था है उसी प्रकार से बालक का शरीर पूर्वजन्म के बाद होने वाली अवस्था है।
नवजात शिशु को जो सुख-दुःख का अनुभव होता है वह भी पूर्वभव के अनुभवों का फल है। जीवन का मोह और मृत्यु का भय उसके पूर्व बद्ध-संस्कारों का परिणाम है अन्यथा इन वृत्तियों का होना असंभव हैं।
दर्शनशास्त्र के नियमों से भी इसकी सच्चाई स्पष्ट है और तर्कशास्त्र का यह नियम है कि दुनिया में कोई ऐसा पदार्थ नहीं जो अव्यक्त असत् है वह सत् बन जाये 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः'
अभाव से भाव तथा भाव से अभाव नहीं होता, तब जन्म और मृत्यु, नाश और उत्पाद यह क्या है? मात्र पर्याय का परिवर्तन, अतः पदार्थ मात्र में परिवर्तन अवश्यंभावी है जिससे वह पूर्वावस्था को छोड़कर नई अवस्था में चला जाता है पर उसका अस्तित्व सर्वथा नष्ट नहीं होता।
जीव एक शाश्वत तत्त्व है। उसकी सत्ता त्रैकालिक है। वह हर काल में जीव ही रहता है। फिर भी उसकी अवस्थाएं बदलती रहती हैं। बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण है जन्म
और मृत्यु । संसार का प्रत्येक प्राणी जन्म लेता है, वह उसका उद्भव है। जन्म लेने वाला हर प्राणी एक दिन मृत्यु को प्राप्त होता है, वह उसका तिरोभाव है। मृत्यु के बाद वह फिर जन्म ग्रहण करता है। इस प्रक्रिया का फलित यह है कि जन्म से पहले और मृत्यु के बाद भी जीव की सत्ता विद्यमान है । वह जन्मता है, मरता है। वह यायावर की तरह एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाता है। गीता के शब्दों में - जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्रों को पहनता है वैसे ही पुराने शरीर को छोड़कर प्राणी नये शरीर को धारण करता है। पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने कहा है कि आत्मा सदा अपने लिये नये वस्त्र बुनती है तथा उसमें एक ऐसी नैसर्गिक शक्ति है जो ध्रुव रहती है और अनेक बार जन्म लेती है।
नवीन पाश्चात्य दार्शनिक शॉपन हार के शब्दों में पुनर्जन्म निःसंदिग्ध तत्त्व है। उनके शब्दों में जो कोई पुनर्जन्म के विषय में पहले पहल सुनता है, उसे भी वह स्पष्ट रूपेण प्रतीत हो जाता है।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ATTITINY
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