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रायचन्द्रजैनशास्त्रसाला.
श्रीपञ्चास्तिकायसलयसारः ।
इंदसदवंदियाणं तिअणहिदमधुरविसदायकाणं । अंतातीद्गुणाणं णमो जिणाणं जिद्भवाणं ॥१॥
संस्कृतछाया. इन्द्रशतवन्दितेभ्यस्त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः ।
अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः ।। १ ।। • पदार्थ-[जिनेभ्यो नमः] सर्वज्ञ वीतरागको नमस्कार होहु । अनादि चतुर्गति
संसारके कारण, रागद्वेपमोहजनित अनेक दुःखोंको उपजानेवाले जो कर्मरूपी शत्रु तिनको जीतनहारे होयँ सो ही जिन है. तिस ही जिनपदको नमस्कार करना योग्य है. अन्य कोई भी देव वंदनीक नहीं हैं. क्योंकि अन्य देवोंका स्वरूप रागद्वेपरूप होता है, और जिनपद वीतराग है, इस कारण कुंदकुंदाचार्यने इनको ही नमस्कार किया. ये ही परम मंगलस्वरूप हैं। केसे हैं सर्वज्ञ वीतरागदेव ? [इन्द्रशतवन्दितेभ्यः] सौ इन्द्रोंकर वंदनीक हैं; अर्थात् भवनवासी देवोंके ४० इन्द्र, व्यंतर देवोंके ३२, कल्पवासी देवोंके २४, ज्योतिपी देवोंके २, मनुष्योंका १, और तिर्यंचोंका १, इस प्रकार सौ ईन्द्र अनादिकालसे वर्तते हैं, सर्वज्ञ वीतराग देव भी अनादि कालसे हैं, इस कारण १०० इन्द्रोंकर नित्य ही बंदनीय हैं, अर्थात् देवाधिदेव त्रैलोक्यनाथ हैं । फिर कैसे हैं ? [त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः] तीन लोकके जीवोंके हितकरनेवाले मधुर (मिष्ट-प्रिय),और विशद कहिये निर्मल हैं वाक्य जिनके ऐसे हैं । अर्थात् स्वर्गलोक मध्यलोक अधोलोकवर्ती जो समस्त जीव हैं, तिनको अखंडित निर्मल आत्मतत्त्वकी प्राप्तिकेलिये अनेक प्रकारके उपाय बताते है, इस कारण हितरूप हैं. तथा वे ही वचन मिष्ट हैं, क्योंकि जो परमार्थी रसिक जन हैं, तिनके
(१) "भवणालयचालीसा विंतरदेवाण होति बत्तीसा ॥
कप्पामरचटवीसा चंदो सूरो णरो तिरओ ॥ १ ॥” ।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भनको हरते हैं, इस कारण अतिशय मिष्ट (प्रिय) हैं, और वे ही बचन निर्मल हैं, क्योंकि जिन वचनोंमें संशय, विमोह विभ्रम, ये तीन दोष वा पूर्वापर विरोधरूपी दोष नहिं लगते हैं; इसकारण निर्मल हैं । ये ही (जिनेन्द्र भगवान्के अनेकान्तरूप) वचन समस्त वस्तुवोंवे स्वरूपको यथार्थ दिखाते हैं; इसकारण प्रमाणभूत हैं; और जो अनुभवी पुरुप हैं, वे ही इन वचनोंको अंगीकार करनेके पात्र हैं। फिर कैसे हैं जिन ? [अन्तातीतगुणेभ्यः] कहिरे अन्तरहित हैं गुणे जिनके, अर्थात् क्षेत्रकर तथा कालकर जिनकी मर्यादा (अन्त) नहीं ऐसे परम चैतन्य शक्तिरूप समस्त वस्तुवोंको प्रकाश करनेवाले अनन्तज्ञान अनन्त दर्श नादि गुणोंका अन्त (पार) नहीं है । फिर कैसे हैं जिन ? [जितभवेभ्यः] जीता है पंचपरावर्तनरूप अनादि संसार जिन्होंने, अर्थात्-जो कुछ करना था सो करलिया, संसारसे मुक्त (पृथक् ) हुये और जो पुरुष कृतकृत्य दशाको (मोक्षावस्थाको) प्राप्त नहिं हुये उन पुरुषोंको शरणरूप हैं. ऐसे जो जिन हैं, तिनको नमस्कार होहु ॥ ___ आगे आचार्यवर जिनागमको नमस्कार करके पंचास्तिकायरूप समयसार ग्रंथके कह. नेकी प्रति करते हैं।
समणमुहुरगाह चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं । एसो पणमिय सिरसा समयभियं सुणह वोच्छामि ॥२॥
संस्कृतछाया. श्रमणमुखोद्गतार्थ चतुर्गतिनिवारणं सनिर्वाणं ।
एप प्रणम्य शिरसा समयमिमं शृणुत वक्ष्यामि ।। २ ॥ पदार्थ-[अहं इमं समयं वक्ष्यामि ] मैं कुंदकुंदाचार्य जो हूं सो इस पंचास्तिकायरूप समयसार नामक ग्रन्थको कहूंगा. [एप शृणुत] इसको तुम सुनो. क्या करके कहूंगा? [श्रमणमुखोद्गतार्थ शिरसा प्रणम्य ] श्रमण कहिये सर्वज्ञ वीतरागदेव मुनिके मुखसे उत्पन्न हुये पदार्थसमूहसहित वचन, तिनको मस्तकसे प्रणाम करके कहूंगा, क्योंकि सर्वज्ञके वचन ही प्रमाणभूत हैं, इस कारण इनके ही आगमको नमस्कार करना योग्य है, और इनका ही कथन योग्य है । कैसा है भगवत्प्रणीत आगम ? [चतुर्गतिनिवारणं] नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव, इन चार गतियोंको निवारण करनेवाला है, अर्थात् संसारके दुःखोंका विनाश करनेवाला है। फिर कैसा है आगम ?-[सनिर्वाणं] मोक्षफलकर सहित है; अर्थात् शुद्धात्मतत्त्वकी प्राप्तिरूप मोक्षपदका परंपरायकारणरूप है. इस प्रकार भगवत्प्रणीत आगमको नमस्कार करके पंचास्तिकाय नामक समयसारको कहूंगा. ___ आगम दो प्रकारका है:-एक अर्थसमयरूप है, एक शब्दसमयरूप है. शब्दसमयरूप जो आगम है सो अनेक शब्दसमयकर कहा जाता है. अर्थसमय वह है जो भगवत्प्रणीत है ।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । आगे शब्द, ज्ञान, अर्थ, इन तीनों भेदोंसे समयशब्दका अर्थ और लोकालोकका भेद कहते हैं:
समचाउ चण्हं समत्ति जिणुत्तहिं पण्णतं । सो चेव यदि लोओलतो अलिओ अलोओ खं ॥३॥
संस्कृतछाया. समवायो वा पंचानां समय इति जिनोत्तमः प्रज्ञप्तं । ।
स एव च भवति लोकस्ततोऽमितोऽलोकः खं ॥ ३ ॥ पदार्थ-पंचास्तिकायका जो [समवायः] समूह सो समय है. [इति] इस कार [जिनोत्तमैः ] सर्वज्ञ वीतराग देव करके [प्रज्ञप्तं ] कहा गया है, अर्थात् , समय शब्द तीन प्रकार है:-जैसे शब्दसमय, ज्ञानसमय, और अर्थसमय. इन तीनों भेदोंसे जो न पंचास्तिकायकी रागद्वेपरहित यथार्थ अक्षर, पद वाक्यकी रचना सो द्रव्यश्रुतरूप शब्दसमय है; और उस ही शब्दश्रुतका मिथ्यात्वभावके नष्ट होनेसे जो यथार्थ ज्ञान होय यो भावश्रुतरूप ज्ञानसमय है; और जो सम्यग्ज्ञानकेद्वारा पदार्थ जाने जाते हैं, उनका साम अर्थसमय कहा जाता है. [स एव च] वह ही अर्थसमय पंचास्तिकायरूप सबका सब [लोकः भवति ] लोक नामसे कहा जाता है. [ततः] तिस लोकसे भिन्न [ अमितः] पर्यादारहित अनन्त [खं] आकाश है सो [अलोकः ] अलोक है ।
भावार्थ-अर्थसमय लोक अलोकके भेदसे दो प्रकार है. जहां पंचास्तिकायका समूह है वह तो लोक है, और जहां अकेला आकाश ही है उसका नाम अलोक है । ___ यहां कोई प्रश्न करें कि, पद्र्व्यात्मक लोक कहा गया है सो यहां पंचास्तिकायकी लोक संज्ञा क्यों कही ? तिसका समाधानः
यहां (इस ग्रन्थमें) मुख्यतासे पंचास्तिकायका कथन है. कालद्रव्यका कथन गौण है. इस कारण लोकसंज्ञा पंचास्तिकायकी ही कही है । कालका कथन नहीं किया है. उसमें मुख्य गाणका भेद है. पद्र्व्यात्मक लोक यह भी कथन प्रमाण है, परन्तु यहांपर विवक्षा नहीं है । आगे पंचास्तिकायके विशेष नाम और सामान्य विशेष अस्तित्व और कायको कहते हैं:
जीवा पुग्गलकाया धमाधमा तहेव आया। अत्थितहि य णियदा अणणसइया अणुमहंता ॥४॥
संस्कृतछाया. जीवाः पुद्गलकाया धर्माधौं तथैव आकाशम् ।
अस्तित्वे च नियता अनन्यमया अणुमहान्तः ।। ४ ।। पदार्थ-[जीवाः] अनन्त जीवद्रव्य, [पुद्गलकायाः] अनन्त पुद्गलद्रव्य, [ धम्मोधा] एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, [तथैव] तैसे ही [आकाशं] एक
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आकाशद्रव्य, इन द्रव्योंके विशेष नाम सार्थक पंचास्तिकाय जानना. [अस्तित्वे च]
और पंचास्तिकाय अपने सामान्य विशेष अस्तित्वमें [नियताः] निश्चित हैं, और [अनन्यमयाः ] अपनी सत्तासे भिन्न नहीं हैं । अर्थात्-जो उत्पादव्ययध्रौव्यरूप हैं सो सत्ता है, और जो सत्ता है सो ही अस्तित्व कहा जाता है । वह अस्तित्व सामान्यविशेषात्मक है। ये पंचास्तिकाय अपने अपने अस्तित्वमें है. अस्तित्व है सो अभेदरूप है. ऐसा नहीं है, जैसेंकि किसी वर्तनमें कोई वस्तु हो, किन्तु जैसे घटपटरूप होता है, वा अग्नि उप्णता एक है। जिनेन्द्र भगवान्ने दो नय बताये हैं:एक द्रव्यार्थिकनय, और दूसरा पर्यायार्थिकनय है । इन दो नयोंके आश्रय ही कथन है । यदि इनमेंसे एक नय न हो तो तत्त्व कहे नहिं जायँ, इस कारण अस्तित्व गुण होनेके कारण द्रव्यार्थिकनयसे द्रव्यमें अभेद है. पर्यायाथिकनयसे भेद है. जैसे गुण गुणीमें होता है. इस कारण अस्तित्व विषै तो ये पंचास्तिकाय वस्तुसे अभिन्नही हैं। फिर पंचास्तिकाय कैसे हैं कि, [अणुमहान्तः] निर्विभाग मूर्तीक अमूर्तीक प्रदेशन कर बडे है, अनेक प्रदेशी हैं।
भावार्थ-ये जो पहिले पांच द्रव्य अस्तित्वरूप कहे वे कायवन्त भी हैं, क्योंकि ये सब ही अनेक प्रदेशी हैं । एक जीवद्रव्य, और धर्म, अधर्मद्रव्य ये तीनों ही असंख्यात प्रदेशी हैं । आकाश अनंत प्रदेशी है । वहु प्रदेशीको काय कहा गया है । इस कारण ये ४ द्रव्य तो अखण्ड कायवन्त हैं । पुद्गलद्रव्य यद्यपि परमाणुरूप एक प्रदेशी है, तथापि मिलन शक्ति है, इस कारण काय कहिये है. व्यणुक स्कन्धसे लेकर अनन्त परमाणुस्कंध पर्यन्त व्यक्तिरूप पुद्गल कायवन्त कहा जाता है, इस कारण पुद्गलसहित ये पांचों ही अस्तिकाय जानने । कालद्रव्य (कालाणु) एक प्रदेशी है, शक्तिव्यक्तिकी(?) अपेक्षासे कालाणुवोंमें मिलन शक्ति नहीं है, इस कारण कालद्रव्य कायवन्त नहीं है ।
आगे पंचास्तिकायके अस्तित्वका स्वरूप दिखाते हैं, और काय किस प्रकारसे है सो भी दिखाया जाता है:
जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सह पन्ज एहिं विविहेहिं । जे होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलुकं ॥५॥
संस्कृतछाया. येपामस्तिस्वभावः गुणैः सह पर्यायैर्विविधैः ।
ते भवन्त्यरितकायाः निप्पन्नं यैस्त्रैलोक्यम् ।। ५ ।। पदार्थ-[येपां] जिन पंचास्तिकायोंका [विविधैः] नाना प्रकारके [गुणः] सहभृतगुण और [पर्यायः] व्यतिरेकरूप अनेक पर्यायोंके [सह] सहित [अस्तिस्वभावः] अस्तित्वस्वभाव है [ते] वे ही पंचास्तिकाय [अस्तिकायाः] अस्तिकायवाले
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । भवन्ति ] है । कैसे हैं वे पंचास्तिकाय ? [यै] जिनकेद्वारा [त्रैलोक्यं ] तीन लोक [निष्पन्नं] उत्पन्न हुये हैं।
भावार्थ-इन पंचास्तिकायनिको नानाप्रकारके गुणपर्यायके स्वरूपसे भेद नहीं है, एकता है । पदार्थोंमें अनेक अवस्थारूप जो परिणमन है, वे पर्यायें कहलाती हैं. और पदार्थमें सदा अविनाशी साथ रहते हैं, वे गुण कहे जाते हैं । इस कारण एक वस्तु एक पर्यायकर उपजती है, और एक पर्यायकर नष्ट होती है, और गुणोंकर ध्रौव्य है. यह उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वस्तुका अस्तित्वस्वरूप जानना, और जो गुणपर्यायोंसे सर्वथा प्रकार वस्तुकी पृथकता ही दिखाई जाय तो अन्य ही विनशै, और अन्य ही उपजै, और अन्य ही ध्रुव रहै. इस प्रकार होनेसे वस्तुका अभाव होजाता है. इस कारण कथंचित् साधनिका मात्र भेद है. स्वरूपसे तो अभेदही है । इस प्रकार पंचास्तिकायका अस्तित्व है । इन पांचों द्रव्योंको कायत्व कैसे है, सो कहते हैं कि, जीव, पुद्गल,
धर्म, अधर्म, और आकाश ये पांच पदार्थ अंशरूप अनेक प्रदेशोंको लिये हुये हैं। वे ___ प्रदेश परस्पर अंश कल्पनाकी अपेक्षा जुदे जुदे हैं. इस कारण इनका भी नाम पर्याय है,
अर्थात् उन पांचों द्रव्योंकी उन प्रदेशोंसे स्वरूपमें एकता है, भेद नहीं है अखंड है, इस कारण इन पांचों द्रव्योंको कायवंत कहा गया है । ___ यहां कोई प्रश्न करै कि, पुद्गल परमाणु तो अप्रदेश हैं, निरंश हैं, इनको कायत्व कैसे होय ! तिसका उत्तर यह है किः-पुद्गल परमाणुवोंमें मिलनशक्ति है, स्कन्धरूप होते हैं इस कारण सकाय हैं. इस जगह कोई यह आशंका मत करो कि, पुद्गल द्रव्य मूर्तीक है, इसमें अंशकल्पना वनती है; और जो जीव, धर्म, अधर्म, आकाश ये ४ द्रव्य हैं सो अमूर्तीक हैं, और अखंड हैं; इनमें अंशकथन वनता नहीं, पुद्गल में ही बनता है। मूर्तीक पदार्थको कायकी सिद्धि होय है, इस कारण इन चारोंको अंशकल्पना मत कहो, क्योंकि अमूर्त अखंड वस्तुमें भी प्रत्यक्ष अंशकथन देखनेमें आता है: यह घटाकाश है, यह घटाकाश नहीं है, इस प्रकार आकाशमें भी अंशकथन होता है । इस कारण कालद्रव्यके विना अन्य पांच द्रव्योंको अंशकथन और कायत्वकथन किया गया है. इन पंचास्तिकायोंसे ही तीन लोककी रचना हुई है. इन ही पांचों द्रव्योंके उत्पादव्ययध्रौव्यरूप भाव त्रैलोक्यकी रचनारूप हैं। धर्म,अधर्म, आकाशका परिणमन ऊर्ध्वलोक, अधोलोक,मध्यलोक, इस प्रकार तीन भेद लिये हुये हैं। इस कारण इन तीनों द्रव्योंमें कायकथन, अंशकथन है; और जीवद्रव्य भी दण्ड कंपाट प्रतर पूर्ण अवस्थावोंमें लोकप्रमाण होता है. इस कारण जीवमें भी सकाय वा अंशकथन है । पुद्गलद्रव्यमें मिलनशक्ति है, इस कारण व्यक्तरूपमहास्कन्धकी अपेक्षासे ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, मध्यलोक इन तीनो लोकरूप परिणमता है. इस कारण अंशकथन पुद्गलमें भी सिद्ध होता है । इन पंचास्तिकायोंकेद्वारा लोककी सिद्धि, इसी प्रकार है।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगे पंचास्तिकाय और कालको द्रव्यसंज्ञा कहते हैं:
ते चेव अत्थिकाया ते कालियभावपरिणदा णिचा। .. गच्छंति दवियभावं परियणलिंगसंजुत्ता ॥६॥
संस्कृतछाया. तेचैवास्तिकायाः त्रैकालिकभावपरिणता नित्याः । . गच्छन्ति द्रव्यभावं परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः ॥ ६ ॥ पदार्थ-[परिवर्त्तनलिङ्गसंयुक्ताः] पुद्गलादि द्रव्योंका परिणमन सो ही है लिङ्ग (चिह्न) जिसका ऐसा जो काल, तिसकर संयुक्त [ते एव] वे ही [अस्तिकायाः] पंचास्तिकाय [द्रव्यभावं] द्रव्यके स्वरूपको [गच्छन्ति ] [प्राप्त होते हैं. अर्थात् पुद्गलादि द्रव्योंके परिणमनसे कालद्रव्यका अस्तित्व प्रगट होता है । पुद्गल परमाणु एक प्रदेशसे प्रदेशान्तरमें जब जाता है, तब उसका नाम सूक्ष्मकालकी पर्याय अविभागी होता है. समयकाल पर्याय है । उसी समय पर्यायकेद्वारा कालद्रव्य जाना गया है. इस कारण पुद्गलादिकके परिणमनसे कालद्रव्यका अस्तित्व देखनेमें आता है। कालकी पर्यायको जाननेके लिये बहिरंग निमित्त पुद्गलका परिणाम है । इसी अकाय कालद्रव्यसहित उक्त पंचास्तिकाय ही षद्रव्य कहलाते हैं । जो अपने गुण पर्यायोंकर परिणमा है, परिणमता है, और परिणमैगा उसका नाम द्रव्य है । ये षड्द्रव्य कैसे हैं कि,-[त्रैकालिकभावपरिणताः] अतीत, अनागत, वर्तमान काल संबंधी जो भाव कहिये गुणपर्याय हैं उनसे परिणये हैं. फिर कैसे हैं ये षड्द्रव्य ?- [नित्याः] नित्य अविनाशीरूप हैं । भावार्थ-यद्यपि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे त्रिकालपरिणामीकर विनाशीक हैं, परन्तु द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा टंकोत्कीर्णरूप (टांकीसे उकेरे हुयेकी समान जैसेका तैसा) सदा अविनाशी हैं ।
आगे यद्यपि पद्रव्य परस्पर अत्यन्त मिलेहुये हैं, तथापि अपने स्वरूपको छोडते नहीं ऐसा कथन करते हैं:
, अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्त । मेलंता वि य णिचं सगं सभावं ण विजहंति ॥७॥
संस्कृतछाया. · अन्योऽन्यं प्रविशन्ति ददन्यवकाशमन्योऽन्यस्य ।
मिलन्त्यपि च नित्यं स्वकं स्वभावं न विजहन्ति ।। ७ ॥ पदार्थ- [अन्योऽन्यं प्रविशन्ति ] छहों द्रव्य परम्पर सम्बन्ध करते हैं, अर्थात् एक दूसरेसे मिलते हैं, और [अन्योऽन्यं] परम्पर एक दूसरेको [अवकाशं ] स्थानदान [ददन्ति ) देते हैं. कोई भी द्रव्य किसी द्रव्यको भी बाधा नहीं देता [अपि च ] और [नित्यं] सदाकाल [मिलन्ति ] मिलते रहते हैं. अर्थात् परम्पर एक क्षेत्रावगाहरूप
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । मिलते हैं, तथापि [स्वकं ] आत्मीक शक्तिरूप [स्वभावं] परिणामोंको [न विजहन्ति] नहीं छोडते हैं।
भावार्थ-यद्यपि छहों द्रव्य एक क्षेत्रमें रहते हैं, तथापि अपनी २ सत्ताको कोई भी द्रव्य छोडता नहीं है। इस कारण ये द्रव्य मिलकर एक नहीं हो जाते. सब अपने २ स्वभावको लिये पृथक् २ अविनाशी रहते हैं। यद्यपि व्यवहारनयसे बंधकी अपेक्षासे जीव
पुद्गल एक है, तथापि निश्चयनयकर अपने स्वरूपको छोडते नहीं है। ____ आगे सत्ताका स्वरूप कहते हैं:
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥८॥
संस्कृतछाया. सत्ता सर्वपदस्था सविश्वरूपा अनन्तपर्याया ॥
भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका सप्रतिपक्षा भवत्येका ।। ८ ।। पदार्थ- [सत्ता] अस्तित्वस्वरूप [एका] एक [भवति ] है. फिर कैसी है ? [सर्वपदस्था] समस्त पदार्थोंमें स्थित है [ सविश्वरूपा] नानाप्रकारके स्वरूपोंसे संयुक्त है [अनन्तपर्याया] अनन्त हैं परिणाम जिसविपै ऐसी है [ भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका ] उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है [सप्रतिपक्षा] प्रतिपक्षसंयुक्त है । ___ भावार्थ-जो अस्तित्व है, सो ही सत्ता है. जो सत्ता लिये है, वही वस्तु है. वस्तु नित्य अनित्य स्वरूप है । यदि वस्तुको सर्वथा नित्य ही माना जाय तो सत्ताका नाश होजाय; क्योंकि नित्य वस्तुमें क्षणवर्ती पर्यायके अभावसे परिणामका अभाव होता है. परिणामके अभावसे वस्तुका अभाव होता है । जैसे मृत्पिंडादिक पायोंके नाश होनेसे मृत्तिकाका नाश होता है । कदाचित् वस्तुको क्षणिक ही माना जाय तो यह वन्तु वही है जो मैने पहिले देखी थी. इस प्रकारके ज्ञानका नाश होनेसे वस्तुका अभाव हो जायगा. इस कारण यह वस्तु जो है, सो मैने पहिले देखी थी, ऐसे ज्ञानके निमित्त वस्तुको ध्रौव्य (नित्य ) मानना योग्य है । जैसे वालक युवा वृद्धावस्था विषै पुरुष वही नित्य रहता है. उसी प्रकार अनेक पर्यायोंमें द्रव्य नित्य है । इस कारण वस्तु नित्य अनित्य स्वरूप है, और इसीसे यह बात सिद्ध हुई कि, वस्तु जो है सो उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप है. पर्यायोंकी अनित्यताकी अपेक्षासे उत्पादव्ययरूप है, और गुणोंकी नित्यता होनेकी अपेक्षा धौव्य है. इस प्रकार तीन अवस्थाको लिये वस्तु सत्तामात्र होता है । सत्ता उत्पादव्ययधौव्यम्वरूप है । यद्यपि नित्य अनित्यका भेद है, तथापि कथंचित्प्रकार सत्ताकी अपेक्षासे एकता है । सत्ता वही है जो नित्यानित्यात्मक है । उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक जो है, सो सकल विस्तारलिये पदार्थोंमें सामान्य कथनके करनेसे सत्ता एक है, समस्त पदार्थों में रहती है. क्योंकि ‘पदार्थ है' ऐसा जो कथन है, और पदार्थ है' ऐसी जो जाननेकी प्रतीति है सो उत्पादव्यय
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
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धौव्यस्वरूप है; उसीसे सत्ता है । यदि सत्ता नहि होय तो पदार्थोंका अभाव होजाय, क्योंकि सत्ता मूल है, और जितना कुछ समस्त वस्तुका विस्तार स्वरूप है, सो भी सत्तासे गर्भित है | और अनंत पर्यायोंके जितने भेद हैं, उतने सब इन उत्पादव्ययधौव्य स्वरूप भेदों से जाने जाते हैं । यह ही सामान्य स्वरूप सत्ता विशेषताकी अपेक्षासे प्रतिपक्ष लिये है । इस कारण सत्ता दो प्रकारकी है. अर्थात् महासत्ता और अवान्तर सत्ता । जो सत्ता उत्पादव्ययधौव्यरूप त्रिलक्षणसंयुक्त है, और एक है, तथा समस्त पदार्थोंमें रहती है, समस्तरूप है, और अनन्तपर्यायात्मक है सो तो महासत्ता है. और जो इसकी ही प्रतिपक्षिणी है, सो अवान्तरसत्ता है । सो यह महासत्ता की अपेक्षासे असत्ता है । उत्पादादि तीन लक्षणगर्भित नहीं है, अनेक है. एक पदार्थ में रहती है, एक स्वरूप है; एक पर्यायात्मक है. इस प्रकार प्रतिपक्षिणी अवान्तरसत्ता जाननी । इन दोनों में से जो समस्त पदार्थोंमें सामान्यरूपसे व्याप रही है, वह तो महासत्ता है । और जो दूसरी है सो अपने एक एक पदार्थके स्वरूपविषै निश्चिन्त विशेषरूप वर्ते है. इस कारण उसे अवान्तरसत्ता कहते हैं । महासत्ता अवान्तर सत्ताकी अपेक्षासे असत्ता है. अवान्तर सत्ता महासत्ता की अपेक्षासे असत्ता है. इसी प्रकार सत्ताकी असत्ता है. उत्पादादि तीन लक्षणसंयुक्त जो सत्ता है, वह ही तीन लक्षणसंयुक्त नहीं है | क्योंकि जिस स्वरूपसे उत्पाद है, उसकर उत्पाद ही है; जिस स्वरूकर व्यय है, उसकर व्ययही है; जिस स्वरूपकर धौव्यता है, उसकर धौव्य ही है. कारण उत्पादव्ययप्रौव्य जो वस्तुके स्वरूप हैं, उनमें एक एक स्वरूपको उत्पादादि तीन लक्षण नहीं होते. इसी कारण तीन लक्षणरूप सत्ताके तीन लक्षण नहीं हैं; और उस ही महासत्ताको अनेकता है.. क्योंकि निज निज पदार्थों में जो सत्ता है उससे पदार्थोंका निश्चय होता है । इस कारण सर्वपदार्थव्यापिनी महासत्ता निज २ एक पदार्थकी अपेक्षा से एक एक पदार्थविषै तिष्ठे है, ऐसी है । और जो वह महासत्ता सकलस्वरूप है, सो ही एकरूप हैं, क्योंकि अपने अपने पदार्थोंमें निश्चित एक ही स्वरूप है । इस कारण सकल स्वरूप सत्ताको एकरूप कहा जाता है, और जो वह महासत्ता अनंतपर्य्यायात्मक है, उसीको एक पर्यायस्वरूप कहते है; क्योंकि अपने २ पर्यायोंकी अपेक्षासे द्रव्योंकी अनन्त सत्ता हैं । एक द्रव्यके निश्चित पर्यायकी अपेक्षासे एकपर्यायरूप कहा जाता है. इसकारण अनन्तपर्यायस्वरूप सत्ताको एक पर्यायस्वरूप कहते हैं । यह जो सत्ताका स्वरूप कहा, तिसमें कुछ विरोध नहीं हैं. क्योंकि भगवान्का उपदेश सामान्यविशेषरूप दो नयोंके आधीन है. इसकारण महासत्ता और अवान्तर सत्तावों में कोई विरोध नहीं है ॥ आगे सत्ता और द्रव्यमें अभेद दिखाते हैं, -
इस
दवियदि गच्छदि ताई ताई सभाव पजयाई जं । दवियं तं भण्णंने अण्णण्णभद्रं तु सत्तादो ॥ ९ ॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
संस्कृतछाया. द्रवति गच्छति तांस्तान् सद्भावपर्यायान् यत् ।
द्रव्यं तत् भणन्ति अनन्यभूतं तु सत्तातः ॥ ९॥ पदार्थ-[यत् ] जो सत्तामात्रवस्तु [तान्तान् ] उन उन अपने [सद्भावपर्यायान्] गुणपर्यायस्वभावनको [द्रवति गच्छति ] प्राप्त होती है अर्थात् एकताकर व्याप्त होती है [तत्] सो [द्रव्यं] द्रव्यनाम [ भणन्ति ] आचार्यगण कहते हैं । अर्थात्द्रव्य उसको कहते हैं कि जो अपने सामान्यस्वरूपकरके गुणपर्यायोंसे तन्मय होकर परिणमे । [तु] हि फिर वह द्रव्य निश्चयसे [सत्तातः] गुणपर्यायात्मकसत्तासे [अनन्यभूतं] जुदा नहीं है। ___ भावार्थ-यद्यपि कथंचित्प्रकार लक्ष्यलक्षण भेदसे सत्तासे द्रव्यका भेद है तथापि सत्ता और द्रव्यका परस्पर अभेद है । लक्ष्य वह होता है कि जो वस्तु जानी जाय. लक्षण वह होता है कि जिसकेद्वारा वस्तु जानी जाय. द्रव्य लक्ष्य है. सत्ता लक्षण है । लक्षणसे लक्ष्य जाना जाता है । जैसे उष्णतालक्षणसे लक्ष्यस्वरूप अग्नि जानी जाती है । तैसे ही सत्ता लक्षणकेद्वारा द्रव्यलक्ष्य लखिये है अर्थात् जाना जाता है । इस कारण पहिले जो सत्ताके लक्षण अस्तित्वस्वरूप, नास्तित्वस्वरूप, तीनलक्षणस्वरूप, तीनलक्षणस्वरूपसे रहित, एकस्वरूप और अनेकस्वरूप, सकलपदार्थव्यापी और एक पदार्थव्यापी, सकलरूप और एकरूप, अनन्तपर्यायरूप और एकपर्यायरूप इस प्रकार कहे थे, सो सव ही पृथक् नहीं हैं, एक स्वरूप ही हैं । यद्यपि वस्तुस्वरूपको दिखानेकेलिये सत्ता और द्रव्यमें भेद कहते हैं. तथापि वस्तुस्वरूपसे विचार किया जाय तो कोई भेद नहीं है । जैसे उप्णता और अग्नि अभेदरूप हैं।' आगे द्रव्यके तीन प्रकार लक्षण दिखाते हैं,
व्वं सल्लखणियं उप्पाद्व्वयध्रुवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥१०॥
संस्कृतछाया. 'द्रव्यं सल्लक्षणकं उत्पादव्ययध्रुवत्वसंयुक्तं ।
गुणपर्यायाश्रयं वा यत्तद्भणन्ति सर्वज्ञाः ॥ १० ॥ पदार्थ- [ यत् ] जो [ सल्लक्षणकं ] सत्ता है लक्षण जिसका ऐसा है [ तत् ] तिस वस्तुको [ सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञ वीतरागदेव हैं ते [ द्रव्यं ] द्रव्य [ भणन्ति ] कहते हैं [ वा] अथवा [ उत्पादव्ययध्रुवत्वसंयुक्तं] उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्त द्रव्यका लक्षण कहते हैं। [वा ] अथवा [गुणपर्यायाश्रयं ] गुणपर्यायका जो आधार है, उसको द्रव्यका लक्षण कहते हैं।
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१०
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावार्थ-द्रव्यके तीन प्रकारके लक्षण हैं. एक तो द्रव्यका सत्तालक्षण है. दूसरा उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्तलक्षण है. तीसरा गुणपर्यायश्रित लक्षण है. इन तीनों ही लक्षणोंमें पहिले २ लक्षण सामान्य हैं अगले २ विशेष हैं, सो दिखाया जाता है. जो प्रथम ही सत्लक्षण कहा, वह तो सामन्य कथनकी अपेक्षा द्रव्यका लक्षण जानना । द्रव्य अनेकान्त स्वरूप है. द्रव्यका सर्वथाप्रकार सत्ता ही लक्षण है. इस प्रकार कहनेसे लक्ष्य लक्षणमें भेद नहिं होता. इस कारण द्रव्यका लक्षण उत्पादव्ययध्रौव्य भी जानना । एक वस्तुमें अविरोधी जो क्रमवर्ती पर्याय हैं, उनमें पूर्व भावोंका विनाश होता है, अगले भावोंका उत्पाद होता है, इस प्रकार उत्पादव्ययके होतेहुये भी द्रव्य अपने निजस्वरूपको नहिं छोडता है, वही ध्रौव्य है । ये उत्पादव्ययध्रौव्य ही द्रव्यके लक्षण हैं । ये तीनों भाव सामान्य कथनकी अपेक्षा द्रव्यसे भिन्न नहीं है। विशेष कथनकी अपेक्षा द्रव्यसे भेद दिखाया जाता है । एक ही समयमें ये तीनों भाव होते हैं, द्रव्यके स्वाभाविक लक्षण हैं. उत्पादव्ययध्रौव्य द्रव्यका विशेष लक्षण है. इस प्रकार सर्वथा कहा नहिं जाता, इस कारण गुण पर्याय भी द्रव्यका लक्षण है. कारण कि-द्रव्य अनेकान्तस्वरूप है. अनेकान्त तब ही होता है-जब कि द्रव्य अनन्तगुणपर्याय होंय । इसकारण गुण और पर्याय द्रव्यके स्वरूपको विशेष दिखाते हैं । जो द्रव्यसे सहभूतताकर अविनाशी हैं वे तो गुण हैं, जो क्रमवर्ती करकें विनाशीक हैं ते पर्याय हैं । ये द्रव्योंमें गुण और पर्याय कथंचित् प्रकारसे अभेद हैं
और कथंचित्प्रकार भेदलिये हैं. संज्ञादि भेदकर तौ भेद है, वस्तुतः अभेद है। यह जो पहिले ही तीन प्रकार द्रव्यके लक्षण कहे, तिनमेंसे जो एक ही कोई लक्षण कहा जाय तो शेषक दो लक्षण भी उसमें गर्मित हो जाते हैं। यदि द्रव्यका लक्षण सत् कहा जाय तो उत्पादव्यय धौव्य और गुणपर्यायवान् दोनों ही लक्षण गर्मित होते हैं. क्योंकि जो 'सत्' है सो नित्य अनित्यस्वरूप है. नित्य स्वभावमें ध्रौव्यता आती है. अनित्य स्वभावमें उत्पाद और व्यय आता हैं । इस प्रकार उत्पादव्ययध्रौव्य सत्लक्षणके कहनेसे आते हैं और गुणपर्याय लक्षण भी आता है. गुणके कहते ध्रौव्यता आती है और पर्यायके कहते उत्पादव्यय आते हैं ।
और इसी प्रकार उत्पादव्ययध्रौव्य लक्षण कहनेसे सत्लक्षण आता है. गुणपर्याय लक्षण भी आता है. और गुणपर्यायद्रव्यका लक्षण कहते सत्लक्षण आता है और उत्पादव्ययध्रौव्य लक्षण भी आता है. क्योंकि-द्रव्य नित्य अनित्यस्वरूप है. लक्षण नित्य अनित्य स्वरूपको सूचन करता है. इस कारण इन तीनों ही लक्षणोंमे सामान्य विशेपताकरके तो भेद है. वास्तवमें कुछ भी भेद नहीं है । आगे द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयोंके भेदकर द्रव्यके लक्षणका भेद दिखाते हैं ।
उप्पत्तीव विणासो दव्वस्स य णत्थि अस्थि सम्भावो । विगमुप्पादधुवत्तं करंति तस्सेच पज्जायाः ॥ ११ ॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
संस्कृतछाया. उत्पत्तिर्वा विनाशो द्रव्यस्य च नास्त्यस्ति सद्भावः ।
विगमोत्पादध्रुवत्वं कुर्वन्ति तस्यैव पर्यायाः ॥ ११ ॥ पदार्थ-[ द्रव्यस्य ] अनादिनिधन त्रिकाल अविनाशी गुणपर्यायस्वरूपद्रव्यका [ उत्पत्ति ] उपजना [ वा ] अथवा [विनाशः ] विनसना [ नास्ति ] नहीं है. [च ]
और [ सद्भावः ] सत्तामात्रस्वरूप [ अस्ति ] है [ तस्य एव ] तिस ही द्रव्यके [पर्यायाः] नित्य अनित्य परिणाम [विगमोत्पादध्रुवत्वं ] उत्पादव्ययध्रौव्यको [कुर्वन्ति ] करते हैं ।
भावार्थ-अनादि अनंत अविनाशी टंकोत्कीर्ण गुणपर्यायस्वरूप जो द्रव्य है, सो उपजता विनशता नहीं है परन्तु उसी द्रव्यमें कइएक परिणाम अविनाशी हैं. कईएक परिणाम विनाशीक हैं । जो गुणरूप सहभावी हैं वे तो अविनाशी हैं और जो पर्यायरूप क्रमवर्ती हैं ते विनाशीक हैं । इस कारण यह बात सिद्ध हुई कि द्रव्यार्थिकनयसे तो द्रव्य धौव्य स्वरूप है और पर्यायार्थिकनयसे उपजै और विनशै भी है । इस प्रकार द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दो नयोंके भेदसे द्रव्यस्वरूप निराबाध सधै है। ऐसा ही अनेकान्तरूप
द्रव्यका स्वरूप मानना योग्य है। ___ आगें यद्यपि द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयोंके भेदसे द्रव्यमें भेद है तथापि अभेद दिखाते हैं,
पजयविजुदं व्वं व्वविजुत्ता य पजया नस्थि । दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परूविंति ॥१२॥
संस्कृतछाया. पर्ययवियुतं द्रव्यं द्रव्यवियुक्ताश्च पर्याया न सन्ति ।
दूयोरनन्यभूतं भावं श्रमणा प्ररूपयन्ति ॥ १२ ॥ पदार्थ-[पर्ययवियुतं ] पर्यायरहित [ द्रव्यं न ] द्रव्य ( पदार्थ) नहीं है [च] और [ द्रव्यवियुक्ताः ] द्रव्यरहित [ पर्यायाः] पर्याय [ न सन्ति ] नहीं हैं [ श्रमणाः] महामुनि जे हैं ते [ द्वयोः] द्रव्य और पर्यायका [अनन्यभूतं भावं] अभेदस्वरूप [प्ररूपयन्ति ] कहते हैं। __ भावार्थ-जैसें गोरस अपने दूध दही घी आदिक पर्यायोंसे जुदा नहीं है, तिसी प्रकार ही द्रव्य अपनी पर्यायोंसे जुदा (पृथक्) नहीं है और पर्याय भी द्रव्यसे जुदे नहीं है. इसी प्रकार द्रव्य और पर्यायकी एकता है. यद्यपि कथंचित् प्रकार कथनकी अपेक्षा समझानेकेलिये भेद हैं तथापि वस्तुम्वरूपके विचारते भेद नहीं है. क्योंकि द्रव्य और पर्यायका परस्पर एक अस्तित्व है. जो द्रव्य न होय तो पर्यायका अभाव हो जाय और पर्याय नहिं होय तो द्रव्यका अभाव हो जाय । जिस प्रकार दुग्धादि पर्यायके अभावसे गौरसका
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अभाव है और गौरसके अभावसे दुग्धादि पर्यायोंका अभाव होता है. इसीप्रकार इन दोनों द्रव्यपर्यायोंमेंसे एकका अभाव होनेसे दोनोंका अभाव होता है. इसकारण इन दोनोंमें एकता ( अभेद ) माननी योग्य है। आगे द्रव्य और गुणमें अभेद दिखाते हैं।
व्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि। अव्वदिरित्तो भावो व्वगुणाणं हवदि तमा ॥ १३ ॥
संस्कृतछाया. द्रव्येन विना न गुणा गुणैर्द्रव्यं विना न सम्भवति ।
अव्यतिरिक्तो भावो द्रव्यगुणानां भवति तस्मात् ।। १३॥ . पदार्थ-[द्रव्येन विना ] सत्तामात्र वस्तुके विना [गुणाः] वस्तुको जनानेवाले सहभूतलक्षणरूप गुण [न सम्भवति ] नहीं होते [गुणैः विना ] गुणोंके विना [द्रव्यं] द्रव्य [न सम्भवति ] नहीं होता. [ तस्मात् ] तिस कारणसे [द्रव्यगुणानां ] द्रव्य
और गुणोंका [अव्यतिरिक्तः ] जुदा नहीं है ऐसा [ भावः ] स्वरूप [ भवति ] होता है। __भावार्थ-द्रव्य और गुणोंकी एकता ( अभिन्नता ) है अर्थात् पुद्गलद्रव्यसे जुदे स्पर्श रस गन्ध वर्ण नहीं पाये जाते. सो दृष्टान्त विशेषताकर दिखाया जाता है । जैसे एक आम ( आम्रफल ) द्रव्य है और उसमें स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुण हैं. जो आग्रफल न होय तो जो स्पर्शादि गुण हैं, उनका अभाव हो जाय. क्योंकि आश्रयविना गुण कहांसे होय ? और जो स्पर्शादि गुण नहीं होय तो आमका ( आम्रफलका ) अभाव होय क्योंकि
गुणके विना आमका अस्तित्व कहां? अपने गुणोंकर ही आमका अस्तित्व है। इसी प्रकार .. द्रव्य और गुणकी एकता ( अभेदता) जाननी. यद्यपि किसी ही एक प्रकारसे कथनकी
अपेक्षा द्रव्य और गुणमें भेद भी है, तथापि वस्तुस्वरूपकर तो अभेद ही है ॥ ___ आगें जिसकेद्वारा द्रव्यका स्वरूप निराबाध सधता है, ऐसी स्यात्पदगर्भित जो सप्तभङ्गिवाणी है, उसका स्वरूप दिखाया जाता है। . सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तियं । व्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ॥ १४ ॥
संस्कृतछाया. स्यादस्ति नास्त्युभयमवक्तव्यं पुनश्च तत्रितयं ।
द्रव्यं खलु सप्तभङ्गमादेशवशेन सम्भवति ॥ १४ ॥ पदार्थ- खलु] निश्चयसे [ द्रव्यं ] अनेकान्तस्वरूप पदार्थ [आदेशवशेन ] विवक्षाके वशसें [ सप्तभङ्गं] सातप्रकारसे [ सम्भवति ] होता है। वे सात प्रकार कौन कौनसे हैं सो कहते हैं,-[ स्यात् अस्ति ] किस ही एक प्रकार अस्तिरूप है. [ स्यात्
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । नास्ति ] किस ही एक प्रकार नास्तिरूप है. [ उभयं ] किस ही एक प्रकार अस्तिनास्ति रूप है. [ अवक्तव्यं ] किस ही एक प्रकार वचनगोचर नहीं है. [ पुनश्च ] फिर भी [तत त्रितयं ] वे ही आदिके तीनों भंग अवक्तव्यसे कहिये हैं. प्रथम ही-[स्यात् अस्ति अवक्तव्यं] किस ही एक प्रकार द्रव्य अस्तिरूप अवक्तव्य है. दूसरा भंग- स्यात् नास्ति अवक्तव्यं] किस ही एक प्रकार द्रव्य नास्तिरूप अवक्तव्य है और तीसरा भंग-[ स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्यं] किस ही एक प्रकार द्रव्य अस्ति नास्तिरूप अवक्तव्य है । ये सप्तभङ्ग द्रव्यका स्वरूप दिखानेकेलिये वीतरागदेवने कहे हैं । यही कथन विशेपताकर दिखाया जाता है।
१. स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव इस अपने चतुष्टयकी अपेक्षा तो द्रव्य अस्तिस्वरूप है अर्थात् आपसा है ।। - २. परद्रव्य परक्षेत्र परकाल और परभाव इस परचतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्य नास्ति स्वरूप है अर्थात् परसदृश नहीं है। .. ३. उपर्युक्त स्वचतुष्टय परचतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्य क्रमसे तीन कालमें अपने भावनिकर
अस्तिनास्तिस्वरूप है. अर्थात् आपसा है परसदृश नहीं है। ___१. और स्वचतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्य एक ही काल वचनगोचर नहीं है, इस कारण अवक्तव्य है. अर्थात् कहनेमें नहीं आता।
५. और वही स्वचतुष्टयकी अपेक्षा और एक ही काल स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे द्रव्य अस्तिस्वरूप कहिये तथापि अवक्तव्य है।
६. और वही द्रव्य परचतुष्टयकी अपेक्षा और एक ही काल स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षा नास्ति स्वरूप है, तथापि कहा जाता नहीं ।
७. और वही द्रव्य स्वचतुष्टयकी अपेक्षा और परचतुष्टयकी अपेक्षा और एक ही वार स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिनास्तिस्वरूप है तथापि अवक्तव्य है।
इन सप्तभङ्गोंका विशेष स्वरूप जिनागमसे ( अन्यान्य जैनशास्त्रोंसे ) जान लेना. हमसे अल्पज्ञोंकी बुद्धिमें विशेष कुछ आता नहीं है । कुछ संक्षेप मात्र कहते हैं । जैसें कि-एक ही पुरुष पुत्रकी अपेक्षा पिता कहाता है और वही पुरुष अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र कहलाता है और वही पुरुष मामाकी अपेक्षा भाणजा कहलाता है और भाणजेकी अपेक्षा मामा कहलाता है. स्त्रीकी अपेक्षा भरतार (पति ) कहलाता है. वहनकी अपेक्षा भाई भी कहलाता है. तथा वही पुरुष अपने वैरीकी अपेक्षा शत्रु कहलाता है और इप्टकी अपेक्षा मित्र भी कहलाता है. इत्यादि अनेक नातोंसे एक ही पुरुप कथंचित् अनेकप्रकार कहा जाता है. उसही प्रकार एक द्रव्य सप्तभङ्गकेद्वारा साधा जाता है ।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुणपजयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति ॥ १५ ॥
संस्कृतछाया.. . भावस्य नास्ति नाशो नास्ति अभावस्य चैव उत्पादः ।
गुणपर्यायेपु भावा उत्पादव्ययान् प्रकुर्वन्ति ॥ १५ ॥ पदार्थ-[भावस्य ] सत्रूप पदार्थका [ नाशः ] नाश [ नास्ति ] नहीं है [ च एव ] और निश्चयसे [ अभावस्य ] अवस्तुका [ उत्पादः ] उपजना [ नास्ति ] नहीं है । यदि ऐसा है तो वस्तुके उत्पादव्यय किसप्रकार होते हैं ? सो दिखाया जाता है. [भावाः] जो पदार्थ हैं ते [गुणपर्यायेषु] गुणपर्यायोंमें ही [उत्पादव्ययान्] उत्पाद और व्यय [प्रकुर्वन्ति ] करते हैं।
भावार्थ-जो वस्तु है उसका तो नाश नहीं है और जो वस्तु नहीं है, उसका उत्पाद (उपजना) नहीं है । इसकारण द्रव्यार्थिकनयसे न तो द्रव्य उपजै है और न विनशै है ।
और जो त्रिकाल अविनाशी द्रव्यके उत्पादव्यय होते हैं, वे पर्यायार्थिक नयकी विवक्षाकर गुणपर्यायोंमें जानने । जैसें गोरस अपने द्रव्यत्वकर उपजता विनशता नहीं है-अन्यद्रव्यरूप होकर नहिं परणमता है आपसरीखा ही है, परन्तु उसी गौरसमें दधि, माखन, घृतादि, पर्याय उपजै विनशै हैं, वे अपने स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणोंके परिणमनसे एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें हो जाते हैं. इसी प्रकार द्रव्य अपने स्वरूपसे अन्यद्रव्यरूप होकरके नहिं परिणमता है. सदा आपसरीखा है. अपने २ गुण परिणामनसें एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें हो जाता है, इस कारण उपजते विनशते कहे जाते हैं। आगे पद्र्व्योंके गुणपर्याय कहते हैं । भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगो। सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा (?) ॥ १६॥.
संस्कृतछाया. भावा जीवाद्या जीवगुणाश्चेतना चोपयोगः ।
सुरनरनारकतिर्यञ्चो जीवस्य च पर्यायाः बहवः ॥ १६ ॥ पदार्थ- [भावाः] पदार्थ [जीवाद्याः] जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल ये छै जानने । इन पट् द्रव्योंके जो गुण पर्याय हैं, वे सिद्धान्तोंमें प्रसिद्ध हैं, तथापि इनमें जीवनामा पदार्थ प्रधान है । उसका स्वरूप जाननेकेलिये असाधारण लक्षण कहा जाता है. [जीवगुणाः चेतना च उपयोगः] जीव द्रव्यका निज लक्षण एक तौ शुद्धाशुद्ध अनुभूतिरूप चेतना है और दूसरा-शुद्धाशुद्धचैतन्यपरिणामरूप उपयोग है. ये जीवद्रव्यके गुण हैं. [च] फिर [जीवस्य ] जीवके [बहवः] नानाप्रकारके, [सुरनरनारकतिर्यञ्चः पर्यायाः ] देवता मनुष्य नारकी तिर्यञ्च ये अशुद्धपर्याय जानने ।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः भावार्थ-जीव द्रव्यके दो लक्षण हैं. एक तो चेतना है दूसरा उपयोग है । अनुभूतिका नाम चेतना है । वह अनुभूति ज्ञान, कर्म कर्मफलके भेदसे तीन प्रकारकी है । जो ज्ञानभावसे स्वरूपका वेदना सो तो ज्ञानचेतना है, और जो कर्मका वेदना सो कर्मचेतना है और कर्मफलका वेदना सो कर्मफलचेतना है । शुद्धाशुद्ध जीवका सामान्य लक्षण है । जो चैतन्यभावकी परणतिरूप होय प्रवते सो उपयोग है. वह उपयोग दो प्रकारका है. एक सविकल्प और दूसरा निर्विकल्प । सविकल्प उपयोग तो ज्ञानका लक्षण है और निर्विकल्प दर्शनका लक्षण है। ज्ञान आठ प्रकारका है । कुमति १ कुश्रुति २ कुअवधि ३ मति ४ श्रुति ५ अवधि ६ मनःपर्यय ७ और केवल ८ । दर्शन भी चक्षु अचक्षु अवधि और केवल इन भेदोंसे चार प्रकारका है। केवलज्ञान और केवल दर्शन ये दोय अखंड उपयोग शुद्ध जीवके लक्षण हैं. वाकीके दश उपयोग अशुद्ध जीवके होते हैं. ये तो जीवके गुण जानने । और जीवके पर्याय भी शुद्धाशुद्धके भेदसे दो प्रकारकी है। जो अगुरुलघु पड्गुणीहानिवृद्धिरूप आगम प्रमाणताकर जानी जाती है, वह तो शुद्ध पर्याय कहलाती है और जो परद्रव्यके संबंधसे चारगतिरूप नरनारकादि हैं, ते अशुद्ध आत्माकी पर्याय हैं। आगे पदार्थके नाश और उत्पादको निषेधते हैं। मणुसत्तणेण (?) णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा । उभयत्त जीवभावो ण णस्सदि जायदे अण्णो ॥१७॥
संस्कृतछाया. मनुष्यत्वेन नष्टो देही देवो भवतीतरो वा ।
उभयत्र जीवभावो न नश्यति न जायतेऽन्यः ॥ १७ ॥ पदार्थ- मनुष्यत्वेन ] मनुष्य पर्यायसे [ नष्टः ] विनशा [ देही ] जीव [देवः भवति ] देवपर्यायरूप परिणमता है । भावार्थ-अनादिकालसे लेकर यह संसारी जीव मोहके वशीभूत हो अज्ञानभावरूप परिणमता है । इसकारण स्वाभाविक षट्गुणी हानि वृद्धिरूप जे अगुरुलघुपर्याय धारावाही अखंडित त्रिकाल समयवर्ती है, तिन भावनपरिणमता नहीं है, विभाव भावनसे परिणमन होताहुवा मनुष्य देवता होता है. अथवा और नरकादि पर्यायोंको धारण करता है । पर्यायसे पर्यायान्तररूप होकर उपजै विनशै है । यद्यपि ऐसा है तथापि [ उभयत्र जीवभावः] संसारी पर्यायकी अपेक्षा उत्पादव्ययके होतेसन्ते भी जीवभाव कहा जाता है. आत्माका निजस्वरूप [ न नश्यति ] नाश नहिं होता. [ न जायते ] और न उत्पन्न होता । द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा सदा टंकोत्कीर्ण अविनाशी है. सदा निःकलंक शुद्धस्वरूप है।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगें यद्यपि पर्यायार्थिक नयसे कथंचित्प्रकारसे द्रव्य उपजता विनशता है, तथापि न उपजता है न विनशता है, ऐसा कहते हैं।
सो चेव जादि मरणं जादि ण णहो ण चेव उप्पण्णो। उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसुत्तिपन्जाओ ॥ १८ ॥
संस्कृतछाया. स एव याति मरणं याति न नष्टो न चैवोत्पन्नः ।
उत्पन्नश्च विनष्टो देवो मनुष्य इति पर्यायः ॥ १८ ॥ पदार्थ-[ स एव ] वह ही जीव [ याति ] उपजै है, जो कि [ मरणं ] मरणभावसहित [ याति ] प्राप्त होता है. [न नष्टः ] स्वभावसे वही जीव न विनशा है [च]
और [ एव ] निश्चयसे [न उत्पन्नः ] न उपजा है । सदा एकरूप है । तब कौन उपजा विनशा है ? [ पर्यायः] पर्याय ही [ उत्पन्नः ] उपजा [च ] और [विनष्टः ] विनशा है । कैसें ? जैसे कि-[ देवः ] देवपर्याय उत्पन्न हुवा [ मनुष्यः] मनुष्यपर्याय विनशा है [इति ] यह पर्यायका उत्पादव्यय है. जीवको ध्रौव्य जानना ।
भावार्थ-जो पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा पहिले पिछले पर्यायनिकर उपजता विनशता देखा जाता है, वही द्रव्य उत्पादव्यय अवस्थाके होतेसन्ते भी अपने अविनाशी स्वाभाविक एक स्वभावकर सदां न तो उपजता है और न विनशता है. और जो वे पूर्व उत्तर पर्याय हैं, वे ही विनाशीक स्वभावको धरै है । पहिले पर्यायोंका विनाश होता है अगले पर्यायोंका उत्पाद होता है । जो द्रव्य पहिले पर्यायोंमें तिष्ठता (रहता) है, वह ही द्रव्य अगले पर्यायोंमें विद्यमान है । पर्यायोंके भेदसे द्रव्योंमें भेद कहा जाता है. परंतु वह द्रव्य जिस समय जिन पर्यायोंसे परिणमता है, उस समय उन ही पर्यायोंसे तन्मय है. द्रव्यका यह ही स्वभाव है जो कि परिणमनसों एकभाव (एकता) धरता है । क्योंकि कथंचित्प्रकारसे परिणाम परिणामी (गुणगुणी )की एकता है । इसकारण परिणामनसे द्रव्य यद्यपि उपजता विनशता भी है, तथापि ध्रौव्य जानना। . ___ आगे द्रव्यके स्वाभाविक ध्रौव्यभावकर 'सत्'का नाश नही, 'असत्'का उत्पाद नहीं, ऐसा कहते हैं।
एवं सदो विणासो असदो जीवरस णत्थि उप्पादो। तावदिओ जीवाणं देवो मणुसोत्त गदिणामो ॥ १९ ॥
संस्कृतछाया. एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य नास्त्युत्पादः ।
तावज्जीवानां देवो मनुष्य इति गतिनामः ॥ १९ ॥ १ तावदिवो ऐसा भी पाट है परन्तु हमें दोनोंके भी शुद्ध होनेमें संदेह है.
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। पदार्थ- [एवं ] इस पूर्वोक्त प्रकारसे [ सतः ] स्वाभाविक अविनाशी स्वभावका [विनाशः ] नाश [ न अस्ति ] नहीं है. [ असतः जीवस्य ] जो स्वाभाविक जीवभाव नहीं है तिसका [ उत्पादः ] उपजना [ नास्ति ] नहीं है [ तावत् ] प्रथम ही यह जीवका स्वरूप जानना. और [ जीवानां ] जीवोंका [ देव मनुष्यः इति ] देव है, मनुष्य है, इत्यादि कथन है सो [गतिनामः ] गतिनामवाले नामकर्मकी विपाकअवस्थासे उत्पन्न हुवा कर्मजनित भाव है।
भावार्थ-जीव द्रव्यका कथन दो प्रकार है । एक तौ उत्पादव्ययकी मुख्यतालियेहुये, दूसरा ध्रौव्यभावकी मुख्यतालियेहुये । इन दोनों कथनोंमें जब ध्रौव्यभावकी मुख्यताकर कथन किया जाय, तव इस ही प्रकार कहा जाता है कि जो जीवद्रव्य मरता है, सो ही उपजता है. और जो उपजता है, वही मरता है । पर्यायोंकी परंपरामें यद्यपि अविनाशी वस्तुके कथनका प्रयोजन नहीं है, तथापि व्यवहारमात्र ध्रौव्यस्वरूप दिखानेकेलिये ऐसें ही कथन किया जाता है । और जो उत्पादव्ययकी अपेक्षा जीवद्रव्यका कथन किया जाता है कि और ही उपज है, और ही विनशै है, सो यह कथन गतिनामकर्मके. उदयसे जानना । कैसे कि जैसे,—मनुष्यपर्याय विनशै है, देवपर्याय उपजै है सो कर्मजनित विभावपर्यायकी अपेक्षा यह कथन अविरुद्ध है. इसकारण यह वात सिद्ध हुई कि ध्रौव्यताकी अपेक्षासे तो वही जीव उपजै और वही जीव विनशै है और उत्पादव्ययकी अपेक्षा अन्य जीव उपजै है और अन्यही विनशै है । यह ही कथन दृष्टान्तसे विशेष दिखाया जाता है । जैसे—एक वडा बांस है, उसमें क्रमसे अनेक पौरी हैं. उस वांसका जो विचार किया जाता है तो दो प्रकारके विचारसे उस वांसकी सिद्धि होती है. एक सामान्यरूप वांसका कथन है. एक उसमें विशेषरूप पौरियोंका कथन है. जब पौरियोंका कथन किया जाता है तो जो पौरी अपने परिणामको लियेहुये जितनी हैं, उतनी ही हैं। अन्य पौरीसे मिलती नहीं हैं. अपने अपने परिमाणलियेहुये सब पौरी न्यारी न्यारी हैं. बांस सब पौरियोंमें एक ही है. जब वांसका विचार पौरियोंकी पृथक्तासे किया जाय, तब बांसका एक कथन आवै नही. जिस पौरीकी अपेक्षासे वांस कहा जाय सो तिस ही पौरीका बांस होता है. उसको और पौरीका बांस नहिं कहा जाता. अन्य पौरीकी अपेक्षा वही बांस अन्य पौरीका कहा जाता है, इस प्रकार पौरियोंकी अपेक्षासे बांसकी अनेकता है और जो सामान्यरूप सब पौरियोंमें बांसका कथन न किया जाय तो एक वांसका कथन कहा जाता है. इस कारण वांसकी अपेक्षा एक वांस है । पौरीनकी अपेक्षा एक बांस नहीं है. इसी प्रकार त्रिकाल अविनाशी जीव द्रव्य एक है. उसमें क्रमवर्ती देवमनुप्यादि अनेक पर्याय हैं, सो वे पर्याय अपने २ परिमाण लियेहुये हैं । किसी भी पर्यायसे कोई पर्याय मिलती नहीं है, सब न्यारी न्यारी हैं । जब पर्यायोंकी अपेक्षा जीवका विचार किया जाता है तो
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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
अविनाशी एक जीवका कथन आता नहीं. और जो पर्यायोंकी अपेक्षा नहीं लीजाय तो जीवद्रव्य त्रिकालविषै अभेदस्वरूप एक ही कहा जाता है. इस कारण यह बात सिद्ध हुई कि- जीवद्रव्य निजभावकर तो सदा टंकोत्कीर्ण एकस्वरूप नित्य है और पर्यायकी अपेक्षा नित्य नहीं है. पर्यायोंकी अनेकतासे अनेक होता है. अन्य पर्यायकी अपेक्षा अन्य भी कहा जाता है. इस कारण द्रव्यके कथन की अपेक्षा सत्का नाश नहीं और असत्का उत्पाद नहीं है. पर्याय कथनकी अपेक्षा नाश उत्पाद कहा जाता है ।
आगे सर्वथा प्रकारसे संसारपर्यायका अभावरूप सिद्धपदको दिखाते हैं.
णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ट अणुवडा । तेसिमभावं किचा अभूदपुग्यो हवदि सिद्धो ॥ २० ॥
संस्कृतछाया.
ज्ञानावरणाद्या भावा जीवेन सुष्टुः अनुवद्धाः | तेषामभावं कृत्वाऽभूतपूर्वो भवति सिद्ध: ।। २० ।
पदार्थ - [ ज्ञानावरणाद्याः ] ज्ञानावरणीय आदि आठप्रकार [भावाः] कर्मपर्याय जे हैं ते [ जीवेन ] संसारी जीवको [ सुष्ठुः ] अनादि काल से लेकर राग द्वेष मोहके बशसे भलीभांति अतिशय गाढे [ अनुवद्धाः] बांधे हुये हैं [तेषां ] उन कर्मोंका [ अभावं ] मूल सत्तासे नाश [कृत्वा ] करके [ अभूतपूर्वः ] जो अनादिकाल से लेकर किसीकालमें भी नहिं हुवा था ऐसा [ सिद्धः ] सिद्ध परमेष्ठी पद [ भवति ] होता है ।
भावार्थ -- द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक भेदसे नय दो प्रकारका है । जब द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षा की जाती है, तब तो त्रिकालविषै जीवद्रव्य सदा अविनाशी टंकोत्कीर्ण संसार . पर्याय अवस्थाके होते हुये भी उत्पाद नाशसे रहित सिद्ध समान है । पर्यायार्थिकनकी विवक्षाकर जीवद्रव्य जब जैसी देवादिकपर्यायको धारण करता है तब तैसा ही होकर परिणमतासंता उत्पाद नाश अवस्थाको धरता है. इन ही दोऊ नयोंका विलास दिखाया जाता है। अनादि काल से लेकर संसारी जीवके ज्ञानावरणादि कर्मोंके सम्बन्धोंसे संसारी पर्याय है. तहां भव्य जीवको काललव्धिसे सम्यग्दर्शनादि मोक्षकी सामग्री पानेसे सिद्ध पर्याय यद्यपि होती है तथापि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा सिद्धपर्याय नूतन ( नया ) हुवा नहिं कहा जा सक्ता. अनादिनिधन ज्योंका त्यों ही है । कैसे ? जैसें कि, – अपनी थोरी स्थिति लिये नामकर्मके उदयसे निर्मापित देवादिक पर्याय होते हैं, उनमें कोई एक पर्याय अशुद्ध कारणसे जीवके उत्पन्न हुये संते नवीन पर्याय हुवा नहिं कहा जाता. क्योंकि -संसारीके अशुद्ध पर्यायों की सन्तान होती ही है. जो पहिले न होती तो नवीन पर्याय उत्पन्न हुवा कहा जाता। इस कारण जबतक जीव संसार में है, तबतक पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे नया संसारपर्याय उपज्या नहिं कहा जाता, पहिला ही है । उसी प्रकार द्रव्यार्थिकनेयकी अपेक्षा नवीन
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। सिद्धपर्याय उपज्या नहिं कहा जाता किन्तु शास्वता सदा जीवद्रव्यमें आत्मीक भावरूप सिद्ध पर्याय तिष्टै ही है । संसारपर्यायको नष्ट करके सिद्धपर्याय नवीन उत्पन्न हुवा, ऐसा
जो कथन है सो पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे है । जैसें एक बडा बांस है, उसके आधे ___ बाँसमें तो चित्र कियेहुये हैं और आधे बांसमें चित्र कियेहुये नहीं है । जिस आधे
भागमें चित्र नहीं, वह तो ढक रख्खा है और जिस अर्धभागमें चित्र हैं सो निरावरण (उघड़ाहुवा) है । जो पुरुष इस बांसके इस भेदको नहीं जानता होय, उसको यह बांस दिखाया जाय तो वह पुरुष पूरे बांसको चित्रित कहेगा, क्योंकि चित्ररहित जो अर्द्ध भाग निर्मल है, उसको जाणता नहीं है । उसही प्रकार यह जीव पदार्थ एक भाग तो अनेक संसारपर्यायोंके द्वारा चित्रित हुवा बहुरूप है और एक भाग शुद्ध सिद्धपर्याय लियेहुये हैं. जो शुद्धपर्याय है सो प्रत्यक्ष नहीं है. ऐसे जीव द्रव्यका स्वरूप जो अज्ञानी जीव नहिं जानता होय, सो संसारपर्यायको देखकर जीव द्रव्यके स्वरूपको सर्वथा अशुद्ध ही मानेगा। जब सम्यग्ज्ञान होय, तब सर्वज्ञप्रणीत यथार्थ आगम ज्ञान अनुमान स्वसंवेदनज्ञान होय तब इनके बलसे यथार्थ शुद्ध आत्मीक स्वरूपको जान देख आचरण कर, समस्त कर्म पर्यायोंको नाश करके सिद्धपदको प्राप्त होता है. जैसे जलादिकसे धोनेपर चित्रित बांस निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानकर मिथ्यात्वादि भावोंके नाश होनेसे आत्मा शुद्ध होता है। ___ आगे जीवके उत्पादव्यय दशावोंकर 'सत्का' उच्छेद 'असत्' का उत्पाद इनकी संक्षेपतासे सिद्धि दिखाते हैं।
एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च । गुणपजयेहिं सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो ॥ २१ ॥
संस्कृतछाया. एवं भावमभावं भावाभावमभावभावं च ।
गुणपर्ययैः सहितः संसरन् करोति जीवः ॥ २१ ॥ पदार्थ-[एवं] इस पूर्वोक्तप्रकार पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे [संसरन्] पंचपरावर्तन अवस्थावोंसे संसारमें भ्रमण करता हुवा यह [जीवः] आत्मा [भावं] देवादिक पर्यायोंको [करोति ] करता है [च] और [अभावं ] मनुप्यादि पर्यायोंका नाश करता है. [च] तथा [ भावाभावं] विद्यमान देवादिक पर्यायोंके नाशका आरंभ करता है [च] और [अभावभावं ] जो विद्यमान नहीं है मनुप्यादि पर्याय तिसके उत्पादका आरंभ करता है। कैसा है यह जीव [गुणपर्ययः] जैसी अवस्था लियेहुये है, उसही तरह अपने शुद्ध अशुद्ध गुणपर्यायोंकर [ सहितः] संयुक्त है।
भावार्थ-अपने द्रव्यत्वस्वरूपकर समस्त पदार्थ उपजते विनशते नहीं, किंतु नित्य
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है. इस कारण जीवद्रव्य भी अपने द्रव्यत्वकर नित्य है । उस ही जीवद्रव्यके अशुद्धपर्यायकी अपेक्षा भाव, अभाव, भावाभाव, अभावभाव, इन भेदसे चार प्रकार पर्यायका अस्तित्व कहा गया है । जहां देवादिपर्यायोंकी उत्पत्तिरूप होय परिणमता है, तहां तो भावका कर्तृत्व कहा जाता है. और जहां मनुष्यादि पर्यायके नाशरूप परिणमै है, तहां अभावका कर्तृत्व कहा जाता है । और जहां विद्यमान देवादिक पर्यायके नाशकी प्रारंभदशारूप होय परिणमता है, तहां भावअभावका कर्तृत्व है । और जहां नहीं है मनुष्यादि पर्याय उसकी प्रारंभदशारूप होकर परिणमता है, तहां अभाव भावका कर्तृत्व कहा जाता है । यह चार प्रकार पर्यायकी विवक्षासे अखंडित व्याख्यान जानना । द्रव्यपर्यायकी मुख्यता और गौणतासे द्रव्योंमें भेद होता है, वह भेद दिखाया जाता है । जब जीवका कथन पर्यायकी गौणता और द्रव्यकी मुख्यतासे किया जाता है तो ये पूर्वोक्त चारप्रकार कर्तृत्व नहिं संभवता । और जब द्रव्यकी गौणता और पर्यायकी मुख्यतासे जीवका कथन किया जाता है तो ये पूर्वोक्त चारप्रकारके पर्यायका कर्तृत्व अविरुद्ध संभवता है । इसप्रकार यह मुख्य गौण भेदके कारण व्याख्यान भगवत्सर्वज्ञप्रणीत अनेकान्तवादमे विरोधभावको नहिं धरता है । स्यात्पदसे अविरुद्ध साधता है । जैसे द्रव्यकी अशुद्धपर्यायके कथनसे सिद्धि की, उसीप्रकार आगम प्रमाणसे शुद्ध पर्यायोंकी भी विवक्षा जाननी । अन्य द्रव्योंका भी सिद्धान्तानुसार गुणपर्यायका कथन साध लेना । यह सामान्य स्वरूप षड्द्रव्योंका व्याख्यान जानना.
आगे सामान्यतासे कहा जो यह षड्द्रव्योंका सामन्यवर्णन तिनमेंसे पांचद्रव्योंको पंचास्तिकाय संज्ञा स्थापन करते हैं।
जीवा पुग्गलकाया आयालं अत्थिकाइया सेसा। अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स ॥ २२ ॥
संस्कृतछाया. जीवाः पुद्गलकायाः आकाशमस्तिकायौ शेपौ ।
अमया अस्तित्वमयाः कारणभूता हि लोकस्य ।। २२ ॥ पदार्थ-जीवः] एक तो जीवद्रव्य कायवन्त है [पुद्गलकायाः] दूसरा पुद्गलद्रव्य कायवन्त हैं और (आकाशः) तीसरा आकाशद्रव्य कायवन्त है और [शेपौ] चौथा धर्म
और पांचवां अधर्मद्रव्य भी [कायौ] कायवन्त हैं । ये पांच द्रव्य कायवन्त कैसे हैं [अमया] किसीके भी बनाये हुये नहीं हैं, स्वभावहीसे स्वयं सिद्ध हैं । फिर कैसे हैं ? [अस्तित्वमयाः] उत्पादव्ययध्रौव्यरूप जो सद्भाव तिसकर अपनेम्वरूप अस्तित्वको लियेहुये परिणामी हैं । फिर कैसे हैं ? [हि] निश्चयकरके [लोकस्य ] नानाप्रकारकी परणतिरूप लोकके [कारणभूताः] निमित्तभूत हैं अर्थात् लोक इनसे ही बना हुवा हैं ।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । भावार्थ-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छ द्रव्य हैं. इनमेंसे काल द्रव्यके विना पांचद्रव्य पंचास्तिकाय हैं. क्योंकि इन पांचों ही द्रव्योंके प्रदेशोंका समूह है. जहां प्रदेशोंका समूह होय तहाँ काय संज्ञा कही जाती है. इस कारण ये पांचों ही द्रव्य कायवन्त हैं । कालद्रव्य बहुप्रदेशी नहीं है. इस कारण वह अकाय है. यह कथन विशेषकरके आगमप्रमाणसे जाना जाता है। ___ आगे यद्यपि कालको कायसंज्ञा नहिं कही, तथापि द्रव्यसंज्ञा है. इसके विना सिद्धि होती नहीं. यह काल अस्तिस्वरूप वस्तु है, ऐसा कथन करते हैं ।
सम्भाव सभावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च । परियणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो ॥ २३ ॥
संस्कृतछाया. सन्नावस्वभावानां जीवानां तथैव पुद्गलानां च ।।
परिवर्तनसम्भूतः कालो नियमेन प्रज्ञप्तः ॥ २३ ॥ पदार्थ-[सद्भावस्वभावानां] उत्पादव्ययध्रुवरूप अस्तिभाव जो है सो [जीवानां] जीवोंके [च] और [तथैव ] तैसे ही [ पुद्गलानां] पुद्गलोंके अर्थात् इन दोनों पदार्थोके [परिवर्तनसम्भूतः] नवजीर्णरूप परिणमनकर जो प्रगट देखनेमें आता है, ऐसा जो पदार्थ है सो [नियमेन ] निश्चयकरके [काल:] काल [प्रज्ञप्तः] भगवन्त देवाधिदेवने कहा है।
भावार्थ-इस लोकमें जीव और पुद्गलके समय समयमें नवजीर्णतारूप स्वभाव ही से परिणाम है. सो परिणाम किस ही एक द्रव्यकी विना सहायताके होता नहीं । कैसे ? जैसे कि गतिस्थिति अवगाहना धर्मादि द्रव्यके सहाय विना नहिं होय, तैसें ही जीव पुद्गलकी परिणति किस ही एक द्रव्यकी सहायताके विना नहिं होती. इसकारण परिणमनको. कोई द्रव्य सहाय चाहिये, ऐसा अनुमान आता है. अतएव आगम प्रमाणतासे कालद्रव्यही निमित्त कारण बनता है. उस कालके विना द्रव्यों के परिणामकी सिद्धि होती नहीं। इस कारण निश्चय काल अवश्य मानना योग्य है । उस विश्चयकालकी जो पर्याय है, सो समयादिरूप व्यवहार काल जानना । यह व्यवहारकाल जीव और पुद्गलको परिणतिद्वारा प्रगट होता है। पुद्गलके नवजीर्णपरिणामके आधीन जाना जाता है। इन जीव पुद्गलके परिणामोंको और कालको आपसमें निमित्तनैमित्तिकभाव है। कालके अस्तित्वसे जीवपुद्गलके परिणामका अस्तित्व है । और जीवपुद्गलके परिणामोंसे कालद्रव्यका पर्याय जाना जाता है ।
आगे निश्चयकालके स्वरूपको दिखाते हैं और व्यवहारकालको कथंचित् प्रकारसे पराधीनता दिखाते हैं।
वरगदपणवण्णरसो ववगद्दोगंधअट्टफासो य । अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालोत्ति ॥ २४ ॥
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संस्कृतछाया. व्यपगतपञ्चवर्णरसो व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शश्च ।
अगुरुलघुको अमूर्तो वर्तनलक्षणश्च काल इति ॥ २४ ।। पदार्थ-[कालः] निश्चय काल [इति ] इस प्रकार जानना कि [व्यपगतपञ्चवर्णरसः] नहीं है पांच वर्ण और पांच रस जिसमें (च) और [व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शः] नहीं है दोगन्ध आठ स्पर्शगुण जिसमें, फिर कैसा है ? [अगुरुलघुकः] पड्गुणी हानि वृद्धिरूप अगुरुलघुगुणसंयुक्त है । [च] फिर कैसा है निश्चयकाल ? [वर्तनलक्षणः] अन्य द्रव्योंके परिणमावनेको बाह्य निमित्त है लक्षण जिसका, ऐसा यह लक्षण कालाणुरूप निश्चय कालद्रव्यका जानना । ___ भावार्थ-कालद्रव्य अन्य द्रव्योंकी परिणतिको सहाई है, कैसे ? जैसे कि-शीतकालमें शिष्यजन पठनक्रिया अपने आप करते हैं, तिनको वहिरंगमें अग्नि सहाय होता है. तथा जैसें कुंभकारका चाक आपही” फिरता है, तिसके परिभ्रमणको सहाय नीचेंकी कीली होती है. इसी प्रकार ही सब द्रव्योंकी परणतिको निमित्तभूत कालद्रव्य है । ___ यहां कोई प्रश्नकरै कि-लोकाकाशसे बाहर कालद्रव्य नहीं हैं तहाँ आकाश किसकी सहायतासे परिणमता है ?
तिसका उत्तर-जैसे-कुंभकारका चाक एक जगहँ फिराया जाता है, परन्तु वह चाक सर्वांग फिरता है. तथा जैसे-एक जगहँ स्पर्शेन्द्रियका मनोज्ञ विषय होता है, परन्तु सुखका अनुभव सर्वांग होता है। तथा-सर्प एक जगहँ काटता है, परन्तु विष सर्वाग चढता है । तथा फोड़े आदि व्याधि एक जगहँ होती हैं, परन्तु वेदना सर्वांगमें होती हैतैसें ही कालद्रव्य लोकाकाशमें तिष्ठता है, परन्तु अलोकाकाशकी परिणतिको भी निमित्त कारणरूप सहाय होता है।
फिर यहां कोई प्रश्न करै कि-कालद्रव्य अन्यद्रव्योंकी परणतिको तो सहाय है, परन्तु कालद्रव्यकी परणतिको कौन सहाय है ? .. उत्तर-कालको कालही सहाय है. जैसे कि आकाशको आधार आकाश ही है. तथा जैसें ज्ञान सूर्य रत्न दीपादिक पदार्थ स्वपरप्रकाशक होते हैं. इनके प्रकाशको अन्य वस्तु सहाय नहिं होती है-तैसें ही कालद्रव्य भी स्वपरिणतिको स्वयं ही सहाय है. इसकी परिणतिको अन्य निमित्त नहीं हैं।
फिर कोई प्रश्नकरै कि-जैसें काल अपनी परिणतिको आप सहायक है, तैसें अन्य जीवादिक द्रव्य भी अपनी परिणतिको सहाय क्यों नहीं होवे ? कालकी सहायता क्यों बताते हो?
उत्तर-कालद्रव्यका विशेष गुण यही हैं जो कि अन्य पदार्थोंकी परिणतिको निमित्त
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भूत वर्त्तना लक्षण हो जैसें आकाश धर्म अधर्म इनके विशेषगुण अन्यद्रव्योंको अवकाश, गमन, स्थानको सहाय देना है. तैसें ही कालद्रव्य अन्य द्रव्योंके परिणमावनेको सहाय है । और उपादान अपनी परिणतिको आप ही सब द्रव्य हैं । उपादान एक द्रव्यको अन्य द्रव्य नहिं होता । कथंचित्प्रकारनिमित्तकारण अन्य द्रव्यको अन्य पदार्थ होता है. अवकाश गति स्थिति परणतिको आकाश आदिक द्रव्य कहे हैं. और जो अन्य द्रव्य निमित्त न माना जाय तो जीव और पुल दो ही द्रव्य रह जाय. ऐसा होनेसे आगम विरोध होय और लोकमर्यादा न रहै, लोक षड्द्रव्यमयी है, यह सब कथन निश्चय कालका जानना - अब व्यवहारकालका वर्णन किया जाता है.
समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारती । मासोदुअयण संवच्छरोत्ति कालो परायत्तो ॥ २५ ॥
संस्कृतछाया.
समयो निमिपः काष्टा कला च नाली ततो दिवारात्रं । मासर्व्वयनसंवत्सरमिति कालः परायत्तः ॥ २५ ॥
पदार्थ–[कालः इति ] यह व्यवहार काल [परायत्तः ] यद्यपि निश्चयकालकी सम
कहा जाता है । अन्यके सो ही दिखाया जाता
चाल जितने में होय निमिष है. असंख्यात पंद्रह निमिष मिलै तो
पर्याय है तथापि जीव पुद्गल के नवजीर्णरूप परिणामसे उत्पन्न हुवा द्वारा कालकी पर्यायका परिमाण किया जाता है, तातें पराधीन है. है. [ समयः ] मंदगतिसे परिणया जो परमाणु तिसकी अतिसूक्ष्म सो समय है [ निमिषः ] जितनेमें नेत्रकी पलक खुले उसका नाम समय जब चीतते हैं, तब एक निमिष होता है. और [ काष्टा ] एक काष्टा होय । [च] और [कला ] जो वीस काष्टा होय तो एक कला होती है । और [नाली ] कहिये कुछ अधिक जो वीस कला बीतै तो एक नाली वा घड़ी होती है. सो जलकटोरी घड़ियाल आदिकसे जानी जाती है। जो दोय घड़ी होय तो मुहर्त होय । जो तीस महूरत बीत जाय तो एक दिनरात्रि होता है, सो सूर्यकी गतिसे जाना जाता है | और [मासर्त्वयनसंवत्सरं ] तीस दिनका महीना, दो महीनेका ऋतु, तीन ऋतुका अयन, दो अयनका एक वर्ष होता है और जहांतांई वर्ष गिने जांय, तहांतांई संख्यातकाल कहा जाता है । इसके उपरान्त पल्य सागर आदिक असंख्यात वा अनंतकाल जानना । यह व्यवहारकाल इसी प्रकार द्रव्यके परिणमनकी मर्यादासे गण लिया जाता है. मूलपर्याय निश्चयकाल हैं । सबसे सूक्ष्म 'समय' नामा कालकी पर्याय है. अन्य सब स्थूलकालके पर्याय हैं । समयके अतिरिक्त अन्य कालका सूक्ष्म भेद कोई नहीं है । परद्रव्यके परिणमन विना व्यवहारकालकी मर्यादा नहिं कही जाती. इस कारण यह पराधीन है । निश्चयकाल स्वाधीन है ।
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आगे व्यवहारकालको पराधीनता किस प्रकार है सो युक्तिपूर्वक समाधान करते हैं । णत्थि चिरं वा विप्पं मत्तारहिंदं तु सा वि खलु मत्ता । पुग्गलदव्वेण विणा तथा कालो पहुचभवो ॥ २६ ॥
संस्कृतछाया.
नारित चिरं वा क्षिप्रं मात्रारहितं तु सापि खलु मात्रा | पुद्गलद्रव्येन विना तस्मात्कालः प्रतीत्यभवः ॥ २६ ॥
I
पदार्थ – [ मात्रारहितं ] कालके परिमाण विना [ चिरं ] बहुतकाल [क्षिमं ] शीघ्रही ऐसा कालका अल्प बहुत्व [ नास्ति ] नहीं है । अर्थात् कालकी मर्यादाविना थोड़े बहुत कालका कथन नहिं होता. इस कारण कालके परिमाणका कथन अवश्य करना योग्य है । [तु ] फिर [ सापि ] वह भी [ खलु ] निश्चयसे [ मात्रा ] कालकी मर्यादा [ पुद्गलद्रव्येन विना ] पुद्गल द्रव्यके विना [ नास्ति ] नहीं हैं । अर्थात् — परमाणुकी मंदगति, आंखका खुलना, सूर्यादिककी चाल इत्यादि अनेक प्रकारके जे पुढलद्रव्यके परिणाम हैं, तिनहीकर कालका परिमाण होता है । पुद्गलद्रव्यके विना कालकी मर्यादा होती नहीं [तस्मात् ] तिस कारणसे [ कालः ] व्यवहार काल [ प्रतीत्यभवः ] पुद्गलद्रव्यके निमित्तसे उत्पन्न, ऐसा कहा जाता है ।
भावार्थ- द्रव्यकी आदिअंत क्रियाकर व्यवहार काल गण लिया जाता है । परन्तु पर्याय निश्चयकालकी ही है । यद्यपि यह काल कायके अभाव से पंचास्तिकायविषै नहीं कहा, तथापि जान लेना चाहिये कि - लोककी सिद्धि षड्द्रव्यों के विना होती नहींक्योंकि-जीव पुद्गलकी परणतिकी सिद्धि निश्चयकालके सहाय विना होती नहीं और जीव पुद्गलके नवजीर्ण परिणामकी मर्यादाविना व्यवहारकालकी सिद्धि होती नही । इस कारण कालद्रव्यका स्वरूप जो जिनमती हैं, तिनको भलीभांति सूक्ष्मदृष्टिकर जानना चाहिये । इति श्रीसमयसारके व्याख्यानमें पड़्द्रव्यपंचास्तिकायका सामान्यव्याख्यान पूर्ण भया ॥१॥
I
आगें इनही पड्द्द्रव्यपंचास्तिकायका विशेष व्याख्यान किया जाता है । सो पहिले ही संसारी जीवका स्वरूप नयविलासकर उपाधिसंयुक्त और उपाधिरहित दिखाते हैं । जीवोत्ति हवदि चेदा उपओगविसेसिदो पहूकत्ता । भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुतो ॥ २७ ॥
संस्कृतछाया.
जीव इति भवति चेतयितोपयोगविशेषितः प्रभुः कर्त्ता । भोक्ता च देहमात्रो न हि मूर्त्तः कर्मसंयुक्तः ॥ २७ ॥
पदार्थ – [ जीवः ] जो सदा ( त्रिकाल में ) निश्वयनयसे भावप्राणांकर व्यवहार
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[भवति ] होता है ।
नयसे द्रव्य प्राणोंकर जीवै है. सो [ इति ] यह जीवनामा पदार्थ सो यह जीवनामा पदार्थ कैसा है ? [ चेतयिता ] निश्चय नयकी अपेक्षा अपने चेतना गुणसे अभेद एक वस्तु है. व्यवहारकर गुणभेदसे चेतनागुणसंयुक्त है. इस कारण जानने वाला है । फिर कैसा है ? [ उपयोगविशेषितः ] जाननेरूप परिणामों से विशेषितः कहिये लखा जाता है। जो यहां कोई पूछे कि चेतना और उपयोग इन दोनोंमें क्या भेद है ? तिसका उत्तर यह है कि चेतना तो गुणरूप है. उपयोग उस चेतनाकी जाननरूप पर्याय है. यह ही इनमें भेद है । फिर कैसा है यह आत्मा ? [ प्रभुः ] आस्रव संवर बन्ध निर्जरा मोक्ष इन पदार्थोंमें निश्चय करके आप भावकर्मोंकी समर्थतासंयुक्त है । व्यवहारसे द्रव्यकर्मोकी ईश्वरता संयुक्त है । इस कारण प्रभु है । फिर कैसा है ? [कर्त्ता ] निश्चय नयसे तो पौगलिक कर्मोंका निमित्त पाकर जो जो परिणाम होते हैं, तिनका कर्ता है । व्यवहारसे आत्माके अशुद्ध, परिणामोंका निमित्त पाय जो पौद्गलीक कर्म परिणाम उपजते हैं तिनका कर्त्ता है । फिर कैसा है ? [भोक्ता ] निश्चयनयसे तो शुभ अशुभ कर्मों के निमित्तसे उत्पन्न हुये जे सुखदुःखमय परिणाम, तिनका भोक्ता है और व्यवहारसे शुभ अशुभ कर्मके उदयसे उत्पन्न जो इष्ट अनिष्ट विषय तिनका भोक्ता है । [च] फिर कैसा है ? [देहमात्रः] निश्चयनयसे यद्यपि लोकमात्र असंख्यात प्रदेशी है, तथापि व्यवहार नयकी अपेक्षा संकोच विस्तारशक्तिसे नाम कर्मके द्वारा निर्मापित जो लघु दीर्घ शरीर है, उसके परिमाण ही तिष्ठै है. इसकारण देहपरिमाण है । फिर कैसा है ? [ न हि मूर्त्तः ] यद्यपि व्यवहारकर कर्मनसे एक स्वभाव होनेसे मूर्तीक विभाव परिणामरूप परिणमता है. तथापि निश्चय स्वाभाविक भावसे अमूर्त है. फिर कैसा है ? [कर्मसंयुक्तः ] निश्चयनयसे पुद्गल कर्मोंका निमित्त पाय उत्पन्न हुये जे अशुद्ध चैतन्य विभाव परिणामकर्म, उनकर संयुक्त है । व्यवहारसे अशुद्ध चैतन्य परिणामोंका निमित्त पाय जो हुये हैं पुलपरिणामरूप द्रव्य कर्म, तिनकरके सहित है. ऐसा यह संसारी आत्माका शुद्ध अशुद्ध कथन नयोंकी विवक्षासे सिद्धान्तानुसार जान लेना ।
आगे मोक्षविषै तिष्ठे हुये जे आत्मा, तिनका उपाधिरहित शुद्ध स्वरूप कहा जाता है । कम्ममलविप्मुको उर्दू लोगस्स अंतमधिगंता ।
सो सव्वाणदरसी लहदि सुहमणिदियमर्णतं ॥ २८ ॥
संस्कृतछाया. कर्ममलविप्रमुक्तं ऊर्ध्वं लोकस्यान्तमधिगम्य |
स सर्वज्ञानदर्शी लभते सुखमतीन्द्रियमनन्तम् ॥ २८ ॥
पदार्थ–[यः] जो जीव [ कर्ममलविप्रमुक्तः ] ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्म भावकर्म कर सर्व प्रकारसे मुक्त हुवा है [स] वह [ सर्वज्ञानदर्शी] सबका देखने जाननेवाला शुद्ध
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जीव [उर्ध्व ] ऊंचे ऊध्र्वगतिस्वभावसे [लोकस्य अन्तं ] तीन लोकसे ऊपर सिद्ध क्षेत्रको [अधिगम्य] प्राप्त होकर [ अतीन्द्रियं] सविकार पराधीन इन्द्रिय सुखसे रहित ऐसे [अनन्तं] अमार्यादीक [सुखं] आत्मीक स्वाभाविक अतीन्द्रिय सुखको [लभते] प्राप्त होता है।
भावार्थ-यह संसारी आत्मा परद्रव्यके संबंधसे जब छूटता है, उस ही समय सिद्ध क्षेत्रमें जाकर तिष्ठता है. यद्यपि जीवका ऊर्ध्वगमनस्वभाव है, तथापि आगे धर्मास्तिकाय नहीं है. इस कारण अलोकमें नहिं जाता, वहींपर ठहर जाता है । अनन्तज्ञान अनन्त दर्शनस्वरूपसंयुक्त अनन्त अतीन्द्रिय सुखको भोगता है । मोक्षावस्थामें भी इसके आत्मीक अविनाशी भावप्राण हैं। उनसे सदा जीवै है. इस कारण तहां भी जीवत्वशक्ति होती है । और उस ही चैतन्यस्वभाव शुद्धस्वरूपके अनुभवसे चेतयिता कहलाता है । और उसही शुद्ध जीवको चैतन्य परिणामरूप उपयोगी भी कहा जाता है और उसके ही समस्त आत्मीक शक्तियोंकी समर्थता प्रगट हुई है. इस कारण प्रभुत्व भी कहा जाता है।
और निजस्वरूप अन्य पदार्थोंमें नही, ऐसे अपने स्वरूपको सदा परिणमता है, तातै यही जीव कर्ता है । और स्वाधीन सुखकी प्राप्तिसे यही भोक्ता भी कहा जाता है और यही चर्मशरीर अवगाहनसे किंचित् ऊन पुरुषाकार आत्मप्रदेशोंकी अवगाहना लियेहुये है. इस कारण देहमात्र भी कहलाता है । पौद्गलीक उपाधिसे सर्वथा रहित होगया है. इस कारण अमूर्तीक कहलाता है और वही द्रव्यकर्म भावकर्मसे मुक्त होगया है इस कारण कर्मसंयुक्त नहीं है । जो पहिली गाथामें संसारी जीवके विशेष कहे थे, वेही विशेष मुक्त जीवके भी होना संभव है । परन्तु उनमेंसे एक कर्मसंयुक्तपना नहीं बने है और सब मिलते हैं। कर्म जो है सो दो प्रकारका है. एक द्रव्यकर्म है एकभावकर्म है । जीवके संबंधसे जो पुद्गलवर्गणास्कन्ध हैं वे तो द्रव्यकर्म कहलाता है और चेतनाके विभावपर्याय हैं-वे भावकर्म हैं।
यहां कोई पूछे कि आत्माका लक्षण तो चेतना है सो वह विभावरूप कैसें होय ?
उत्तर-संसारी जीवके अनादि कालसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका सम्बन्ध है । उन कर्मों के संयोगसे आत्माकी चैतन्यशक्ति भी अपने निजस्वरूपसे गिरीहुई है. तातै विभावरूप होता है । जैसे कि कीचके संबंधसे जलका स्वच्छ स्वभाव था सो छोड दिया है. तैसें ही कर्मके संबंधसे चेतना विभावरूप हुई है. इस कारण समस्त पदार्थोंके जाननेको असमर्थ है । एक देश कछयक पदार्थोंको क्षयोपशमकी यथायोग्यतासे जानता है । और जब काललब्धि होती है तब सम्यग्दर्शनादि सामग्री आकर मिल जाती है. तब ज्ञानावरणादि कर्मोंका संबंध नष्ट होता है और शुद्ध चेतना प्रगट होती है-उस शुद्ध चेतनाके प्रगट होनेपर यह जीव त्रिकालवी समस्त पदार्थोंको एक ही समयमें प्रत्यक्ष जानलेता है । निश्चल कूटस्थ
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। अवस्थाको कथंचित्प्रकार प्राप्त होता है । और भांति होती नहीं, कुछ और जानना रहा नाहीं, इस कारण अपने स्वरूपसे निवृत्ति नहिं होती ऐसी, शुद्ध चेतनासे निश्चल हुवा जो यह आत्मा सो सर्वदर्शी सर्वज्ञभावको प्राप्त हो गया है तब इसके द्रव्यकर्मके जो कारण हैं विभाव भावकर्म, तिनके कर्तृत्वका उच्छेद होता है । और कर्म उपाधिके उदयसे उत्पन्न होते हैं जे सुखदुख विभाव परिणाम तिनको भोगना भी नष्ट होता है ।
और अनादि कालसे लेकर विभाव प-योंके होनेसे हुवा था जो आकुलतारूप खेद उसके विनाश होनेसे स्वरूपमें स्थिर अनन्त चैतन्य स्वरूप आत्माके स्वाधीन आत्मीक स्वरूपका अनुभूत रूप जो अनाकुल अनन्त सुख प्रगट हुवा है उसका अनन्तकालपर्यन्त भोग बना रहेगा । यह मोक्षावस्थामें शुद्ध आत्माका स्वरूप जानना । ___ आगे पहिले ही कह आये जो आत्माके ज्ञानदर्शन सुखभाव तिनको फिर भी आचार्य निरुपाधि शुद्धरूप कहते हैं।
जादो सयं स चेदा सवण्हू सव्वलोगदसी य । पप्पोदि सुहमणन्तं अव्वावाधं सगममुत्तं ॥ २९ ॥
संस्कृतछाया. जातः स्वयं स चेतयिता सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च ।
प्राप्नोति सुखमनन्तमव्याबाधं स्वकममूर्तम् ॥ २९ ॥ पदार्थ-[सः] वह शुद्धरूप [चेतयिता] चिदात्मा [ स्वयं] आप अपने स्वाभाविक भावोंसे [सर्वज्ञः] सबका जाननेवाला [च ] और [सर्वदर्शी] सबका देखनेहारा ऐसा [जातः] हुवा है । और वही भगवान [अनन्तं] नहीं है पार जिसका और [अव्यावाधं] वाधारहित निरन्तर अखंडित है तथा [अमूर्त] अतीन्द्रिय अमूर्तीक है ऐसे [स्वकं] आत्मीक [सुखं ] आकुलतारहित परम सुखको [प्रामोति ] पाता है।
भावार्थ-आत्मा जो है सो ज्ञानदर्शनरूप सुखस्वभाव है, सो संसार अवस्थामें अनादि जो कर्मवन्धके कारण संकलेस तिस कर सावरण हुवा है । आत्मशक्ति घाती गई है । परद्रव्यके संबंधसे क्षयोपशम ज्ञानके वलसे क्रमशः कुछ २ जानता वा देखता है । इस कारण पराधीन मूर्तीक इन्द्रियगोचर वाधासंयुक्त विनाशीक सुखको भोगता है।
और जब इसके सर्वथा प्रकार कर्मक्लेश विनशै है. तब वाधारहित परकी सहाय विना आप ही एकहीवार समस्त पदार्थों को जाने वा देखे है । और स्वाधीन अमूर्तीक परसंयोगरहित अतीन्द्रिय अखंडित अनन्त सुखको भोगता है । इस कारण सिद्ध परमेष्ठी स्वयं जानने देखनेवाला सुखका अनुभवन करनेवाला आपही है । और परसे कुछ प्रयोजन नहीं है । ___ यहां कोई नास्तिक मती तर्क करता है कि, सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि सबका जानने देखनेवाला प्रत्यक्षमें कोई नहिं दीखता । जैसे गर्दभके सींग नहीं, तैसें ही कोई सर्वज्ञ नहीं हैं ।
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सर्वजनते हैं कि तुम ही सर्वजन नहीं और किसी का और जो तुमने यह
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् .. उत्तर-सर्वज्ञ इस देशमें नहीं कि इस कालमें ही नहीं अथवा तीन लोकमें ही नहीं या तीन कालमें ही नहीं है ? यदि कहो कि इस देशमें और इस कालमें नहीं तो ठीक है क्योंकि इस समय कोई सर्वज्ञ प्रत्यक्ष देखनेमें नहिं आता और जो कहो कि तीन लोकमें तथा तीन कालमें भी नहीं है तो तुमने यह बात किसप्रकार जानी ! क्योंकि तीन लोक और तीन कालकी वात सर्वज्ञके विना कोई जान ही नहिं सक्ता और जो तुमने यह बात निश्चय करके जानली कि-कहीं भी सर्वज्ञ नहीं और किसी कालमें भी न तो हुवा न होगा तो हम कहते हैं कि तुम ही सर्वज्ञ हो-क्योंकि जो तीन लोक और तीन कालकी जाने वह ही सर्वज्ञ है। और जो तुम तीन लोक और तीन कालकी वात नहिं जानते तो तुमने तीन लोक
और तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं, ऐसा किस प्रकार जाना ? जो सबका जाननहारा देखनहारा होय, वही सर्वज्ञको निषेध कर सक्ता है और किसीकी भी गम्य नहीं है । इस कारण तुम ही सर्वज्ञ हो. इस न्यायसे सर्वज्ञकी सिद्धि होती है. निषेध नहिं होता । जो वस्तु इस देशकालमें नहीं और सूक्ष्म परमाणु आदिक जो वस्तु हैं और जो अमूर्त हैं तिन वस्तुवोंका ज्ञाता एक सर्वज्ञ ही है । और कोई नहीं है । आगें जीवत्व गुणका व्याख्यान करते हैं।
पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हु जिविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाऊ उस्सासो ॥ ३० ॥
संस्कृतछाया. प्राणैश्चतुर्भिर्जीवति जीवष्यति यः खलु जीवितः पूर्व ।
___ स जीवः प्राणाः पुनर्वलमिन्द्रियमायुरुच्छ्रासः ॥ ३० ॥ पदार्थ- [यः] जो [चतुर्भिः प्राणैः] चार प्राणोंकर [ जीवति ] वर्तमान कालमें जीता है [जीवष्यति ] आगामी काल जीवैगा. [पूर्व जीवितः] पूर्वही जीवै था [सः] वह [ खलु ] निश्चयकरकें [जीवः] जीवनामा पदार्थ है । [पुनः] फिर उस जीवके [प्राणाः] चार प्राण हैं । वे कौन कौनसे हैं ! [वलं] एक तो मनवचनकायरूप वल प्राण हैं और दूजा [इंद्रियम् ] स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु श्रोत्ररूप ये पांच इन्द्रिय प्राण हैं । तीसरा [आयुः] आयुःप्राण है चौथा [उच्छ्वासः] श्वासोच्छ्ास प्राण है ।
भावार्थ-इन्द्रिय बल आयुः श्वासोच्छास इन चारों ही प्राणोंमें जो चैतन्यरूप परिणति हैं वे तो भावप्राण हैं और इनकी ही जो पुद्गलस्वरूप परणति हैं, वे द्रव्य प्राण कहलाते हैं। ये दोनों जातिके प्राण संसारी जीवके सदा अखंडित सन्तानकर प्रवर्तते हैं इनही प्राणोंकर संसारमें जीवता कहलाता है और मोक्षावस्थामें केवल शुद्धचैतन्यादि गुणरूप भावप्राणोंसे जीता है. इस कारण वह शुद्ध जीव है ।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। आगें जीवोंका स्वाभाविक प्रदेशोंकी अपेक्षा प्रमाण कहते हैं और मुक्त संसारी जीवका भेद कहते हैं।
अगुरुलहुगा अणंता तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे । देसेहिं असंखादा सियलोगं सव्वमावणा ॥३१॥ केचित्तु अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोगजुदा । विजुदा य तेहिं बहुगा सिद्धा संसारिणो जीवा ॥ ३२॥
संस्कृतछाया. अगुरुलघुका अनन्तास्तैरनन्तैः परिणताः सर्वे । देशैरसंख्याताः स्याल्लोकं सर्वमापन्नाः ॥ ३१ ॥ केचित्तु अनापन्ना मिथ्यादर्शनकषाययोगयुताः ।
वियुताश्च तैर्वहवः सिद्धाः संसारिणो जीवाः ॥ ३२ ॥ पदार्थ— [ अगुरुलघुकाः ] समय समयमें षट्गुणी हानिवृद्धिलिये अगुरुलघुगुण [अनन्ताः ] अनन्त हैं. वे अगुरुलघु गुण आत्माके स्वरूपमें थिरताके कारण अगुरुलघु स्वभाव तिसके अविभागी अंश अति सूक्ष्म हैं. आगमकथित ही प्रमाण कहनेमें आते हैं। [तैः अनन्तैः ] उन अगुरु लघु अनन्त गुणोंकेद्वारा [ सर्वे ] जितने समस्त जीव हैं तितने सब ही [परिणताः] परणये हैं अर्थात् ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो अनन्त अगुरुलघुगुण रहित हों किन्तु सबमें पाये जाते हैं । और वे सब ही जीव [देशैः] प्रदेशोंकेद्वारा [असंख्याताः] लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी हैं । अर्थात्-एक एक जीवके असंख्यात असंख्यात प्रदेश हैं । उन जीवों से कितने ही जीव [ स्यात् ] किस ही एक प्रकारसे दंडकपाटादि अवस्थावोंमें [ सर्व लोकं ] तीनसे तेतालीस रज्जुप्रमाण घनाकाररूप समस्त लोकके प्रमाणको [आपन्नाः] प्राप्त हुये हैं । दंडकपाटादिमें सब ही जातिके कर्मोके उदयसे प्रदेशोंका विस्तार लोकप्रमाण होता है । इस कारण समुद्धातकी अपेक्षासे कई जीव लोकके प्रमाणानुसार कहे गये हैं । और [ केचित्तु अनापन्नाः ] कई जीव समुद्धातके विना सर्व लोकप्रमाण नहीं है, निज २ शरीरके प्रमाण ही हैं । उस अनन्त जीव राशिमें [वद्दवः जीवाः] अनन्तानन्त जीव [मिथ्यादर्शनकपाययोगयुक्ताः] अनादि कालसे मिथ्यात्व कपायके योगसे संयुक्त [संसारिणः] संसारी हैं । अर्थात् जितने जीव मिथ्यादर्शनकपाययोग संयुक्त हैं वे सब संसारी कहे जाते हैं और जे [तैः] उन मिथ्यात्व कषायके योगोंसे [ वियुक्ताः ] रहित शुद्ध, जीव हैं वे [सिद्धाः] सिद्ध हैं. वे सिद्ध, (मुक्त जीव भी) अनन्त हैं. यह शुद्धाशुद्धजीवोंका सामान्यस्वरूप जानना.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगें देहमात्र जीव किस दृष्टांतसे है सो कहा जाता है।
जह पउमरायरयणं खित्तं खीरं पभासयदि खीरं । तह देही देहत्थो सदेहमत्तं पभासयदि ॥ ३३ ॥
संस्कृतछाया. यथा पद्मरागरत्नं क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरं ।
तथा देही देहस्थः स्वदेहमानं प्रभासयति ॥ ३३ ॥ पदार्थ-[यथा] जिस प्रकार [पद्मरागरत्नं] पद्मरागनामा महामणि जो है सो [क्षीरे क्षिप्तं] दूधमें डाला हुवा [क्षीरं] दूधको उस ही अपनी प्रभासे [प्रभासयति] प्रकाशमान करै है [तथा ] तैसें ही [देही ] संसारी जीव [देहस्थः] देहमें रहता हुवा [स्वदेहमानं] आपको देहके वरावर ही [प्रभासयति ] प्रकाश करता है ।
भावार्थ-पद्मराग नामा रत्न दुग्धसे भरेहुये वर्त्तनमें डाला जाय तो उस रत्नमें ऐसा गुण है कि अपनी प्रभासे समस्त दुग्धको अपने रंगसे रंगकर अपनी प्रभाको दुग्धकी बराबर ही प्रकाशमान करता है. उसी प्रकार यह संसारी जीव भी अनादि कषायोंके द्वारा मैला होता हुवा शरीरमें रहता है. उस शरीरमें अपने प्रदेशोंसे व्याप्त होकर रहता है. इसलिये शरीरके परिमाण होकर तिष्ठता है और जिस प्रकार वही रत्नसहित दुग्ध अग्निके संयोगसे उबलकर बढता है तो उसके साथ ही रत्नकी प्रभा भी बढती है और जब अग्निका संयोग न्यून होता है, तब रत्नकी प्रभा घट जाती है. इसी प्रकार ही स्निग्ध पौष्टिक आहारादिके प्रभावसे शरीर ज्यों ज्यों बढता है त्यो त्यों शरीरस्थ जीवके प्रदेश भी बढते रहते हैं. और आहारादिककी न्यूनतासे जैसें २ शरीर क्षीण होता है तैसे २ जीवके प्रदेश भी संकुचित होते रहते हैं । और जो उस रत्नको बहुतसे दूधमें डाला जाय तो उसकी प्रभा भी विस्तृत होकर समस्त दूधमें व्याप्त हो जायगी-तैसें ही बडे शरीरमें जीव जाता है तो जीव अपने प्रदेशोंको विस्तार करके उस ही प्रमाण हो जाता है-और वही रत्न जब थोड़े दूधमें डारा जाता है तो उसकी प्रभा भी संकुचित होकर दूधके प्रमाण ही प्रकाश करती है. इसीप्रकार बडे शरीरसे निकलकर छोटे शरीरमें जानेसे जीवके भी प्रदेश संकुचित होकर उस छोटे शरीरके बराबर रहेंगे-इस कारण यह बात सिद्ध हुई कि यह आत्मा कर्मजनित संकोचविस्ताररूप शक्तिके प्रभावसे जब जैसा शरीर धरता है तब तैसा ही होकर प्रवत है । उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजनकी स्वयंभूरमण समुद्रमें महामच्छकी होती है । और जघन्य अवगाहना अलब्ध पर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीवोंकी है । ___आगें जीवका देहसे अन्य देहमें अस्तित्व कहते हैं और देहसे जुदा दिखाते हैं तथा अन्य देहके धारण करनेका कारण भी बलाते हैं।
सव्वत्थ अत्थि जीवो ण य एको एककाय एकठो। अज्झवसाणविसिट्ठो चिट्ठदि मलिणो रजमलेहिं ॥ ३४ ॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
संस्कृतछाया. सर्वत्रास्ति जीवो न चैक एककाये एक्यस्थः ।
अध्यवसायविशिष्टश्चेष्टते मलिनो रजोमलैः ॥ ३४ ॥ पदार्थ-[जीवः] आत्मा है सो [ सर्वत्र ] संसार अवस्थामें क्रमवर्ती अनेक पर्यायोंमें सब जगह [अस्ति ] है । अर्थात्-जैसे एक शरीरमें आत्मा प्रवर्ते है तैसें ही जब और पर्यायान्तर धारण करता है, तब तहां भी तैसें ही प्रवर्ते है. इसलिये समस्त पर्यायोंकी परंपरासे वही जीव रहै है. नया कोई जीव उपजता नहीं [च ] और [ एककाये ] व्यवहारनयकी अपेक्षासे यद्यपि एक शरीरमें [एक्यस्थः] क्षीरनीरकी तरह मिलकर एक स्वरूप धरकर तिष्ठता है तथापि [ एकः न ] निश्चयनयकी अपेक्षा देहसें मिलकर एकमेक होता नही । निजस्वरूपसे जुदा ही रहता है । और वह ही जीव जब [अध्यवसायविशिष्टः ] अशुद्ध रागद्वेष मोह परिणामोंसे संयुक्त होता है तब [रंजोमलैः] ज्ञानावरणादि कर्मरूप मैलसे [ मलिनः ] मैला होता [चेष्टते ] संसारमें परिभ्रमण करता है । __ भावार्थ यद्यपि यह आत्मा शरीरादि परद्रव्यसे जुदा ही है तथापि संसार अवस्था अनादि कर्मसंबंधसे नानाप्रकारके विभावभाव धारण करता है. उन विभाव भावोंसे नये कर्मबंध होते हैं-उन कर्मोंके उदयसे फिर देहसे देहांतरको धारै है जिससे कि संसार वढता है।
आगें सिद्धोंके जीवका स्वभाव दिखाते हैं और उनके ही किंचित् ऊन चरमदेहपरिमाण शुद्ध प्रदेशस्वरूप देह कहते हैं ।
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ॥ ३५ ॥
संस्कृतछाया. येपां जीवस्वभावो नास्त्यभावश्च सर्वथा तस्य ।
ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वाग्गोचरमतीताः ॥ ३५ ॥ पदार्थ-[येषां ] जिन जीवोंके [ जीवस्वभावः ] जीवकी जीवतव्यताका कारण जो प्राणरूप भाव सो [ नास्ति ] नहीं है । [च] और उन ही जीवोंके [तस्य ] तिस ही प्राणका [ सर्वथा ] सर्व तरहसें [ अभावः ] अभाव [ नास्ति ] नहीं है. कथंचित्प्रकार प्राण भी है [ ते सिद्धाः ] वे सिद्ध [भवन्ति ] होते हैं । कैसे हैं वे सिद्ध ? [भिन्नदेहाः] शरीररहित अमृतीक हैं । फिर कैसे हैं ? [ वाग्गोचरमतीताः] वचनातीत है महिमा जिनकी ऐसे हैं।
भावार्थ-सिद्धान्तमें प्राण दो प्रकारके कहे हैं-एक निश्चय, एक व्यवहार. जितने शुद्धज्ञानादिक भाव हैं वे तो निश्चयप्राण हैं और जो अशुद्ध, इन्द्रियादिक प्राण हैं सो
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
व्यवहारप्राण हैं । प्राण उसको कहते हैं कि जिसके द्वारा जीवद्रव्यका अस्तित्व है । जीवभी संसार और सिद्धके भेदसे दो प्रकारके हैं । जो अशुद्ध प्राणोंके द्वारा जीता है सो तो संसारी है और जो शुद्ध प्राणोंसे जीता है वह सिद्ध जीव है । इसकारण सिद्धों के कथंचित् प्रकार प्राण हैं भी और नहीं भी हैं । जो निश्चय प्राण हैं वे तो पाये जाते हैं और जो व्यवहार प्राण हैं वे नहीं हैं । फिर उन ही सिद्धों के क्षीरनीरकी समान देहसे संबंध भी नहीं है | किंचित् ऊन ( कम ) चरम ( अन्तके) शरीरप्रमाण प्रदेशोंकी अवगाहना है । ज्ञानादि अनन्तगुणसंयुक्त अपार महिमालिये आत्मलीन अविनाशी स्वरूपसहित तिष्ठते हैं । आगे संसारी जीवके जैसे कार्यकारणभाव हैं, तैसे सिद्ध जीवके नहीं है, ऐसा कथन करते हैं ।
ण कुदोचि वि उपणो जह्मा कज्जं ण तेण सो सिद्धो । उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि ॥ ३६ ॥
संस्कृतछाया.
न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात् कार्यं न तेन सः सिद्धः ।
उत्पादयति न किंचिदपि कारणमपि तेन न स भवति ॥ ३६ ॥
किसी और वस्तुसे भी
]
पदार्थ – [ यस्मात् ] जिस कारण से [ कुतश्चित् अपि ] [ सिद्धः] शुद्ध सिद्धजीव है सो [ उत्पन्नः न ] उपजा नहीं । [ तेन तिस कारण [सः ] वह सिद्ध [ कार्य ] कार्यरूप नहीं है कार्य उसे कहते हैं जो किसी कारण से उपजा हो सो सिद्ध किसी से भी नहिं उपजे, इसलिये सिद्ध कार्य नहीं है । और जिस कारण से [ किंचित् अपि ] और कुछ भी वस्तु [ उत्पादयति ] उपजावता (न) नहीं है [तेन] तिस कारणसे [सः] वह सिद्ध जीव [ कारणं अपि ] कारणरूप भी [ न भवति ] नहीं है । कारण वही कहलाता है जो किसहीका उपजानेवाला हो, सो सिद्ध कुछ उपजावते नहीं. इसलिये सिद्ध कारण भी नहीं हैं ।
भावार्थ — जैसें संसारी जीव कार्य कारण भावरूप है तैसें सिद्ध नहीं है. सो ही दिखाया जाता है |
संसारी जीवके अनादि पुद्गल संबंधके होनेसे भाव कर्मरूप परिणति और द्रव्यकर्मरूप परिणति है । इनके कारण देव मनुष्य तिर्यच नारकी पर्यायरूप जीव उपजता है । इस कारण द्रव्यकर्मभावकर्मरूप अशुद्ध परिणति कारण है और चार गतिरूप जीवका होना सो कार्य है । सिद्ध जो हैं सो कार्यरूप नहीं है । क्योंकि द्रव्यकर्मभावकर्मका जब सर्वथा प्रकारसे नाश होता है, तब ही सिद्धपढ़ होता है । और संसारी जीव जो है सो द्रव्य भावरूप अशुद्ध. परिणतिको उपजावता हुवा चारगतिरूप कार्यको उत्पन्न करता है. कारण संसारी जीव कारण भी कहा जाता है । सिद्ध कारण नहीं हैं क्योंकि सिद्धोंसे चार
इस
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। गतिरूप कार्य नहीं होता । सिद्धके अशुद्ध' परिणति सर्वथा नष्ट होगई है. सो अपने शुद्ध स्वरूपको ही उपजाते हैं । और कुछ भी नहिं उपजाते । ____ आगे कइयक बौद्धमती जीवका सर्वथा अभाव होना उसको ही मोक्ष कहते हैं, तिनका निषेध करते हैं।
सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुण्णमिदरं च । विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुजदि असदि सम्भावे ॥३७॥
संस्कृतछाया. शास्वतमथोच्छेदो भव्यमभव्यं च शून्यमितरच ।।
विज्ञानमविज्ञानं नापि युज्यते असति सद्भावे ।। ३७ ॥ पदार्थ-[ सद्भावे ] मोक्षावस्थामें शुद्ध सत्तामात्र जीव वस्तुके [ असति ] अभाव होते सते [ शास्वतं ] जीव द्रव्यस्वरूप करके अविनाशी है ऐसा कथन [न युज्यते ] नहीं संभवता. जो मोक्षमें जीव ही नहीं तो शास्वता कौन होगा ? [ अथ ] और [उच्छेदः ] नित्य जीवद्रव्यके समयसमयविषै पर्यायकी अपेक्षासे नाश होता है.. यह भी कथन वनैगा नहीं । जो मोक्षमें वस्तु ही नहीं है तो नाश किसका कहा जाय (च) और [ भव्यं ] समय समयमें शुद्ध भावोंके परिणमनका होना सो भव्य भाव है [अभव्यं] जो अशुद्ध भाव विनष्ट हुये तिनका जो अन होना सो अभव्यभाव कहाता है. ये दोनों प्रकारके भव्य अभव्य भाव जो मुक्तमें जीव नहिं होय तो किसके होय ? [च ] तथा [शून्यं ] परद्रव्यस्वरूपसे जीवद्रव्यरहित है. इसको शून्यभाव कहते हैं [इतरं ] अपने
स्वरूपसे पूर्ण है इसको अशून्यभाव कहते हैं जो मोक्षमें वस्तुही नही है तो ये दोनों __ भाव किसके कहे जायंगे ? [च ] और [विज्ञानं ] यथार्थ पदार्थका जानना [ अविज्ञानं ]
औरका और जानना । ज्ञान अज्ञान दोनों प्रकारके भाव यदि मोक्षमें जीव नहिं होय तो कहे नहिं जांय-क्योंकि किसी जीवमें ज्ञान अनंत है किसी जीवमें ज्ञान सान्त है । किसी जीवमें अज्ञान अनंत है किसी जीवमें अज्ञान सान्त है । शुद्ध जीव द्रव्यमें केवल ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त ज्ञान है सम्यग्दृष्टी जीवके क्षयोपशम ज्ञानकी अपेक्षा सान्त ज्ञान है । अभव्य मिथ्यादृष्टीकी अपेक्षा अनन्त अज्ञान है. भव्यमिथ्यादृष्टीकी अपेक्षा सान्त अज्ञान है । सिद्धोंमें समस्त त्रिकालवर्ती पदार्थोंके जाननेरूप ज्ञान हैं, इस कारण ज्ञानभाव कहा जाता है और कथंचित्प्रकार अज्ञान भाव भी कहा जाता है । क्योंकि क्षायोपशमिक ज्ञानका सिद्धमें अभाव है । इसलिये विनाशीक ज्ञानीकी अपेक्षा अज्ञान भाव जानना । यह दोनों प्रकारके ज्ञान अज्ञान भाव जो मोक्षमें जीवका अभाव होय तो नहिं वन सक्ते ?
भावार्थ-जे अज्ञानी जीव मोक्ष अवस्थामें जीवका नाश मानते हैं उनको समझानेके लिये आठ भाव हैं इन आठ भावोंसे ही मोक्षमें जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है। और
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जो ये आठ भाव नहिं होय तो द्रव्यका अभाव होजाय द्रव्यके अभावसे संसार और मोक्ष दोनों अवस्थाका अभाव होय इस कारण इन आठों भावज्ञानोंको जानना चाहिये । ध्रौव्यभाव १ व्ययभाव २ भव्यभाव ३ अभव्यभाव ४ शून्यभाव ५ पूर्वाभाव ६ ज्ञानभाव ७ अज्ञानभाव ८ इन आठ भावोंसे जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है । और जीवद्रव्यके अस्तित्वसे इन आठोंका अस्तित्व रहता है। आगे चैतन्यस्वरूप आत्माके गुणोंका व्याख्यान करते हैं ।
कम्माणं फलमेक्को एक्को कजं तु णाणमध एक्को। चेदयदि जीवरासि चेद्गभावेण तिविहेण ॥ ३८॥
संस्कृतछाया. कर्मणां फलमेकः एकः कार्य तु ज्ञानमथैकः ।
चेतयति जीवराशिश्चेतकभावेन त्रिविधेन ॥ ३८ ॥ पदार्थ-[एक::] एक जीवराशि तो [कर्मणां] कर्मोंके [ फलं] सुखदुखरूप फलको [चेतयति ] वेदै है. [तु] और [एकः] एक जीवराशि ऐसी है कि कुछ उद्यम लिये [कार्य] सुखदुखरूप कर्मोंके भोगनेके निमित्त इष्ट अनिष्ट विकल्परूप कार्यको विशेषताके साथ वेदै है. [अथ] और [एकः] एक जीवराशि ऐसी है कि- [ज्ञानं] शुद्धज्ञानको ही विशेषतारूप वेदती है. [त्रिविधेन] यह पूर्वोक्त कर्मचेतना कर्मफल चेतना और ज्ञानचेतना इसप्रकार तीन भेद लिये है [चेतकभावेन] चैतन्य भावोंसे ही [जीवराशिः] समस्त जीवराशि है । ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो इस त्रिगुणमयी चेतनासे रहित हो । इस कारण आत्माके चैतन्यगुण जानलेना।
भावार्थ-अनेक जीव ऐसे हैं कि जिनके विशेषता करके ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनी वीर्यान्तराय इन कर्मोंका उदय है. इन कर्मोंके उदयसे आत्मीक शक्तिसे रहित हुये परिणमते हैं । इस कारण विशेषताकर सुखदुखरूप कर्मफलको भोगते हैं । निरुद्यमी हुये विकल्परूप इष्ट अनिष्ट कार्यकारणको असमर्थ है इसलिये इन जीवोंको मुख्यतासे कर्मफल-चेतना गुणको धरनहारे जानने। और जो जीव ज्ञानावरण दर्शनावरण और मोह कर्मके विशेष उदयसे अतिमलीन हुये चैतन्यशक्तिकर हीन परणमे हैं परंतु उनके वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम कुछ अधिक हुवा है, इस कारण सुखदुखरूप कर्मफलके भोगवनेको इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें रागद्वेष मोहलिये उद्यमी हुये कार्य करनेको समर्थ हैं, वे जीव मुख्यतासे कर्मचेतनागुणसंयुक्त जानने । और जिन जीवोंके सर्वथा प्रकार ज्ञानावरण दर्शनावरण मोह
और अन्तरायकर्म गये हैं. अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन अनन्तसुख अनन्तवीर्य ये गुण प्रगट हुये हैं कर्म और कर्मफलके भोगनेमें विकल्परहित हैं और आत्मीक पराधीनतारहित स्वाभाविक सुखमें लीन होगये हैं, वे ज्ञानचेतनागुणसंयुक्त कहाते हैं ।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। आगें इस तीन प्रकारकी चेतनाके धरनहारे कोन २ जीव हैं सो दिखाया जाता है।
सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कजजुदं । पाणित्तमदिकंता णाणं विदंति ते जीवा ॥ ३९॥
संस्कृतछाया. सर्वे खलु कर्मफलं स्थावरकायास्त्रसा हि कार्ययुतं ।
प्राणित्वमतिक्रान्ताः ज्ञानं विन्दन्ति ते जीवाः ॥ ३९ ॥ पदार्थ-[खल] निश्चयसे [ सर्वे] पृथिवी काय आदि जे समस्त ही पांच प्रकार [स्थावरकायाः] स्थावर जीव हैं ते [कर्मफलं] कर्मोंका जो दुखसुखरूप फल तिसको प्रगटपणे रागद्वेषकी विशेषता रहित अप्रगटरूप अपनी शक्त्यनुसार [विन्दन्ति] वेदते हैं । क्योंकि एकेन्द्रिय जीवोंके केवलमात्र कर्मफलचेतनारूप ही मुख्य है. हि] निश्चय करके [त्रसाः] द्वेन्द्रियादिक जीव हैं ते [ कार्ययुतं ] कर्मका जो फल है सुखदुखरूप तिसको रागद्वेष मोहकी विशेषतालिये उद्यमी हुये इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें कार्य करते सन्ते भोगते हैं. इस कारण वे जीव कर्मफलचेतनाकी मुखतासहित जान लेना । और जो जीव [माणित्वं ] दशप्राणोंको [अतिक्रान्ताः] रहित हैं अतीन्द्रिय ज्ञानी हैं [ते] वे [जीवाः] शुद्ध प्रत्यक्ष ज्ञानी जीव [ज्ञानं] केवल ज्ञान चैतन्य भावहीको [विन्दन्ति ] साक्षात् परमानन्द सुखरूप अनुभवै है । ऐसे जीव ज्ञानचेतनासंयुक्त कहाते हैं । ये तीन प्रकारके जीव तीन प्रकारकी चेतनाके धरनहारे जानने । आगे उपयोगगुणका व्याख्यान करते हैं ।
उवओगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो। जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि ॥४०॥
संस्कृतछाया. उपयोगः खलु द्विविधो ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्तः ।
जीवस्य सर्वकालमनन्यभूतं विजानीहि ॥ ४० ॥ पदार्थ-[खल] निश्चय करकें [उपयोगः] चेतनतालिये जो परिणाम है सो [द्विविधः] दो प्रकारका है । वे दो प्रकार कौन २ से हैं ? [ ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्तः] ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ऐसे दो भेद लियेहुये हैं । जो विशेषतालिये पदार्थोंको जानै सो तौ ज्ञानोपयोग कहलाता है और जो सामान्यस्वरूप पदार्थोंका जानै सो दर्शनोपयोग कहा जाता है । सो दुविध उपयोग [जीवस्य] आत्मद्रव्यके [सर्वकालं] सदाकाल [अनन्यभूतं] प्रदेशोंसे जुदा नहीं ऐसा [विजानीहि ] हे शिष्य तू जान । यद्यपि व्यवहार नयाश्रित गुणगुणीके भेदसे आत्मा और उपयोगमें भेद है तथापि वस्तुकी एकताके न्यायसे एकही है भेद करनेमें नहिं आता क्योंकि गुणके नाश होनेसे गुणीका भी नाश है और गुणीके नाशसे गुणका नाश है इस कारण एकता है।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
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'आगे ज्ञानोपयोगके भेद दिखाते हैं ।
आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । कुमदिसुदविभंगाणि य तिष्णि वि णाणेहिं संजुत्ते ॥ ४१ ॥
संस्कृतछाया.
आभिनिवोधिकश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानानि पञ्चभेदानि । कुमतिश्रुतविभङ्गानि च त्रीण्यपि ज्ञानैः संयुक्तानि ॥ ४१ ॥
पदार्थ – [ आभिनिवोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि] मति श्रुत अवधि मनःपर्यय, केवल पञ्चभेदानि ज्ञानानि ] ये पांच प्रकारके सम्यग्ज्ञान हैं । [च] और [कुमतिश्रुतविभङ्गानि त्रीणि अपि] कुमति कुश्रुत विभङ्गावधि ये तीन कुज्ञान भी [ ज्ञानैः संयुक्तानि] पूर्वोक्त पांचों ज्ञानोंसहित गण लेने। ये ज्ञानके आठ भेद हैं ।
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भावार्थ-स्वाभाविक भावसे यह आत्मा अपने समस्त प्रदेशव्यापी अनन्त निरावरण शुद्धज्ञानसंयुक्त है । परन्तु अनादिकाल से लेकर कर्म संयोगसे दूषित हुवा प्रवर्त्ते है । इसलिये सर्वांग असंख्यात प्रदेशों में ज्ञानावरण कर्मके द्वारा आच्छादित है । उस ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे मतिज्ञान प्रगट होता है । तब मन और पांच इन्द्रियोंके अवलं - बनसे किंचित् मूर्तीक अमूर्त्तीक द्रव्यको विशेषता कर जिस ज्ञानकेद्वारा परोक्षरूप जानता उसका नाम मतिज्ञान है । और उस ही ज्ञानावरणं कर्मके क्षयोपशमसे मनके अवलंबसे किंचिन्मूर्त्तीिक अमूर्त्तीक द्रव्य जिसके द्वारा जाना जाय उस ज्ञानका नाम श्रुतज्ञान है | जो कोई यहां पूछै कि श्रुतज्ञान तो एकेन्द्रियसे लगाकर असैनी जीव पर्यन्त कहा है. उसका समाधान यह है कि—उनके मिथ्याज्ञान है. इस कारण वह श्रुतज्ञान नहिं लेना और अक्षरात्मक श्रुतज्ञानको ही प्रधानता है । इस कारण भी वह श्रुतज्ञान नहिं लेना । मनके अवलंबनसे जो परोक्षरूप जाना जाय उस श्रुतज्ञानको द्रव्यभावके द्वारा जानना और उसही ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जिस ज्ञानके द्वारा एकदेशप्रत्यक्षरूप किंचिन्मूर्तीक द्रव्य जानै तिसका नाम अवधिज्ञान है । और उसही ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे अन्यजीवके मनोगत मूर्तीक द्रव्यको एक देश प्रत्यक्ष जिस ज्ञानके द्वारा जानै, उसका नाम मन:पर्ययज्ञान कहा जाता है । और सर्वथा प्रकार ज्ञानावरण कर्मके क्षय होनेसे जिस ज्ञानके द्वारा समस्त मूर्तीक अमूर्त्तीक द्रव्य, गुण पर्यायसहित प्रत्यक्ष जाने जांय उसका नाम केवलज्ञान है । मिथ्यादर्शनसहित जो मतिश्रुतअवधिज्ञान हैं, वे ही कुमति कुश्रुत कुअवधिज्ञान कहलाते हैं । ये आठ प्रकारके ज्ञान जिनागमसे विशेषता कर जानने ।
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आगें दर्शनोपयोगके नाम और स्वरूपका कथन किया जाता है ।
दंसणमचि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं । अणिघणमणतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं ॥ ४२ ॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
संस्कृतछाया. दर्शनमपि चक्षुर्युतमचक्षुर्युतमपि चावधिना सहितं ।
अनिधनमनन्तविषयं कैवल्यं चापि प्रज्ञप्तम् ॥ ४२ ॥ पदार्थ- [चक्षुर्युतं ] द्रवितनेत्रके अवलंबनसे जो [दर्शनं] देखना है उसका नाम चक्षुदर्शन [प्रज्ञप्तं ] भगवाननें कहा है [च] और [अचक्षुर्युतं] नेत्र इन्द्रियके विना अन्य चारों द्रव्य इन्द्रियोंके और मनके अवलंबनसे देखा जाय उसका नाम अचक्षुदर्शन है। [च] और [अवधिना सहित] अवधिज्ञानके द्वारा [अपि] निश्चयसे जो देखना है, उसको अवधिदर्शन कहते हैं । और जो [अनिधनं ] अन्तरहित [अनन्तविषयं] समस्त अनंत पदार्थ हैं विषय जिसके सो [ कैवल्यं ] केवलदर्शन [प्रज्ञप्तं ] कहा गया है ।
भावार्थ-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इन चार भेदों द्वारा दर्शनोपयोग जानना. दर्शन और ज्ञानमें सामान्य और विशेषका भेद मात्र है. जो विशेषरूप जानै उसको ज्ञान कहते हैं इस कारण दर्शनका सामान्य जानना लक्षण है । आत्मा स्वाभाविक भावोंसे सर्वांग प्रदेशोंमें निर्मल अनन्तदर्शनमयी है परन्तु वही आत्मा अनादि दर्शनावरण कर्मके उदयसे आच्छादित है. इसकारण दर्शन शक्तिसे रहित है। उसही आत्माके अन्तरंग चक्षुदर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे बहिरंगनेत्रके अवलंबनकर किंचित् मूर्तीक द्रव्य जिसके द्वारा देखा जाय उसका नाम चक्षुदर्शन कहा जाता है । और अन्तरंगमें अचक्षुदर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे बहिरंग नेत्र इन्द्रिय विना चार इन्द्रियों
और द्रव्यमनके अवलंबनसे किंचित् मूर्तीक द्रव्य अमूर्तीक द्रव्य जिसके द्वारा देखे जांय उसका नाम अचक्षुदर्शन कहा जाता है । और जो अवधि दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे किंचिन्मूर्तीक द्रव्योंको प्रत्यक्ष देखै उसका नाम अवधिदर्शन है । और जिसके द्वारा सर्वथा प्रकार दर्शनावरणीय कर्मके क्षयसे समस्त मूर्तीक अमूर्तीक पदार्थोंको प्रत्यक्ष देखा जाय उसको केवल दर्शन कहते हैं । इसप्रकार दर्शनका स्वरूप जानना । आगे कहते हैं कि एक आत्माके अनेक ज्ञान होते हैं इसमें कुछ दूषण नहीं है ।
ण वियप्पदिणाणादो णाणी जाणाणि होति णेगाणि । तमा दु विस्सरुवं भणियं दवियत्ति णाणीहि ॥४३॥
संस्कृतछाया. न विकल्पते ज्ञानात् ज्ञानी ज्ञानानि भवन्त्यनेकानि ।
तस्मात्तु विश्वरूपं भणितं द्रव्यमिति ज्ञानीभिः ॥ ४३ ।। पदार्थ-ज्ञानात्] ज्ञानगुणसे [ज्ञानी] आत्मा [न विकल्पते] भेद भावको प्राप्त नहिं होता है । अर्थात्-परमार्थसे तो गुणगुणीमें भेद होता नहीं है क्योंकि द्रव्य क्षेत्र काल भावसे गुणगुणी एक है । जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव गुणीका है वही गुणका है और जो गुणका है सो गुणीका है । इसी प्रकार अभेदनयकी अपेक्षा एकता जाननी. भेदनयसे
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
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आत्मा [ज्ञानानि ] मति श्रुत अवधि मनःपर्यय केवल इन पांच प्रकारके ज्ञानोंमेंसे [ अनेकानि] दो तीन चार [भवन्ति ] होते हैं । भावार्थ - यद्यपि आत्मद्रव्य और ज्ञानगुणकी एकता है तथापि ज्ञानगुणके अनेक भेद करने में कोई विरोध वा दोष नहीं है क्योंकि द्रव्य कथंचित्मकार भेद अभेद स्वरूप है अनेकान्त के विना द्रव्यकी सिद्धि नहीं है [ तस्मात् तु ] तिस कारणसे [ ज्ञानीभिः ] जो अनेकांत विद्याके जानकार ज्ञानी जीवोंके द्वारा [द्रव्यं ] पदार्थ है सो [विश्वरूपं] अनेक प्रकारका [ भणितं ] कहा गया है [ इति ] इस प्रकार वस्तुका स्वरूप जानना ।
भावार्थ — यद्यपि द्रव्य अनन्तगुण अनन्तपर्यायके आधारसे एक वस्तु है तथापि वही द्रव्य अनेक प्रकार भी कहा जाता है । इससे यह बात सिद्ध भई कि अभेदसे आत्मा एक है अनेक ज्ञानके पर्यायभेदोंसें अनेक हैं ।
आगें जो सर्वथा प्रकार द्रव्यसे गुण भिन्न होंय और गुणोंसे द्रव्य भिन्न होय तो बडा दोष लगता है ऐसा कथन करते हैं ।
जदि हवदि दव्वमण्णं गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे । दव्वाणंतियमधवा दव्वाभावं पकुव्वंति ॥ ४४ ॥
संस्कृतछाया.
यदि भवति द्रव्यमन्यद्गुणश्च गुणाश्च द्रव्यतोऽन्ये । द्रव्यानन्त्यमथवा द्रव्याभावं प्रकुर्व्वन्ति ॥ ४४ ॥
पदार्थ – [ ] और सर्वथा प्रकार [ यदि ] जो [ द्रव्यं ] अनेक गुणात्मक वस्तु है सो [गुणतः ] अंशरूपगुणसे [ अन्यत् ] प्रदेशभेदसे जुदा [ भवति ] होय (च) और [ द्रव्यतः ] अंशीस्वरूप द्रव्यसे [ गुणा: ] अंशरूप गुण [ अन्ये ] प्रदेशोंसे भिन्न होंहि तो [ द्रव्यानन्त्यं ] एक द्रव्यके अनन्तद्रव्य होय जांय । अथवा जो अनन्तद्रव्य नहिं होंय तो [ते] वे गुण जुदे हुये सन्ते [ द्रव्याभावं ] द्रव्यके अभावको [ प्रकुर्वन्ति ] करते हैं ।
भावार्थ - आचार्यैने भी गुणगुणी में कथंचित्प्रकार भेद दिखाया है। जो उनमें सर्वथा प्रकार भेद होंहि तौ एक द्रव्यके अनन्त भेद हो जाते हैं. सो दिखाया जाता है । गुण अंशरूप है गुणी अंशी है । अंशसे अंशी जुदा नहिं हो सक्ता. अंशीके आश्रय ही अंश रहते हैं और जो यों कहिये कि अंशसे अंशी जुदा होता है तो वे अंश आधारके विना किस अंशीके आश्रयसे रहै ? उसकेलिये अन्य कोई अंशी चाहिये कि जिसके आधार अंश रहैं । और जो कहो कि अन्य अंशी है उसके आधार रहते हैं तो उस अंशीसे भी अंश जुदे कहने होंगे । और यदि कहोगे कि उससे भी अंश जुदे हैं तो फिर अन्य अंशीकी कल्पना की जायगी. इसप्रकार कल्पना करनेसे गुणगुणीकी स्थिति नहिं होयगी. क्योंकि गुण अनन्त हैं जुदा कहनेसे द्रव्य भी अनन्त होंयगे सो एक दोष तो यह आवैगा.
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः।
३९ दूसरा दोष यह है कि-द्रव्यका अभाव हो जायगा. क्योंकि द्रव्य वह कहलाता है जो गुणोंका समूह हो, इसलिये द्रव्यसे गुण जुदा होय तो द्रव्यका अभाव होता है. इसकारण सर्वथा प्रकार गुणगुणीका भेद नहीं है, कथंचित्प्रकारसे भेद जानना।
अविभत्तमणण्णत्तं व्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं । णिच्छंति णिच्चयहूं तस्विवरीदं हि वा तेसिं ॥ ४५ ॥
संस्कृतछाया. अविभक्तमनन्यत्वं द्रव्यगुणानां विभक्तमन्यत्वं ।
नेच्छन्ति निश्चयज्ञास्तद्विपरीतं हि वा तेषां ।। ४५ ।। पदार्थ-[द्रव्यगुणानां] द्रव्य और गुणोंका [अनन्यवं ] एक भाव है सो [अविभक्तं ] प्रदेशभेदसे रहित है। द्रव्यके नाश होनेसे गुणका अभाव और गुणोंके नाश होनेसे द्रव्यका अभाव ऐसा एकभाव है. अर्थात् जैसे एक परमाणुकी अपने एक प्रदेशसे पृथक्ता नहीं है और जैसे उसही परमाणुमें स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणोंकी पृथक्ता नहीं है तैसें ही समस्त द्रव्योंमें प्रदेशभेदरहित गुणपर्यायका अभेद भाव जानना । ऐसी प्रदेशभेदरहित द्रव्यगुणोंकी एकता आचार्यजीने अंगीकारकी है और [निश्चयज्ञाः] गुणगुणीमें कथंचित् भेदसे निश्चयस्वरूपके जाननहारे हैं ते [अन्यत्वं] 'द्रव्यगुणोंमें भेदभाव [विभक्तं] प्रदेशभेदसे रहित [न इच्छंति ] नहिं चाहते हैं । भावार्थ-द्रव्य और गुणोंमें संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजनादिसे यद्यपि भेद है तथापि ऐसा भेद नहीं है कि जिससे प्रदेशोंकी पृथक्ता होय । अतएव यह बात सिद्ध हुई कि गुणगुणीमें वस्तुरूप विचारसे प्रदेशोंकी एकतासे कुछ भी भिन्नता नहीं है. संज्ञामात्रसे भिन्नता है । एक द्रव्यमें भेद अभेद इसी प्रकार जानना [वा] अथवा [हि] निश्चयसे [तेषां] उन द्रव्यगुणोंके [तद्विपरीतं] उस पूर्वोक्त प्रकार भेद अभेदसे जो और प्रकार भेद अभेद है उसको [न इच्छन्ति ] जो तत्त्वम्वरूपके वेत्ता हैं ते वस्तुमें नहिं मानते ।
भावार्थ-वस्तुमें कथंचित् गुणगुणीका जो भेद अभेद है, उसका वस्तुको साधनके वास्तै मानते हैं और जो उपचारमात्र पदार्थों में भेद अभेद लोकव्यवहारसे है उसको आचार्य नहिं मानते क्योंकि लोकव्यवहारसे कुछ वस्तुका स्वरूप सधता नहीं है. सो दिखाया जाता है । जैसे-लोकव्यवहारसे विन्ध्याचल और हिमाचलमें बडा भेद कहा जाता है क्योंकि हिमाचल कहीं है और विन्ध्याचल कहीं है. इसको नाम भेद कहते हैं तथा मिले हुये दुग्धजलको अभेद कहते हैं परमार्थसे जल जुदा है दुग्ध जुदा है । लोकव्यवहारसे एक माना जाता है क्योंकि दुग्ध और जलमें प्रदेशोंकी ही पृथक्ता है । इसप्रकार लोकव्यवहार कथित गुणगुणीमें भेदाभेद नहिं माने जाय तो प्रदेशभेदरहित जो गुणगुणीमें कथंचित्प्रकार भेद अभेद परमार्थ दिखानेकेलिये कृपावन्त आचार्योने दिखाया है सो भले प्रकार जानना चाहिये
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आगे व्यपदेश, संस्थान, संख्या, विषय, इन चार भेदोंसे सर्वथा प्रकार द्रव्य और
गुणभेद दिखाते हैं ।
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ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा । ते सिमणण अण्णत्ते चावि विज्यंते ॥ ४६ ॥
संस्कृतछाया.
व्यपदेशाः संस्थानानि संख्या विषयाश्च भवन्ति ते ते तेषामनन्यत्वे अन्यत्वे चापि विद्यन्ते ॥
वहुका: 1 ४६ ॥
पदार्थ – [ तेषां ] उनद्रव्य और गुणोंके [ते] जिनसे गुणगुणी में भेद होता है वे [ व्यपदेशाः ] कथन के भेद और [ संस्थानानि ] आकारभेद [ संख्या ] गणना [च] और [ विषयाः ] जिनमें रहै ऐसे आधार भाव ये चार प्रकारके भेद [ बहुका: ] बहुत प्रकारके [भवन्ति] होते हैं. और [ते] वे व्यपदेशादिक चार प्रकारके भेद [ अनन्यत्वे ] कथंचित्प्रकार अभेदभावमें [च] और [ अन्यत्वे ] कथंचित्प्रकार भेद भाव में [अपि ] भी [ विद्यन्ते] प्रवर्त्ते हैं ।
भावार्थ – ये चार प्रकारके व्यपदेशादिक भाव अभेद में भी हैं और भेदमें भी हैं। इनकी दो प्रकारकी विवक्षा है. जब एक द्रव्यकी अपेक्षा कथन किया जाय तब तो ये चार भाव अभेदकथनकी अपेक्षा कहे जाते हैं और जब अनेक द्रव्यकी अपेक्षा कथन किया जाय तब ये ही व्यपदेशादिक चार भाव भेदकथन की अपेक्षा कहे जाते हैं । आगें ये ही दोनों भेद दृष्टान्तसे दिखाये जाते हैं । जैसें किसही पुरुषकी गाय कहना, यह भेदमें व्यपदेश है. तैसे ही वृक्षकी शाखा, द्रव्यके गुण, यह अभेद में व्यपदेश जानना । और यह व्यपदेश पट्कारककी अपेक्षा भी है. सो दिखाया जाता है । जैसें कोई पुरुष फलको अंकुसीकर धनवन्तपुरुष के निमित्त वृक्षसे बाड़ीमें तोड़े है. यह भेदमें व्यपदेश है । और मृत्तिका जैसें अपने घटभावको आपकर अपने निमित्त आपसे आपमें करै है, तैसें ही आत्मा आपको अपनेद्वारा अपने निमित्त आत्मासे आपमें जाने है. सो यह अभेदमें व्यपदेश जानना । और जैसें बडे पुरुपकी गाय बडी है, यह भेद संस्थान है तैसे ही बडे वृक्षकी बडी शाखा, मूर्त्तिक द्रव्यके मूत्तक गुण यह अभेद संस्थान जानना । और जैसें किसी पुरुषकी दशगौवें हैं. ऐसे कहना सो भेदसंख्या है. तैसें ही एक वृक्षकी दशशाखायें, एक द्रव्यके अनंतगुण, यह अभेद संख्या जानी । और जैसे गोकुलमें गाय है, ऐसा कहना यह भेद विषय है तैसें ही वृक्षमें शाखाद्रव्य गुण यह अभेद विषय है । व्यपदेश संस्थान संख्या विषय ये चार प्रकारके भेद द्रव्यगुणमें अभेदरूप दिखाये जाते हैं, अन्यद्रव्यसे भेदकर दिखाये जाते हैं । यद्यपि द्रव्यगुण व्यपदेशादिक कहे जाते हैं तथापि वस्तुके विचारसे नहीं हैं ।
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४१ आगें भेद अभेद कथनका स्वरूप प्रगटकर दिखाया जाता है___णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाणिणं च दुविधेहिं । भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तचण्हू ॥४७॥
संस्कृतछाया. ज्ञानं धनं च करोति धनिनं यथा ज्ञानिनं च द्विविधाभ्यां ।
भणंति तथा पृथक्त्वमेकत्वं चापि तत्त्वज्ञाः ॥ ४७ ।। पदार्थ- [यथा] जैसें [धनं] द्रव्य सो [धनिनं] पुरुषको धनवान [करोति ] करता है अर्थात् धन जुदा है पुरुष जुदा है परन्तु धनके संवन्धसे पुरुष धनी वा धनवान् ऐसा नाम पाता है [च ] और [ज्ञानं ] चैतन्यगुण जो है सो [ज्ञानिनं ] आत्माको 'ज्ञानी' ऐसा नाम कहलाता है. ज्ञान और आत्माको प्रदेशभेदरहित एकता है । परन्तु गुणगुणीके कथनकी अपेक्षा ज्ञान गुणके द्वारा आत्मा 'ज्ञानी' ऐसा नाम धारण करता है [ तथा तैसें ही [द्विविधाभ्यां] इन दो प्रकारके भेदाभेद कथनद्वारा [ तत्त्वज्ञाः] वस्तुस्वरूपके जाननेवाले पुरुष हैं ते [पृथक्त्वं] प्रदेशभेदकी पृथकतासे जो संबंध है उसको पृथक्त्व कहते हैं. [च] और [अपि] निश्चयसे [ एकत्वं ] प्रदेशोंकी एकतासे संबंध है उसका नाम एकत्व है ऐसे दो भेदोंको [भणन्ति ] कहते हैं ।
भावार्थ-व्यवहार दो प्रकारका है. एक पृथक्त्व और एक एकत्व. जहांपर भिन्न द्रव्योंमें एकताका संबंध दिखाया जाय उसका नाम पृथक्त्व व्यवहार कहा जाता है. और एक वस्तुमें भेद दिखाया जाय उसका नाम एकत्व व्यवहार कहा जाता है. सो ये दोनों प्रकारका संबन्ध धन धनी ज्ञान ज्ञानीमें व्यपदेशादिक चार प्रकारसे दिखाया जाता है । धन जो है सो अपने नाम संस्थान संख्या और विषय इन चारों भेदोंसे जुदा हे-और पुरुष अपने नाम संस्थान संख्या विपयरूप चार भेदोंसे जुदा है। परन्तु धनके सम्बन्धसे पुरुष धनी कहलाता है. इसीको पृथक्त्व व्यवहार कहा जाता है। ज्ञान और ज्ञानीमें एकता है परन्तु नाम संख्या संस्थान विषयोंसे ज्ञानका भेद किया जाता है । वस्तुम्वरूपको भली भाँति जाननेके कारण उस ज्ञानके सम्बन्धसे ज्ञानी नाम पाता है. इसको एकत्व व्यवहार कहते हैं। ये दो प्रकारका सम्बन्ध समस्त द्रव्योंमें चार प्रकारसे जानना। ___ आगें ज्ञान और ज्ञानीमें सर्वथाप्रकार जो भेद ही माना जाय तो बडा दोप आता है, ऐसा कथन करते हैं।
णाणी णाणं च सदा अत्यंतरिदा दु अण्णमण्णस्स । दोहं अचेदात्तं पसजदि सम्म जिणावमदं ॥४८॥
ना।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
संस्कृतछाया. ज्ञानी ज्ञानं च सदार्थान्तरितेत्वन्योऽन्यस्य ।
द्वयोरचेतनत्वं प्रसजति सम्यग् जिनावमतं ।। ४८ ॥ पदार्थ-[ज्ञानी] आत्मा [च] और [ज्ञानं] चैतन्यगुणका [ सदा ] सदाकाल [अर्थान्तरिते] सर्वथा प्रकारभेद होय [तु अन्योऽन्यस्य ] तो परम्पर [योः ] ज्ञानी
और ज्ञानके [अचेतनत्वं ] जड़भाव [प्रसजति ] होता है [सम्यक् ] यथार्थमं यह [जिनावमतं] जिनेन्द्र भगवान्का कथन है ।
भावार्थ-जैसें अग्निद्रव्यमें उप्णता गुण है. जो इस अग्नि और उप्णतागुणमें पृथक्ता होती तो इंधनको जला नहिं सक्ती थी. जो प्रथमसे ही उप्णगुण जुदा होता तो काहेसे जलावे ? और जो अग्नि जुदी होती तो उप्णगुण किसके आश्रय रहै ? निराश्रय होकर वह भी जलानेकी क्रियासे रहित हो जाता. क्योंकि गुणगुणी परस्पर जुदा होनेपर कार्य करनेको असमर्थ होते हैं। जो दोनोंकी एकता होय तो जलानेकी क्रिया समर्थ होय. उसीप्रकार ज्ञानी और ज्ञान परस्पर जुदा होनेपर जाननेकी क्रियामें असमर्थता होती है. ज्ञानविना ज्ञानी कैसे जाने ? और ज्ञानीविना ज्ञान निराश्रय होता तो यह भी जाननरूप क्रियामें असमर्थ होता. ज्ञानी और ज्ञानके परस्पर जुदा होनेपर दोनों अचेतन होते हैं ।
और जो कोई यहां यह कहैं कि पृथक्रूप दांतसे काटनेपर पुरुष ही काटनहारा कहलाता है. इसीप्रकार पृथक्प ज्ञानकेद्वारा आत्माको जाननेहारा मानो तो इसमें क्या दोप है ? ताका उत्तर-काटनेकी क्रियामें दांत वाह्य निमित्त है. उपादान काटनेकी शक्ति पुरुषमें है जो पुरुषमें काटनेकी शक्ति न होती तो दांत कुछ कार्यकारी नहीं होते-इसलिये पुरुषका गुणप्रधान है, उस अपने गुणसे पुरुपके एकता है. इसी कारण ज्ञानी और ज्ञानके एक संबंध है. पुरुप और दांतकासा संबंध नहीं है. गुणगुणी वे ही कहाते हैं जिनके प्रदेशोंकी एकता होय. ज्ञान और ज्ञानीमें संयोगसम्बन्ध नहीं है, तन्मयभाव है।
आगें ज्ञान और ज्ञानीमें सर्वथाप्रकार भेद है. परन्तु मिलापकर एक है ऐसी एकताको निषेध करते हैं
ण हि सो समवायादो अत्यंतरिदो दुणाणदो णाणी। अण्णाणीति च वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि ॥ ४९ ॥
संस्कृतछाया. न हि सः समवायादर्थान्तरितस्तु ज्ञानतो ज्ञानी ।
अज्ञानीति च वचनमेकत्वप्रसाधकं भवति ॥४९॥ पदार्थ- [सः] वह [हि ] निश्चयसें [ज्ञानी] चैतन्यस्वरूप आत्मा [समवायात्] अपने मिलापसे [ज्ञानतः] ज्ञानगुणसे [अर्थान्तरितस्तु] भिन्नस्वरूप तो [न] नहीं है
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। क्योंकि [अज्ञानी] आत्मा अज्ञानगुणसंयुक्त है [इति वचनं] यह कथन [एकत्वप्रसाधकं ] गुणगुणीमें एकताका साधनहारा [ भवति ] होता है ।
भावार्थ-ज्ञानी और ज्ञानगुणकी प्रदेशभेदरहित एकता है और जो कहिये कि एकता नहीं है ज्ञानसंबंधसे ज्ञानी जुदा है-तो जब ज्ञान गुणका संबंध ज्ञानीके पूर्व ही नहीं था, तब ज्ञानी अज्ञानी था कि ज्ञानी ? जो कहोगे कि ज्ञानी था तो ज्ञान गुणके कथनका कुछ प्रयोजन नहीं, स्वरूपसे ही ज्ञानी था और जो कहोगे कि पहिले अज्ञानी था पीछेसे ज्ञानका संबंध होनेसे ज्ञानी हुवा है तो जब अज्ञानी था तो अज्ञान गुणके संबंधसे अज्ञानी था कि अज्ञानगुणसे एकमेक था? जो कहोगे कि-अज्ञानगुणके संबंधसे ही अज्ञानी ही था तो वह अज्ञानी था. अज्ञानके संबंधसे कुछ प्रयोजन नहीं है. स्वभावसे ही अज्ञानी थपै है. इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि-ज्ञान गुणका जो प्रदेशभेदरहित ज्ञानीसे एकभाव माना जाय तो आत्माके अज्ञानगुणसे एकभाव होता सन्ता अज्ञानी पद थपता है-इसकारण ज्ञान और ज्ञानीमें अनादिकी अनन्त एकता है । ऐसी एकता है जो ज्ञानके अभावसे ज्ञानीका अभाव हो जाता है—और ज्ञानीके अभावसे ज्ञानका अभाव होता है । और जो यों नहिं माना जाय तो आत्मा अज्ञानभावकी एकतासे अवश्यमेव अज्ञानी होता है और जो ऐसा कहा जाता है कि अज्ञानका नाश करके आत्मा ज्ञानी होता है सो यह कथन कर्म उपाधिसंबंधसे व्यवहारनयकी अपेक्षा जानना । जैसें सूर्य मेघपटलद्वारा आच्छादित हुवा प्रभारहित कहा जाता है परन्तु सूर्य अपने स्वभावसे उस प्रभावते त्रिकाल जुदा होता नाही. पटलकी उपाधिसे प्रभासे हीन अधिक कहा जाता है. तैसें ही यह आत्मा अनादि पुद्गलउपाधिसम्बन्धसे अज्ञानी हुवा प्रवर्ते है. परन्तु वह आत्मा अपने स्वाभाविक अखंड केवलज्ञान स्वभावसे स्वरूपसे किसी कालमें भी जुदा नहिं होता । कर्मकी उपाधिसे ज्ञानकी हीनता अधिकता कही जाती है. इसकारण निश्चय करकें ज्ञानीसे ज्ञानगुण जुदा नहीं है । कर्मउपाधिके वशसें अज्ञानी कहा जाता है. कर्मके घटनेसे ज्ञानी होता है. यह कथन व्यवहारनयकी अपेक्षा जानना । ___ आगं गुणगुणीमें एकभावके विना और किसीप्रकारका संबंध नहीं है ऐसा कथन करते हैं.
समवत्ती समवाओ अपुधभूदोय अजुदसिद्धो य । तह्मा द्वगुणाणं अजुदा सिद्धित्ति णिहिट्ठा ॥५०॥
संस्कृतछाया. समवर्तित्वं समवायः अपृथग्भूतत्वमयुतसिद्धत्वं च ।
तस्माद्र्व्यगुणानां अयुता सिद्धिरिति निर्दिष्टा ।। ५० ।। पदार्थ-[समवर्तित्वं ] द्रव्य और गुणोंके एक अस्तित्वकर अनादि अनन्त धारा
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वाहीरूप जो प्रवृत्ति है तिसका नाम जिनमतमें [ समवायः ] समवाय है । भावार्थसंबंध दो प्रकारके हैं एक संयोगसंबंध है और एक समवायसंबंध है— जैसे जीवपुलका संबंध है सो तो संयोगसंबन्ध है । और समवायसम्बन्ध वहां कहिये जहाँ कि अनेक भावोंका एक अस्तित्व होय सकें. जैसें गुणगुणीमें सम्बन्ध है । गुणोंके नाश होनेसे गुणीका नाश और गुणीके नाश होनेसे गुणोंका नाश होय । इसप्रकार अनेक भावों का जहां सम्बन्ध होय उसीका नाम समवायसम्बन्ध कहा जाता है । [च अपृथग्भूतं ] और वही गुणगुणीका समवायसम्बन्ध प्रदेशभेदरहित जानना । यद्यपि संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजनादिकसे गुणगुणीमें भेद है तथापि स्वरूपसे भेद नहीं हैं । जैसें सुवर्णके और पीतादि गुणके समवायसम्बन्ध में प्रदेशभेद नहीं है, इसीप्रकार गुणगुणीकी एकता है । [च] और [अयुतसिद्धत्वं] वही गुणगुणीका समवायसम्बन्ध मिलकर नहिं हुवा है अनादि सिद्ध एकही है [तस्मात् ] तिसकारणसे [ द्रव्यगुणानां ] गुणगुणी में वे समवाय सम्बन्ध [ अयुता सिद्धि: ] अनादिसिद्धि [इति ] इसप्रकार [निर्दिष्टा ] भगवंत देवने दिखाया है. ऐसा गुणगुणीविषै समवायसम्बन्ध जानना ।
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आगे दृष्टांतसहित गुणगुणीकी एकताका कथन संक्षेपसे करते हैं.
वण्णरसगंधफासा परमाणुपरूविदा बिसेसा हि । दव्वादो य अणण्णा अण्णत्तपगासगा होति ॥ ५१ ॥ दंसणणाणाणि तहा जीवणिवद्धाणि णण्णभूदाणि । ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि णो सभावादो ॥ ५२ ॥
संस्कृतछाया.
वर्णरसगन्धस्पर्शाः परमाणुप्ररूपिता विशेषा हि ।
द्रव्यतश्च अनन्याः अन्यत्वप्रकाशका भवन्ति ॥ ५१ ॥ दर्शनज्ञाने तथा जीवनिबद्धे अनन्यभूते ।
व्यपदेशतः पृथक्त्वं कुरुते हि नो स्वभावात् ॥ ५२ ॥
पदार्थ - [हि ] निश्चयसे [ परमाणुप्ररूपिताः ] परमाणुवों मे कहे जे [वर्णरसगं - स्पर्शाः] वर्णरसगंधस्पर्श ऐसे चार [ विशेषाः ] गुणोंसे [ द्रव्यतः अनन्याः ] पुद्गलद्रव्यसे पृथक नहीं है. - भावार्थ - निश्चय नयकी अपेक्षा वर्ण रस गन्ध स्पर्श ये चार गुण समवायसंबंध से पुद्गलद्रव्यसे जुदे नहीं है [च] और ये ही चारों वर्णादिकगुण [ अन्यत्वप्रकाशकाः भवन्ति ] व्यवहारकी अपेक्षा पुद्गलद्रव्यसे पृथकताको भी प्रगट करता है । भावार्थ-यद्यपि ये वर्णादिक गुण निश्चयकरके पुद्गलसे एक हैं तथापि - व्यवहारनयकी अपेक्षा संज्ञा भेदकर भेद भी कहा जाता है. प्रदेशभेदसे भेद नहीं है । [ तथा ] और जैसें पुद्गलद्रव्यसे वर्णादिक गुण अभिन्न है. तैसें ही निश्चय नयसे [ जीवनिवळे ] जीव
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
४५ समवायसम्बन्धलिये [दर्शनज्ञाने ] दर्शन ज्ञान असाधारण गुण भी [अनन्यभूते] जुदे नहीं है [व्यपदेशतः] संज्ञादि भेदके कथनसे आचार्य आत्मा और ज्ञानदर्शनमें [पृथक्त्वं ] भेदभावको [कुरुते ] करते हैं. तथापि [हि] निश्चयसे [स्वभावात् ] निजस्वरूपसे [नो] भेद संभवता नहीं है । भगवन्तका मत अनेकान्त है. दोय नयोंसे सधता है. इस कारण निश्चय व्यवहारसे भेद अभेद गुणगुणीकास्वरूप परमागमसे विशेषरूप जानना । यह चारप्रकार दर्शनोपयोग आठप्रकार ज्ञानोपयोग शुद्धअशुद्ध भेद कथनसे सामान्यस्वरूप पूर्वोक्त प्रकारसे जानना. यह उपयोग गुणका व्याख्यान पूर्ण हुवा । ___ आगे कर्तृत्वका अधिकार कहते हैं. जिसमें से जीव निश्चयनयसे परभावनका कर्ता नहीं है, अपने स्वभावके ही कर्ता होते हैं । वे ही जीव अपने परिणामोंको करते हुये अनादि अनन्त हैं कि सादिसान्त हैं अथवा सादिअनन्त है ? और ऐसे अपने भावोंको परिणमते हैं कि नहीं परिणमैंगे ? ऐसी आशंका होनेपर आचार्य समाधान करते हैं।
जीवा अणाइणिहिणा संता ता य जीवभावादो। सम्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य ॥ ५३ ॥
संस्कृतछाया. जीवाः अनादिनिधनाः सान्ता अनन्ताश्च जीवभावात् ।
सद्भावतोऽनन्ताः पञ्चाग्रगुणप्रधाना च ॥ ५३ ।। पदार्थ- [जीवाः] आत्मद्रव्य जे हैं ते [ अनादिनिधनाः ] सहजशुद्धचेतन पारिणामिक भावोंसे अनादि अनन्त हैं. स्वाभाविक भावकी अपेक्षा जीव तीनों कालोंमें टंकोत्कीर्ण अविनाशी है [च] और वे ही जीव [सान्ताः] सादि सान्त भी हैं और [अनन्ताः] सादि अनन्त भी हैं । औदयिक और क्षायोपशमिक भावोंसे सादिसान्त हैं क्योंकि [जीवभावात् ] जीवके कर्मजनित भाव होनेसे औदयिक और क्षायोपशमिकभाव कर्मजनित हैं. कर्म वन्धै भी है और निर्जरै भी है तातें कर्म आदिअंतलियेहुये हैं. उन कर्मजनित भावोंकी अपेक्षा जीव सादिसान्त जान लेना. और वे ही जीव क्षायिक भावोंकी अपेक्षा सादि अनन्त हैं क्योंकि कर्मके-क्षयसे क्षायिक भाव उत्पन्न होते हैं इस कारण सादि हैं. आगें अनन्तकालपर्यंत रहेंगे. इस कारण अनन्त हैं. ऐसा क्षायिक भाव सादि अनन्त हैं. सो क्षायिकभाव जैसें शुद्ध सिद्धका भाव अविनाशी निश्चलरूप है, तैसा अनन्तकालताई रहेगा [सद्भावतः] सत्तास्वरूपसे जीवद्रव्य [अनन्ताः] अनन्त है. भव्य अभव्यके भेदसे जीवराशि अनन्त है. अभव्य जीव अनन्त हैं. उनसे अनन्तगुणा
अधिक भव्यराशि है। ___ जो कोई यहां प्रश्न करे कि आत्मा तो अनादि अनन्त साहजीक चैतन्यभावोंसे संयुक्त है. उसके सादिलान्त सादिअनन्त भाव कैसे हो सक्ते हैं ? इसका उत्तर
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शत।
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अनादि कर्मसम्बन्धसे · यह आत्मा अशुद्धभावसे परिणमै है, इस कारण सादिसान्त सादिअनन्तभाव होता है. जैसें कीचसे मिला हुवा जल अशुद्ध होता है. उस कीचके मिलाप होने न होनेकर शुद्धअशुद्ध जल कहा जाता है. तैसे ही इस आत्माके कर्म सम्बन्ध होने न होनेके कारण सादिसान्त सादिअनन्त भाव कहे जाते हैं [च] और [पञ्चाग्र गुणप्रधानाः] औदयिक, औपसमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, और पारिणामिक इन पांच भावोंकी प्रधानतालिये प्रवर्ते है । ___ आगें जीवोंके पांच भावोंसे यद्यपि सादिसान्त अनादि अनन्त भाव हैं तथापि द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयसे विरोध नहीं है ऐसा कथन करते हैं ।
एवं सदो विणासो असदो जीवस्त होइ उप्पादो। इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्ण विरुष्टमविरुद्धं ॥ ५४॥
___ संस्कृतछाया. एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य भवत्युत्पादः ।
इति जिनवरैर्भणितमन्योऽन्यविरुद्धमविरुद्धम् ।। ५४ ॥ पदार्थ-[एवं] इस पूर्वोक्त प्रकारके भावोंसे परिणये जो जीव हैं उनके जब उत्पादव्ययकी अपेक्षा कीजे तव [सतः] विद्यमान जो मनुप्यादिकपर्याय उसका तो [विनाशः] विनाश होना और [असतः] अविद्यमान [जीवस्य ] जीवका [उत्पादः] देवादिकपर्यायकी उत्पत्ति [ भवति] होती है [इति जिनवरैः] इस प्रकार जिनेन्द्र भगवानकेद्वारा [अन्योऽन्यविरुद्धं ] यद्यपि परस्परविरुद्ध है तथापि [अविरुद्धं] विरोधरहित [भणितं ] कहा गया है।
भावार्थ-भगवानके मतमें दो नय हैं. एक द्रव्यार्थिक नय-दूसरा पर्यायार्थिक नय है । द्रव्यार्थिक नयसे वस्तुका न तो उत्पाद है. और न नाश है । और पर्यायार्थिक नयसे नाश भी है और उत्पाद भी है । जैसे कि जल नित्य अनित्यस्वरूप है. द्रव्यकी अपेक्षा तो जल नित्य है-और कल्लोलोंकी अपेक्षा उपजना विनशना होनेके कारण अनित्य है. इसी प्रकार द्रव्य नित्यअनित्यस्वरूप कथंचित्प्रकारसे जान लेना । आगें जीवके उत्पादव्ययका कारण कर्मउपाधि दिखाते हैं।
णेरइयतिरियमणुआ देवा इदि णामसंजुदा पयडी। कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स उप्पादं ॥ ५५ ॥
संस्कृतछाया. नारकतिर्यङानुप्या देवा इति नामसंयुताः प्रकृतयः । कुर्वन्ति सतो नाशमसतो भावस्योत्पादं ।। ५५ ।।
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४७
श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । पदार्थ-[नारकतिर्यमनुष्याः देवाः ] नरक तिर्यञ्च मनुष्य देव [इति नामसंयुताः] इन नामोंकर संयुक्त [प्रकृतयः] नामकर्मसम्बन्धिनी प्रकृतियें [सतः] विद्यमानपयायके [नाशं] विनाशको [कुर्वन्ति ] करती हैं । और [असतः] अविद्यमान [भावस्य] पर्यायकी [उत्पादः] उत्पत्तिको [ कुर्वन्ति ] करती हैं । ___ भावार्थ-जैसें समुद्र अपने जलसमूहसे उत्पादव्ययअवस्थाको प्राप्त नहिं होता अपने स्वरूपसे स्थिर रहै परन्तु चारों ही दिशावोंकी पवन आनेसे कल्लोलोंका उत्पादव्यय . होता रहता है. तैसें ही जीवद्रव्य अपने आत्मीकस्वभावोंसे उपजता विनशता नहीं है। सदा टंकोत्कीर्ण है. परन्तु उस ही जीवके अनादि कर्मोपाधिके वशसे चारगति नामकर्म उदय उत्पादव्ययदशाको करता है । आगे जीवके पांच भावोंका वर्णन करते हैं।
उद्यण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे । जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा ॥५६॥
संस्कृतछाया. उदयेनोपशमेन च क्षयेण च द्वाभ्यां मिश्रिताभ्यां परिणामेन ।
युक्तास्ते जीवगुणा बहुपु चार्थेषु विस्तीर्णाः ॥ ५६ ।। पदार्थ-[ये] जो भाव [उदयेन ] कर्मके उदयकर [च] और [उपशमेन ] कोंके उपशम होनेकर [च] तथा [क्षयेण] कर्मोंके क्षयकर [द्वाभ्यां मिश्रिताभ्यां] उपशम और क्षय इन दोनों जातिके मिलेहुये कर्मपरिणामोंकर [च] और [परिणामेन] आत्मीक निजभावोंकर [युक्ताः] संयुक्त हैं [ते] वे भाव [जीवगुणाः] जीवके सामान्यतासे पांच भाव जानने । कैसे हैं वे भाव ? [वहुपु अर्थेपु] नानाप्रकारके भेदोंमें [विस्तीर्णाः ] विस्तारलिये हुये हैं। ___ भावार्थ-सिद्धान्तमें जीवके पांच भाव कहे हैं. औदयिक १ औपशमिक २ क्षायिक ३ क्षायोपशमिक ४ और पारिणामिक ५ । जो शुभाशुभ कर्मके उदयसे जीवके भाव होय उनको औदयिकभाव कहते हैं । और कर्मोंके उपशमसे जीवके जो जो भाव होते हैं उनको औपशमिकभाव कहते हैं. जैसें कीचके नीचे बैठनेसे जल निर्मल होता है उसी प्रकार कर्मोके उपशम होनेसे औपशमिक भाव होते हैं । और जो भावकर्मके उदय अनुदयकर होंय ते क्षायोपशमिक भाव कहाते हैं । और जो सर्वथा प्रकार कर्मोंके क्षय होनेसे भाव होते हैं उनको क्षायिक भाव कहते हैं । जिनकरके जीव अस्तित्वरूप है सो पारिणामिक भाव होते हैं । ये पांच भाव जीवके होते हैं । इनमेंसे ४ भाव कोपधिके निमित्तसे होते हैं. एक पारिणामिक भाव कोपाधिरहित स्वाभाविक भाव है । कर्मोपाधिके भेदसे और स्वरूपके भेद होनेसे ये ही पांच भाव नानाप्रकारके होते हैं ।
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४८
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
औदयिक औपशमिक और क्षायोपशमिक ये तीन भाव कर्मजनित हैं क्योंकि कर्मके उदयसे उपशमसे और क्षयोपशमसे होते हैं. इस कारण कर्मजनित कहे जाते हैं । यद्यपि क्षायिक भाव शुद्ध हैं अविनाशी हैं तथापि कर्मके नाश होनेसे होते हैं, इस कारण इनको भी कर्मजनित कहते हैं । और पारिणामिक भाव कर्मजनित नहीं हैं. क्योंकि वे शुद्ध पारिणामिक भाव जीवके स्वभाव ही हैं. इसकारण कर्मजनित नहीं हैं । और इन पारिणामिकोंके भेद भव्यत्व अभव्यत्व दो भाव हैं, वे भी कर्म जनित नहीं है । यद्यपि कर्मकी अपेक्षा भव्य अभव्य स्वभाव जाने जाते हैं. जिसके कर्मका नाश होना है, सो भव्य कहा जाता है. जिसके कर्मका नाश नहिं होना है सो अभव्य कहा जाता है. तथापि कर्म से उपजे नहिं कहे जा सक्ते । क्योंकि कोई भव्य अभव्य कर्म नहीं है. इस कारण कर्मजनित नहीं । भवस्थितिके उपरि जैसा कुछ केवल ज्ञान में प्रतिभास रहा है, जिस जीवका जैसा स्वभाव है तैसा ही होता है, इस कारण भव्य अभव्य स्वभाव भवस्थितिके उपरि हैं. कर्मजति नहीं है । ये तीन प्रकारके पारिणामिक भाव स्वभावजनित हैं ।
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आगें इन औदयिकादि पांच भावोंका कर्त्ता जीवको दिखाते हैं ।
कम्मं वेदयमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं । सो तेण तस्स कत्ता हवदित्तिय सासणे पढिदं ॥ ५७ ॥
संस्कृतछाया.
कर्म वेदयमानो जीवो भावं करोति यादृशकं ।
स तेन तस्य कर्त्ता भवतीति च शासने पठितं ॥ ५७ ॥
पदार्थ – [ कर्म वेदयमानः ] उदय अवस्थाको प्राप्त हुये द्रव्यकर्मको अनुभवकर्त्ता [जीवः ] आत्मा [ यादृशकं भावं ] जैसा अपने परिणामको [ करोति ] करता है [स] वह आत्मा [तस्य] तिस परिणामका [तेन] उसकारणकर [कर्ता ] करनेहारा [ भवति ] होता है [ इति ] इसप्रकार कथन [शासने] जिनेन्द्र भगवान्के मतमें [पठितं ] तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंने कहा है ।
भावार्थ - इस संसारी जीवके अनादिसम्बन्ध द्रव्यकर्मका सम्बन्ध है. उस द्रव्यकर्मका व्यवहारनयकर भोक्ता है. जब जिस द्रव्यकर्मको भोगता है, तब उस ही द्रव्यकर्मका निमित्त पाकर जीवके जीवमयी चिद्विकाररूप परिणाम होते हैं. सो परिणाम जीवकी करतूत है. इसकारण कर्मका कर्ता आत्मा कहा जाता है. इससे यह बात सिद्ध हुई कि जिन भावोंसे आत्मा परिणमता है. उन भावोंका अवश्य कर्त्ता जानना. कर्ता कर्म क्रिया इन तीन प्रकारसे कर्तृत्वकी सिद्धि होती है. जो परिणमै सो तो कती, जो परिणाम सो कर्म, और जो करतूत सो क्रिया कही जाती हैं ।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । आगें द्रव्यकर्मका निमित्तपाकर औदयिकादि भावोंका कर्ता आत्मा है यह कथन किया जाता है।
कम्मेण विणा उदयं जीवस्त ण विज्झदे उवसमं वा । खड्यं खओवसमियं तमा भावं तु कल्मकदं ॥५८॥
संस्कृतछाया. कर्मणा विनोदयो जीवस्य न विद्यत उपशमो वा ।
क्षायिकः क्षायोपशमिकस्तस्माद्भावस्तु कर्मकृतः ॥ ५८ ॥ पदार्थ-कर्मणा विना] द्रव्यकर्मके विना [जीवस्य ] आत्माके [उदयः] रागादि विभावोंका उदय [वा] अथवा [उपशमः] द्रव्यकर्मके विना उपशम भाव भी [न विद्यते] नहीं है जो द्रव्यकर्म ही नहिं होय तो उपशमता किसकी होय ? और औपशमिकभाव कहांसे होय ? [वा क्षायिकः] अथवा क्षायिकभाव भी द्रव्यकर्मके विना नहिं होय. जो द्रव्यकर्म ही नहिं होय तो क्षय किसका होय ? तथा क्षायकभाव भी कहांसे होय ? [वा] अथवा [क्षायोपशमिकः] द्रव्यकर्मके विना क्षायोपशमिक भाव भी नहिं होते. क्योंकि जो द्रव्यकर्म ही नहीं है तो क्षायोपशमदशा किसकी होय ? और क्षायोपशमिक भाव कहांसे होय ? [तस्मात् ] तिस कारणसे [ भावः तु] ये चार प्रकारके जीवके भाव हैं सो [कर्मकृतः] कर्मने ही किये हैं। - भावार्थ-औदयिक, औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक ये चारों ही भाव कर्मजनित जानने. कर्मके निमित्तविना होते नहीं है । इस कारण आत्माके खाभाविक भाव जानने । यद्यपि इन चारों ही भावोंका भावकर्मकी अपेक्षा आत्मा कर्ता है. तथापि व्यवहार नयसे द्रव्यकर्म इनका कर्ता है. क्योंकि उदय उपशम क्षयोपशम और क्षय ये चारों ही अवस्थायें द्रव्यकर्मकी हैं. द्रव्यकर्म अपनी शक्तिसे इन चारों अवस्थावोंको परिणमता है. इन चारों अवस्थावोंका निमित्त पाकर आत्मा परिणमता है. इस कारण व्यवहार नयसे इन चारों. भावोंका कर्ता द्रव्यकर्म जानना निश्चय नयसे आत्मा कर्ता जानना ।
आगें सर्वथा प्रकारसे जो जीवभावोंका कर्ता द्रव्यकर्म कहा जाय तो दूपण है ऐसा कथन किया जाता है।
भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मरस होदि किध कत्ता। ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अपणं सगं सावं ॥ ५९॥
संस्कृतछाया. भावो यदि कर्मकृतः आत्मा कर्मणो भवति कथं कर्ता।
न करोत्यात्मा किंचिदपि मुक्त्वान्यत् स्वकं भावं ॥ ५९ ॥ पदार्थ--[यदि] जो सर्वथा प्रकार [भावः] भात्रकर्म [कर्मकृतः] द्रव्यकर्मके
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् औदयिक औपशमिक और क्षायोपशमिक ये तीन भाव कर्मजनित हैं क्योंकि कर्मक उदयसे उपशमसे और क्षयोपशमसे होते हैं. इस कारण कर्मजनित कहे जाते हैं। यद्यपि क्षायिक भाव शुद्ध हैं अविनाशी हैं तथापि कर्मके नाश होनेसे होते हैं, इस कारण इनको भी कर्मजनित कहते हैं । और पारिणामिक भाव कर्मजनित नहीं हैं. क्योंकि वे शुद्ध पारिणामिक भाव जीवके स्वभाव ही हैं. इसकारण कर्मजनित नहीं हैं। और इन पारिणामिकोंके भेद भव्यत्व अभव्यत्व दो भाव हैं, वे भी कर्म जनित नहीं है। यद्यपि कर्मकी अपेक्षा भव्य अभव्य स्वभाव जाने जाते हैं. जिसके कर्मका नाश होना है, सो भव्य कहा जाता है. जिसके कर्मका नाश नहिं होना है सो अभव्य कहा जाता है. तथापि कर्मस उपजे नहिं कहे जा सक्ते । क्योंकि कोई भव्य अभव्य कर्म नहीं है. इस कारण कर्मजनित नहीं । भवस्थितिके उपरि जैसा कुछ केवल ज्ञानमें प्रतिभास रहा है, जिस जीवका जैसा स्वभाव है तैसा ही होता है, इस कारण भव्य अभव्य स्वभाव भवस्थितिके उपरि है. कर्मजनित नहीं है । ये तीन प्रकारके पारिणामिक भाव स्वभावजनित हैं । आगें इन औदयिकादि पांच भावोंका कर्ता जीवको दिखाते हैं ।
कम्मं वेद्यमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं । सो तेण तस्स कत्ता हवदित्ति य सासणे पढिदं ॥ ५७ ॥
संस्कृतछाया. कर्म वेदयमानो जीवो भावं करोति यादशकं ।
स तेन तस्य कर्ता भवतीति च शासने पठितं ॥ ५७ ॥ पदार्थ-[कर्म वेदयमानः ] उदय अवस्थाको प्राप्त हुये द्रव्यकर्मको अनुभवकर्ता [जीवः ] आत्मा [यादृशकं भावं ] जैसा अपने परिणामको [करोति] करता है [सः] वह आत्मा [तस्य] तिस परिणामका [तेन] उसकारणकर [कर्ता] करनेहारा [भवति] होता है [इति] इसप्रकार कथन [शासने] जिनेन्द्रभगवान्के मतमें [पठितं ] तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंने कहा है। __ भावार्थ-इस संसारी जीवके अनादिसम्बन्ध द्रव्यकर्मका सम्बन्ध है. उस द्रव्यकमका व्यवहारनयकर भोक्ता है. जब जिस द्रव्यकर्मको भोगता है, तब उस ही द्रव्यकर्मका निमित्त पाकर जीवके जीवमयी चिद्विकाररूप परिणाम होते हैं. सो परिणाम जीवकी करतूत है. इसकारण कर्मका कर्ता आत्मा कहा जाता है. इससे यह वात सिद्ध हुई कि जिन भावोंसे आत्मा परिणमता है. उन भावोंका अवश्य कर्ता जानना. कर्ता कर्म क्रिया इन तीन प्रकारसे कर्तृत्वकी सिद्धि होती है. जो परिणमै सो तो की, जो परिणाम सो कर्म, और जो करतूत सो क्रिया कही जाती है ।
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श्रीपञ्चाम्तिकायसमयसारः। आगे द्रव्यकर्मका निमित्तपाकर औदयिकादि भावोंका कर्ता आत्मा है यह कथन किया जाता है।
कम्मेण विणा उदयं जीवस्त ण विज्झदे उपसमं वा । खड्यं खओवससियं तमा भावं तु कालकदं ॥ ५८॥
संस्कृतलाया. कर्मणा विनोदयो जीवस्य न विद्यत उपशमो वा ।।
क्षायिकः क्षायोपशमिकस्तस्माज्ञावस्तु कर्मकृतः ॥ ५८ ॥ पदार्थ- [कर्मणा विना] द्रव्यकर्मके विना [जीवस्य ] आत्माके [उदयः] रागादि विभावोंका उदय [वा] अथवा [उपशमः] द्रव्यकर्मके विना उपशम भाव भी [न विद्यते] नहीं है जो द्रव्यकर्म ही नहिं होय तो उपशमता किसकी होय ? और औपशमिकभाव कहांसे होय ? [वा क्षायिकः] अथवा क्षायिकभाव भी द्रव्यकर्मके विना नहिं होय. जो द्रव्यकर्म ही नहिं होय तो क्षय किसका होय ? तथा क्षायकभाव भी कहांसे होय ? [वा] अथवा [क्षायोपशमिकः] द्रव्यकर्मके विना क्षायोपशमिक भाव भी नहिं होते. क्योंकि जो द्रव्यकर्म ही नहीं है तो क्षायोपशमदशा किसकी होय ? और क्षायोपशमिक भाव कहांसे होय ? [ तस्मात् ] तिस कारणसे [ भावः तु] ये चार प्रकारके जीवके भाव हैं सो [कर्मकृतः] कर्मने ही किये हैं । - भावार्थ-औदयिक, औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक ये चारों ही भाव कर्मजनित जानने. कर्मके निमित्तविना होते नहीं है । इस कारण आत्माके स्वाभाविक भाव जानने । यद्यपि इन चारों ही भावोंका भावकर्मकी अपेक्षा आत्मा कर्ता है. तथापि व्यवहार नयसे · द्रव्यकर्म इंनका कर्ता है. क्योंकि उदय उपशम क्षयोपशम और क्षय ये चारों ही अवस्थायें द्रव्यकर्मकी हैं. द्रव्यकर्म अपनी शक्तिसे इन चारों अवस्थावोंको परिणमता है. इन चारों अवस्थावोंका निमित्त पाकर आत्मा परिणमता है. इस कारण व्यवहार नयसे इन चारों. भावोंका कर्ता द्रव्यकर्म जानना निश्चय नयसे आत्मा कर्ता जानना । ___ आगें सर्वथा प्रकारसे जो जीवभावोंका कर्ता द्रव्यकर्म कहा जाय तो दूपण है ऐसा कथन किया जाता है।
भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मरस होदि किध कत्ता। ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अपणं सगं सावं ॥ ५९ ॥
संस्कृतछाया. भावो यदि कर्मकृतः आत्मा कर्मणो भवति कथं कर्ता।
न करोत्यात्मा किंचिदपि मुक्त्वान्यत् स्वकं भावं ॥ ५९ ॥ पदार्थ--[यदि] जो सर्वथा प्रकार [भावः] भावकर्म [कर्मकृतः] द्रव्यकर्मके
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् द्वारा किया होय तो [ आत्मा] जीव [ कर्मणः ] भावकर्मका [कथं ] कैस [कर्ता] करनेहारा [ भवति ] होता है । भावार्थ-जो सर्वथा द्रव्यकर्मको औदयिकादि भावोंका कर्ता कहा जाय तो आत्मा अकर्ता होकर संसारका अभाव होय और जो कहा जाय कि आत्मा द्रव्यकर्मका कर्ता है. इस कारण संसारका अभाव नहीं है तो द्रव्यकर्म पुद्गलका परिणाम है. उसको आत्मा कैसें करैगा ? क्योंकि [आत्मा ] जीवद्रव्य जो है सो [स्वकं भावं ] अपने भावकर्मको [ मुक्त्वा ] छोडकर [ अन्यत् ] अन्य [ किचित् अपि ] कुछ भी परद्रव्यसंबंधी भावको [ न करोति ] नहिं करता है ।
भावार्थ-सिद्धान्तमें कार्यकी उत्पत्तिकेलिये दो कारण कहे हैं । एक 'उपादान' और एक 'निमित्त' । द्रव्यकी शक्तिका नाम उपादान है. सहकारी कारणका नाम निमित्त है। जैसें घटकार्यकी उत्पत्तिकेलिये मृत्तिकाकी शक्ति तो उपादान कारण है और कुंभकार दंडचक्रादि निमित्त कारण हैं । इससे निश्चय करकें मृत्तिका (मट्टी) घटकार्यकी कर्ता है. व्यवहारसे कुंभकार कर्ता है. क्योंकि निश्चय करकें तो कुंभकार अपने चेतनमयी घटाकार परिणामोंका ही कर्ता है. व्यवहारसे घट कुंभकारके परिणामोंका कर्ता है. जहां उपादानकारण है, तहां निश्चय नय है और जहां निमित्तकारण है वहां व्यवहार नय है । और जो यों कहा जाय कि चेतनात्मक घटाकार परिणामोंका का सर्वथा प्रकार निश्चय नयकर घट ही है कुंभकार नहीं है तो अचेतन घट चेतनात्मक घटाकार परिणामोंका की कैसे होय ? चैतन्यद्रव्य अचेतन परिणामोंका की होय अचेतनद्रव्य चैतन्यपरिणामोंका कर्ता नहिं होता । तैसें ही आत्मा और कर्मों में उपादान निमित्तका कथन जानना । इस कारण शिष्यने जो यह प्रश्न किया था कि जो सर्वथा प्रकार द्रव्यकर्म ही भावकर्मोंका कर्ता, माना जाय तो आत्मा अकर्ता हो जाय. द्रव्यकर्मको करनेकेलिये फिर निमित्त कौन होगा? इस कारण आत्माके भावकर्मोंका निमित्त पाकर द्रव्यकर्म होता है. द्रव्यकर्मसे संसार होता है. आत्मा द्रव्यकर्मका कर्ता नहीं है. क्योंकि अपने भावकर्मके विना और परिणामोंका कर्ता आत्मा कदापि नहिं होता। आगें शिष्यके इस प्रश्नका उत्तर कहा जाता है।
भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकारणं हवदि । ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु कत्तारं ॥ ६० ॥
संस्कृतछाया. भावः कर्मनिमित्तः कर्म पुनर्भावकारणं भवति ।
न तु तेपां खलु कर्त्ता न विना भूतास्तु कर्तारं ॥ ६० ॥ ___ पदार्थ-[भावः] औदयिकादि भाव [कर्मनिमित्तः] कर्मके निमित्तपाकर होते हैं [पुनः] फिर [कर्म ] ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म जो है सो [भावकारगं] औदयि
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। कादि भावकोका निमित्त [भवति] होता है। [तु] और [तेषां ] तिन द्रव्यकर्म भावकर्मोका [खलु] निश्चय करकं [कर्ता न ] आपसमें द्रव्य कर्ता नहीं है. न पुद्गल भावकर्मका कर्ता है और न जीव द्रव्यकर्मका की है [तु] और वे द्रव्यकर्म भावकर्म [कर्तारं विना] कर्ताके विना [नैव] निश्चय करके नहीं [भूताः] हुये हैं अर्थात् वे द्रव्यभावकर्म कर्ता विना भी नहीं हुये ।
भावार्थ-निश्चय नयसे जीवद्रव्य अपने चिदात्मक भावकाँका कर्ता है-और पुद्गलद्रव्य भी निश्चयकरके अपने द्रव्यकर्मका कर्ता है. व्यवहारनयकी अपेक्षा जीव द्रव्यकर्मके विभाव भावके कर्ता हैं । और द्रव्यकर्म जीवके विभावभावोंके कर्ता हैं. इस प्रकार उपादान निमित्त कारणके भेदसे जीवकर्मका कर्तृत्व निश्चय व्यवहार नयोंकर आगम प्रमाणसे जान लेना । शिप्यने जो पूर्व गाथामें प्रश्न किया था गुरुने इसप्रकार उसका समाधान किया है। ___ आगे फिर भी दृढ कथनके निमित्त आगमप्रमाण दिखाते हैं कि निश्चयकरके जीवद्रव्य अपने भावकर्मोका ही कर्ता है पुद्गलकोंका कर्ता नहीं है ।
कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता समस्त भावस्स। ण हि पोबलकामाणं इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ॥ ६१ ॥
संस्कृतछाया. कुर्वन स्वकं स्वभावं आत्मा कर्ता स्वकस्य भावस्य ।
न हि पुद्गलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम् ॥ ६१ ॥ पदार्थ- [स्वकं ] आत्मीक [स्वभावं] परिणामको [कुर्वन् ] करता हुवा [आत्मा] जीवद्रव्य [स्वकस्य ] अपने [भावस्य] परिणामोंका [कर्ता] करनहारा होता है । [पुद्गलकर्मणां] पुद्गलमयी द्रव्यकर्मोंका कर्ता [हि] निश्चय करके [न] नहीं है [इति] इस प्रकार [जिनवचनं ] जिनेन्द्रभगवान्की वाणी [ ज्ञातव्यं ] जाननी ।
भावार्थ-आत्मा निश्चयकरके अपने भावोंका कर्ता है परद्रव्यका कर्त्ता नहीं है।
आगे निश्चयनयसे उपादानकारणकी अपेक्षा कर्म अपने स्वरूपका कर्ता है. ऐसा का करते हैं।
कम्मं पि सगं कुव्वदि लेण सहावेण सम्ममप्पाणं । जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण ॥ ६२॥
संस्कृतछाया. कर्मापि स्वकं करोति स्वेन स्वभावेन सम्यगात्मानं ।
जीवोऽपि च ताशकः कर्मस्वभावेन भावेन ॥ ६२ ॥ पदार्थ-[कर्म] कर्मरूप परिणये पुद्गलस्कन्ध [अपि] निश्चयसे [स्वेन स्वभावेन] अपने स्वभावसे [सम्यक् ] यथार्थ जैसेका तैसा [खकं] अपने [आत्मानं] स्वरूपको
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [करोति ] करता है [च] फिर [जीवःअपि ] जीव पदार्थ भी [कर्मस्वभावेन ] कर्मरूप [भावेन ] भावोंसे [तादृशकः ] जैसें द्रव्यकर्म आप अपने स्वरूपकेद्वारा अपना ही कर्ता है तैसें ही आप अपने स्वरूपद्वारा आपको करता है। __ भावार्थ-जीव और पुद्गलमें अभेद पट्कारक हैं सो विशेषताकर दिखाये जाते हैं. कर्मयोग्य पुद्गलस्कंधको करता है इस कारण पुद्गलद्रव्य कर्ता है । ज्ञानावरणादि परिणाम कर्मको करते हैं इसकारण पुद्गलद्रव्य कर्मकारक भी है । कर्मभाव परिणमनको समर्थ ऐसी अपनी स्वशक्तिसे परिणमता है इस कारण वही पुद्गलद्रव्य करणकारक भी है । और अपना स्वरूप आपको ही देता है इसलिये सम्प्रदान है । आपसे आपको करता है इस प्रकार आप ही अपादान कारक है। अपने ही आधार अपने परिणामको करता है इस कारण आपही अधिकरण कारक है । इसप्रकार पुद्गलद्रव्य आप पट्कारकरूप परिणमता है अन्य द्रव्यके कर्तृत्वको निश्चयकरके नहीं चाहता है । इसप्रकार जीवद्रव्य भी अपने औदयिकादि भावोंसे पट्कारकरूप होकर परिणमता है और अन्यद्रव्यके कर्तृत्वको नहिं चाहता है. इसकारण यह वात सिद्ध हुई कि न तो जीव कर्मका कर्ता है और न कर्म जीवका कर्ता है। । ___ आगे कर्म और जीवोंका अन्य कोई कर्ता है और इनको अन्य जीवद्रव्य फल देता है. ऐसा जो दूपण है उसकेलिये शिष्य प्रश्न करता है ।
काम्म कम्म कुव्वदि जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं । रविध तस्स फलं भुजदि अप्पा कम्मं च देदि फलं ॥ ६३ ॥
संस्कृतछाया. कर्म कर्म करोति यदि स आत्मा करोत्यात्मानं ।
कथं तस्य फलं भुङ्क्ते आत्मा कर्म च ददाति फलं ॥ ६३ ॥ दार्थ-[यदि] जो [कर्म] ज्ञानावरणादि आठ प्रकारका कर्मसमूह जो है सो
म] अपने परिणामको [करोति ] करता है और जो [सः] वह संसारी [आत्मा] । जीवद्रव्य [आत्मानं] अपने स्वरूपको [करोति] करता है [ तदा] तब [ तस्य ] उस कर्मका [फलं] उदय अवस्थाको प्राप्त हुवा जो फल तिसको [आत्मा] जीवद्रव्य [कथं] किस प्रकार [भुते] भोगता है ? [च] और [कर्म] ज्ञानावरणादि आठ प्रकारका कर्म [फलं] अपने विपाकको [कथं ] कैसे [ददाति ] देता है ।
भावार्थ—जो कर्म अपने कर्म स्वरूपका कर्ता है और आत्मा अपने स्वरूपका कर्ता है तो आत्मा जडस्वरूप कर्मको कैसें भोगवैगा ? और कर्म चैतन्यस्वरूप आत्माको फल कैसे देगा? निश्चयनयकी अपेक्षा किसीप्रकार न तो कोई कर्म भोगता है और न कोई भुक्ताव है, ऐसा शिप्यने प्रश्न किया तिसका गुरु समाधान करते हैं कि-आप ही जब
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। आत्मा रागी द्वेषी होकर अनादि अविद्यासे परिणमता है, तब परद्रव्यसंवन्धी सुख दुःख मान लेता है और कर्म फल देता है ऐसा कहते हैं। ___ आगें शिप्यने जो यह प्रश्न किया है उसका विशेष कथन किया जाता है सो पहिले यह कहते हैं कि कर्मयोग्य पुद्गल समस्त लोकमें भरपूर होकर तिष्ठे हुये हैं ।
ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो । सुहमेहिं वाद।हिं य गंताणतेहिं विविहेहिं ॥ ६४ ॥
संस्कृतछाया. अवगाढगाढनिचितः पुद्गलकायैः सर्वतो लोकः ।
सूक्ष्मैर्वादरैश्वानन्तानन्तैर्विविधैः ।। ६४ ॥ पदार्थ-लोकः] समस्त त्रैलोक्य [सर्वतः] सब जगहँ [पुद्गलकायैः] पुद्गलस्कन्धोंके द्वारा [अवगाढगाढनिचितः] अतिशय भरपूर गाढा भराहुवा है । जैसे कज्जलकी कज्जलदानी अंजनसे भरी होती है उसी प्रकार सर्वत्र पुद्गलोंसे लोक भरपूर तिष्ठता है. कैसे हैं पुद्गल ? [सूक्ष्मैः ] अतिशय सूक्षम हैं [च] तथा [वादरैः] अतिशय वादर हैं । फिर कैसे हैं पुद्गल ? [अनन्तानन्तैः] अपरिमाणसंख्या लियेहुये हैं। फिर कैसे हैं पुद्गल ? [हि विविधैः] निश्चय करके कर्म परमाणु स्कंध आदि अनेक प्रकारके हैं । ___ आगे कहते हैं कि अन्यसे कर्मकी उत्पत्ति नहीं है जव रागादि भावोंसे आत्मा परिणमता है तब पुद्गलका वन्ध होता है ।
अत्ता कुणदि सहावं तत्थगदा पोग्गला सभावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा ।। ६५ ॥
संस्कृतछाया. आत्मा करोति स्वभावं तत्रगताः पुद्गलाः स्वभावैः ।
गच्छन्ति कर्मभावमन्योन्यावगाहावगाढाः ।। ६५ ।। पदार्थ-[आत्मा] जीव [स्वभावं] अशुद्ध रागादि विभाव परिणामोंको [करोति] करता है [तत्रगताः पुदला:] जहां जीवद्रव्य तिष्ठता है तहां वर्गणारूप पुद्गल तिष्ठते हैं ते [ स्वभावः] अपने परिणामोंके द्वारा [कर्मभावं] ज्ञानावरणादि अष्टकर्मरूप भावको [गच्छन्ति ] प्राप्त होते हैं । कैसे हैं वे पुद्गल ? [अन्योन्यावगाहावगाढाः] परस्पर एक क्षेत्र अवगाहना करके अतिशय गाढे भर रहे हैं।
भावार्थ--यह आत्मा संसार अवस्थामें अनादि कालसे लेकर परद्रव्यके सम्बन्धसे अशुद्ध चेतनात्मक भावोंसे परिणमता है. वही आत्मा जब मोहरागद्वेषरूप अपने विभाव भावोंसे परिणता है, तब इन भावोंका निमित्त पाकर पुद्गल अपनी ही उपादान शक्तिसे अष्टप्रकार कर्मभावोंसे परिणमता है-तत्पश्चात् जीवके प्रदेशोंमें परस्पर एक क्षेत्रावगाह
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नारूप बंधते हैं. इससे यह बात सिद्ध हुई कि पूर्ववन्धेहुये द्रव्यकर्मोका निमित्त पाकर जीव अपनी अशुद्ध चैतन्यशक्तिकेद्वारा रागादि भावोंका कर्ता होता है तब पुद्गलद्रव्य रागादि भावोंका निमित्त पाकर अपनी शक्तिसे अष्टप्रकार कर्मीका कर्ता होता है । परद्रव्यसे निमित्त नैमित्तिक भाव हैं उपादान अपने आपसे हैं। ___ आगे कर्मोकी विचित्रताके उपादानकारणसे अन्यद्रव्य कर्ता नहीं है पुद्गलही है ऐसा कथन करते हैं।
जह पुग्गलवाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिव्यत्ति । अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि ॥६६॥
संस्कृतछाया. यथा पुद्गलद्रव्याणां बहुप्रकारैः स्कन्धनिवृत्तिः ।
अकृता परैर्दृष्टा तथा कर्मणां विजानीहि ।। ६६ ॥ पदार्थ— [यथा] जैसें [पुद्गलद्रव्याणां] पुद्गलद्रव्योंके [बहुप्रकारैः] नानाप्रकारके भेदोंसे [स्कन्धनिवृत्तिः] स्कन्धोंकी परणति [दृष्टा] देखी जाती है. कैसी है स्कन्धोंकी परणति ? [परैः] अन्यद्रव्योंके द्वारा [अकृता] नहिं कियीहुई अपनी शक्तिसे उत्पन्नई है [ तथा] तैसें ही [कर्मणां] कर्मोंकी विचित्रता [विजानीहि] जानो।
भावार्थ-जैसें चन्द्रमा वा सूर्यकी प्रभाका निमित्त पाकर सन्ध्याके समय आकाशमें अनेक वर्ण, बादल, इन्द्रधनुष, मंडलादिक नाना प्रकारके पुद्गलस्कन्ध अन्यकर विना किये ही अपनी शक्तिसे अनेक प्रकार होकर परिणमते हैं, तैसें ही जीवद्रव्यके अशुद्ध चेतनात्मक भावोंका निमित्त पाकर पुद्गलवर्गणायें अपनी ही शक्तिसे ज्ञानावर्णादि आठ प्रकार कर्मदशारूप होकर परिणमतीं हैं। ___ आगे निश्चयनयकी अपेक्षा यद्यपि जीव और पुद्गल अपने भावोंके की हैं. तथापि व्यवहारसे कर्मद्वारा दियेहुये सुखदुखके फलको जीव भोगता है यह कथन भी विरोधी नहीं है ऐसा कहते हैं।
जीवा पुग्गलकाया अपणोण्णागाढगहणपडिबडाः । काले विजुजमाणा सुहदुक्खं दिति भुंजंति ॥ ६७ ॥
___ संस्कृतछाया. जीवाः पुद्गलकायाः अन्योन्यावगाढग्रहणप्रतिवद्धाः ।
काले वियुज्यमानाः सुखदुःखं ददति भुश्चन्ति ।। ६७ ।। पदार्थ-[जीवाः] जीवद्रव्य हैं ते [पुद्गलकायाः] पुद्गलवर्गणाके पुञ्ज [अन्योsन्यावगाढग्रहणप्रतिवद्धाः] परस्पर अनादि कालसे लेकर अत्यन्त सघन मिलापसे वन्ध अवस्थाको प्राप्त हुये हैं। वे ही जीव पुद्गल [काले] उदयकाल अवस्थामें [वियु
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ज्यमानाः] अपना रसदेकर खिरते हैं तब [सुखदुःखं] साता असाता [ददति] देते हैं और [ भुञ्जन्ति ] भोगते हैं। ___ भावार्थ-जीव जो हैं वे पूर्ववन्धसे मोहरागद्वेषरूप भावोंसे स्निग्धरूक्ष हैं और पुद्गल अपने स्वभावसे ही स्निग्धरूक्षपरिणामोंद्वारा प्रवर्तता है। आगमप्रमाणमें गुण अंशकर जैसी कुछ बन्धअवस्था कही गई है, उस ही प्रकार अनादिकालसे लेकर आपसमें बंध रहे हैं । और जब फलकाल आता है तब पुद्गल कर्मवर्गणायें जीवके जो वंधरहीं हैं वे सुखदुःखरूप होती हैं. निश्चयकर आत्माके परिणामोंको निमित्त मात्र सहाय है. व्यवहारकर शुभअशुभ जो वाह्यपदार्थ हैं उनको भी कर्म निमित्त कारण हैं, सुखदुःखफलको देते हैं । और जीव जो हैं वे अपने निश्चयकर तो सुखदुःखरूप परिणामोंके भोक्ता हैं और व्यवहारकर द्रव्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुये जो शुभअशुभ पदार्थ तिनको भोगते हैं । जीवमें भोगनेका गुण है. कर्ममें यह गुण नहीं है क्योंकि कर्म जड़ है. जड़में अनुभवनशक्ति नहीं है । आगे कर्तृत्व भोक्तृत्वका व्याख्यान संक्षेप मात्र कहा जाता है.
तमा कम्मं कत्ता भावेण हि संजुदोध जीवस्स। भोत्ता दु हवदि जीवो चेद्गभावेण कम्मफलं ॥ ६८ ॥
संस्कृतछाया. तस्मात्कर्म कर्ता भावेन हि संयुतमथ जीवस्य ।
भोक्ता तु भवति जीवश्चेतकभावेन कर्मफलं ।। ६८ ॥ पदार्थ-[तस्मात् ] तिस कारणसे [हि ] निश्चयकरकें [कर्म] द्रव्यकर्म जो है सो [कर्ता] अपने परिणामोंका कर्ता है कैसा है द्रव्यकर्म ? [जीवस्य ] आत्मद्रव्यका [भावेन] अशुद्ध चेतनात्मपरिणामोंकर [ संयुतं] संयुक्त है । भावार्थ-द्रव्यकर्म अपने ज्ञानावरणादिक परिणामोंका उपादानरूप की है. और आत्माके अशुद्ध चेतनात्मक परिणामोंको निमित्त मात्र है। इस कारण व्यवहारकर जीव भावोंका भी कर्ता कहा जाता है [अथ] फिर इसी प्रकार जीवद्रव्य अपने अशुद्ध चेतनात्मक भावोंका उपादानरूप कर्ता है. ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मको अशुद्ध चेतनात्मक भाव निमित्तभूत हैं । इस कारण व्यवहारसे जीव द्रव्यकर्मका भी कर्ता है [तु] और [जीवः] आत्मद्रव्य जो है सो [चेतकभावेन] अपने अशुद्ध चेतनात्मक रागादि भावोंसे [कर्मफलं] साता असातारूप कर्मफलका [भोक्ता] भोगनेवाला [ भवति ] होता है।
भावार्थ-जैसें जीव और कर्म निश्चय व्यवहारनयोंकेद्वारा दोनों परस्पर एक दूसरेका कर्ता हैं तैसें ही दोनों भोक्ता नहीं हैं । भोक्ता केवल मात्र एक जीवद्रव्य ही है क्योंकि आप चैतन्यखरूप है इसकारण पुद्गलद्रव्य अचेतन स्वभावसे निश्चय व्यव
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हार दोनों नयोंमेंसे एक भी नयसे भोक्ता नहीं है । इस कारण जीवद्रव्य निश्चय नयकी अपेक्षा अपने अशुद्ध चेतनात्मक सुखदुःखरूप परिणामोंका भोक्ता है । व्यवहारकर इष्टानिष्ट पदार्थोका भोक्ता कहा जाता है । आगे कर्मसंयुक्त जीवकी मुख्यतासे प्रभुत्व गुणका व्याख्यान करते हैं ।
एवं कत्ता भोत्ता होज्झं अप्पा सगेहिं कम्महिं । .. हिंडति पारमपारं संसारं मोहसंछपणो ॥ ६९॥
संस्कृतछाया. एवं कर्ता भोक्ता भवन्नात्मा स्वकैः कर्मभिः ।
हिण्डते पारमपारं संसारं मोहसंछन्नः ॥ ६९ ॥ पदार्थ- [स्वकैः] अनादि विद्यासे उत्पन्न कियेहुये अपने [कर्मभिः ] ज्ञानावर. णादिक कर्मोंके उदयसे [आत्मा] जीवद्रव्य [एवं ] इस प्रकार [कर्ता] करनहारा [भोक्ता] भोगनेहारा [ भवन् ] होता हुवा [पारं] भव्यकी अपेक्षा सान्त [अपारं] अभव्यकी अपेक्षा अनन्त ऐसा जो [संसारं] पंचपरावर्तनरूप संसारको धरकर अनेक स्वरूपसे चतुर्गतिमें [हिंडते] भ्रमण करता है. कैसा है यह संसारी जीव ? [मोहसंछन्नः] मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्ररूप अशुद्ध परिणतिद्वारा आच्छादित है।
भावार्थ—यह जीव अपनी ही भूलसे संसारमें अनेक विभाव पर्याय धरधरकर नचै है अर्थात् असत् वस्तुमें 'सत्'रूप मानता है. जैसें मदमत्त अगम्य पदार्थोंमें प्रवते है तैसी चेष्टा करता हुवा अपना शुद्धस्वभाव विसारता है । __ आगे कर्मसंयोगरहित जीवकी मुख्यतासे प्रभुत्वगुणका व्याख्यान करते हैं ।
उवसंतखीणमोहो मग्गंजिणभासिदेण समुवगदो। णाणाणुमग्गचारी वजदि णिव्वाणपुरं धीरो॥ ७० ॥
संस्कृतछाया. उपशान्तक्षीणमोहो मार्ग जिनभापितेन समुपगतः ।
ज्ञानानुमार्गचारी ब्रजति निर्वाणपुरं धीरः ॥ ७० ॥ पदार्थ-[उपशान्तक्षीणमोहः ] अपनी फलविपाक दशारहित उपशम भावको अथवा मूलसत्तासे विनाशभावको प्राप्त हुवा है असत्वस्तुमें प्रतीतिरूप मोहकर्म जिसका ऐसा [धीरः] अपने स्वरूपमें निश्चल सम्यग्दृष्टि जीव है सो [निर्वाणपुरं] मोक्षनगरमें [ब्रजति ] गमन करता है भावार्थ-जो सम्यग्दृष्टी जीव है सो गुणस्थानपरिपाटीके क्रमसे मोहका उपशम तथा क्षय करके मुक्त हुवा संता अनन्त आत्मीक सुखका भोक्ता होता है । कैसा है वह सम्यग्दृष्टी जीव ? [जिनभापितेन मार्ग समुपगतः] सर्वज्ञप्रणीत आगमकेद्वारा सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्गको प्राप्त हुवा है । फिर कैसा है ? [ज्ञानानुमार्गचारी] स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ज्ञानमार्गमें प्रवर्त्तता है।
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श्रीपञ्चारित कायसमयसारः ।
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जुदा होता है तब शब्दसे रहित है । यद्यपि अपने स्निग्धरूक्ष गुणोंका कारण पाकर अनेक परमाणुरूपस्कन्धपरणतिको धरकर एक होता है तथापि अपने एकरूप से स्वभावको नहिं छोडता सदा एक ही द्रव्य रहता है ।
आगे समस्त पुलोंके भेद संक्षेपतासे दिखाये जाते हैं ।
उवभोज मंदिएहिं य इंदिय काया मणो य कस्माणि । जं हवदि सुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे ॥ ८२ ॥
संस्कृतछाया.
उपभोग्यमिन्द्रियैश्चेन्द्रियः काया मनश्च कर्माणि ।
यद्भवति मूर्त्तमन्यत् तत्सर्वं पुद्गलं जानीयात् ॥ ८२ ॥
पदार्थ – [ यत् ] जो [ इन्द्रियैः ] पांचों इन्द्रियोंसे [ उपभोग्यं ] स्पर्श रस गन्ध वर्ण शब्दरूप पांच प्रकारके विषय भोगने में आते हैं [च] और [ इन्द्रियः ] स्पर्श जीभ नासिका कर्ण नेत्र ये पांच प्रकारकी द्रव्यइन्द्रिय [ कायः ] औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण ये पांच प्रकारके शरीर [च] और [ मनः] पौलीक द्रव्यमन तथा [कर्माणि] द्रव्यकर्म नोकर्म और [ यत् ] जो कुछ [ अन्यत् ] और कोई [ मूर्त्त ] मूर्तीक पदार्थ [ भवति ] है [ तत्सर्वं . ] वे समस्त [ पुद्गलं ] पुद्गलद्रव्य [ जानीयात् ] जानो ।
भावार्थ- पांच प्रकार इन्द्रियोंके विषय, पांच प्रकारकी इन्द्रियें, द्रव्यमन, द्रव्यकर्म, नोकर्म, इनके सिवाय और जो अनेक पर्यायोंकी उत्पत्ति के कारण नानाप्रकारकी अनंतानंत पुद्गलवर्गणायें हैं. अनन्ती असंख्येयाणु वर्गणा हैं और अनंती वा असंख्याती संखेयाणु वर्गणा हैं, दो अणुके स्कन्धताई और परमाणु अविभागी इत्यादि जो भेद हैं वे समस्त ही पुद्गलद्रव्यमयी जानने. यह पुद्गलद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान पूर्ण हुवा |
आगें धर्म अधर्म द्रव्यास्तिकायका व्याख्यान किया जाता है जिसमेंसे प्रथम ही धर्म द्रव्यका स्वरूप कहा जाता है ।
धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमकासं । लोगोगाढं पुढं पिहुलमसंखादिपदेसं ॥ ८३ ॥
संस्कृतछाया. धार्मास्तिकायोऽरसोऽवर्णगन्धोऽशब्दोऽस्पर्शः ।
लोकावगाढः स्पष्टः पृथुलो संख्यातप्रदेशः ॥ ८३ ॥
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पदार्थ – [ धर्मास्तिकायः ] धर्म द्रव्य जो है सो काय सहित प्रवर्ते है । कैसा है वह धर्म द्रव्य ? [अरसः] पांच प्रकारके रसरहित [ अवर्णगन्धः ] पांच प्रकारके वर्ण और दो प्रकारके गन्धरहित [ अशब्द: ] शब्दपर्यायसे रहित [अस्पर्शः ] आठ प्रकारके स्पर्श गुणरहित है । फिर कैसा है ? [ लोकावगाढः ] समस्त लोकको व्याप्त होकर तिष्ठता
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है [स्पृष्टः] अपने प्रर्दशोंके स्पर्शसे अखंडित है [पृथुलः ] स्वभावहीसे सब जगहँ विस्तृत है। और [असंख्यातप्रदेशः] यद्यपि निश्चय नयसे एक अखंडित द्रव्य है तथापि व्यवहारसे असंख्यातप्रदेशी है।
भावार्थ-धर्मद्रव्य स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणोंसे रहित है इसकारण अमूर्तीक है क्योंकि स्पर्श रस गन्ध वर्णवती वस्तु सिद्धांतमें मूर्तीक ही है । ये चार गुण जिसमें नहिं होय उसीका नाम अमूर्तीक है । इस धर्मद्रव्यमें शब्द भी नहीं है क्योंकि शब्द भी मूर्तीक होते हैं इसकारण शब्द पर्यायसे रहित है । लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी है । यद्यपि अखंडद्रव्य है परंतु भेद दिखानेकेलिये परमाणुवोंद्वारा असंख्यात प्रदेशी गिना जाता है । आगें फिर भी धर्मद्रव्यका स्वरूप कुछ विशेषताकर दिखाया जाता है।
अगुरुगलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिचं ॥ गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकजं ॥ ८४ ॥
संस्कृतछाया. अगुरुलघुकैः सदा तैः अनन्तैः परिणतः नित्यः ।
गतिक्रियायुक्तानां कारणभूतः स्वयमकार्यः ॥ ८४ ॥ पदार्थ-[सदा] सदाकाल [तैः] उन द्रव्योंके अस्तित्व करनेहारे [अगुरुलघुकैः] अगुरु लघु नामक [अनन्तैः] अनन्त गुणोंसे [परिणतः] समय समयमें परिणमता है । फिर कैसा है ? [नित्यः] टंकोत्कीर्ण अविनाशी वस्तु है । फिर कैसा है ? [गतिक्रियायुक्तानां] गमन अवस्थाकर सहित जो जीव पुद्गल हैं तिनको [कारणभूतं] निमित्तकारण है । फिर कैसा है ? [स्वयमकार्यः] किसीसे उत्पन्न नहिं हुवा है ।
भावार्थ-धर्मद्रव्य सदा अविनाशी टंकोत्कीर्ण वस्तु है । यद्यपि अपने अगुरुलघु गुणसे पट्गुणी हानिवृद्धिरूप परिणमता है, परिणामसे उत्पादव्ययसंयुक्त है तथापि अपने धौव्य स्वरूपसे चलायमान नहिं होता क्योंकि द्रव्य वही है जो उपजै विनशै थिर रहै । इसकारण यह धर्मद्रव्य अपने ही स्वभावको परिणये जो पुद्गल तिनको उदासीन अवस्थासे निमित्तमात्र गतिको कारणभूत है। और यह अपनी अवस्थासे अनादि अनंत है, इस कारण कार्यरूप नही हैं । कार्य उसे कहते हैं जो किसीसे उपज्या होय । गतिको निमित्तपाय सहायी है, इसलिये यह धर्मद्रव्य कारणरूप है किन्तु कार्य नहीं है । आगे धर्मद्रव्य गतिको निमित्तमात्र सहाय किस दृष्टान्तकर है सो दिखाया जाता है ।
उद्यं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए॥ तह जीवपुग्गलाणं धम्मं व्वं वियाणेहि ॥ ८५॥
उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं भवति ।। तथा जीवपुद्गलानां धर्म द्रव्यं विजानीहि ॥ ८५ ॥
संस्कृतछाया.
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । पदार्थ-[लोके ] इस लोकमें [यथा] जैसें [उदकं ] जल [मत्स्यानां] मच्छियोंको [गमनानुग्रहकरं] गमनके उपकारको निमित्तमात्रसहाय [भवति ] होता है [तथा] तैसें ही [जीवपुद्गलानां] जीव और पुद्गलोंके गमनको सहाय [धर्मद्रव्यं ] धर्म नामा द्रव्य [विजानीहि ] जानना ।
भावार्थ-जैसें जल मच्छियोंके गमन करते समय न तो आप उनके साथ चलता है और न मच्छियोंको चला है किन्तु उनके गमनको निमित्तमात्र सहायक है, ऐसा ही कोई एक खभाव है । मच्छियां जो जलके विना चलनेमें असमर्थ हैं इस कारण जल निमित्तमात्र है । इसी प्रकार ही जीव और पुद्गल धर्मद्रव्यके विना गमन करनेको असमर्थ हैं जीव पुद्गलके चलते धर्मद्रव्य आप नहिं चलता और न उनको प्रेरणा करके चलाता है. आप तो उदासीन है परन्तु कोई एक ऐसा ही अनादिनिधनस्वभाव है कि जीव पुद्गल गमन करे तो उनको निमित्तमात्र सहायक होता है । आगे अधर्मद्रव्यका स्वरूप दिखाया जाता है।
जह हवदि धम्मव्वं तह तं जाणेह वमधमक्खं । ठिदि किरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥ ८६ ॥
संस्कृतछाया. यथा भवति धर्मद्रव्यं तथा तज्जानीहि द्रव्यमधर्माख्यं ।
स्थितिक्रियायुक्तानां कारणभूतं तु पृथिवीव ।। ८६ ।। पदार्थ-यथा] जैसें [तत् ] जिसका स्वरूप पहिले कह आये वह [धर्मद्रव्यं ] धर्मद्रव्य [भवति ] होता है [तथा] तैसें ही [अधर्माख्यं] अधर्म नामक [द्रव्यं] द्रव्य [स्थितिक्रिया युक्तानां] स्थिर होनेकी क्रियायुक्त जीव पुद्गलोंको [पृथिवी इव] पृथिवीकी समान सहकारी [कारणभूतं ] कारण [जानीहि ] जान ।।
भावार्थ-जैसे भूमि अपने स्वभावहीसे अपनी अवस्थालिये पहिले ही तिष्ठै है स्थिर हैं और घोटकादि पदार्थोंको जोरावरी नहिं ठहराती. घोटकादि जो स्वयं ही ठहरना चाहै तो पृथिवी सहज अपनी उदासीन अवस्थासे निमित्तमात्र स्थितिको सहायक है। इसीप्रकार अधर्मद्रव्य जो है सो अपनी साहजिक अवस्थासे अपने असंख्यात प्रदेश लिये लोकाकाश प्रमाणतासे अविनाशी अनादि कालसे तिष्ठै है, उसका स्वभाव भी जीव पुद्गलकी स्थिरताको निमित्तमात्र कारण है, परन्तु अन्य द्रव्यको जबरदस्तीसे नहिं ठहराता । आपहीसे जो जीवपुद्गल स्थिर अवस्थारूप परिणमै तो आप अपनी स्वाभाविक उदासीन अवस्थासे निमित्तमात्र सहाय होता है । जैसैं धर्मद्रव्य निमित्तमात्र गतिको सहायक है उसी प्रकार अधर्मद्रव्य स्थिरताको सहकारी कारण जानना । यह संक्षेप मात्र धर्म अधर्म द्रव्यका स्वरूप कहा।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगे जो कोई कहै कि धर्म अधर्म द्रव्य है ही नहीं तो उसका समाधान करनेकेलिये आचार्य कहते हैं.
जादो अलोगलोगो जेसिं सम्भावदो य गमणठिदी। । दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ॥ ८७॥ .
संस्कृतछाया. जातमलोकलोकं ययोः सद्भावतश्च गमनस्थितिः ।
द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च ।। ८७ ॥ पदार्थ- [ययोः] जिन धर्माधर्म द्रव्यके [ सद्भावतः] अस्तित्व होनेसे [अलोकलोकं ] लोक और अलोक [जातं] हुवा है [च] और जिनसे [गमनस्थिती] गति स्थिति होती है वे [द्वौ अपि] दोनों ही [विभक्तौ मतौ] अपने अपने स्वरूपसे जुदे जुदे कहे गये हैं किंतु [अविभक्तौ] एकक्षेत्र अवगाहसे जुदे २ नहीं है । [च] और [लोकमात्रौ] असंख्यातप्रदेशी लोकमात्र है।
भावार्थ-यहां जु प्रश्न किया था कि-धर्म अधर्म द्रव्य है ही नहीं-आकाश ही गति स्थितिको सहायक है तिसका समाधान इस प्रकार हुवा कि-धर्म अधर्म द्रव्य अवश्य है । जो ये दोनों नहिं होते तो लोक अलोकका भेद नहिं होता । लोक उसको कहते हैं जहां कि जीवादिक समस्त पदार्थ हों. जहां एक आकाश ही है सो अलोक है, इस कारण जीव पुद्गलकी गतिस्थिति लोकाकाशमें है अलोकाकाशमें नहीं है । जो इन धर्म अधर्मके गतिस्थिति निमित्तका गुण नहिं होता तो. लोक अलोकका भेद दूर हो जाता जीव और पुद्गल ये दोनों ही द्रव्य गति स्थिति अवस्थाको धरते हैं इनकी गति स्थितिको बहिरंग कारण धर्म अधर्म द्रव्य लोक ही है । जो ये धर्म अधर्म द्रव्य लोकमें नहिं होते तो लोक अलोक ऐसा भेद ही नहिं होता सब जगहँ ही लोक होता इस कारण धर्म अधर्म द्रव्य अवश्यों है । जहांतक जीवपुद्गलगति स्थितिको करते हैं तहां ताई लोक है उससे परे अलोक जानना-इसी न्याय कर लोक अलोकका भेद धर्म अधर्म द्रव्यसे जानना । ये धर्म अधर्म द्रव्य दोनों ही अपने २ प्रदेशोंकों लियेहुये जुदे जुदे हैं. एक लोकाकाश क्षेत्रकी अपेक्षा जुदे जुदे नहीं हैं क्योंकि लोकाकाशके जिन प्रदेशोंमें धर्मद्रव्य है उन ही प्रदेशोंमें अधर्मद्रव्य भी है दोनों ही हिलनचलनरूप क्रियासेरहित सर्वलोकव्यापी हैं । समस्त लोकव्यापी जीव पुद्गलोंको गतिस्थितिको सहकारी कारण हैं इसकारण दोनों ही 'द्रव्य लोकमात्र असंख्यातप्रदेशी हैं ।
आगे धर्म अधर्म द्रव्य प्रेरक होकर गति स्थितिको कारण नहीं है अत्यन्त उदासीन हैं ऐसा कथन करनेको गाथा कहते हैं.
___ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णवियस्स ॥
हवदि गती स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च ॥ ८८॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः।
संस्कृतछाया. न च गच्छति धर्मास्तिको गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य । .
भवति गतेः सः प्रसरो जीवानां पुद्गलानां च ।। ८८ ।। पदार्थ-[धर्मास्तिकः ] धर्मास्तिकाय [न] नहीं [गच्छति ] चलता हिलता है । [च] और [अन्यद्रव्यस्य ] अन्य जीव पुद्गलका प्रेरक होयकर [गमनं ] हलन चलन क्रियाको [न] नहीं [करोति ] करता है [सः] वह धर्मद्रव्य [जीवानां] जीवोंकी और [पुद्गलानां] पुद्गलोंकी [ गतेः] हलन चलन क्रियाका [प्रसरः ] प्रवर्तक [ भवति] होता है । [च] फिर इसप्रकारही अधर्मद्रव्य भी स्थितिको निमित्तमात्र कारण जानना ।
भावार्थ-जैसें पवन अपने चंचलस्वभावसे ध्वजावोंकी हलन चलन क्रियाका कर्ता देखनेमें आता है तैसें धर्मद्रव्य नहीं है । धर्म द्रव्य जो है सो आप हलनचलनरूप क्रियासे रहित है किसी कालमें भी आप गति परणतिको (गमनक्रियाको) नहिं धारता । इसकारण जीवपुद्गलकी गतिपरणतिका सहायक किस प्रकार होता है उसका दृष्टान्त देते हैं. जैसे कि निःकम्प सरोवरमें 'जल' मच्छियोंकी गतिको सहकारी कारण है-जल स्वयं प्रेरक होकर मच्छियोंको नहिं चलाता, मच्छियें अपने ही गति परिणामके उपादान कारणसे चलती हैं परन्तु जलके विना नहिं चल सक्ती, जल उनको निमित्तमात्र कारण है । उसी प्रकार जीवपुद्गलोंकी गति अपने उपादान कारणसे है धर्मद्रव्य आप चलता नही किन्तु अन्य जीवपुद्गलोंकी गतिकेलिये निमित्तमात्र होता है । इसीप्रकार अधर्मद्रव्य भी निमित्तमात्र है जैसें घोड़ा प्रथम ही गति क्रियाको करके फिर स्थिर होता है असवारकी स्थितिका कर्ता देखिये है, उसी प्रकार अधर्मद्रव्य प्रथम आप चलकर जीवपुद्गलकी स्थिरक्रियाका आप कर्त्ता नहीं है किंतु आप निःक्रिय है इसकारण गतिपूर्वस्थिति परणाम अवस्थाको प्राप्त नहिं होता है । यदि परद्रव्यकी क्रियासे इसकी गति पूर्वक्रिया नहिं होती तो किसप्रकार स्थिति क्रियाका सहकारी कारण होता है ? जैसें घोड़ेकी स्थिति क्रियाका निमित्त कारण भृमि (पृथिवी) होती है। भूमि चलती नहीं परन्तु गतिक्रियाके करनेहारे घोड़ेकी स्थितिक्रियाको सहकारिणी है, उसीप्रकार अधर्मद्रव्य जीवपुद्गलकी स्थितिको उदासीन अवस्थासे स्थितिक्रियाका सहायी है।
आगें धर्म अधर्म द्रव्यको उपादानकारण गतिस्थितिका मुख्यतारूप नहीं है उदासीन मात्र भावसे निमित्तकारणमात्र कहा जाता है ।
विजदि जेसिं गमणं ठाणं पुणतेसिमेव संभवदि । ते सगपरणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति ॥ ८९॥
संस्कृतछाया. विद्यते येपां गमनं पुनस्तेपामेव सम्भवति । ते स्वकपरिणामैस्तु गमनं स्थानं च कुर्वन्ति ।। ८९ ॥
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पदार्थ-धर्मद्रव्य अकेला आप ही किसी कालमें भी गतिकारण अवस्थाको नहिं धरता है और अधर्मद्रव्य भी अकेला किसी कालमें भी स्थिति कारण अवस्थाको नहिं धरता किंतु गति स्थितिपरणतिके कारण हैं । और जो ये दोनों धर्म अधर्म द्रव्य उपादानरूप मुख्यकारण गंतिस्थितिके होते तो [येपां] जिन जीवपुद्गलोंका [गमनं] चलना [स्थानं] स्थिर होना [विद्यते] प्रवर्ते है [पुनः] फिर [तेपां] उन ही द्रव्योंका [एव ] निश्चय करकें चलना थिर होना [सम्भवति] होता है । जो धर्म अधर्म द्रव्य मुख्य कारण होय कर जबरदस्तीसे जीवपुद्गलोंको चलाते और स्थिर करते तो सदाकाल जो चलते वे सदा चलते ही रहते और स्थिर होते वे सदा स्थिर ही रहते, इसकारण धर्म अधर्म द्रव्य मुख्य कारण नहीं हैं। [ते] वे जीवपुद्गल [स्वकपरिणामैः तु] अपने गतिस्थितिपरिणामके उपादानकारणरूपसे तो [ गमनं ] चलने [च] और [स्थानं ] स्थिर होनेको [कुर्वन्ति करते हैं । इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि धर्म अधर्म द्रव्य मुख्य कारण नहीं हैं. व्यवहार नयकी अपेक्षा उदासीन अवस्थासे निमित्तकारण है । निश्चय करके जीव पुद्गलोंकी गति स्थितिको उपादानकारण अपने ही परिणाम हैं।
यह धर्मअधर्मास्तिकायका व्याख्यान पूर्ण हुवा.
आगे आकाशद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान किया जाता है.
सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तय पुग्गलाणं च ॥ जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं ॥९॥
संस्कृतछाया. सर्वेषां जीवानां शेपाणां तथैव पुद्गलानां च ।
यद्ददाति विवरमखिलं तल्लोके भवत्याकाशं ॥ ९०॥ पदार्थ-[सर्वेषां] समस्त [जीवानां] जीवोंको [तथैव ] तैसें ही [शेपाणां] धर्म अधर्म काल इन तीन द्रव्योंको [च] और [पुद्गलानां] पुद्गलोंको [यत् ] जो । [अखिलं] समस्त [विवरं] जगहँको [ददाति] देता है [तत्] वह द्रव्य [लोके] इस लोकमें [आकाशं] आकाशद्रव्य [भवति] होता है।
भावार्थ-इस लोकमें पांच द्रव्योंको जो अवकाश देता है उसको आकाश कहते हैं । आगें लोकसे जो बाहर जो अलोकाकाश है उसका स्वरूप कहते हैं ।
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा । तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ॥ ९१ ॥
संस्कृतछाया. जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मों च लोकतोऽनन्ये । ततोऽनन्यदन्यदाकाशमन्तव्यतिरिक्तं ॥ ९१ ॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। पदार्थ-जीवाः ] अनन्त जीव [पुद्गलकायाः] अनन्त पुद्गलपिंड [च] और [धर्माधर्मों ] धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य [लोकतः अनन्ये ] लोकसे बाहर नाहीं । ये पांच द्रव्य लोकाकाशमें है. [ततः] तिस लोकाकाशसे [अन्यत् ] जो और है [अनन्यत] और नहीं भी है ऐसा [आकाशं] आकाशद्रव्य है सो [अन्तव्यतिरिक्तं ] अनन्त है।
भावार्थ-आकाश लोक अलोकके भेदसे दो प्रकारका है । लोकाकाश उसे कहते है जो जीवादि पांच द्रव्योंकर सहित है। और अलोकाकाश वह है जहांपर आप एक आकाश ही है । वह अलोकाकाश एक द्रव्यकी अपेक्षा लोकसे जुदा नहीं है और वह अलोकाकाश पांचद्रव्यसे रहित है जब यह अपेक्षा लीजाय तब जुदा है । अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है । ___ यहां कोई प्रश्न करै कि लोकाकाशका क्षेत्र किंचिन्मात्र है । उसमें अनन्त जीवादि पदार्थ कैसें समा रहे हैं?
उत्तर-एक घरमें जिसप्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश समाय रहा है और जिसप्रकार एक छोटेसे गुटकेमें बहुतसी सुवर्णकी राशि रहती है उसीप्रकार असंख्यात प्रदेशी आकाशमें साहजीक अवगाहना खभावसे अनन्त जीवादि पदार्थ समा रहे हैं । वस्तुवोंके स्वभाव वचनगम्य नहीं है सर्वज्ञ देव ही जानते हैं इसकारण जो अनुभवी हैं वे संदेह उपजाते नहीं वस्तुखरूपमें सदा निश्चल होकर आत्मीक अनन्त सुख वेदते हैं । ___ आगे कोई प्रश्न करै कि धर्म अधर्मद्रव्य गतिस्थितिके कारण क्यों कहते हो आकाशको ही गतिस्थितिका कारण क्यों न कह देते ? उसको दूषण दिखाते हैं ।
आगासं अवगासं गमणहिदिकारणेहिं देदि जदि । उदंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ॥ ९२॥
- संस्कृतछाया. आकाशमवकाशं गमनस्थितिकारणाभ्यां ददाति यदि ।
ऊर्द्धगतिप्रधानाः सिद्धाः तिष्ठन्ति कथं तत्र ।। ९२ ॥ पदार्थ- [यदि] जो [आकाशं ] आकाश नामक द्रव्य [गमनस्थितिकारणाभ्यां] चलन और स्थिरताके कारण धर्म अधर्म द्रव्योंके गुणोंसे [अवकाशं ] जगह [ददाति] देता है [तदा] तो [ऊर्द्धगतिप्रधानाः ] ऊर्द्ध गतिवाले प्रसिद्ध जो [सिद्धाः] मुक्त जीव हैं ते [तत्र ] सिद्ध क्षेत्रपर [कथं ] कैसे [तिष्ठन्ति ] रहते हैं ?
भावार्थ-जो गमनस्थितिका कारण आकाशको ही मानलिया जाय तो धर्म अधर्मके अभाव होनेसे सिद्ध, परमेष्ठीका अलोकमें भी गमन होता, इसकारण धर्म अधर्म द्रव्य अवश्य है । उनसे ही लोककी मर्यादा है । लोकसे आगे गमनस्थिति नहीं है।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् · आर्गे लोकाग्रमें सिद्धोंकी थिरता दिखाते हैं ।
जमा उवरिहाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । तमा गमणहाणं आयासे जाण णस्थित्ति ॥ १३ ॥
संस्कृतछाया. यस्मादपरिस्थानं सिद्धानां जिनवरैः प्रज्ञप्तं ।
तस्माद्गमनस्थानमाकाशे जानीहि नास्तीति ।। ९३ ॥ पदार्थ-[जिनवरैः] वीतराग सर्वज्ञ देवोंने [ यस्मात् ] जिस कारणसे [सिद्धानां] सिद्धोंका [स्थानं ] निवासस्थान [उपरि] लोकके उपरि [प्रज्ञप्तं ) कहा है [तस्मात्] तिस कारणसे [आकाशे] आकाश द्रव्यमें [गमनस्थानं] गतिस्थिति निमित्त गुण [नास्ति ] नहीं है [इति ] यह [जानीहि] हे शिष्य तू जान । ___ भावार्थ---जो सिद्धपरमेष्ठीका गमन अलोकाकाशमें होता तो आकाशका गुण गतिस्थिति निमित्त होता, सो है नहीं. गतिस्थितिनिमित्त गुण धर्म अधर्म द्रव्यमें ही है क्योंकि धर्म अधर्म द्रव्य लोकाकाशमें है आगे नहीं हैं यही संक्षेप अर्थ जानना । आगे आकाश गतिस्थितिको निमित्त क्यों नहीं है सो दिखाते हैं।
जदि हवदि गमण हेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं। पसजदि अलोगहाणी लोगस्स य अंतपरिबुट्ठी ॥१४॥
संस्कृतछाया. - यदि भवति गमनहेतुराकाशं स्थानकारणं तेषां ।
प्रसजत्यलोकहानिर्लोकस्य चान्तपरिवृद्धिः ॥ ९४ ॥ . पदार्थ-[यदि] जो [आकाशं ] आकाश द्रव्य [तेषां] उन जीवपुद्गलोंको [गमन हेतुः] गमन करनेकेलिये सहकारी कारण तथा [स्थानकारणं] स्थितिको सहकारी कारण [भवति ] होय ['तदा' ] तो [अलोकहानिः] अलोकाकाशका नाश [प्रसजति] उत्पन्न होय [च] और [लोकस्य ] लोकके [अन्तपरिवद्धिः] अन्तकी (पूर्णताकी) वृद्धि हो जायगी।
भावार्थ-आकाश गतिस्थितिका कारण नहीं है क्योंकि-जो आकाश कारण हो जाय तो लोक अलोककी मर्यादा (हद्द) नहिं होती अर्थात् सर्वत्र ही जीव पुद्गलकी गतिस्थिति हो जाती । इसकारण लोक अलोककी मर्यादाका कारण धर्म अधर्म द्रव्य ही है. आकाश द्रव्यमें गतिस्थिति गुणका अभाव है. जो ऐसा न होय तो अलोकाकाशका अभाव होता और लोकाकाश असंख्यात प्रदेशप्रमाणवाले धर्म अधर्म द्रव्योंसे अधिक हो जाता अर्थात् समस्त अलोकाकाशमें जीवपुद्गल फैल जाते, अतएव गतिस्थिति गुण आकाशका नहीं है किन्तु धर्म अधर्म द्रव्यका है । जहांतक ये दोनों द्रव्य अपने असंख्यात प्रदेशोंसे स्थित हैं तहां ताई लोकाकाश है और वहीं तक गमनस्थिति है।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
आगे आकाशके गतिस्थितिका कारण गुण नहीं सो संक्षेपसे बताते हैं ।
तमा धम्माधम्मा गमणहिदि कारणाणि णागासं । इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणताणं ॥ १५ ॥
संस्कृतछाया. तस्माद्धाधौं गमनस्थितिकारणे नाकाशं ।
इति जिनवरैः भणितं लोकस्वभावं शृण्वन्ताम् ॥ ९५ ।। पदार्थ-[तस्मात् तिसकारणसें [धमाधम्र्मों ] धर्म अधर्म द्रव्य [गमनस्थितिकारणे] गमन और स्थितिको निमित्त कारण हैं [आकाशं ] आकाश गमनस्थितिको कारण [न] नहीं है [इति] इसप्रकार [जिनवरैः] जिनेश्वर वीतराग सर्वज्ञने [लोकखभावं] लोकके स्वभावको [शृण्वतां] सुननेवाले जो जीव हैं तिनको [भणितं कहा है।
आगे धर्म अधर्म आकाश ये तीनों ही द्रव्य एक क्षेत्रावगाहकर एक है परन्तु निजस्वरूपसे तीनों पृथक् पृथक् हैं ऐसा कहते हैं ।
धम्माधम्मागासा अपुधभूदा समाणपरिमाणा। पुधगुवलडिविसेसा करंति एगत्तमत्तत्तं ॥ ९६ ॥
संस्कृतछाया. धर्माधर्माकाशान्यपृथग्भूतानि समानपरिमाणानि । .
पृथगुपलब्धिविशेषाणि कुर्वन्त्येकत्वमन्यत्वं ॥ ९६ ॥ पदार्थ-[धर्माधर्माकाशानि] धर्म अधर्म और लोकाकाश ये तीन द्रव्य व्यवहार नयकी अपेक्षा [अपृथग्भूतानि ] एक क्षेत्रावगाही हैं अर्थात् जहां आकाश है तहां ही धर्म अधर्म ये दोनों द्रव्य हैं । कैसे हैं ये तीनो द्रव्य ? [समानपरिमाणानि] बराबर हैं असंख्यात प्रदेश जिनके ऐसे हैं । फिर कैसे हैं? [पृथगुपलब्धविशेषाणि] निश्चयनयकी अपेक्षा भिन्नभिन्न पाये जाते हैं भेद जिनके ऐसे हैं अर्थात् निज स्वभावसे टंकोत्कीर्ण अपनी जुदी जुदी सत्ता लियेहुये हैं अत एव ये तीनों ही द्रव्य [एकत्वं] व्यवहारनयकी अपेक्षा एकक्षेत्रावगाही हैं इस कारण एकभावको और [अन्यत्वं] निश्चयनयकी अपेक्षा ये तीनो अपनी जुदी २ सत्ताके द्वारा भेदभावको [कुर्वन्ति] करते हैं । इसप्रकार इन तीनों द्रव्योंके व्यवहार निश्चय नयसे अनेक विलाश जानने ।
___ यह आकाशद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान पूर्ण हुवा. आगे द्रव्योंके मूर्त्तत्व अमूर्तत्व चेतनत्व अचेतनत्व इसप्रकार चार भाव दिखाते हैं.
आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा। मुत्तं पुग्गलद्व्वं जीवो खलु चेदो तेसु ॥ ९७॥
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
संस्कृतछाया. आकाशकालजीवा धर्माधम्मौ च मूर्तिपरिहीनाः ।
मूर्त पुद्गलद्रव्यं जीवः खलु चेतनस्तेपु ॥ ९७ ॥ पदार्थ-[आकाशकालजीवाः] आकाशद्रव्य कालद्रव्य और जीवद्रव्य [च] और [धर्माधम्मौ ] धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य [ मूर्तिपरिहीनाः] स्पर्श रस गन्ध वर्ण इन चारगुणरहित अमूर्तीक हैं । [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य एक [मूर्त] मूर्तीक है अर्थात् स्पर्शरसगंधवर्णवान् है । [तेपु] तिनमेंसे [जीवः] जीवद्रव्य [खलु] निश्चय करके [चेतनः] ज्ञानदर्शनरूप चेतन है । और अन्य पांच द्रव्य धर्म अधर्म आकाश काल और पुद्गल ये अचेतन हैं. आगें इन ही षद्रव्योंकी सक्रिय निष्क्रिय अवस्था दिखाते हैं।
जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा । पुरगलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु॥९८ ॥
संस्कृतछाया. जीवाः पुद्गलकायाः सह सक्रिया भवन्ति न च शेपाः ।
पुद्गलकरणा जीवाः स्कन्धाः खलु कालकरणास्तु ॥ ९८ ॥ पदार्थ-[जीवाः] जीवद्रव्य [पुगलकायाः] पुद्गलद्रव्य [ सह सक्रियाः] निमित्तभूत परद्रव्यकी सहायतासे क्रियावंत [भवन्ति] होते हैं । [च] और [शेषाः] शेषके जो चार द्रव्य हैं वे क्रियावन्त [न] नहीं हैं । सो आगे क्रियाका कारण विशेषताकर दिखाते हैं कि-[जीवाः] जीवद्रव्य हैं ते [पुद्गलकरणाः] पुद्गलका निमित्त पाकर क्रियावन्त होते हैं। [तु] और [स्कन्धाः ] पुद्गलस्कन्ध हैं ते [खल] निश्चय करके [कालकरणाः] कालद्रव्यके निमित्तसे क्रियावंत होकर नाना प्रकारकी अवस्थाको धरते हैं।
भावार्थ-एक प्रदेशसे प्रदेशांतरमें जो गमन करना उसका नाम क्रिया है सो पद्रव्यों से जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य प्रदेशसे प्रदेशान्तरमें गमन करते हैं और कम्परूप अवस्थाको धरते हैं इसकारण क्रियावंत कहे जाते हैं और शेषके चार द्रव्य निष्क्रिय निप्कम्प हैं. जीव द्रव्यकी क्रियाको निमित्त बहिरंगमें कर्म नोकर्मरूप पुद्गल हैं इनकी ही संगतिसे जीव अनेक विकाररूप होकर परिणमता है । और जब काल पायकर पुद्गलमयी कर्म नोकर्मका अभाव होता है तब साहजिक निष्क्रिय निप्कंप स्वाभाविक अवस्थारूप सिद्ध पर्यायको धरता है. इसकारण पुद्गलका निमित्त पाकर जीव क्रियावान् जानना । और कालका वहिरंग कारण पाकर पुद्गल अनेक स्कन्धरूप विकारको धारण करता है । इसकारण काल पुद्गलकी क्रियाको सहकारी कारण जानना । परन्तु इतना विशेप है कि जीवद्रव्यकी तरह पुद्गल निष्क्रिय कभी भी नहीं होता । जीव शुद्धहुये उपरान्त क्रियावान् किसी कालमें भी नहीं होयगा. पुद्गलका यह नियम नहीं है । सदा क्रियावान् परसहायसे रहता है।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः।
৩৭ आगें मूर्तअमूर्तका लक्षण कहते हैं।
जे खल इन्दियगेज्झा विषया जीवहिं हुति ले मुत्ता। सेसं हवदि अमुत्तं चित्तं उभयं समादिद्यदि ॥ ९९ ॥
संस्कृतछाया. ये खलु इन्द्रियग्राह्या विपया जीवैभवन्ति ते मूर्त्ताः ।
शेपं भवत्यमूर्त चित्तमुभयं समाददति ॥ ९९ ॥ पदार्थ-ये] जो [जीवैः] जीवोंकरके [ खलु] निश्चयसे [इन्द्रियग्राह्याः] इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण करने योग्य [विपयाः] पुद्गलजनित पदार्थ हैं [ते] वे [ मूर्त्ताः] मूर्तीक [भवन्ति] होते हैं [ शेष ] पुद्गलजनित पदार्थोंसे जो भिन्न है सो [अमूर्त ] अमूर्तीक [ भवति] होता है अर्थात्-इस लोकमें जो स्पर्श रस गंध वर्णवन्त पदार्थ स्पर्शन जीभ नाशिका नेत्र इन चारों इन्द्रियों से ग्रहण किये जाय और जो कर्णेद्रियद्वारा शब्दाकार परिणत पदार्थ ग्रहे जांय और जो किसी कालमें स्थूल स्कंधभावपरिणये हैं पुद्गल और किसही काल सूक्ष्म भावपरिणये हैं पुद्गलस्कंध और किस ही काल परमाणुरूप परणये जे पुद्गल, वे सब ही मूर्तीक कहाते हैं । कोईएक सूक्ष्मभाव परिणतिरूप पुद्गलस्कन्ध अथवा परमाणु यद्यपि इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करनेमें नहिं आते तथापि इन पुद्गलोंमें ऐसी शक्ति है कि यदि ये स्थूलताको धेरै तो इन्द्रियग्रहण करने योग्य होते हैं अतएव कैसी भी सूक्ष्मताको धारण करो सवको इन्द्रियग्राह्य ही कहे जाते हैं । और जीव धर्म अधर्म आकाश काल ये पांच पदार्थ हैं ते स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणसे रहित हैं क्योंकि इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण करने में नहिं आते इसीकारण इनको अमूर्तीक कहते हैं। [चित्तं] मनइन्द्रिय [उभयं] मूर्तीक अमूर्तीक दोनों प्रकारके पदार्थोंको [समाददति] ग्रहण करता है । अर्थात् मन अपने विचारसे निश्चित पदार्थको जानता है । मन जब पदार्थोंको ग्रहण करता है तब पदार्थों में नहीं जाता किन्तु आप ही संकल्परूप होय वस्तुको जानता है । मतिश्रुतज्ञानका मन ही साधन है इसकारण मन अपने विचारोंसे मूर्त अमूर्त दोनों प्रकारके पदार्थोंका ज्ञाता है । यह चूलिकारूप संक्षिप्त व्याख्यान पूर्ण हुवा. ___ आगें कालद्रव्यका व्याख्यान किया जाता है सो पहिले ही व्यवहार और निश्चयकालका स्वरूप दिखाया जाता है।
कालो परिणामभवो परिणामो द्व्वकालसंभूदो।। दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो ॥१०॥
संस्कृतछाया. काल: परिणामभवः परिणामो द्रव्यकालसंभूतः । द्वयोरेप स्वभावः कालः क्षणभङ्गुरो नियतः ।। १०० ।।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् __पदार्थ-[कालः ] व्यवहारकाल जो है सो [परिणामभवः] जीव पुद्गलोंके परिणामसे उत्पन्न है [परिणामः ] जीव पुद्गलका परिणाम जो है सो [द्रव्यकालसंभूतः] निश्चयकालाणुरूप द्रव्यकालसे उत्पन्न है। [द्वयोः] निश्चय और व्यवहार कालका [एपः] यह [स्वभावः] स्वभाव है । [कालः] व्यवहारकाल [क्षणभङ्गुरः] समय समय विनाशीक है और [नियतः] निश्चयकाल जो है सो अविनाशी है।।
भावार्थ-जो क्रमसे अतिसूक्ष्म हुवा प्रवत्र्ते है वह तो व्यवहारकाल है और उस व्यवहारकालका जो आधार है सो निश्चयकाल कहाता है । यद्यपि व्यवहारकाल है सो निश्चयकालका पर्याय है तथापि जीवपुद्गलके परिणामोंसे वह जाना जाता है। इसकारण जीव पुद्गलोंके नवजीर्णतारूप परिणामोंसे उत्पन्न हुवा कहा जाता है। और जीव पुद्गलोंका जो परिणमन है सो बाह्यमें द्रव्यकालके होतेसंते समयपर्यायमें उत्पन्न है इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि समयादिरूप जो व्यवहारकाल है सो तो जीवपुद्गलोंके परिणामोंसे प्रगट किया जाता है और निश्चयकाल जो है सो समयादि व्यवहारकालके अविनाभावसे अस्तित्वको धरै है क्योंकि पर्यायसे पर्यायीका अस्तित्व ज्ञात होता है । इनमेंसे व्यवहारकाल क्षणविनश्वर है क्योंकि पर्यायस्वरूपसे सूक्ष्मपर्याय उतने मात्र ही है जितने कि समयावलिकादि हैं। और निश्चयकाल जो है सो नित्य है क्योंकि अपने गुणपर्यायस्वरूप द्रव्यसे सदा अविनाशी है। आगे कालद्रव्यका स्वरूप नित्यानित्यका भेद करके दिखाया जाता है। . कालो त्ति य ववदेसो सम्भावपरूवगो हवदि णिच्चो । उप्पण्णप्पडंसी अवरो दीहंतरहाई ॥ १०१॥
संस्कृतछाया. काल इति च व्यपदेशः सद्भावप्ररूपको भवति नित्यः ।
उत्पन्नप्रध्वंस्यपरो दीर्घान्तरस्थायी ॥ १०१ ॥ पदार्थ-[च] और [काल इति] काल ऐसा जो [व्यपदेशः] नाम है सो । निश्चयकाल [नित्यः] अविनाशी है भावार्थ-जैसें सिंहशब्द दो अक्षरका है सो सिंह नामा पदार्थका दिखानेवाला है जब कोई सिंहशब्दको कहै तब ही सिंहका ज्ञान होता है उसी प्रकार काल ये दो अक्षरके कहनेसे नित्य कालपदार्थ जाना जाता है । जिस प्रकार अन्य जीवादि द्रव्य हैं उस प्रकार एक कालद्रव्य भी निश्चयनयसे है. [अपरः] दूसरा जो समयरूप व्यवहारकाल है सो [उत्पन्नमध्वंसी] उपजता और विनशता है । तथा [दीर्घान्तरस्थायी] समयोंकी परंपरासे बहुत स्थिरतारूप भी कहा जाता है ।
भावार्थ-व्यवहारकाल सबसे सूक्ष्म समय नामवाला है सो उपजै भी है विनशै भी है और निश्चयकालका पर्याय है. पर्याय उत्पादव्ययरूप सिद्धान्तमें कहा गया है. उस सम
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
৩৩ यकी अतीतअनागतवर्तमानरूप जो परंपरा लियी जाय तो आवली पल्योपम सागरोपम ' इत्यादि अनेक भेद होते हैं. इससे यह बात सिद्ध हुई कि-निश्चयकाल अविनाशी है व्यवहारकाल विनाशीक है। आगे कालकी द्रव्यसंज्ञा है कायसंज्ञा नही है ऐसा कहते हैं।
एदे कालागासा घम्साघम्सा य पुग्गला जीवाः। लन्भंति व्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं ॥ १०२ ॥
संस्कृतछाया. एते कालाकाशे धमाधम्मौ च पुद्गला जीवाः ।
लभन्ते द्रव्यसंज्ञां कालस्य तु नास्ति कायत्वं ।। १०२ ॥ पदार्थ-[एते] ये [कालाकाशे ] काल और आकाशद्रव्य [च] और [धर्माधम्मौ] धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य [पुद्गलाः] पुद्गलद्रव्य [ जीवाः] जीवद्रव्य [द्रव्यसंज्ञां] द्रव्यनामको [लभन्ते ] पाते हैं । भावार्थ-जिस प्रकार धर्म अधर्म आकाश पुद्गल जीव इन पांचों द्रव्योंमें गुणपर्याय हैं और जैसा इनका सद्रव्य लक्षण है तथा इनका उत्पादव्यय ध्रौव्य लक्षण है वैसे ही गुणपर्यायादि द्रव्यके लक्षण कालमें भी हैं इसकारण कालका नाम भी द्रव्य है । कालको और अन्य पांचों द्रव्योंको द्रव्यसंज्ञा तो समान है परन्तु धर्मादि पांच द्रव्योंकी कायसंज्ञा है. क्योंकि काय उसको कहते हैं जिसके बहुत प्रदेश होते हैं । धर्म अधर्म आकाश जीव इन चारों द्रव्योंके असंख्यात प्रदेश हैं पुद्गलके परमाणु यद्यपि एकप्रदेशी हैं तथापि पुद्गलोंमें मिलनशक्ति है इस कारण पुद्गल संख्यात असंख्यात तथा अनन्त प्रदेशी हैं । [कालस्य तु] कालद्रव्यके तो [कायत्वं] बहु प्रदेशरूप कायभाव [नास्ति] नहीं है ।
भावार्थ-कालाणु एकप्रदेशी है. लोकाकाशके भी असंख्यात प्रदेश हैं असंख्यातीही कालाणु हैं. सो लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर एक एक कालाणु रहता है । इसी कारण इस पंचास्तिकाय ग्रन्थमें कालद्रव्य कायरहित होनेके कारण इसका मुख्यरूप कथन नहीं किया । यह कालद्रव्य इन पंचास्तिकायोंमें गर्भित आता है क्योंकि जीव पुद्गलके परिणमनसे समयादि व्यवहारकाल जाना जाता है. जीव.पुद्गलोंके नवजीर्णपरिणामोंके विना व्यवहारकाल नहीं जाना जाता है । जो व्यवहारकाल प्रगट जाना जाय तो निश्चयकालका अनुमान होता है. इस कारण पंचास्तिकायमें जीवपुद्गलोंके परिणमनद्वारा कालद्रव्य जाना ही जाता है कालको इसलियेही इन पंचास्तिकायोंमें गर्मित जानना. यह कालद्रव्यका व्याख्यान पूरा हुवा। अब पंचास्तिकायके व्याख्यानसे ज्ञान फल होता है सो दिखाते हैं ।
एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता । जो मुयदि रागदोसे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं ॥ १०३ ॥
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
संस्कृतछाया. एवं प्रवचनसारं पञ्चास्तिकायसङ्ग्रहं विज्ञाय ।
यो मुञ्चति रागद्वेपौ स गाहते दुःखपरिमोक्षं ॥ १०३ ।। पदार्थ-[य] जो निकटभव्य जीव [एवं] पूर्वोक्तप्रकारसे [पञ्चास्तिकायसङ्ग्रहं] पंचास्तिकायके संक्षेपको अर्थात् द्वादशांगवाणीके रहस्यको [ विज्ञाय ] भले प्रकार जानकर [रागद्वेषौ] इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें प्रीति और द्वेषभावको [मुञ्चति] छोडता है [सः] वह पुरुष [दुःखपरिमोक्षं] संसारके दुःखोंसे मुक्ति [गाहते] प्राप्त होता है।
भावार्थ-द्वादशांगवाणीके अनुसार जितने सिद्धान्त हैं तिनमें कालसहित पंचास्तिकायका निरूपण है और किसी जगह कुछ भी छूट नहिं किया है, इसलिये इस पंचास्तिकायमें भी यह निर्णय है इसकारण यह पंचास्तिकाय प्रवचन जो है सो भगवान्के प्रमाण वचनोंमें सार है । समस्त पदार्थोंका दिखानेवाला जो यह ग्रन्थ समयसार पंचास्तिकाय है इसको जो कोई पुरुष शब्द अर्थकर भलीभांति जानैगा वह पुरुष बद्र्व्योंमें उपादेयस्वरूप जो आत्मब्रह्म आत्मीय चैतन्यस्वभावसे निर्मल है चित्त जिसका ऐसा निश्चयसे अनादि अविद्यासे उत्पन्नं रागद्वेषपरिणाम आत्मस्वरूपमें विकार उपजानेहारे हैं उनके खरूपको जानता है कि ये मेरे स्वरूप नहीं. इसप्रकार जब इसको भेदविज्ञान होता है तब इसके परमविवेक ज्योति प्रगट होती है और कर्मबंधको उपजानेवाली रागद्वेषपरिणति नष्ट हो जाती है, तब इसके आगामी बन्धपद्धति भी नष्ट होती है। जैसें परमाणुवन्धकी योग्यतासे रहित अपने जघन्य स्नेहभावको परिणमता आगामी वन्धसे रहित होता है उसी प्रकार यह जीव रागभावके नष्ट होनेसे आगामी बन्धका कर्ता नहिं होता, पूर्ववन्ध अपना रसविपाक देकर खिर जाता है । तब यह चतुर्गति दुःखसे निवर्ति होकर मोक्षपदको पाता है । जैसें परद्रव्यरूप अग्निके सम्बन्धसे जल तप्त होता है वही जल काल पाकर तप्त विकारको छोड़कर स्वकीय सीतलभावको प्राप्त होता है, उसी प्रकार भगवद्वचनको अंगीकार करके ज्ञानी जीव कर्मविकारके आतापको नष्टकर आत्मीक शान्तरसगर्भित सुखको पाते हैं।
आगे दुःखोंके नष्ट करनेका क्रम दिखाते हैं अर्थात् किस क्रमसे जीव संसारसे रहित होकर मुक्त होता है सो दिखाते हैं।
मुणिऊण एतद्द्वं तदणुगमणुज्झदो णिहदमोहो । पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरावरो जीवो ॥१०४॥
संस्कृतछाया. ज्ञात्वैतदर्थ तदनुगमनोद्यतो निहतमोहः । प्रशमितरागद्वेपो भवति हतपरापरो जीवः ॥ १०४ ॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। पदार्थ-[यः] जो पुरुष [एतदर्थ ] इस ग्रन्थके रहस्य शुद्धात्म पदार्थको [ज्ञात्वा] जानकर [तदनुगमनोद्यतः] उस ही आत्मपदार्थमें प्रवीन होनेको उद्यमी [भवति] होता है [स जीवः] वह भेद विज्ञानी जीव [निहतमोहः ] नष्ट किया है दर्शनमोह जिसने [प्रशमितरागद्वेपः] शान्त होकर विला गये हैं रागद्वेप जिसमेंसे [ हतपरापरः] नष्ट किया है पूर्वपर बंध जिसने ऐसा होकर मोक्षपदका अनुभवी होता है। __भावार्थ-यह संसारी जीव अनादि अविद्याके प्रभावसे परभावोंमें आत्मस्वरूपत्व जानता है अज्ञानी होकर रागद्वेषभावरूप परिणमता है । जब काललब्धि पाय सर्वज्ञ वीतरागके वचनोंको अवधारन करता है तब इसके मिथ्यात्वका नाश होता है । भेदविज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगट होती है । तत्पश्चात् चारित्र मोह भी नष्ट होता है। तव सर्वथा संकल्पविकल्पोंके अभावसे स्वरूपविषै एकाग्रतासे लीन होता है । आगामी बंधका भी निरोध हो जाता है पिछला कर्मबन्ध अपना रस देकर खिर जाता है तब वहही जीव निर्वन्ध अवस्थाको धारणपूर्वक मुक्त होकर अनन्तकालपर्यन्त स्वरूपगुप्त अनन्तसुखका भोक्ता होता है। इति श्रीपंचास्तिकायसमयसार ग्रन्थमें षद्रव्यपंचास्तिकायका व्याख्याननामक
प्रथमश्रुतस्कन्ध पूर्ण हुवा।। पूर्वकथनमें केवल मात्र शुद्ध तत्त्वका कथन किया है । अब नव पदार्थके भेद कथन करके मोक्षमार्ग कहते हैं जिसमें प्रथम ही भगवान्की स्तुति करते हैं क्योंकि जिसका वचन प्रमाण है सो पुरुष प्रमाण है और पुरुषप्रमाणसे वचनकी प्रमाणता है ।
अभिवंदिऊण सिरसा अपुणभवकारणं महावीरं । तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि ॥ १०५ ॥
संस्कृतछाया. अभिवन्द्य शिरसा अपुनर्भवकारणं महावीरं । . तेषां पदार्थभङ्ग मार्ग मोक्षस्य वक्ष्यामि ॥ १०५ ॥
पदार्थ-मैं कुंदकुंदाचार्य जो हूं सो [अपुनर्भवकारणं] मोक्षके कारणभूत [महावीरं] वर्द्धमान तीर्थकर भगवान्को [शिरसा] मस्तकद्वारा [ अभिवन्ध] नमस्कार करकें [ मोक्षस्य मार्ग ] मोक्षके मार्ग अर्थात् कारणस्वरूप [तेषां] उन षड्द्रव्योंके [पदार्थभङ्ग] नवपदार्थरूप भेदको [वक्ष्यामि ] कहूंगा ।
भावार्थ-यह जो वर्तमान पंचमकाल है उसमें धर्मतीर्थके कर्ता भगवान् परम भट्टारक देवाधिदेव श्रीवर्द्धमानखामीकी मोक्षमार्गकी साधनहारी स्तुति करके मोक्षमार्गके दिखानेवाले पद्रव्योंके विकल्प नवपदार्थरूप भेद दिखानेयोग्य है, ऐसी श्रीकुंदकुंदस्वामीने प्रतिज्ञा कीनी ।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
आगें मोक्षमार्गका संक्षेप कथन करते हैं ।
सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं । मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लडबुद्धीणं ॥ १०६ ॥
संस्कृतछाया.
सम्यक्त्वज्ञानयुक्तं चारित्रं रागद्वेपपरिहीनं ।
मोक्षस्य भवति मार्गो भव्यानां लब्धबुद्धीनां ॥ १०६ ॥
पदार्थ – [ सम्यक्त्वज्ञानयुक्तं ] सम्यक्त्व कहिये श्रद्धान यथार्थ वस्तुका परिच्छेदनकर सहित जो [ चारित्रं ] आचरण है सो [ मोक्षस्य मार्गः ] मोक्षका मार्ग [ भवति ] है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र इन तीनोंहीका जब एकवार परिणमन होता है तब ही मोक्षमार्ग होता है। कैसा है ज्ञानदर्शनयुक्त चारित्र [ रागद्वेषपरिहीनं] इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें रागद्वेष रहित समतारस गर्भित है । ऐसा मोक्षमार्ग किनके होता है ? [लब्धबुद्धीनां] प्राप्त भई है खपरविवेकभेदविज्ञानबुद्धि जिनको ऐसे [ भव्यानां ] मोक्षमार्गके सन्मुख जे जीव हैं तिनके होता है ।
1
भावार्थ - चारित्र वही है जो दर्शन ज्ञानसहित है दर्शनज्ञानके विना जो चारित्र है सो मिथ्या चारित्र है । जो चारित्र है वही चारित्र है न कि मिथ्याचारित्र चारित्र होता है । और चारित्र वही है जो रागद्वेषरहित समतारससंयुक्त है । जो कपायर सगर्भित है सो चारित्र नहीं है संक्लेशरूप है । जो ऐसा चारित्र है सो सकलकर्मक्षयलक्षण मोक्षस्वरूप है न कि कर्मबन्धरूप है । जो ज्ञानदर्शनयुक्त चारित्र है वह ही उत्तम मार्ग है न कि संसारका मार्ग भला है। जो मोक्षमार्ग है सो निकट संसारी जीवोंको होता है अभव्य वा दूर भव्योंको नहिं होता । जिनको भेद विज्ञान है उन ही भव्य जीवों को होता है स्वपरज्ञानशून्य अज्ञानीको नहिं होता । जिनके कपाय मूलसत्तासे क्षीण हो गया है ही मोक्षमार्ग है कपायी जीवोंके नहिं होता । ये आठ प्रकारके मोक्षसाधनका नियम जानना ।
उनके -
आगें सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रका स्वरूप कहते हैं ।
सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं ।
चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ॥ १०७ ॥
संस्कृतछाया.
सम्यक्त्वं श्रद्धानं भावानां तेपामधिगमो ज्ञानं ।
चारित्रं समभावो विषयेष्वविरूढ मार्गाणाम् ॥ १०७ ॥
पदार्थ – [ भावानां ] पद्रव्य पंचास्तिकाय नवपदार्थोंका जो [ श्रद्धानं] प्रतीतिपूर्व दृढता सो [ सम्यक्त्वं ] सम्यग्दर्शन है [तेपां] उन ही पदार्थोंका जो [ अधिगमः ]
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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यथार्थ अनुभवन सो [ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान है [ विषयेषु ] पंचेन्द्रियों के विषयों में [ अविरूढमा गण] नहिं की है अति दृढतासे प्रवृत्ति जिन्होंने ऐसे भेद विज्ञानी जीवोंका जो [ समभावः ] रागद्वेषरहित शान्तस्वभाव सो [ चारित्रं ] सम्यक्चारित्र है । भावार्थ — जीवोंके अनादि अविद्याके उदयसे विपरीत पदार्थों की श्रद्धा है । काललब्धिके प्रभावसे मिथ्यात्व नष्ट होय तव पदार्थोंकी जो यथार्थ प्रतीति होय उसका नाम सम्यग्दर्शन है । वही सम्यग्दर्शन शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मपदार्थके निश्चय करनेका बीज - भूत है । मिथ्यात्वके उदयसे संशय विमोह विभ्रमस्वरूप पदार्थों का ज्ञान होता है जैसें नावपर चढते हैं तो बाहरके स्थिर पदार्थ चलतेहुये दिखाई देते हैं इसीको विपरीतज्ञान कहते हैं. सो जब मिथ्यात्वका नाश हो जाता है तब यथार्थ पदार्थोंका ग्रहण होता है । उसी यथार्थ ज्ञानका ही नाम सम्यग्ज्ञान है । वही सम्यग्ज्ञान आत्मतत्त्व अनुभवनकी प्राप्तिका मूल कारण है । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानकी प्रवृत्तिके प्रभावसे समस्त कुमार्गों से निवृत्त होकर आत्मस्वरूपमें लीन होय इन्द्रियमनके विषय जे इष्ट अनिष्ट पदार्थ हैं उनमें रागद्वेषरहित जो समभावरूप निर्विकार परिणाम सो ही सम्यक्चारित्र है । सम्यक्चारित्र फिर जन्मसन्तानका (संसारका ) उपजानेहारा नहीं है । मोक्षसुखका कारण है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र इन तीनों भावोंकी जब एकता होय तब ही मोक्षमार्ग कहाता है इनमेंसे किसी एककी कमी होय तो मोक्षमार्ग नहीं है । जैसें व्याधियुक्त रोगीको ओषधीका श्रद्धान ज्ञान उपचार तीनों प्रकार होय तवही रोगी रोगसे मुक्त होता है. एककी कमी होनेसे रोग नहिं जाता. इसीप्रकार त्रिलक्षण मोक्षमार्ग है ।
आर्गे निश्चय व्यवहारनयोंकी अपेक्षा विशेष मोक्षमार्ग दिखाते हैं। यहां सम्यग्दर्शन ज्ञानकेद्वारा नव पदार्थ जाने जाते हैं, इसकारण मोक्षका संक्षेपस्वरूप ही कहा है. आगें नव पदार्थोंका संक्षेपस्वरूप और नाम कहे जाते हैं.
जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं । संवरणिज्जरबंधो मोख्खो य हवंति ते अड्डा ॥ १०८ ॥
संस्कृतछाया.
जीवाजीव भाव पुण्यं पापं चासवस्तयोः ।
संवरनिर्जरवन्धा मोक्षश्च भवन्ति ते अर्थाः ॥ १०८ ॥
पदार्थ – [ जीवाजीवौ भावौ ] एक जीव पदार्थ और एक अजीव पदार्थ [ पुण्यं ] एक पुण्य पदार्थ [च] और [ पापं ] एक पाप पदार्थ [ तयोः ] उन दोनों पुण्य पापोंका [ आस्रवः ] आत्मामें आगमन सो एक आस्रव पदार्थ [संवरनिर्जरवन्धाः ] संवर निर्जरा और बन्ध ये तीन पढ़ार्थ हैं । [च] और [ मोक्षः ] एक मोक्ष पदार्थ है जो हैं [ते] वे [अर्थाः ] नव पदार्थ [ भवन्ति ] होते हैं ।
इसप्रकार
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावार्थ-जीव १ अजीव २ पुण्य ३ पाप ४ आस्रव ५ संवर ६ निर्जरा ७ वन्ध ८ और मोक्ष ९. ये नव पदार्थ जानने । चेतना लक्षण है जिसका सो जीव है । चेतनारहित जड़ पदार्थ अजीव हैं सो पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय
और कालद्रव्य ये पांच प्रकार अजीव हैं। ये जीव अजीव दोनों ही पदार्थ अपने भिन्नस्वरूपके अस्तित्वसे मूलपदार्थ हैं. इनके अतिरिक्त जो सात पदार्थ हैं वे जीव और पुद्गलोंके संयोगसे उत्पन्न हुये हैं। सो दिखाये जाते हैं। जो जीवके शुभपरिणाम होय तो उस शुभपरिणामके निमित्तसे पुद्गलके शुभकर्मरूप शक्ति होय उसको पुण्य कहते हैं। जीवके अशुभपरणामोंके निमित्तसे पुद्गल वर्गणावोंमें अशुभकर्मरूप परिणतिशक्ति होय उसको पाप कहते हैं । मोहरागद्वेषरूप जीवके परिणामोंके निमित्तसे मनवचनकायरूप योगोंद्वारा पुद्गलकर्म वर्गणावोंका जो आगमन सो आस्रव है । और जीवके मोहरागद्वेष परिणामोंको रोकनेवाला जो भाव होय उसका निमित्त पाकर योगोंके द्वारा पुद्गल वर्गणावोंके आगमनका निरोध होना सो संवर है । कर्मोंकी शक्तिके घटानेको समर्थ बहिरंग अंतरंग तपोंसे वर्द्धमान ऐसे जो जीवके शुद्धोपयोगरूप परिणाम, तिनके प्रभावसे पूर्वोपार्जित कर्मोका नीरस भाव होकर एकदेश क्षय हो जाना उसका नाम निर्जरा है।
और जीवके मोहरागद्वेषरूप स्निग्ध परिणाम होंय तो उनके निमित्तसे कर्मवर्गणारूप पुद्गलोंका जीवके प्रदेशोंसे परस्पर एक क्षेत्रावगाह करके सम्बन्ध होना सो वन्ध है। जीवके अत्यन्त शुद्धात्मभावकी प्राप्ति होय उसका निमित्त पाकर जीवके सर्वश्रा प्रकार कर्मोंका छूटजाना सो मोक्ष है।
आगे जीवपदार्थका व्याख्यान किया जाता है जिसमें जीवका स्वरूप नाम मात्रकर दिखाया जाता है।
जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दुविधा। उवओगलक्खणा विथ देहादेहप्पवीचारा ॥ १०९ ॥
संस्कृतछाया. जीवाः संसारस्था निर्वृत्ताश्च चेतनात्मका द्विविधाः ।
उपयोगलक्षणा अपि च देहादेहप्रवीचाराः ॥ १०९ ॥ पदार्थ- [जीवाः] आत्मपदार्थ हैं ते [द्विविधाः] दो प्रकारके हैं। एक तो · [संसारस्थाः ] संसरमें रहनेवाले अशुद्ध हैं दूसरे [निर्वृत्ताः] मोक्षावस्थाको प्राप्त होकर
शुद्धहुये सिद्ध हैं । वे जीव कैसे हैं? [चेतनात्मकाः] चैतन्यस्वरूप हैं [उपयोगलक्षणाः] ज्ञानदर्शनस्वरूप उपयोग (परिणाम ) वाले हैं। [अपि] निश्चयसे [च फिर कैसे हैं वे दो प्रकारके जीव? [देहादेहप्रवीचाराः] एक तौ देहकरके संयुक्त सो तो संसारी हैं। एक देहरहित हैं ते मुक्त हैं।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। आगें पृथिवीकायादि पांच थावरके भेद दिखाते हैं.
पुढवी य उद्गलगणी वाउवणप्फदिजीवसंसिदा काया(?)। देंति खलु सोहबहुलं फासं वहुगा वि ते तेसिं ॥ ११०॥
संस्कृतछाया. पृथिवी चोदकमग्निर्वायुवनस्पती जीवसंश्रिताः कायाः ।
ददति खलु सोहबहुलं स्पर्श बहुका अपि ते तेषां ॥ ११० ॥ पदार्थ-[पृथिवी ] पृथिवीकाय [च] और [उदकम् ] जलकाय [अग्निः] अग्निकाय [वायुवनस्पती] वायु और वनस्पतिकाय [कायाः] ये पांच स्थावरकायके भेद जानने [ते] वे [जीवसंश्रिताः] एकेन्द्रियजीव करके सहित हैं. [वहुकाः अपि ] यद्यपि अनेक २ अवान्तर भेदोंसे बहुत जात हैं ऐसे जो काया सो शरीरभेदसे [खलु] निश्चयसे [तेपां] उन जीवोंको [मोहबहुलं ] मोहगर्भित बहुत परद्रव्योंमें रागभाव उपजाते हैं [ स्पर्श ] स्पर्शनेन्द्रियके विषयको [ददति ] देते हैं।
भावार्थ-ये पांच प्रकार थावरकाय कर्मके सम्बन्धसे जीवोंके आश्रित हैं। इनमें गर्भित अनेक जातिभेद हैं. ये सब एक स्पर्शनेन्द्रियकरके मोहकर्मके उदयसे कर्मफल चेतनारूप सुखदुखरूप फलको भोगते हैं । एक कायके आधीन होकर जीव अनेक अवस्थाको प्राप्त होता है। आगें पृथिवीकायादि पांच थावरोंको एकेंद्रियजातिका नियम करते हैं.
ति स्थावरतणुजोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा । मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया ॥ १११ ॥
संस्कृतछाया. ' त्रयः स्थावरतनुयोगादनिलानलकायिकाश्च तेषु त्रसाः ।
मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः ॥ १११ ॥ पदार्थ-[स्थावरतनुयोगात् ] स्थावरनाम कर्मके उदयसे [त्रयः जीवाः] पृथिवी जल वनस्पति ये तीन प्रकारके जीव [एकेन्द्रियाः] एकेन्द्रिय [ज्ञेयाः] जानने [च] और तेपु] उन पांच स्थावरोंमें [अनिलानिलकायिकाः] वायुकाय और अग्निकाय ये दो प्रकारके जीव यद्यपि [त्रसाः] चलते हैं तथापि स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर एकेन्द्रिय ही कहे जाते हैं. कैसे हैं ये एकेन्द्रिय ? [मनःपरिणामविरहिताः] मनोयोगरहित हैं।
एदे जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया। मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया ॥ ११२ ॥
संस्कृतछाया. एते जीवनिकायाः पञ्चविधाः पृथिवीकायिकाद्याः । मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया भणिताः ॥ ११२ ॥ ..
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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् पदार्थ- एते] ये [पृथिवीकायिकाद्याः] पृथिवीआदिक [पञ्चविधाः] पांच प्रकारके [जीवनिकायाः] जीवोंके जो भेद हैं सो [मनःपरिणामविरहिताः] मनोयोगके विकल्पोंसे रहित [एकेन्द्रिया जीवाः] सिद्धान्तमें एकेन्द्रिय जीव [भणिताः] कहे गये हैं।
भावार्थ-पृथिवीकायादिक जो पांच प्रकारके स्थावर जीव हैं ते स्पर्शेन्द्रियावरण के क्षयोपशममात्रसे अन्य चार इन्द्रियोंके आवरणके उदयसे और मनआवरणके उदयसे एकेन्द्रिय जीव और अमनस्क मनरहित हैं। ___ आगें कोई ऐसा जाने कि एकेन्द्रिय जीवोंके चैतन्यताका अस्तित्व नहीं रहता होगा उसको दृष्टान्तपूर्वक चेतना दिखाते हैं।
अंडेसु पवढुंता गम्भत्था माणुसा य मुच्छगया । जारिसया तारिसया जीवा एगदिया णेयाः॥११३ ॥
___ संस्कृतछाया. अण्डेषु प्रवर्द्धमाना गर्भस्था मानुषाश्च मूच्छी गताः ।
यादृशास्तादृशा जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः ।। ११३ ।। पदार्थ-[यादृशाः] जिसप्रकार [अण्डेषु] पक्षियोंके अंडोंमें [प्रवर्द्धमानाः] बढतेहुये जो जीव हैं [तादृशाः] उसीप्रकार [एकेन्द्रियाः] एकेन्द्रियजातिके [जीवाः] जीव [ज्ञेयाः] जानने । भावार्थ-जैसें अंडेमें जीव बढता है परन्तु उपरिसे उसके उस्खासादिक वा जीव मालूम नहिं होता उसीप्रकार एकेन्द्रिय जीव प्रगट नहिं जाना जाता परन्तु अन्तर गुप्त जानलेना-जैसे वनस्पति अपनी हरितादि अवस्थावोंसे जीवत्व भावका अनुमान जनाती है। तैसें सब स्थावर अपने जीवनगुणगर्भित हैं [च] तथा [यादृशाः] जैसें [गभंस्थाः ] गर्भमें रहतेहुये जीव उपरिसे मालूम नहिं होते. जैसे जैसे गर्भ बढता है तैसें तैसें उसमें जीवका अनुमान किया जाता है. तथा [मूछ गताः] मूर्छाको प्राप्त हुये [मानुपाः] मनुष्य जैसें मृतकसदृश दीखते हैं परन्तु अन्तरविषै जीव गर्भित हैं । उसीप्रकार पांच प्रकारके स्थावरोंमें भी उपरिसे जीवकी चेष्टा मालूम नहीं होती. परन्तु आगमसे तथा उन जीवोंकी प्रफुल्लादि अवस्थावोंसे चैतन्य मालूम होता है। आगे द्विइन्द्रिय जीवोंके भेद दिखाते हैं।
संवुकमादुवाहा संखा सप्पी अपादगा य किमी। जाणंति रसं फासं जे ते वे इंदिया जीवाः ॥११४॥
संस्कृतछाया. संवूकमातृवाहाः शङ्खाः सुक्तयोऽपादकाः कृमयः ।
जानन्ति रसं स्पर्श ये ते द्वीन्द्रियाः जीवाः ॥ ११४ ॥ पदार्थ-[ये] जो [संवूकमातृवाहाः] संवूक कहिये क्षुद्रशंख अर मातृवाह तथा
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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[ शङ्खाः स्रुक्तयः ] संख सीपियें [ अपादकाः कृमयः ] पांवरहित गिंडोड़ा कृमि लट आदिक अनेक जातिके जीव हैं ते [ रसं स्पर्श ] रस और स्पर्शमात्रको अर्थात् जीभसे खाद और स्पर्शेन्द्रियसे शीतोष्णादिकको [ जानन्ति ] जानते हैं, इसकारण [ते] वे [ जीवाः ] जीव [ द्वीन्द्रियाः ] दो इन्द्रिय संयुक्त जानने ।
भावार्थ- स्पर्श रसना इन्द्रियोंके न्द्रियों और मनआवरणके उदयसे स्पर्श दुःखके अनुभवी मनरहित बेइन्द्रिय जानने । अब तेइन्द्रिय जीवके भेद दिखाते हैं.
आवरणका जब क्षयोपशम होय और बाकी इरसनाइन्द्रियसंयुक्त दो इन्द्रियों के ज्ञानसे सुख
जूगागुं भीमक्कुणपिपीलया विच्छियादिया कीडा । जाणंति रसं फासं गंधं ते इंदिया जीवा ॥ ११५ ॥
संस्कृतछाया.
यूकाकुम्भीमत्कुणपिपीलिका वृश्चिकादयः कीटाः ।
जानन्ति रसं स्पर्श गन्धं त्रींद्रियाः जीवाः ॥ ११५ ॥
पदार्थ – [ यूकाकुम्भीमत्कुणपिपीलिका वृश्चिकादयः ] जूं कुंभी खटमल चींटा वृश्चिक आदिक जो [कीटाः ] जीव हैं ते [ रसं स्पर्श ] रस और स्पर्श तथा [ गन्धं ] गन्ध इन तीन विषयोंको [ जानन्ति ] जानते हैं, इसकारण ये सब जीव [त्रींद्रियाः ] सिद्धान्तमें तेन्द्रिय कहे गये हैं ।
भावार्थ- जब इन संसारी जीवोंके स्पर्शन रसना नासिका इन तीन इन्द्रियों के आवरणका क्षयोपशम होय और अन्य इन्द्रियोंके आवरणका उदय होय तब तेइन्द्रिय जीव कहे जाते हैं ।
आगें चौइन्द्रियके भेद कहते हैं.
उद्दसमसयमक्खियमधुकर भमरा पतंग मादीया ।
रूपं रसं च गन्धं फासं पुण ते वि जाणंति ॥ ११६ ॥
संस्कृतछाया.
उद्दंशमशकमक्षिका मधुकरी भ्रमराः पतङ्गाद्याः ।
रूपं रसं च गन्धं स्पर्श पुनस्तेऽपि जानन्ति ॥ ११६॥
पदार्थ – [ उदंसमशक मक्षिकामधुकरी भ्रमरापतङ्गाद्याः] डांस मच्छर मक्खी मधुमक्खी भँवरा पतंगआदिक जीव [रूपं ] रूप [रसं] खाद [ गन्धं ] गन्ध [ पुनः] और [ स्पर्श ] स्पर्शको [ जानन्ति ] जानते हैं इस कारण [ते अपि ] वे निश्चय करके चौड़न्द्रिय जीव जानने ।
भावार्थ- जब इन संसारी जीवोंके स्पर्शन जीभ नासिका नेत्र इन चारों इन्द्रियों के आवरणका क्षयोपशम और कर्णइंद्रिय और मनके आवरणका उदय होय तब स्पर्श रस
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् गन्ध वर्ण इन चार विपयोंके ज्ञाता चार इन्द्रियसहित कर्ण और मनसे रहित चौइन्द्रिय । जीव होते हैं। अब पंचेन्द्रिय जीवोंके भेद कहते हैं.
सुरणरणारयतिरिया चण्णरसफासगंधसद्दण्ह । 'जलंचरथलचरखचरा वलिया पंचेंदिया जीवा ॥ ११७॥ .
संस्कृतछाया. सुरनरनारकतिर्यञ्चो वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दज्ञाः ।
जलचरस्थलचरखचरा वलिनः पञ्चेन्द्रिया जीवाः ॥ ११७ ॥ पदार्थ-[सुरनरनारकतिर्यञ्चः] देव मनुष्य नारकी और तिर्यञ्च गतिके जीव हैं ते [पञ्चेन्द्रियाः] पञ्चेन्द्रिय [जीवाः] जीव हैं जो कि [जलचरस्थलचरखचराः] जलचर भूमिचर व आकाशगामी हैं और [वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दज्ञाः] वर्ण रस गन्ध स्पर्श शब्द इन पांचों विषयोंके ज्ञाता हैं. तथा [वलिनः] अपनी क्षयोपशम शक्ति से बलवान् हैं ।
भावार्थ-जब संसारी जीवोंके पंचेन्द्रियोंके आवर्णका क्षयोपशम होय तब पांचों विषयके जाननहारे होते हैं । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं एक संज्ञी, एक असंज्ञी, जिन पंचेन्द्रिय जीवोंके मनआवरणका उदय होय वे तो मनरहित असंज्ञी हैं । और जिनके मनआवरणका क्षयोपशम होय वे मनसहित संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव होते हैं. अर्थात् तिर्यञ्च गतिमें मनसहित और मनरहित भी होते हैं । इसप्रकार इन्द्रियोंकी अपेक्षा जीवोंकी जातिका भेद कहा। अब इनही पांच जातिके जीवोंको चार गतिसंबंधसे संक्षेप कथन किया जाता है ।
देवा चउण्णिकाया मणुया पुण कस्मभोगभूमीया। तिरिया बहुप्पयारा णेरड्या पुढविभेयगदा ॥ ११८ ॥
संस्कृतछाया. देवाश्चतुर्निकायाः मनुजाः पुनः कर्मभोगभूमिजाः ।
तिर्यञ्चः वहुप्रकाराः नारकाः पृथिवीभेदगताः ॥ ११८ ॥ पदार्थ-देवाः ] देव देवगतिनामा कर्मके उदयसे जो देवशरीर पाते हैं सबसे उत्कृष्ट भोग भोगते हैं ते देव हैं सो [चतुर्निकायाः] चार प्रकारके हैं। एक भवनवासी दूसरे व्यन्तर तीसरे ज्योतिपी चौथे वैमानिक होते हैं । [पुनः] फिर [मनुजाः] मनुष्य हैं ते [कर्मभोगभूमिजाः] एक कर्मभूमिमें उपजते हैं दूसरे भोगभूमिमें उपजनेवाले इसप्रकार दो तरहके मनुष्य होते हैं और [ तिर्यञ्चः वहुप्रकाराः] तिर्यञ्चगतिके जीव एकेन्द्रियसे लगाकर सैनी पंचेन्द्रियपर्यन्त बहुत प्रकारके होते. हैं तथा [नारकाः पृथिवीभेदगताः] नारकी जीव हैं ते जितने नरक पृथिवीके भेद हैं उतने ही हैं, नरककी
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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पृथिवी सात हैं सो सात प्रकारके ही नारकी जीव हैं । देव नारकी मनुष्य ये तीन प्रकारके जीव तो पंचेन्द्रिय ही हैं और तिर्यञ्चगति में एकेन्द्रियादिक भेद हैं ।
आगें गतिआयुनामकर्मके उदयसे ये देवादिक पर्याय होते हैं इसकारण इन पर्यायोंका अनात्मखभाव दिखाते हैं ।
खीणे पुब्वणि गर्दिणामे आउसे च ते वि खलु । पापुण्णंतिय अण्णं गदिसाउस्सं सलेसवसा ॥ ११९ ॥
संस्कृतछाया.
क्षीणे पूर्वनिबद्धे गतिनाम्नि आयुपि च तेऽपि खलु । प्राप्नुवन्ति चान्यां गतिमायुष्कं खलेश्यावशात् ॥ ११९ ॥
पदार्थ – [ पूर्वनिवद्धे ] पूर्वकालमें बांधा हुवा [ गतिनानि ] गतिनामका कर्म [च] और [ आयुषि ] आयुनामा कर्मके [ क्षीणे ] अपना रसदेकर खिर जानेपर [ खलु ते अपि ] निश्चय करके वे ही जीव [ स्वलेश्यावशात् ] अपनी कषायगर्भित योगोंकी प्रवृत्तिरूप लेश्याके प्रभावसे [अन्यां गतिं ] अन्यगतिको [च] और [ आयुष्कं ] आयुको [ प्रासुवन्ति ] पाते हैं ।
भावार्थ — जीवोंके गति और आयु जो बंधती है सो कषाय और योगोंकी परिणति सें वंधती है. यह शृंखलावत् नियम सदैव चला जाता है अर्थात् एक गति और आयु कर्म खिरता है और दूसरा गति और आयुकर्म बंधता है इसीकारण संसारमार्ग कम नहिं होता - अज्ञानी जीव इसीप्रकार अनादि कालसे भ्रमते रहते हैं । आगें फिर भी इनका विशेष दिखाते हैं ।
एदे जीवनिकाया देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा । देहविणा सिद्धा भव्या संसारिणो अभव्वा य ॥ १२० ॥
संस्कृतछाया.
एते जीवनिकाया देहप्रविचारमाश्रिताः भणिताः ।
देहविहीनाः सिद्धाः भव्याः संसारिणोऽभव्याश्च ॥ १२० ॥
पदार्थ – [ एते ] पूर्वोक्त [ जीवनिकायाः ] चतुर्गतिसंबन्धी जीव [ देहमविचारं ] देहके पलटनभावको [आश्रिताः ] प्राप्तहुये हैं ऐसा वीतराग भगवान् ने [ भणिताः ] कहा है । और जो [ देहविहीनाः ] देहरहित हैं वे [ सिद्धाः ] सिद्ध जीव कहाते हैं । तथा [ संसारिणः] संसारी जीव हैं ते [ भव्याः ] मोक्षअवस्था होने योग्य [च] और [ अभव्याः ] मुक्तभावकी प्राप्तिके अयोग्य हैं ।
भावार्थ - लोकमें जीव दो प्रकारके हैं । एक देहधारी और एक देहरहित । देहधारी तो संसारी हैं देहरहित सिद्धपर्यायके अनुभवी हैं । संसारी जीवोंमें फिर दो भेद हैं ।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् एक भव्य और दूसरे अभव्य. जो जीव शुद्धस्वरूपको प्राप्त होंयगे उनको भव्य कहते हैं। और जिनके शुद्धस्वभावके प्राप्त होनेकी शक्ति ही नहीं उनको अभव्य कहते हैं. जैसे एक मूंगका दाना तो ऐसा होता है कि वह सिजानेसे सीज जाता है अर्थात् पक जाता है और कोई २ मूंग ऐसा होता है कि उसके नीचें कितनी ही लकड़ियं जलावो वह सीजता ही नहीं, उसको कोरडू कहते हैं । ___ आगें सर्वथा प्रकार व्यवहारनयाश्रित ही जीवोंको नहिं कहे जाते कथंचित् अन्य प्रकार• भी हैं सो दिखाते हैं।
ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता। जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवंति ॥ १२१ ॥
संस्कृतछाया. - नहीन्द्रियाणि जीवाः कायाः पुनः पट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः ।
यद्भवति तेषु ज्ञानं जीव इति च तत्प्ररूपयन्ति ।। १२१ ॥ पदार्थ- [इन्द्रियाणि] स्पर्शादि इन्द्रियें [जीवाः] जीवद्रव्य [न हि] निश्चय करके नहीं है । [पुनः] फिर [षट्प्रकाराः] छहप्रकार [कायाः] पृथिवीआदिक काय [प्रज्ञप्ताः] कहे हैं वे भी निश्चय करके जीव नहीं है । तब जीव कौन है? [यत्] जो [तेषु] तिन इन्द्रिय और शरीरोंमें [ज्ञानं] चैतन्यभाव [भवति ] है [तत् ] उसको ही [जीव इति] जीव इस नामका द्रव्य [प्ररूपयंति] महापुरुष कहते हैं।
भावार्थ-जो एकेन्द्रियादिक और पृथिवीकायादिक व्यवहारनयकी अपेक्षा जीवके मुख्य कथनसे जीव कहे जाते हैं. वे अनादि पुद्गल जीवके सम्बन्धसे पर्याय होते हैं । निश्चयनयसे विचारा जाय तो स्पर्शनादि इन्द्रिय, पृथिवीकायादिक काया चैतन्यलक्षणी जीवके स्वभावसे भिन्न हैं जीव नहीं हैं. उन ही पांच इन्द्रिय षट्कायोंमें जो खपरका जाननहारा है अपने ज्ञान गुणसे यद्यपि गुणगुणीभेदसंयुक्त है तथापि कथंचित् अभेदसंयुक्त है। बह अविनाशी अचल निर्मल चैतन्यस्वरूप जीव पदार्थ जानना । अनादि अविद्यासे देहधारी होकर पंच इंद्रिय विषयोंका भोक्ता है । मोही होकर मत्त पुरुषकी समान परद्रव्यमें ममत्वभाव करता है मोक्षके सुखसे पराङ्मुख है. ऐसा जो संसारी जीव है उसका जो स्वाभाविक भावसे विचार किया जाय तो निर्मल चैतन्यविलासी आत्माराम है। आगें अन्य अचेतनद्रव्योंमें न पायी जाय ऐसी कौन २ करतूत है ऐसा कथन करते हैं।
जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं विभेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं ॥ १२२ ॥
संस्कृतछाया. जानाति पश्यति सर्वमिच्छति सौख्यं विभेति दुःखात् । करोति हितमहितं वा भुङ्क्ते जीवः फलं तयोः ॥ १२२ ॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। __ पदार्थ-[जीवः] आत्मा [ सर्व ] समस्त ही [जानाति] जानता है [पश्यति] सबको देखता है [सौख्यं] सुखको [इच्छति] चाहता है और [दुःखात् ] दुःखसे [विभेति] डरता है [हितं] शुभाचारको [वा] अथवा [अहितं ] अशुभाचारको [करोति] करता है और [तयोः] उन शुभ अशुभ क्रियावोंके [ फलं ] फलको [ भुते ] भोगता है ।
भावार्थ-ज्ञानदर्शनक्रियाका कर्ता जीव ही है । जीवका चैतन्य स्वभाव है इस कारण यह ज्ञानदर्शनक्रियासे तन्मय है. उसहीका संबन्धी जो यह पुद्गल है सो चैतन्य क्रियाका कर्ता नहीं है. जैसें आकाशादि चारि अचेतनद्रव्य भी कर्त्ता नहीं है । सुखकी अभिलाषा दुःखसे डरना शुभाशुभ प्रवर्तन इत्यादि क्रियावोंमें संकल्प विकल्पका कर्ता जीव ही है । इष्ट अनिष्ट पदार्थोंकी भोगक्रियाका, अपने सुखदुःखरूप परिणामक्रियाका कर्ता एक जीव पदार्थको ही जानना. इनका कर्ता और कोई नहीं है । ये जो क्रियायें कहीं हैं, वे सब शुद्ध अशुद्ध चैतन्यभावमयी हैं इसकारण ये क्रियायें पुद्गलकी नहीं हैं आत्माकी ही हैं। आगे जीवअजीवका व्याख्यान संक्षेपतासे दिखाते हैं।
एवमभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पजएहिं बहुगेहिं । अभिगच्छदु अजीवं णाणंतरिदेहिं लिंगेहिं ॥ १२३ ॥
संस्कृतछाया. एवमभिगम्य जीवमन्यैरपि पर्यायैर्बहुकैः ।
अभिगच्छत्वजीवं ज्ञानान्तरितैलिङ्गैः ॥ १२३ ॥ पदार्थ-[एवं] इसप्रकार [अन्यैः अपि] अन्य भी [वहुकैः पर्यायैः] अनेक पर्यायोंसे [जीवं ] आत्माको [अभिगम्य ] जानकरके [ज्ञानान्तरितैर्लिङ्गैः] ज्ञानसे भिन्न स्पशरसगन्धवर्णादि चिन्होंसे [अजीवं] पुद्गलादिक पांच अजीव द्रव्योंको [अभिगच्छतु] जानो।
भावार्थ-जैसें पूर्वमें जीवकी करतूतें दिखाई तैसें ही व्यवहारनयसे कर्मपद्धतिके विचारमें जीवसमास गुणस्थान मार्गणास्थान इत्यादि अनेकप्रकार पर्यायविलासकी विचित्रतामें जीवपदार्थ जान लेना। और अशुद्ध निश्चयनयसे कदाचित् मोहरागद्वेषपरिणतिसे उत्पन्न अनेकप्रकार अशुद्ध पर्यायोंसे जीव पदार्थ जाना जाता है । और कदाचित् मोहजनित अशुद्ध परणतिके विनाश होनेसे शुद्ध चेतनामयी अनेक पर्यायोंसे जीव पदार्थ जाना जाता है-इत्यादि अनेक भगवत्प्रणीत आगमके अनुसार नयविलासोंसे जीव पदार्थको जाने और अजीवपदार्थोंका स्वरूप जानें सो अजीवद्रव्य जड़खभावोंकेद्वारा जाने जाते हैं. अर्थात् ज्ञानसे भिन्न अन्य स्पर्शरसगन्धवर्णादिक चिन्होंसे जीवसे वंधेहुये कर्म नोकर्मादिरूप तथा नहिं बन्धेहुये परमाणु आदिक सव ही अजीव हैं । जीव अजीव पदार्थोंके लक्षणका जो भेद किया जाता है सो एकमात्र भेदविज्ञानकी सिद्धिके निमित्त है । इसप्रकार यह जीवपदार्थका व्याख्यान पूर्ण हुवा ।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगें अजीव पदार्थका व्याख्यान किया जाता है। . . आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु णस्थि जीवगुणा । तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स चेदणदा ॥ १२४ ॥
संस्कृतछाया. आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेपु न सन्ति जीवगुणाः ।।
तेषामचेतनत्वं भणितं जीवस्य चेतनता ।। १२४ ।। . पदार्थ-[आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेपु] आकाशद्रव्य कालद्रव्य पुद्गलद्रव्य धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य इन पांचों द्रव्योंमें [जीवगुणाः] सुखसत्ता बोध चैतन्यादि जीवके गुण [न] नहीं [सन्ति] हैं, [तेषां] उन आकाशादि पंचद्रव्योंके [अचेतनत्वं] चेतनारहित जड़भाव [भणितं] वीतराग भगवानने कहा है [चेतनता] चैतन्यभाव [जीवस्य ] जीवद्रव्यके ही कहा गया है।
भावार्थ-आकाशादि पांच द्रव्य अचेतन जानने क्योंकि उनमें एक जड़ ही धर्म है । जीवद्रव्यमात्र एक चेतन है। आगे आकाशादिकमें निश्चय करके चैतन्य है ही नहीं ऐसा अनुमान दिखाते हैं,
सुहदुक्खजाणणा वा हिदपरियम्मं च अहिदीरत्तं । जस्स ण विजादि णिचं तं समणा विंति अजीवं ॥ १२५ ॥
संस्कृतछाया. सुखदुःखज्ञानं वा हितपरिकर्म चाहितभीरुत्वं ।
यस्य न विद्यते नित्यं तं श्रमणा विदंत्यजीवं ॥ १२५ ॥ पदार्थ- [यस्य] जिस द्रव्यके [ सुखदुःखज्ञानं ] सुखदुःखको जानना [वा] अथवा [हितपरिकर्म] उत्तम कार्योंमें प्रवृत्ति [च] और [अहितभीरुत्वं] दुःखदायक कार्यसे भय [न विद्यते] नहीं है [श्रमणाः] गणधरादिक [तं नित्यं] सदैव उस द्रव्यको [अजीवं] अजीव ऐसा नाम [विदंति] जानते हैं ।
भावार्थ-जिन द्रव्योंमें सुखदुःखका जानना नहीं है और जिन द्रव्योंमें इष्ट अनिष्ट कार्य करनेकी शक्ति नहीं है, उन द्रव्योंके विषयमें ऐसा अनुमान होता है कि वे चेतना गुणसे रहित हैं, सो वे आकाशादिक ही पांच द्रव्य हैं । आगें यद्यपि जीवपुद्गलका संयोग है तथापि आपसमें लक्षणभेद है ऐसा भेद दिखाते हैं।
संठाणा संघादा वण्णरसप्फासगंधसद्दा य । पोग्गलवप्पभवा होति गुणा पज्जया य वह ॥ १२६ ॥ अरसमरूवमगंधमव्वत्तं चेदणागुणमसदं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंहाणं ॥ १२७॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः।
संस्कृतछाया. संस्थानानि संघाताः वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दाश्च । पुद्गलद्रव्यप्रभवा भवन्ति गुणाः पर्यायाश्च बहवः ॥ १२६ ।। अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशव्दं ।
जानीह्यलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानं ।। १२७ ।। पदार्थ- [संस्थानानि ] जीवपुद्गलके संयोगमें जो समचतुरस्रादि पट् संस्थान हैं और [संघाताः] वज्रवृपभ नाराच आदि संहनन हैं [च] और [वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दाः ] वर्ण ५ रस ५ स्पर्श ८ गन्ध २ और शब्दादि [ पुद्गलद्रव्यप्रभवाः] पुद्गलद्रव्यसे उत्पन्न [वहवः ] बहुत जातिके [गुणाः] सहभू वर्णादि गुण [च] और [पर्यायाः] संस्थानादि पर्याय [भवन्ति ] होते हैं. और [जीवं ] जीवद्रव्यको [अरसं] रसगुणरहित, [अरूपं] वर्णरहित [अगन्धं] गन्धरहित [अव्यक्तं] अप्रगट [चेतनागुणं] ज्ञानदर्शन गुणवाला [अशब्दं] शब्दपर्यायरहित [अलिङ्गग्रहणं] इन्द्रियादि चिह्नोंसे ग्रहण करने में नहिं आवै ऐसा [अनिर्दिष्टसंस्थानं] निराकार [जानीहि] जान । __ भावार्थ-अनादि मिथ्यावासनासे यह आत्मद्रव्य पुद्गलके संबंधसे विभावके कारण
औरका और प्रतिभासा है उस चित् और जड़ग्रन्थिके भेद दिखानेकेलिये वीतराग सर्वज्ञने पुद्गल जीवका लक्षणभेद कहा है उस भेदको जो जीव जान करके भेदविज्ञानी अनुभवी होते हैं वे मोक्षमार्गको साध निराकुल सुखके भोक्ता होते हैं. इस कारण जीवपुद्गलका लक्षणभेद दिखाया जाता है कि जो आत्मशरीर इन दोनोंके संबन्ध स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणात्मक है शब्द संस्थान संहननादि मूर्तपर्यायरूपसे परिणत है और इन्द्रियग्रहणयोग्य है सो सब पुद्गलद्रव्य है । और जिसमें स्पर्शरसगन्धवर्ण गुण नहीं, शब्दतें अतीत आकाररहित हैं, अन्तर्गुप्त अतीन्द्रिय जो इन्द्रियोंसे ग्राह्य नहीं; चेतनागुणमयी, मूर्तीक अमूर्तीक. अजीव पदार्थोंसे भिन्न अमूर्त वस्तु मात्र है वह ही जीव पदार्थ जानना । इसप्रकार जीव अजीव पदार्थोंमें लक्षणभेद है। ___ आगें इन ही जीवअजीव पदार्थोके संयोगसे उत्पन्न जो सप्त पदार्थ हैं तिनके कथननिमित्त परिभ्रमणरूप कर्मचक्रका स्वरूप कहा जाता है ।
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ गदिमधिगद्स्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो च दोसो वा ॥ १२९ ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्वालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा॥१३०॥
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
संस्कृतछाया.
यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः । परिणामात्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः ।। १२८ ।। गतिमधिगतस्य देहो देहादिन्द्रियाणि जायन्ते । तैस्तु विपयग्रहणं ततो रागो वा द्वेपो वा ।। १२९ ॥ जायते जीवस्यैवं भावः संसारचक्रवाले |
इति जिणवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा ॥ १३० ॥
पदार्थ – [ यः ] जो [खलु] निश्चय करके [ संसारस्थः] संसार में रहनेवाला [जीवः ] अशुद्ध आत्मा [ततः तु ] उससे तो [ परिणामः ] अशुद्धभाव और [ परिणामात् ] उस रागद्वेषमोहजनित अशुद्धपरिणामोंसे [कर्म] आठप्रकारका कर्म [ भवति ] होता हैं। [कर्मणः] उस पुद्गलमयी कर्मसे [ गतिपु] चार गतियों में [ गतिः ] नारकादि गतियोंमें जाना [ भवति ] होता है [ गतिं ] गतिको [ अधिगतस्य ] प्राप्त होनेवाले जीवके [देहः ] शरीर और [ देहात् ] शरीरसे [ इन्द्रियाणि ] इन्द्रियें [ जायन्ते ] होतीं हैं [तु] और [:] उन इन्द्रियोंसे [ विषयग्रहणं ] स्पर्शनादि पांचप्रकारके विषयोंका राग बुद्धिसे ग्रहण [वा] अथवा [ततः] उस इष्ट अनिष्ट पदार्थसे [ रागो ] राग [ वा] अथवा [ द्वेपो ] द्वेषभाव उपजता है । फिर उनसे पूर्वक्रमानुसार कर्मादिक उपजते हैं यही परिपाटी जबतक काललव्धि नहिं होती तबतक इसीप्रकार चली जाती है [ संसारचक्रवाले] संसाररूपी चक्रके परिभ्रमणमें [जीवस्य ] राग द्वेषभावों से मलीन आत्माके [ एवं भावः ] इसी प्रकारका अशुद्धभाव [जायते] उपजता है [ स भावः ] वह अशुद्धभाव [ अनादिनिधनः ] अभव्य जीवकी अपेक्षा अनादि अनन्त है [वा] अथवा [ सनिधनः ] भव्य जीवकी अपेक्षा अन्तकरके सहित है । [ इति ] इसप्रकार [जिनवरैः ] जिनेन्द्र भगवान् करकैं [ भणितः ] कहा गया है.
भावार्थ - इस संसारी जीवके अनादि बंधपर्यायके वशसे सरागपरिणाम होते हैं। उनके निमित्तसे द्रव्यकर्मकी उत्पत्ति है, उससे चतुर्गति में गमन होता है, चतुर्गतिगमन से देह, देहसे इन्द्रियें, इन्द्रियोंसे इष्टानिष्ट पदार्थोंका ज्ञान होता है, उससे रागद्वेपबुद्धि और उससे स्निग्धपरिणाम होते हैं उनसे फिर कर्मादिक होते हैं । इसीप्रकार परस्पर कार्यकारणरूप जीव पुद्गल परिणाममयी कर्मसमूहरूप संसारचक्रमें जीवके अनादिअनंत अनादिसान्त कुम्हारके चाककी समान परिभ्रमण होता है. इससे यह बात सिद्ध हुई कि-पुद्गलपरिणामका निमित्त पाकर जीवके अशुद्ध परिणाम होते हैं, और उन अशुद्ध परिणामोंके निमित्तसे पुद्गलपरिणाम होते हैं ।
आगें पुण्यपापपदार्थका व्याख्यान करते हैं सो प्रथम ही पुण्यपापपदार्थों के योग्य परिणामोंका स्वरूप दिखाते हैं.
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावस्मि । विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो॥१३१॥
संस्कृतछाया. मोहो रागो द्वेषश्चित्तप्रसादश्च यस्य भावे ।
विद्यते तस्य शुभो वा अशुभो वा भवति परिणामः ।। १३१ ॥ पदार्थ- [यस्य] जिसके [भावे] भावोंमें [मोहः] गहलरूप अज्ञानपरिणाम [रागः] परद्रव्योंमें प्रीतिरूप परिणाम [द्वेषः] अप्रीतिरूप परिणाम [च] और [चित्तप्रसादः] चित्तकी प्रसन्नता [विद्यते] प्रवर्ते है [तस्य] उस जीवके [शुभः] शुभ [वा] अथवा [अशुभः] अशुभ ऐसा [परिणामः] परिणमन [भवति ] होता है ।
भावार्थ-इस लोकमें जीवके निश्चयसे जब दर्शनमोहनीय कर्मका उदय होता है तब उसके रसविपाकसे जो अशुद्ध तत्त्वके अश्रद्धानरूप परिणाम होय उसका नाम मोह है । और चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे जो इसके रसविपाकका कारण पाय इष्ट अनिष्ट पदार्थों में जो प्रीति अप्रीतिरूप परिणाम होय उसका नाम राग द्वेष है । उसही चारित्रमोह कर्मका जब मंद उदय हो और उसके रसविपाकसे जो कुछ विशुद्ध परिणाम होय तिसका नाम चित्तप्रसाद है। इसप्रकार जिस जीवके ये भाव होंहि तिसके अवश्यमेव शुभअशुभ परिणाम होते हैं। जहां देवधर्मादिकमें प्रसस्त राग और चित्तप्रसादका होना ये दोनों ही शुभपरिणाम कहाते हैं । और जहां मोहद्वेष होंहि और जहां इन्द्रियोंके विषयोंमें तथा धनधान्यादिकोंमें अप्रसस्त राग होय सो अशुभराग कहाता है । आगें पुण्यपापका स्वरूप कहते हैं ।
सुहपरिणामो पुण्णं अनुहो पावंति हवदि जीवस्स । दोण्हं पोग्गलमत्तो भावो कम्मत्तणं पत्तो ॥ १३२ ॥
संस्कृतछाया. शुभपरिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भवति जीवस्य ।
द्वयोः पुद्गलमात्रो भावः कर्मत्वं प्राप्तः ॥ १३२ ॥ पदार्थ-[जीवस्य] जीवके [शुभपरिणामः] सक्रियारूप परिणाम [पुण्यं] पुण्यनामा पदार्थ है [अशुभः] विषयकषायादिकमें प्रवृत्ति है सो [पापं इति ] पाप ऐसा पदार्थ [भवति] होता है [ द्वयोः] इन दोनों शुभाशुभ परिणामोंका [ पुद्गलमात्रः भावः] द्रव्यपिण्डरूप ज्ञानावरणादि परिणाम जो है सो [कर्मत्वं ] शुभाशुभ कर्मावस्थाको [प्राप्तः] प्राप्त हुवा है । ___ भावार्थ-संसारी जीवके शुभअशुभके भेदसे दो प्रकारके परिणाम होते हैं । उन परिणामोंका अशुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा जीव कर्ता है शुभपरिणाम कर्म है वही शुभ परिणाम द्रव्यपुण्यका निमित्तत्वसे कारण है। पुण्यप्रकृतिके योग्य वर्गणा तब होती है जब कि शुभपरिणामका निमित्त मिलता है । इसकारण प्रथम ही भावपुण्य होता है तत्पश्चात्
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् द्रव्य पुण्य होता है । इसीप्रकार अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा जीव की है अशुभ परिणाम कर्म है उसका निमित्त पाकर द्रव्यपाप होता है इसलिये प्रथम ही भावपाप होता है तत्पश्चात् द्रव्यपाप होता है । और निश्चयनयकी अपेक्षा पुद्गल कर्ता है शुभप्रकृति परिणमनरूप द्रव्यपुण्यकर्म है । सो जीवके शुभपरिणामका निमित्त पाकर उपजता है। और निश्चयनयसे पुद्गलद्रव्य कर्ता है । अशुभप्रकृति परिणमनरूप द्रव्यपापकर्म है सो आत्माके ही अशुभ परिणामोंका निमित्त पाकर उत्पन्न होता है । भावित पुण्यपापका उपादान कारण आत्मा है, द्रव्य पापपुण्यवर्गणा निमित्तमात्र है । द्रव्यत पुण्यपापका उपादान कारण पुद्गल है. जीवके शुभाशुभ परिणाम निमित्तमात्र हैं । इसप्रकार आत्माके निश्चय नयसे भावितपुण्यपाप अमूर्तीक कर्म हैं और व्यवहारनयसे द्रव्यपुण्यपाप मूर्तीक कर्म हैं। आगे मूर्तीक कर्मका स्वरूप दिखाते हैं
जह्मा कम्मरस फलं विसयं फासेहिं भुंजदे नियदं । जीवेण सुहं दुक्खं तमा कम्माणि मुत्ताणि ॥ १३३ ।।
संस्कृतछाया. यस्मात्कर्मणः फलं विषयः स्पर्शेर्भुज्यते नियतं ।
जीवेन सुखं दुःखं तस्मात्कर्माणि मूर्त्तानि ॥ १३३ ।। ‘पदार्थ-[यस्मात् ] जिस कारणसे [कर्मणः] ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मोंका [सुखं । दुःखं] सुखदुखरूप [फलं] रस सो ही हुवा [विषयः] सुखदुःखका उपजानेहारा इष्टअनिष्टरूप मूर्तपदार्थ सो [स्पर्शः] मूर्तीक इन्द्रियोंसे [नियतं] निश्चयकरकें [जीवेन] आत्माद्वारा [भुज्यते] भोगा जाता है [तस्मात् ] तिसकारणसे [कर्माणि] ज्ञानावरणा दिकर्म [ मूर्त्तानि ] मूर्तीक हैं।
भावार्थ-कर्मोंका फल इष्ट अनिष्ट पदार्थ है सो मूर्तीक है इसीसे मूर्तीक म्पर्शादि इन्द्रियोंसे जीव भोगता है । इसकारण यह वात सिद्ध भई कि कर्म मूर्तीक हैं अर्थात् ऐसा अनुमान होता है क्योंकि जिसका फल मूर्तीक होता है उसका कारण भी मूर्तीक होता है सो कर्म मूर्तीक हैं. मूर्तीक कर्मके सम्बन्धसे ही मूर्तफल अनुभवन किया जाता है । जैसे चूहेका विष मूर्तीक है सो मूर्तीक शरीरसे ही अनुभवन किया जाता है । ___ आगें मूर्तीक कर्मका और अमूर्तीक जीवका बंध किसप्रकार होता है सो सूचनामात्र कथन करते हैं।
भुत्ति फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण वंधमणुवदि। जीवो मुत्तिविरहिंदो गादि ते तेहिं उग्गहदि ॥ १३४ ॥
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारंः ।
संस्कृतछाया. मूर्तः स्पृशति मूर्त मूर्तो मूर्तेन बन्धमनुभवति ।
जीवो मूर्तिविरहितो गाहति तानि तैरवगाह्यते ॥ १३४ ॥ पदार्थ- [मृतः] बंधपर्यायकी अपेक्षा मूर्तीक संसारी जीवके कर्मपुंज [मूर्त] मूर्तीक कर्मको [स्पृशति] स्पर्शन करता है इसकारण [सूर्तः ] मूर्तीक कर्मपिण्ड जो है सो [सून] मूर्तीक कर्मपिण्डसे [वन्धं] परस्पर बन्धावस्थाको [अनुभवति ] प्राप्त होता है। [मूर्तिविरहितः ] मूर्तिभावसे रहित [जीवः ] जीव [तानि] उन कर्मों के साथ वन्धावस्थावोंको [गाहति] प्राप्त होता है । [तैः ] उन ही कर्मोंसे [जीवः] आत्मा जो है सो [अवगाह्यते] एक क्षेत्रावगाह कर बंधता है। ___ भावार्थ-इस संसारी जीवके अनादि कालसे लेकर मूर्तीक कर्मोंसे सम्बन्ध है. वे कर्म स्पर्शरसगन्धवर्णमयी हैं । इससे आगामी मूर्तकर्मोंसे अपने स्निग्धरूखे गुणोंके द्वारा वन्धता है, इसकारण मूर्तीक कसे मूर्तीकका बन्ध होता है। फिर निश्चयनयकी अपेक्षा जीव अमूर्तीक है. अनादिकर्मसंयोगसे रागद्वेषादिक भावोंसे स्निग्धरूक्षभावपरिणया हुवा नवीन कर्मपुंजका आस्रव करता है. उस कर्मसे पूर्ववद्धकर्मकी अपेक्षा बन्ध अवस्थाको प्राप्त होता है । यह आपसमें जीवकर्मका बन्ध दिखाया-इसहीप्रकार अमूर्तीक आत्माको मूर्तीकपुण्यपापसे कथंचित्प्रकार वन्धका विरोध नहीं है । इसप्रकार पुण्यपापका कथन पूर्ण हुवा । अव आस्रव पदार्थका व्याख्यान करते हैं.
रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो । चित्ते पत्थि कलुस्सं पुण्णं जीवस्त आलवदि ॥ १३५ ॥
संस्कृतछाया. रागो यस्य प्रशस्तोऽनुकम्पासंश्रितश्च परिणामः ।
चित्ते नास्ति कालुष्यं पुण्यं जीवस्यास्रवति ॥ १३५॥ पदार्थ-[यस्य] जिस जीवके [रागः] प्रीतिभाव [प्रशस्तः] भला है [च] और [अनुकम्पासंश्रितः] अनुकम्पाके आश्रित अर्थात् दयारूप [परिणामः] भाव है तथा [चित्ते] चित्तमें [कालुप्यं ] मलीनभाव [नास्ति नहीं है [तस्य जीवस्य ] उस जीवके [पुण्यं ] पुण्य [आस्रवति] आता है । ___ भावार्थ-शुभ परिणाम तीन प्रकारके हैं अर्थात्-प्रशस्तराग १ अनुकम्पा २ और चित्तप्रसाद ३ ये तीनों प्रकारके शुभपरिणाम द्रव्यपुण्यप्रकृतियोंको निमित्त मात्र है इसकारण जो शुभभाव हैं वे तो भावास्रव हैं. तत्पश्चात् उन भावोंके निमित्तसे शुभयोगहारकर जो शुभ वर्गणायं आती हैं वे द्रव्यपुण्यात्रव हैं ।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगे प्रशस्त रागका स्वरूप दिखाते हैं.
अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा। अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुचंति ॥ १३६ ॥
संस्कृतछाया. अरहत्सिद्धसाधुपु भक्तिर्द्धर्मे या च खलु चेष्टा ।
अनुगमनमपि गुरूणां प्रशस्तराग इति ब्रुवन्ति (?) ।। १३६ ।। पदार्थ-[अरहत्सिद्धसाधुपु] अरहंत सिद्ध और साधु इन तीन पदोंम जो [भक्तिः] स्तुति वंदनादिक [च] और [या] जो [धर्मे] अरहंत प्रणीत धर्ममें [खल] निश्चय करके [चेष्टा] प्रवृत्ति, [ गुरूणां] धर्माचरणके उपदेष्टा आचार्यादिकोंका [अनुगमनं अपि] भक्ति भावसहित उनके पीछे होकर चलना अर्थात् उनकी आज्ञानुसार चलना भी [इति] इसप्रकार महापुरुष [प्रशस्तरागः] भला रागको [ब्रुवंति] कहते हैं।
भावार्थ-अरहंतसिद्धसाधुवोंमें भक्तिव्यवहार चारित्रका आचरण और आचार्यादिक महन्त पुरुषोंके चरणोंमें रसिक होना इसका नाम प्रशस्त राग है । क्योंकि शुभ रागसे ही पूर्वोक्त प्रवृत्ति होती हैं । यह प्रशस्तराग स्थूलताकर अकेला भक्तिहीके करनेवाले अज्ञानी जीवोंके जानना और किसी काल ज्ञानीके भी होता है । कैसे ज्ञानीके होता है ? कि जो ज्ञानी उपरिके गुणस्थानोंमें स्थिर होनेको असमर्थ हैं उनके यह प्रशस्त राग होता है सो भी कुदैवादिकोंमें राग निषेधार्थ अथवा तीव्र विषयानुरागरूप ज्वरके दूर करनेकेलिये होता है । आगे अणुकम्पा अर्थात् दयाका स्वरूप कहते हैं । तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्टण जो दु दुहिमणो। पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ॥ १३७ ॥
संस्कृतछाया. तृपितं बुभुक्षितं वा दुःखितं दृष्ट्वा यस्तु दुःखितमनाः ।
प्रतिपद्यते तं कृपया तस्यैपा भवत्यनुकम्पा ।। १३७ ॥ पदार्थ-तृषितं ] जो कोई जीव तृपावंत हो [वा] अथवा [बुभुक्षितं] क्षुधातुर होय वा [दु:खितं] रोगादिकरि दुःखित होय [तं] उसको [दृष्ट्वा ] देखकर [ यातु] जो पुरुष [दुःखितमनाः] उसकी पीड़ासे आप दुःखी होता हुवा [कृपया] दयाभाव करकें [प्रतिपद्यते] उस दुःखके दूर करनेकी क्रियाको प्राप्त होता है [तस्य] उस पुरुपके . [एपा] यह [अनुकम्पा] ढ़या [भवति ] होती है।
भावार्थ- दयाभाव अज्ञानीके भी होता है और ज्ञानीके भी होता है परन्तु इतना विशेप है कि अज्ञानीके जो दयाभाव है सो किस ही पुरुषको दुःखित देखकर तो उसके दुःख दूर करनेके उपायमें अहंबुद्धिसे आकुलचित्त होकर प्रवते है और जो ज्ञानी
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । नीचेंके गुणस्थानोंमें प्रवृत्त है, उसके दयाभाव जो होता है सो जब दुःखसमुद्रमें मग्न संसारीजीवोंको जानता है तब ऐसा जानकर किसी कालमें मनको खेद उपजाता है। आगे चित्तकी कलुषताका स्वरूप दिखाते हैं ।
कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज । जीवस्स कुणदि खोहं कलुलो त्ति य तं वुधा वेति ॥१३८॥
संस्कृतछाया. क्रोधो वा यदा मानो माया लोभो वा चित्तमासाद्य ।
जीवस्य करोति क्षोभं कालुण्यमिति च तं बुधा वदन्ति ।। १३८ ॥ पदार्थ- [यदा] जिस समय [क्रोधः] क्रोध [वा] अथवा [मानः] अभिमान [वा] अथवा [माया] कुटिलभाव अथवा [लोभः] इष्टमें प्रीतिभाव [चित्तं] मनको [आसाद्य ] प्राप्त होकर [जीवस्य] आत्माके [क्षोभं] अतिआकुलतारूप भाव [करोति ] करता है [तं] उसको [बुधाः] जो बडे महन्त ज्ञानी हैं ते [कालुष्यंइति] कलुषभाव ऐसा नाम [वदन्ति ] कहते हैं । ___ भावार्थ-जब क्रोध मान माया लोभका तीव्र उदय होता है तब चित्तको जो कुछ क्षोभ होय उसको कलुषभाव कहते हैं । उनही कषायोंका जब मंद उदय होता है तव चित्तकी प्रसन्नता होती है उसको विशुद्धभाव कहते हैं सो वह विशुद्ध चित्तप्रसाद किसी कालमें विशेष कषायोंकी मंदता होनेपर अज्ञानी जीवके होता है। और जिस जीवके कषायका उदय सर्वथा निवृत्त नहीं होय, उपयोगभूमिका सर्वथा निर्मल नहिं हुई होय, अन्तरभूमिकाके गुणस्थानोंमें प्रवत्त है उस ज्ञानी जीवके भी किसीकालमें चित्तप्रसादरूप निर्मलभाव पाये जाते हैं । इसप्रकार ज्ञानी अज्ञानीके चित्तप्रसाद जानना। आगे पापात्रवका स्वरूप कहते हैं.
चरिया पमादवहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु । परपरितावापवादो पावस्स य आसवं कुणदि ॥ १३९॥.
संस्कृतछाया. चर्या प्रमादवहुला कालुप्यं लोलता च विषयेषु ।
परपरितापापवादः पापस्य चास्रवं करोति ।। १३९ ।। पदार्थ-[प्रमादवहुला चर्या ] बहुत प्रमादसहित क्रिया [कालुष्यं] चित्तकी मलीनता [च] और [विषयेषु] इन्द्रियोंके विषयोंमें [लोलता] प्रीतिपूर्वक चपलता [च] और [परपरितापापवादः ] अन्यजीवोंको दुख देना अन्यकी निंदा करनी वुरा बोलना इत्यादि आचरणोंसे अशुभी जीव [पापस्य ] पापका [आस्रवं] आस्रव [करोति ] करता है ।
भावार्थ-विपय कपायादिक अशुभक्रियावोंसे जीवके अशुभपरिणति होती है,
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् उसको भावपापास्रव कहते हैं. उसी भावपापास्रवका निमित्त पाकर पुद्गलवर्गणारूप जो । द्रव्यकर्म हैं सो योगोंके द्वारसे आते हैं उसका नाम द्रव्यपापास्त्रव है । __ आगें पापास्रवके कारणभूत भाव विस्तारसे दिखाते हैं ।
सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अत्तरदाणि । णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पानप्पदा होंति ॥ १४०॥
संस्कृतछाया. संज्ञाश्च त्रिलेश्या इन्द्रियवशता चार्त्तरौद्रे ।
ज्ञानं च दुःप्रयुक्तं मोहः पापप्रदा भवन्ति ॥ १४० ॥ पदार्थ-[संज्ञाः] चार संज्ञा [च] और [विलेल्याः ] तीन लेश्या [च] और [इन्द्रियवशता] इन्द्रियोंके आधीन होना [च] तथा [आत्तरौद्रे] आर्त और रौद्रध्यान
और [दुःप्रयुक्तं ज्ञानं] सक्रियाके अतिरिक्त असत्क्रियावोंमें ज्ञानका लगाना तथा [मोहः] दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय कर्मके समस्तभाव हैं ते [पापप्रदाः] पापरूप आवस्त्रयके कारण [भवन्ति ] होते हैं।
भावार्थ-तीव्रमोहके उदयसे आहार भय मैथुन परिग्रह ये चार संज्ञायें होती हैं और तीव्र कषायके उदयसे रंजित योगोंकी प्रवृत्तिरूप कृष्ण नील कापोत ये तीन लेश्यायें होती हैं । रागद्वेषके उत्कृष्ट उदयसे इन्द्रियाधीनता होती है । रागद्वेपके अति विपाकसे इष्टवियोग अनिष्टसंयोग पीड़ाचिन्तवन और निदानबंध ये चार प्रकारके आर्त ध्यान होते हैं। तीव्र कपायोंके उदयसे जब अतिशय क्रूरचित्त होता है तब हिंसानंदी मृषानंदी स्तेयानंदी विषयसंरक्षणानंदीरूप चार प्रकारके रौद्रध्यान होते हैं । दुष्ट भावोंसे धर्मक्रियांसे अतिरिक्त अन्यत्र उपयोगी होना सो खोटा ज्ञान है । मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रके उदयसे अविवेकका होना सो मोह (अज्ञानभाव) है इत्यादि परिणामोंका होना सो भाव पापास्रव कहाता है । इसी पापपरिणतिका निमित्त पाकर द्रव्यपापासवका विस्तार होता है । यह आस्रवपदार्थका व्याख्यान पूर्ण हुवा । आगे संवर पदार्थका व्याख्यान किया जाता है।
इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुदुमग्गम्भि। जावत्तावत्तेहिं पिहियं पावासवं छिदं ॥ १४१ ॥
. संस्कृतछाया. इन्द्रियकपायसंज्ञा निगृहीता यैः सुप्ठुमार्गे ।
यावत्तावत्तेषां पिहितं पापास्रवं छिद्रं ॥ १४१ ।। पदार्थ-[यैः] जिन पुरुषोंने [इन्द्रियकपायसंज्ञाः] मनसहित पांच इन्द्रिय, चार १. 'अट्टरुद्दाणि' इत्यपि पाठः ।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
कषाय और चार संज्ञारूप पापपरिणति [यावत] जिस समय [सुष्टुमागें] संवर मार्गमें [निग्रहीताः ] रोकीं हैं [तावत् ] तब [तेपां] उनके [पापासवं छिद्रं] पापास्रवरूपी छिद्र [पिहितं ] आच्छादित हुवा।। ___ भावार्थ-मोक्षका मार्ग एक संवर है सो संवर जितना इन्द्रिय कषाय संज्ञावोंका निरोध होय उतना ही होता है । अर्थात् जितने अंश आसवका निरोध होता है उतने ही अंश संवर होता है । इन्द्रिय कषाय संज्ञा ये भावपापास्रव हैं । इनका निरोध करना भाव पापसंवर है ये ही भावपापसंवर द्रव्यपापसंवरका कारण है । अर्थात् जब इस जीवके अशुद्ध भाव नहिं होते तब पौद्गलीक वर्गणावोंका आस्रव भी नहिं होता । आगें सामान्य संवरका स्वरूप कहते हैं।
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वव्वेसु । णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥१४२॥
संस्कृतछाया. यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु ।
नास्रवति शुभमशुभं समसुखदुःखस्य भिक्षोः ।। १४२ ॥ पदार्थ- [यस्य ] जिस पुरुषके [ सर्वद्रव्येषु ] समस्त परद्रव्योंमें [रागः] प्रीतिभाव [द्वेषः] द्वेषभाव [वा] अथवा [मोहः] तत्त्वोंकी अश्रद्धारूप मोह [न विद्यते ] नहीं है [तस्य] उस [समसुखदुःखस्य] समान है सुखदुःख जिसके ऐसे [भिक्षोः] महामुनिके [शुभं] शुभरूप [अशुभं] पापरूप पुद्गलद्रव्य [न आस्रवति] आस्रवभावको प्राप्त नहिं होता।
भावार्थ-जिस जीवके रागद्वेष मोहरूप भाव परद्रव्योंमें नहीं है उस ही समरसीके शुभाशुभ कर्मास्रव नहिं होता. उसके संवर ही होता है इसकारण रागद्वेषमोहपरिणामोंका निरोध सो भावसंवर कहाता है. उस भावसंवरके निमित्तसे योगद्वारोंसे शुभाशुभरूप कर्म वर्गणावोंका निरोध होना सो द्रव्यसंवर है । आगें संवरका विशेष स्वरूप कहते हैं ।
जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्त । संवरणं तस्स तदा सुहानुहकदस्त कम्मरस ॥ १४३॥ .
संस्कृतछाया. यस्य यदा खलु पुण्यं योगे पापं च नास्ति विरतस्य ।
संवरणं तस्य तदा शुभाशुभकृतस्य कर्मणः ॥ १४३ ॥ पदार्थ-[यदा] खिल] निश्चय करकें जिस समय [यस्य] जिस [विरतस्य] परद्रव्यत्यागीके [योगे] मनवचनकायरूप योगोंमें [पापं] अशुभपरिणाम [च] और. [पुण्यं ] शुभपरिणाम [नास्ति ] नहीं है [तदा] उस समय [तस्य ] उस मुनिके
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[शुभाशुभकृतस्य कर्मणः] शुभाशुभ भावोंसे उत्पन्न कियेहुये द्रव्यकमीत्रवोंका [ संवरणं ] निरोधक संवरभाव होते हैं ।
भावार्थ- जब इस महामुनिके सर्वथाप्रकार शुभाशुभ योगोंकी प्रवृत्तिसे निवृत्ति होती है तब उसके आगामी कर्मोंका निरोध होता है । मूलकारण भावकर्म हैं जब भावकर्म ही चले जांय तब द्रव्यकर्म कहांसे होय ? इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि शुभाशुभ भावोंका निरोध होना भावपुण्यपापसंवर होता है । यह ही भावसंवर द्रव्यपुण्यपापका निरोधक प्रधान हेतु है । इसप्रकार संवरपदार्थका व्याख्यान पूर्ण हुवा | अब निर्जरापदार्थका व्याख्यान किया जाता है ।
ܘܘܐ
संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिठ्ठदे बहुविहेहिं । कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो यिदं ॥ १४४ ॥
संस्कृतछाया.
संवरयोगाभ्यां युक्तस्तपोभिर्यचेष्टते बहुविधैः ।
कर्मणां निर्जरणं बहुकानां करोति स नियतं ॥ १४४ ॥
पदार्थ — [यः] जो भेद विज्ञानी [संवरयोगाभ्यां] शुभाशुभात्रवनिरोधरूप संवर और शुद्धोपयोगरूप योगोंकर [युक्तः ] संयुक्त [बहुविधैः ] नाना प्रकारके [तपोभिः] अन्तरंग बहिरंग तपोंके द्वारा [चेष्टते ] उपाय करता है [ सः ] वह पुरुष [ नियतं ] निश्चयकर [बहुकानां] बहुतसे [कर्मणां ] कर्मोकी [ निर्जरणं] निर्जरा [ करोति ] करता है । भावार्थ — जो पुरुष संवर और शुद्धोपयोगसे संयुक्त, तथा अनसन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश इन छह प्रकार के बहिरंग तप तथा प्रायश्चित्त, विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग और ध्यान इन छः प्रकारके अंतरंग तपकर सहित हैं वह बहुतसे कर्मोंकी निर्जरा करता है । इससे यह भी सिद्ध हुवा कि अनेक कर्मोंकी शक्तियोंके गालनेको समर्थ द्वादश प्रकार के तपोंसे बढा हुवा है जो शुद्धोपयोग वही भावनिर्जरा है और भावनिर्जराके अनुसार नीरस होकर पूर्वमें बंधे हुये कर्मोंका एकदेशः खिर जाना सो द्रव्यनिर्जरा है ।
आगें निर्जराका कारण विशेषताके साथ दिखाते हैं ।
जो संवरेण जुत्तो अप्पट्टप्रसाधगो हि अप्पाणं ।
मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं ॥ १४५ ॥
संस्कृतछाया.
यः संवरेण युक्तः आत्मार्थप्रसाधको ह्यात्मानं ।
ज्ञात्वा ध्यायति नियतं ज्ञानं स संधुनोति कर्मरजः ॥ १४५ ॥
१ कर्म अपना रसदेकर खिर जावें उसको निर्जरा कहते हैं ।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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पदार्थ – [ यः] जो पुरुष [संवरेण युक्तः] संवरभावोंकर संयुक्त है तथा [आत्मार्थप्रसाधकः] आत्मीक स्वभावका साधनहारा है [ सः ] वह पुरुष [हि ] निश्चय करकें [आत्मानं ] शुद्ध चिन्मात्र आत्मस्वरूपको [ ज्ञात्वा ] जान करके [ नियतं ] सदैव [ज्ञानं] आत्माके सर्वस्वको [ ध्यायति ] ध्यावै है वही पुरुष [ कर्मरज : ] कर्मरूपी धूलिको [संधुनोति ] उडा देता है ।
भावार्थ—जो पुरुष कर्मोंके निरोधकर संयुक्त है, आत्मस्वरूपका जाननहारा है, सो परकार्यों से निवृत्त होकर आत्मकार्यका उद्यमी होता है, तथा अपने स्वरूपको पाकर गुणगुणी अभेदकथनकर अपने ज्ञानगुणको आपसे अभेद निश्चल अनुभव है, वह पुरुष सर्वथाप्रकार वीतराग भावोंकेद्वारा पूर्वकालमें बन्धेहुये कर्मरूपी धूलिको उडा देता है अर्थात् कर्मोंको खपा देता है । जैसें चिकनाई रहित शुद्धफटिकका थंभ निर्मल होता है उसीप्रकार निर्जराका मुख्य हेतु ध्यान है अर्थात् निर्मलताका कारण है ।
अब ध्यानका स्वरूप कहते हैं ।
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहडहणो ज्झाणमओ जायए अगणी ॥ १४६ ॥
संस्कृतछाया.
यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा योगपरिकर्म ।
तस्य शुभाशुभदहनो ध्यानमयो जायते अग्निः ॥ १४६ ॥
पदार्थ – [ यस्य ] जिस जीवके [ रागः द्वेषः मोहः ] राग द्वेष मोह [वा ] अथवा [योगपरिकर्म ] तीन योगोंका परिणमन [ न विद्यते ] नहीं है [ तस्य ] तिस जीवके [शुभाशुभदहनः] शुभअशुभ भावोंको जलानेवाली [ ध्यानमयः ] ध्यानस्वरूपी [अग्निः] आग [जायते] उत्पन्न होती है ।
भावार्थ- परमात्मस्वरूपमें अडोल चैतन्यभाव जिस जीवके होय, वह ही ध्यान करनेवारा है इस ध्याता पुरुषके स्वरूपकी प्राप्ति किस प्रकार होती है सो कहते हैं,
जब निश्चयं करके योगीश्वर अनादि मिथ्यावासनाके प्रभावसे दर्शन चारित्र मोहनीय कर्मके विपाकसे अनेकप्रकारके कर्मों में प्रवर्त्तनेवाले उपयोगको काललब्धि पाकर वहांसे संकोचकर अपने स्वरूपमें लावै तव निर्मोह वीतराग द्वेषरहित अत्यन्त शुद्ध स्वरूपको शुद्धात्म स्वरूपमें निष्कंप ठहरा सकै और तब ही इस भेदविज्ञानी ध्यानी के स्वरूप साधक पुरुषार्थसिद्धिका परमउपाय ध्यान उत्पन्न होता है । वह ध्यान करनहारा पुरुष निःक्रिय चैतन्यस्वरूपमें स्थिरताके साथ मग्न हो रहा है, मनवचनकायकी भावना नहिं भाता है, कर्मकांड में भी नहिं प्रवर्त्तता, समस्त शुभाशुभ कर्मइन्धनको जलाने के अर्थ अग्निवत् ज्ञानकांड
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् गर्भित ध्यानका अनुभवी है, इसकारण परमात्मपदको पाता है । इसप्रकार निर्जरा पदार्थका व्याख्यान पूरा हुवा. - अब बन्ध पदार्थका व्याख्यान किया जाता है।
जं सुहमसुहमुदिण्णं भावं रत्तो करेदि जदि अप्पा। सो तेण हवदि वंधो पोग्गलकम्मेण विविहेण ॥ १४७॥
संस्कृतछाया. यं शुभाशुभमुदीर्ण भावं रक्तः करोति यद्यात्मा।
स तेन भवति बद्धः पुद्गलकर्मणा विविधेन ॥ १४७ ।। पदार्थ-यदि ] जो [ रक्तः] अज्ञानभावमें रागी होकर [आत्मा ] यह जीवद्रव्य [यं] जिस [शुभं अशुभं] शुभाशुभरूप [उदीर्ण] प्रकट हुये [भावं ] भावको [करोति] करता है [सः] वह जीव [तेन] तिस भावसे [विविधेन पुद्गलकर्मणा] अनेक प्रकारके पौद्गलीक कर्मोंसे [बद्धः भवति ] बंध जाता है ।
भावार्थ-जो यह आत्मा परके सम्बन्धसे अनादि अविद्यासे मोहित होकर कर्मके उदयसे जिस शुभाशुभ भावको करता है तब यह आत्मा उसही काल उस अशुद्ध उपयोगरूप भावका निमित्त पाकरके पौद्गलिक कर्मोंसे वंधता है। इससे यह वात भी सिद्ध हुई कि इस आत्माके जो रागद्वेषमोहरूप स्निग्ध शुभअशुभ परिणाम हैं उनका नाम तो भावबन्ध है उस भाववन्धका निमित्त पाकर शुभअशुभरूप द्रव्यवर्गणामयी पुद्गलोंका जीवके प्रदेशोंसे परस्पर बंध होना तिसका नाम द्रव्यबन्ध है। आगें बंधके बहिरंग अन्तरंग कारणोंका स्वरूप दिखाते हैं ।
जोगनिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो। भावणिमित्तो वंधो भायो रदिरागदोसमोहजुदो ॥ १४८॥
संस्कृतछाया. योगनिमित्तं ग्रहणं योगो मनोवचनकायसंभूतः ।
भावनिमित्तो बन्धो भावो रतिरागद्वेपमोहयुतः ।। १४८ ॥ पदार्थ-योगनिमित्तं ग्रहणं ] योगोंका निमित्त पाकर कर्मपुद्गलोंका जीवके प्रदेशोंमें परस्पर एक क्षेत्रावगाहकर ग्रहण होता है [योगः मनोवचनकायसंभूतः] योग जो हैं
१ जो कोई कहै कि इस वर्तमान कालमें ध्यान नहिं होता उनको नीचे लिखी दो गाथावोंसे अपना समाधान करना चाहिये
"अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाये वि लहइ इंदत्तं । लोयंति य देवत्तं तत्थ चुया णिव्वुदि जंति ॥ १॥ अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा । तण्णवरि सिक्खियव्वं जंजरमरणं खई कुणई ॥२॥"
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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सो मनवचनकायकी क्रिया से उत्पन्न होता है । [वन्धः भावनिमित्तः] ग्रहण तो योगोंसे होता है और बन्ध एक अशुद्धोपयोगरूप भावोंके निमित्तसे होता है. और [भावः ] वह भाव जो है सो कैसा है कि [ रतिरागमोहयुक्तः ] इष्ट अनिष्ट पदार्थों में रति रागद्वेपमोह करकें संयुक्त होता है ।
I
भावार्थ – जीवोंके प्रदेशों में कर्मोंका आगमन तो योगपरिणति से होता है. पूर्वकी बन्धीहुई कर्मवर्गणावोंका अवलंबन पाकर आत्मप्रदेशोंका प्रकंपन होना उसका नाम योगपरिणति है | और विशेषतया निज शक्ति के परिणामसे जीव के प्रदेशों में पुद्गलकर्मपिंडों का रहना उसका नाम बन्ध है । वह बन्ध मोहनीयकर्मसंजनित अशुद्धोपयोगरूप भावके विना जीवके कदाचित् नहिं होता । यद्यपि योगोंके द्वारा भी बन्ध होता है तथापि स्थिति अनुभागके बिना उसका नाममात्र ही ग्रहण होता है. क्योंकि बन्ध उसहीका नाम है जो स्थिति अनुभागकी विशेषतालिये हो, इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि वन्धको बहिरंग कारण तो योग है और अन्तरंग कारण जीवके रागादिक भाव हैं । आगे द्रव्य मिथ्यात्वादिक बन्धके बहिरंग कारण हैं ऐसा कथन करते हैं । हेदू चदुव्वियप्पो अवियप्पस कारणं भणिदं । तेसि पिय रागादी सिमभावे ण वज्झति ॥ १४९ ॥
संस्कृतछाया.
हेतुश्चतुर्विकल्पोऽष्टविकल्पस्य कारणं भणितम् ।
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते ॥ १४९ ॥
पदार्थ – [ चतुर्विकल्पः] चार प्रकारका द्रव्यप्रत्यय रूप जो [ हेतुः ] कारण है सो [अष्टदिकल्पस्य ] आठप्रकारके कर्मोंका [ कारणं ] निमित्त [ भणितं ] कहा गया है [च] और [तेषां अपि ] उन चार प्रकारके द्रव्यप्रत्ययोंका भी कारण [ रागादयः ] रागादिक विभाव भाव हैं [तेषां ] उन रागादिक विभावरूपभावोंके [ अभावे ] विनाश होनेपर [न बध्यन्ते] कर्म नहिं बंधते हैं ।
भावार्थ - आठप्रकार कर्मवन्धके कारण मिथ्यात्व असंयम कषाय और योग ये चार प्रकारके द्रव्यप्रत्यय हैं। उन द्रव्यप्रत्ययोंके कारण रागादिक भाव हैं अतएव बन्धके कारण के कारण रागादिक भाव हैं क्योंकि रागादिक भावोंके अभाव होनेसे द्रव्यमिध्यात्व असंयम कषाय और योग इन चार प्रत्ययोंके होते संते भी जीवके बन्ध नहिं होता. इस कारण रागादिक भाव ही वन्धके अन्तरंग मुख्यकारण हैं गौणकारण चारित्रप्रत्यय है । इसप्रकार बन्धपदार्थका व्याख्यान पूर्ण हुवा |
अब मोक्षपदार्थका व्याख्यान किया जाता है सो प्रथम ही द्रव्यमोक्षका कारण परमसंवररूप मोक्षका स्वरूप कहते हैं
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हेदुमभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो। आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दुणिरोधो ॥ १५०॥ कम्मस्साभावेण य सव्व सबलोगदसी य । पावदि इंदिद्यरहिदं अव्वावाहं सुहमणंतं ॥ १५१ ॥
संस्कृतछाया. हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः । आस्रवभावेन विना जायते कर्मणस्तु निरोधः ॥ १५० ।। कर्मणामभावेन च सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च ।।
प्राप्नोतीन्द्रियरहितमव्याबाधं सुखमनन्तं ॥ १५१ ॥ पदार्थ-[हेत्वभावे] रागादिकारणोंके अभावसे [नियमात् ] निश्चयसे [ज्ञानिनः] भेदविज्ञानीके [आस्रवनिरोधः] आस्रवभावका अभाव [जायते] होता है [तु] और [आस्रवभावेन विना] कर्मका आगमन न होनेसे [कर्मणः] ज्ञानावरणादि कर्मबन्धका [निरोधः ] अभाव [जायते] होता है । [च] और [कर्मणां] ज्ञानावरणादि कर्मोंके [अभावेन] विनाश करके [ सर्वज्ञः] सर्वका जाननहारा [च] और [सर्वलोकदर्शी ] सबका देखनहारा होता है तब वह [इन्द्रियरहितं] इन्द्रियाधीन नही और [अव्यावाध] बाधारहित [अनन्तं ] अपार ऐसे [सुखं ] आत्मीक सुखको [प्रामोति] प्राप्त होता है ।
भावार्थ-जीवके आस्रवका कारण मोहरागद्वेषरूप परिणाम हैं जब इन तीन अशुद्ध भावोंका विनाश होय तब ज्ञानी जीवके अवश्य ही आस्रवभावोंका अभाव होता है । जब ज्ञानीके आस्त्रवभावका अभाव होता है तब कर्मका नाश होता है कर्मोंके नाश होनेपर निरावरण सर्वज्ञपद तथा सर्वदर्शीपद प्रगट होता है। और अखंडित अतीन्द्रिय अनन्त सुखका अनुभवन होता है इस पदका नाम जीवन्मुक्त भावमोक्ष कहा जाता है देहधारी जीते रहते ही भावकर्मरहित सर्वथा शुद्धभावसंयुक्त मुक्त हैं इसकारण जीवन्मुक्त कहाते हैं। जो कोई पूछै कि किसप्रकार जीवन्मुक्त होते हैं सो कहते हैं कि कर्मकर आच्छादित आत्माके क्रमसे प्रवत्र्ते है जो ज्ञान क्रियारूप भाव, सो संसारी जीवके अनादि मोहनीयकर्मके वशसे अशुद्ध है. द्रव्यकर्मके आस्रवका कारण है सो भावज्ञानी जीवके मोहरागद्वेषकी प्रवृत्तिसे कमी होता है अतएव इस भेदविज्ञानीके आत्रवभावका निरोध होता है । जब इसके मोहकर्मका क्षय होता है तव इसके अत्यन्त निर्विकार वीतराग चारित्र प्रगट होता है. अनादिकालसे आस्रव आवरणद्वारा अनन्त चैतन्यशक्ति इस आत्माकी मुद्रित ( ढकीहुई ) है वही इस ज्ञानीके शुद्धक्षायोपशमिक निर्मोहज्ञानक्रियाके होतेसंते अन्तरमुहूर्तपर्यन्त रहती है तत्पश्चात् एक ही समयमें ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय कर्मके क्षय होनेसे कथंचित्प्रकार कूटस्थ अचल केवलज्ञान अवस्थाको प्राप्त होता है. उससमय ज्ञानक्रियाकी प्रवृत्ति क्रमसे नहीं होती क्योंकि भावकर्मका अभाव है सो ऐसी अवस्थाके होनेसे वह भगवान्
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
१०५ सर्वज्ञ सर्वदी इन्द्रियव्यापाररहित अव्यावाध अनन्त सुखसंयुक्त सदाकाल स्थिरस्खभावसे स्वरूपगुप्त रहते हैं । यह भावकर्मसे मुक्तका स्वरूप दिखाया और ये ही द्रव्यकर्मसे मुक्त होनेका कारण परम संवरका स्वरूप है । जब यह जीव केवलज्ञानदशाको प्राप्त होता है तब इसके चार अघातिया कर्म जलीहुई जेवड़ीकी तरह द्रव्यकर्म रहते हैं । उन द्रव्यकर्मोके नाशको अनन्त चतुष्टय परम संवर कहते हैं । आगे द्रव्यकर्ममोक्षका कारण और परम निर्जराका कारण ध्यानका स्वरूप दिखाते हैं।
दसणणाणसमग्गं ज्झाणं णो अण्णव्वसंजुत्तं । जायदि णिज्जरहेदू समावसहिदस्त साधुस्त ॥ १५२॥
संस्कृतछाया. दर्शनज्ञानसमग्रं ध्यानं नो अन्यद्रव्यसंयुक्तं ।
___ जायते निर्जराहेतुः स्वभावसहितस्य साधोः ॥ १५२ ।।। पदार्थ-दर्शनज्ञानसमग्रं] यथार्थ वस्तुको सामान्य देखने और विशेपता कर जाननेसे परिपूर्ण [ध्यानं] परद्रव्यचिन्ताका निरोधरूप ध्यान सो [निर्जराहेतुः] कर्मवन्धस्थितिकी अनुक्रम परिपाटीसे खिरना उसका कारण [जायते ] होता है । यह ध्यान किसके होता है ? [स्वभावसहितस्य साधोः] आत्मीक स्वभावसंयुक्त साधु महामुनिके होता है । कैसा है यह ध्यान ? [नो अन्यद्रव्यसंयुक्तं ] परद्रव्य संवन्धसे रहित है ।
भावार्थ-जब यह भगवान् भावकर्ममुक्त केवल अवस्थाको प्राप्त होता है तब निज स्वरूपमें आत्मीक सुखसे तृप्त होता है. इसलिये कर्मजनित सुखदुःख विपाकक्रियाके वेदनसे रहित होता है। ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मके जानेपर अनन्तज्ञान अनन्त दर्शनसे शुद्धचेतनामयी होता है. इसकारण अतीन्द्रिय रसका आस्वादी होकर वाह्य पदार्थों के रसको नहिं भोगता । और वही परमेश्वर अपने शुद्ध स्वरूपमें अखंडित चैतन्यस्वरूपमें प्रवत्र्ते है। इसकारण कथंचित्प्रकार अपने स्वरूपका ध्यानी भी है अर्थात् परद्रव्यसंयोगसे रहित आत्मस्वरूपध्यान नामको पाता है. इसकारण केवलीके भी उपचारमात्र स्वरूपअनुभवनकी अपेक्षा ध्यान कहा जाता है । पूर्वबंधे कर्म अपनी शक्तिकी कमीसे समय समय खिरते रहते हैं, इसकारण वही ध्यान निर्जराका कारण है । यह भावमोक्षका स्वरूप जानना । आगे द्रव्यमोक्षका स्वरूप कहते हैं।
जो संवरेण जुत्तो णिजरमाणोध सव्वकम्माणि । ववगवेदाउस्सो मुयदि भवं तेण सो मोक्खो ॥ १५३ ॥
संस्कृतछाया. यः संवरेण युक्तो निर्जरत्नथसर्वकर्माणि ।। __ व्यपगतवेद्यायुप्को मुञ्चति भवं तेन स मोक्षः ॥ १५३ ॥
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पदार्थ-[यः] जो पुरुष [संवरेण युक्तः] आत्मानुभवरूप परमसंबरसे संयुक्त है [अथ] अथवा [सर्वकर्माणि] अपने समस्त पूर्वबन्धे कर्मोको [निर्जरन्] अनुक्रमसे खपाता हुवा प्रवत्र्त है । और जो पुरुष [व्यपगतवेद्यायुष्कः] दूर गया है वेदनीय नाम गोत्र आयु जिससे ऐसा है [सः] वह भगवान् परमेश्वर [भवं] अघातिकर्म सन्बन्धी संसारको [ मुञ्चति] छोड देता है नष्ट कर देता है [तेन मोक्षः] तिसकारणसे द्रव्य मोक्ष कहा जाता है।
भावार्थ-इस केवली भगवानके भावमोक्ष होनेपर परमसंवर भाव होते हैं उनसे आगामी कालसंबन्धिनी कर्मकी परंपराका निरोध होता है । और पूर्वबंधे कर्मोंकी निर्जराका कारण ध्यान होता है उससे पूर्वकर्म संततिका किसी कालमें तो स्वभावहीसे अपना रस देकर खिरना होता है और किस ही काल समुद्घातविधानसे कर्मोंकी निर्जरा होती है। और किस ही काल यदि वेदनी नाम गोत्र इन तीन कर्मोंकी स्थिति आयुकर्मकी स्थितिकी बराबर होय तव तो सब चार अघातिया कर्मोंकी स्थिति बरावर ही खिरके मोक्ष अवस्था होती है और जो आयुःकर्मकी स्थिति अल्प होय और वेदिनी नाम गोत्रकी बहुत होय तो समुद्धात करके स्थिति खिरके मोक्ष अवस्था होती है. इस प्रकार जीवसे अत्यंत सर्वथाप्रकार कर्मपुद्गलोंका वियोग होना, उसीका नाम द्रव्यमोक्ष है । इसप्रकार द्रव्यमोक्षका व्याख्यान पूर्ण हुवा और मोक्षमार्गीके अंग सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानके निमित्तभूत नवपदार्थोंका व्याख्यान भी पूरा हुवा। __ आगें मोक्षमार्गका प्रपंच सूचनामात्र कहा जाता है सो प्रथम ही मोक्षमार्गका स्वरूप दिखाया जाता है।
जीवसहावं णाणं अप्पडिहदसणं अणण्णमयं । चरियं च तेसु णियदं अस्थित्तमणिंदियं भणियं ॥ १५४ ॥
संस्कृतछाया. जीवस्वभावं ज्ञानमप्रतिहतदर्शनमनन्यमयं ।
चारित्रं च तयोर्नियतमस्तित्वमनिन्दितं भणितं ॥ १५४ ।। पदार्थ-[ज्ञान] यथार्थ वस्तुपरिच्छेदन [अप्रतिहतदर्शनं] यथार्थ वस्तुका अखं. डित सामान्यावलोकन ये दोनों गुण [अनन्यमयं] चैतन्यस्वभावसे एक ही है [जीवखभावं] जीवका असाधारणलक्षण है. [च तयोः] और उन ज्ञान तथा दर्शनका [नियतं] निश्चित स्थिररूप [अस्तित्वं] अस्तिभाव जो है सो [अनिन्दितं] निर्मल [चारित्रं] आचरणरूप चारित्रगुण [भणितं] सर्वज्ञ वीतरागदेवने कहा है।
भावार्थ-जीवके स्वभाव भावोंकी जो थिरता है, उसका नाम चारित्र कहा जाता है वही चारित्र मोक्षमार्ग है । वे जीवके स्वाभाविक भाव ज्ञान दर्शन है और वे आत्मासे अभेद
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः।
१०७ और भेदस्वरूप है । एक चैतन्यभावकी अपेक्षा अभेद है. और वह ही एक चैतन्यभाव सामान्यविशेषकी अपेक्षा दो प्रकारका है. दर्शन सामान्य है ज्ञानका स्वरूप विशेष है. चेतनाकी अपेक्षा ये दोनों एक हैं. ये ज्ञानदर्शन जीवके स्वरूप हैं, इनका जो निश्चल थिर होना अपनी उत्पादव्ययध्रौव्य अवस्थासे और रागादिक परिणतिके अभावसे निर्मल होना उसका नाम चारित्र है वही मोक्षका मार्ग है । इस संसारमें चारित्र दो प्रकारका है । एक - स्वचारित्र और दूसरा परचारित्र है । स्वचारित्रको स्वसमय और परचारित्रको परसमय कहते हैं । जो परमात्मामें स्थिरभाव सो तो स्वचारित्र है और जो आत्माका परद्रव्यमें लगनरूप थिरभाव सो परचारित्र है । इनमें से जो आत्मा भावोंमें थिरताकर लीन है, परभावसे परान्मुख हैं, स्वसमयरूप है सो साक्षात् मोक्षमार्ग जानना ।। __ आगें स्वसमयका ग्रहण परसमयका त्याग होय तब कर्मक्षयका द्वार होता है उससे जीवस्वभावकी निश्चल थिरताका मोक्षमार्गस्वरूप दिखाते हैं.
जीवो सहावणियदो अणियद्गुणपजओध परसमओ। जदि कुणदि सगं समयं पन्भस्लादि कम्मवंधादो॥ १५५ ॥
संस्कृतछाया. जीवः स्वभावनियतः अनियतगुणपर्यायोऽथ परसमयः ।
यदि कुरुते स्वकं समयं प्रभ्रस्यति कर्मबन्धात् ॥ १५५ ।। पदार्थ-[जीवः] यद्यपि यह आत्मा [स्वभावनियतः] निश्चयकरके अपने शुद्ध आत्मीक भावोंमें निश्चल है तथापि व्यवहारनयसे अनादि अविद्याकी वासनासे [अनियतगुणपर्यायः] परद्रव्यमें उपयोग होनेसे परद्रव्यकी गुणपर्यायोंमें रत है अपने गुणपर्यायोंमें निश्चल नहीं है ऐसा यह जीव [परसमयः] परचारित्रका आचरणवाला कहा जाता है । [अथ] फिर वही संसारी जीव काललब्धिपाकर [यदि] जो [स्वकं समयं] आत्मीक' स्वरूपके आचरणको [कुरुते] करता है [तदा] तब [कर्मवन्धात् ] द्रव्यकर्मके बन्ध होनेसे [प्रभ्रस्यति ] रहित होता है। __ भावार्थ-यद्यपि यह संसारी जीवं अपने निश्चित खभावसे ज्ञानदर्शनमें तिष्ठै है तथापि अनादि मोहनीय कर्मके वशीभूत होनेसे अशुद्धोपयोगी होकर अनेक परभावोंकों धारण करता है। इसकारण निजगुणपर्यायरूप नहिं परिणमता परसमयरूप प्रवत्र्ते है । इसीलिये परचारित्रके आचरनेवाला कहा जाता है । और वह ही जीव यदि कालपाकर अनादिमोहिनीयकर्मकी प्रवृत्तिको दूरकरके अत्यन्त शुद्धोपयोगी होता है और अपने एक निजरूपको ही धार है, अपने ही गुणपर्यायोंमें परिणमता है, स्वसमयरूप प्रवत् है तव आत्मीक चारित्रका धारक कहा जाता है। जो यह आत्मा किसीप्रकार निसर्ग अथवा अधिगमसे प्रगट हो सम्यग्ज्ञान ज्योतिर्मयी होता है, परसमयको त्याग कर स्वसमयको
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अंगीकार करता है तब यह आत्मा अवश्य ही कर्मवन्धसे रहित होता है क्योंकि निश्चल भावोंके आचरणसे ही मोक्ष सधता है । आगें परचारित्ररूप परसमयका स्वरूप कहा जाता है।
जो परयास्मि सुहं असुहं रामेण अणदि जदि भावं । सो संगचरित्तमहो परचरियचरो हयदि जीवो ॥ १५६॥
संस्कृतछाया. यः परद्रव्ये शुभमशुभं रागेण करोति यदि भावं ।
स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरितचरो भवति जीवः ।। १५६ ॥ पदार्थ-[यः] जो अविद्या पिशाचीग्रहीत जीव [ परद्रव्ये ] आत्मीक वस्तुसे विपरीत परद्रव्यमें [रागेण] मदिरापानवत् मोहरूपभावसे [यदि] जो [शुभं] व्रत भक्ति संयमादि भाव अथवा [अशुभं भावं] विषयकपायादि असत भावको [करोति] करता है [सः जीवः] वह जीव [वकचरित्रभ्रष्टः] आत्मीक शुद्धाचरणसे रहित [परचरितचरः] परसमयका आचरणवाला [भवति] होता है ।
भावार्थ—जो कोई पुरुष मोहकर्मके विपाकके वशीभूत होनेसे रागरूप परिणामोंसे अशुद्धोपयोगी होता है विकल्पी होकर परमें शुभाशुभ भावोंको करता है सो स्वरूपाचरणसे भ्रष्ट होकर परवस्तुका आचरण करता हुवा परसमयी है ऐसा महन्त पुरुषोंने कहा है । आगममें प्रसिद्ध है कि आत्मीकभावोंमें शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति होना सो स्वसमय है और परद्रव्यमें अशुद्धोपयोग प्रवृत्ति होना सो परसमय है। यह अध्यात्मरसके आस्वादी पुरुषोंडा विलास है। ___ आगें जो पुरुष परसमयमें प्रवः है उसके वन्धका कारण है और मोक्षमार्गका निषेध है ऐसा कथन करते हैं।
आसवदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणोध भावेण । सो तेण परचरित्तो हवदिति जिणा पख्वति ॥ १५७ ॥
संस्कृतछाया. आस्रवति येन पुण्यं पापं वात्मनोऽथ भावेन ।
स तेन परचरित्रः भवतीति जिनाः प्ररूपयन्ति ।। १५७ ॥ पदार्थ-[येन] जिस [भावेन] अशुद्धोपयोगरूप परिणामसे [आत्मनः] कहिये संसारी जीवके [ पुण्यं] शुभ [अथ वा] तथा [पापं] अशुभरूप कर्मवर्गणा [आस्रवति] आकर्पण होती है [सः] वह आत्मा [तेन] तिस अशुद्धभावसे [परचरित्रः] परसमयका आचरण करनेवाला [भवति ] होता है [इति] इसप्रकार [जिनाः] सर्वज्ञदेव जे हैं ते [प्ररूपयंति] कहते हैं।
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१०९ भावार्थ-निश्चयकरके इस लोकमें शुभोपयोगरूप भावपुण्यके आस्रवका कारण है और अशुभोपयोगरूप भावपापास्रवका कारण है सो जिन भावोंसे पुण्यरूप वा पापरूप कर्म आकर्षण होते हैं उनका नाम भाव आस्रव है । जिस जीवके जिससमय ये अशुद्धोपयोग भाव होते हैं उसकाल वह जीव उन अशुद्धोपयोग भावोंसे परद्रव्यका आचरणवाला होता है. इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि परद्रव्यके आचरणकी प्रवृत्तिरूप परसमय वंधका मार्ग है मोक्षमार्ग नहीं है । यह अर्हद्देवकथित व्याख्यान जानना । आगें स्वसमयमें विचरनेवाले पुरुषका स्वरूप विशेषतासे दिखाया जाता है।
जो सव्वसंगमुको णण्णमणो अप्पणं सहावेण । जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो ॥१५८॥
संस्कृतछाया. यः सर्वसङ्गमुक्तः अनन्यमनाः आत्मानं स्वभावेन ।
जानाति पश्यति नियतं सः स्वकचरितं चरति जीवः ।। १५८ ॥ . पदार्थ- [यः] जो सम्यग्दृष्टी जीव [स्वभावेन ] अपने शुद्धभावसे [आत्मानं] शुद्ध जीवको [ नियतं] निश्चयकरके [जानाति ] जानता है और [पश्यति] देखता है [सः] वह [जीवः] जीव [ सर्वसङ्गसुक्तः] अन्तरंग बहिरंग परिग्रहसे रहित [अनन्यमनाः सन् ] एकाग्रतासे चित्तके निरोधपूर्वक स्वरूपमें मगन होता हुवा [खकचरितं] स्वसमयके आचरणको [चरति] आचरण करता है ।
भावार्थ-आत्मस्वरूपमें निजगुणपर्यायके निश्चलस्वरूपमें अनुभवन करनेका नाम स्वसमय है और उसका ही नाम स्वचारित्र है। आगे शुद्ध स्वचारित्रमें प्रवृत्ति है उसका मार्ग दिखाते हैं। .
चरियं चरदि सगं लो जो परवप्पभावरहिदप्पा । दसणणाणविपयप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो ॥ १५९ ॥
संस्कृतछाया. चरितं चरति स्वकं स यः परद्रव्यात्मभावरहितात्मा ।
दर्शनज्ञानविकल्पमविकल्पं चरत्यात्मनः ।। १५९ ॥ पदार्थ- [यः] जो पुरुष [स्वकं चरितं ] अपने आचरणको [चरति ] आचरता है [सः] वह पुरुष [आत्मनः] आत्माके [दर्शनज्ञानविकल्पं] दर्शन और ज्ञानके निराकार साकार अवस्थारूप भेदको [अविकल्पं ] भेदरहित [चरति ] आचरै है । कैसा है वह भेद विज्ञानी ? [परद्रव्यात्मभावरहितात्या] परद्रव्यमें अहंभावरहित है स्वरूप जिसका ऐसा है।
भावार्थ-जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी समस्त मोहचक्रसे रहित है और परभावोंका त्यागी होकर आत्मभावोंमें सन्मुख हुवा अधिकतासे प्रवत्तॆ है । आत्मद्रव्यमें स्वाभाविक जो
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दर्शन ज्ञानका गुणभेद तिनको आत्मासे अभेदरूप जानकर आचरण करै है । ऐसा जो कोई जीव है उसीको स्वसमयका अनुभवी कहा जाता है । वीतरागसर्वज्ञने निश्चयव्यवहारके दो भेदसे मोक्षमार्ग दिखाया है. उन दोनोंमें निश्चय नयके अवलंबनसे शुद्धगुणगुणीका आश्रय लेकर अभेदभावरूप साध्यसाधनकी जो प्रवृत्ति है वही निश्चय मोक्षमार्ग प्ररूपणा कही जाती है। और व्यवहारनयाश्रित जो मोक्षमार्गप्ररूपणा है सो पहिले ही दो गाथावोंमें दिखाई गई हैं वे दो गाथायें ये हैं
"समत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं । मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धसुद्धीणं ॥१॥ सम्मत्तं सदहणं भावाणां तेसिमधिगमो णाणं ।
चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ॥२॥" इन गाथावोंमें जो व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप कहा गया है सो स्वद्रव्य परद्रव्यका कारण पाकर जो अशुद्धपर्याय उपजा है उसकी अधीनतासे भिन्न साध्यसाधनरूप है सो यह व्यवहार मोक्षमार्ग सर्वथा निषेधरूप नहीं है कथंचित् महापुरुषोंने ग्रहण किया है निश्चय और व्यवहारमें परस्पर साध्यसाधनभाव है। निश्चय साध्य है व्यवहार साधन है. जैसे सोना साध्य है और जिस पाषाण से सोना निकलता है वह पाषाण साधन है । इस सुवर्णपाषाणवत् व्यवहार है। जीव पुद्गलाश्रित है केवलसुवर्णवत् निश्चय है एक जीव द्रव्यहीका आश्रय है । अनेकांतवादी श्रद्धानी जीव इन दोनों निश्चयव्यवहाररूप मोक्षमार्गका ग्रहण करते हैं । क्योंकि इन दोनों नयोंके ही आधीन सर्वज्ञ वीतरागके धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति जानी गई है। आगे निश्चय मोक्षमार्गका साधनरूप व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप दिखाते हैं,
धम्मादी सहहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चिट्ठा तवंहि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोत्ति ॥ १६० ॥
संस्कृतछाया. धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं ज्ञानमङ्गपूर्वगतं ।
__ चेष्टा तपसि चर्या व्यवहारो मोक्षमार्ग इति ।। १६० ॥ पदार्थ-[धर्मादिश्रद्धानं] धर्म अधर्म आकाश कालादिक समस्त द्रव्य वा पदार्थोंका श्रद्धान अर्थात् प्रतीति सो तो व्यवहार सम्यक्त्व है [अङ्गपूर्वगतं] ज्ञारह अंग चवदह पूर्वमें प्रवर्त्तनेवाला जो ज्ञान है सो [ज्ञानं] व्यवहाररूप सम्यग्ज्ञान है । और [तपसि] बारह प्रकारके तप वा तेरह प्रकारके चारित्रमें [चेष्टा] आचरण करना सो [चर्या व्यवहाररूप चारित्र है [इति] इसप्रकार [व्यवहारः] व्यवहारात्मक [मोक्षमार्गः] मोक्षका मार्ग कहा गया है।
१ 'जीवादी सद्दहणं' ऐसा पाठ भी है ।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंकी एकता सो मोक्षमार्ग है। पद्रव्य पंचास्तिकाय सप्त तत्त्व नव पदार्थ इनका जो श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व वा सम्यग्दर्शन है । द्वादशांगके अर्थका जानना सो सम्यग्ज्ञान है आचारादि ग्रन्थकथित यतिका आचरण सो सम्यक्चारित्र है । यह व्यवहारमोक्षमार्ग जीवपुद्गलके सम्बन्धका कारण पाकर जो पर्याय उत्पन्न हुवा है उसीके आधीन है। और साध्य भिन्न है साधन भिन्न है । साध्य निश्चय मोक्षमार्ग है साधन व्यवहार मोक्षमार्ग है । जैसें स्वर्णमय पाषाणमें दीप्यमान अग्नि जो है सो पाषाण और सोनेको भिन्न २ करती है तैसें ही जीवपुगलकी एकताके भेदका कारण व्यवहार मोक्षमार्ग है । जो जीव सम्यग्दर्शनादिकसे अन्तरंगमें सावधान है उस जीवके सब जगहँ उपरिके शुद्ध गुणस्थानोंमें शुद्धस्वरूपकी वृद्धिसे अतिशय मनोज्ञता है. उन गुणस्थानोंमें थिरताको धारण करै है ऐसा व्यवहार मोक्षमार्ग है । शुद्ध जीवको किसी एक भिन्न साध्यसाधनभावकी सिद्धि है क्योंकि अपने ही उपादान कारणसे स्वयमेव निश्चय मोक्षमार्गकी अपेक्षा शुद्ध भावोंसे परिणमता है वहां यह व्यवहार निमित्तकारणकी अपेक्षा साधन कहा गया है । जैसें सोना यद्यपि अपने शुद्ध पीतादि गुणोंसे प्रत्येक आंचमें शुद्ध चोखी अवस्थाको धरै है तथापि बहिरंग निमित्त कारण अग्नि आदिक वस्तुका प्रयत्न है तैसें ही व्यवहारमोक्षमार्ग है । ___ आगे व्यवहारमोक्षमार्गसे साधिये ऐसा जो निश्चय मोक्षमार्ग, तिसका स्वरूप दिखाया जाता है। णिञ्चयणयेण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो। अप्पा ण कुणदि किंचिवि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गोत्ति॥१६॥
संस्कृतछाया. निश्चयनयेनभणितस्त्रिभिस्तैः समाहितः खलु यः।
आत्मा न करोति किंचिदप्यन्यन् न मुञ्चति स मोक्षमार्ग इति ।। १६१ ।। पदार्थ-[निश्चयनयेन] निश्चयनयसे [तैः त्रिभिः] उन तीन निश्चय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकर [समाहितः] परमरसीभावसंयुक्त [यः] आत्मा जो यह आत्मा [खलु] निश्चयकर [भणितः] कहा गया है सो यह आत्मा [अन्यत्] अन्य परद्रव्यको [किञ्चिदपि] कुछ भी [न करोति] नहिं करता है [न मुञ्चति] और न आत्मीक स्वभावको छोडता है [सः आत्मा] वह आत्मा [मोक्षमार्गः इति ] मोक्षका मार्गरूप ही है इसप्रकार सर्वज्ञ वीतरागने कहा है। . __भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रसे आत्मीकस्वरूपमें सावधान होकर जव आत्मीक स्वभावमें ही निश्चित विचरण करता है तब इसके निश्चय मोक्षमार्ग कहा जाता है जो आपहीसे निश्चय मोक्षमार्ग होय तो व्यवहारसाधन किसलिये कहा ? ऐसी शंकापर
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___ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् समाधान है कि यह आत्मा असद्भूतव्यबहारकी विवक्षासे अनादि अविद्यासे युक्त है. जब काललब्धिपानेसे उसका नाश होय उस समय व्यवहार मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति नहीं है मिथ्याज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्याचारित्र इस अज्ञानरत्नत्रयके नाशका उपाय यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान द्वादशांगका ज्ञान यथार्थ चारित्रका आचरण इस सम्यक् रत्नत्रयके ग्रहण करनेका विचार होता है इस विचारके होनेपर जो अनादिका ग्रहण था उसका तो त्याग होता है और जिसका त्याग था उसका ग्रहण होता है. तत्पश्चात् कमी आचरणमें दोष होय तो दंडशोधनादिकर उसे दूर करते हैं और जिस कालमें विशेष शुद्धात्मतत्त्वका उदय होता है तब स्वाभाविक निश्चय दर्शन ज्ञान चारित्र इनसे गुण गुणीके भावकी परिणतिद्वारा अडोल (अचल) होता है । तब ग्रहणत्यजनकी बुद्धि मिट जाती है परमशान्तिसे विकल्परहित होता है उस समय अतिनिश्चल भावसे यह आत्मा स्वरूपगुप्त होता है । जिसकाल यह आत्मा स्वरूपका आचरण करता है तब यह जीव निश्चय मोक्षमार्गी कहाता है. इसीकारण ही निश्चयव्यवहाररूपमोक्षमार्गको साध्यसाधनभावकी सिद्धि होती है। अब आत्माके चारित्र ज्ञान दर्शनका उद्योत कर दिखाते हैं ।
जो चरदि णादि पिच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं । सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिचिदो होदि ॥ १६२ ॥
संस्कृतछाया. . यश्चरति जानाति पश्यति आत्मानमात्मनानन्यमयं ।
स चारित्रं ज्ञानं दर्शनमिति निश्चितो भवति ॥ १६२ ॥ पदार्थ- [यः] जो पुरुष [आत्मना] अपने निजस्वरूपसे [आत्मानं] आपको [अनन्यमयं] ज्ञानादि गुणपर्यायोंसे अभेदरूप [चरति ] आचरण करता है [जानाति] जानता है [पश्यति ] श्रद्धान करता है [सः] सो पुरुष [चारित्रं] आचरण गुण [ज्ञानं] जानना [दर्शनं] देखना [इति ] इसप्रकार द्रव्यसे नामसे अभेदरूप [निश्चितः] निश्चय करके स्वयं दर्शनज्ञानचारित्ररूप [ भवति ] होता है ।
भावार्थ-निश्चयकरके जो पुरुप आपकेद्वारा आपको अभेदरूप आचरण करै है क्योंकि अभेदनयसे आत्मा गुणगुणीभावसे एक है. अपने शरीरकी निश्चलताई अस्तिरूप प्रवर्ते है और अन्यकारणके विना आप ही आपको जानता है स्वपरप्रकाश चैतन्यशक्तिके द्वारा अनुभवी होता है और आपहीकेद्वारा यथार्थ देखै है सो आत्मनिष्ठ भेदविज्ञानी पुरुष आप ही चारित्र है आप ही ज्ञान है आप ही दर्शन है. इसप्रकार गुणगुणीभेदसे आत्मा कर्ता है ज्ञानादि कर्म हैं. शक्ति करण है इनका आपसमें नियमकर अभेद है. इसकारण
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] अनुभव है। तिस कारणसे सात देखे है अथा
श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । यह बात सिद्ध हुई कि चारित्र ज्ञानदर्शनरूप आत्मा है. जो यह आत्मा जीवस्वभावमें निश्चल होकर आत्मीकभावको आचरण करै तो निश्चय मोक्षमार्ग सर्वथाप्रकार सिद्ध होता है। आगें समस्त ही संसारी जीवोंके मोक्षमार्गकी योग्यताका निषेध दिखाते हैं।
जेण विजाणदि सव्वं पेच्छदि सो तेण लोक्खमणुहवादि। इदि तं जाणदि सविओ अभव्यलत्तो ण सद्दहदि ॥ १६३ ॥
संस्कृतछाया. . येन विजानाति सर्व पश्यति स तेन सौख्यमनुभवति ।
इति तज्जानाति भव्योऽभव्यसत्त्वो न श्रद्धते ।। १६३ ॥. पदार्थ-येन] जिस कारणसे [ सर्व] समस्तज्ञेय मात्र वस्तुको [विजानाति] जानै है ['सर्व'] समस्त वस्तुवोंको [पश्यति ] देखे है अर्थात् ज्ञानदर्शनकर संयुक्त है [सः] वह पुरुष [तेन] तिस कारणसे [ सौख्यं] अनाकुल अनन्त मोक्षसुखको [अनुभवति ] अनुभवै है । [इति] इसप्रकार [भव्यः] निकट भव्यजीव । तत् ] उस अनाकुल पारमार्थिक सुखको [जानाति] उपादेयरूप श्रद्धान करै है और अपने २ गुणस्थानानुसार जानै भी है । भावार्थ- जो स्वाभाविक भावोंके आवरणके विनाश होनेसे आत्मीक शान्तरस उत्पन्न होता है उसे सुख कहते हैं । आत्माके स्वभाव ज्ञान दर्शन हैं. इनके आवरणसे आत्माको दुःख है. जैसें पुरुषके नखसिख वढनेसे दुःख होता है उसी प्रकार आवरणके होनेसे दुःस्व होता है. मोक्षअवस्थामें उस आवरणका अभाव होता है, इसकारण मुक्तजीव सवका देखनेहारा जाननेहारा है और यह बात भी सिद्ध हुई कि निराकुल परमार्थ आत्मीकसुखका अनुभवन मोक्षमें ही निश्चल है और जगह नहीं है. ऐसा परम भावका श्रद्धान भी भव्य सम्यग्दृष्टी जीवमें ही होता है । इसकारण भव्य ही मोक्षमार्गी होने योग्य है [अभव्यसत्त्वः ] त्रैकालिक आत्मीकभावकी प्रतीति करनेके योग्य नहीं ऐसा जीव आत्मीक सुखको [न श्रद्धते] नहिं सरदहै है जान भी नहीं है ।
भावार्थ-उस आत्मीक सुखका श्रद्धान करनहारा अभव्य नहीं है क्योंकि मोक्षमार्गके साधनेकी अभव्य मिथ्यादृष्टी योग्यता नहिं रखता । इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि केई संसारी भव्यजीव अर्थात् मोक्षमार्गके योग्य हैं केई नहीं भी हैं । ___ आगें सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रको किसीप्रकार सरागअवस्थामें आचार्यने बन्धका भी प्रकार दिखाया है इसकारण जीवस्वभावमें निश्चित जो आचरण है उसको मोक्षका कारण दिखाते हैं.
दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गोऽत्ति सेविव्याणि । साधृहि इदं भाणदं तेहिं दु वंधो व मोक्खो वा ।। १६४ ॥
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दार्थ-दर्शनज्ञानचारिजात इसकारण [ सेवितकहा गया है
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
संस्कृतछाया. दर्शनज्ञानचारित्राणि सोक्षमार्ग इति सेवितव्यानि ।
साधूभिरिति भणितं तैस्तु वन्धो वा मोक्षो वा ॥ १६४ ।। पदार्थ-[दर्शनज्ञानचारित्राणि] दर्शन ज्ञान और चारित्र ये तीन रत्नत्रय [मोक्षमार्गः] मोक्षमार्ग है [इति ] .इसकारण [सेवितव्यानि] सेवने योग्य है। [साधुभिः] महापुरुषोंद्वारा [इति] इसप्रकार [.भणिनं ] कहा गया है [तैः तु] उन ज्ञानदर्शन चारित्रकेद्वारा तो [वन्धः वा] बन्ध भी होता है [ मोक्षः वा] मोक्ष भी होता है।
भावार्थ-दर्शन ज्ञानचारित्र दो प्रकारके हैं एक सराग है एक वीतराग है । जो दर्शनज्ञानचारित्र रागलिये होते हैं उनको तो सराग रत्नत्रय कहते हैं और जो आत्मनिष्ठ वीतरागतालिये होंय वे वीतराग रत्नत्रय कहाते हैं । क्योंकि रागभाव आत्मीक भावरहित परभाव है परसमयरूप है, इसलिये जो रतत्रय किंचिन्मात्र भी परसमयप्रवृत्तिसे मिले होंय तो वे बन्धके कारण होते हैं क्योंकि इनमें कथंचित्प्रकार विरुद्धकारणकी रूढि होती है रत्नत्रय तो मोक्षका ही कारण है परन्तु रागके संयोगसे बन्धका कारण भी होता है ऐसी रूढि है । जैसें अग्निके संयोगसे घृत दाहका कारण होकर विरुद्ध कार्य करता है स्वभावसे तो घृत शीतल ही है, इसीप्रकार रागके संयोगसे रत्नत्रय बंधका कारण है । जिस काल समस्त परसमयकी नित्ति होकर स्वसमयरूप स्वरूपमें प्रवृत्ति होय उस समय अग्निसंयोगरहित घृत, दाहादि विरुद्ध कार्योंका कारण नहिं होता. तैसें ही रत्नत्रय सरागताके अभावसे साक्षात् मोक्षका कारण होता है । इस कारण यह वात सिद्ध हुई कि जब यह आत्मा स्वसमयमें प्रव” निजस्वाभाविक भावको आचरै उस ही समय मोक्षमार्गकी सिद्धि होती है। ___ आगे सूक्ष्म परसमयका स्वरूप कहा जाता है । ... अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुखसंपओगादो। वदित्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो ॥ १६९ ॥
संस्कृतछाया. अज्ञानात् ज्ञानी यदि मन्यते शुद्धसंप्रयोगात् ।।
भवतीति दुःखमोक्षः परसमयरतो भवति जीवः ।। १६५ ॥ पदार्थ-[ज्ञानी] सरागसम्यग्दृष्टी जीव [अज्ञानात् ] अज्ञानभावसे [यदि] जो [इति] ऐसा [मन्यते] मानै कि-[शुद्धसंप्रयोगात् ] शुद्ध जो अरहंतादिक तिनमें लगन अति धर्मरागप्रीतिरूप शुभोपयोगसे [दुःखमोक्षः] सांसारिक दुःखसे मुक्ति [भवति] होती है [तदा] उस समय [जीवः] यह आत्मा [परसमयरतः] परसमयमें अनुरक्त [भवति] होता है।
भावार्थ-अरहन्तादिक जो मोक्षके कारण हैं उन भगवंत परमेष्ठीमें भक्तिरूप राग अंशकर जो रागलिये चित्तकी वृत्ति होय, उसका नाम शुद्धसम्प्रयोग कहा जाता है परन्तु
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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भगवन्त वीतरागदेवकी अनादि वाणी में इसको भी शुभरागांशरूप अज्ञानभाव कहा है. इस अज्ञानभाव के होते संते जितने कालतांई यद्यपि यह आत्मा ज्ञानवंत भी है तथापि शुद्ध सम्प्रयोगसे मोक्ष होती है ऐसे परभावों से मुक्त मानने के अभिप्राय से खेद खिन्न हुवा प्रवर्त्ते है तब तितने काल वह ही राग अंशके अस्तित्व के परसमय में रत है, ऐसा कहा जाता है और जिस जीवके विपयादिकके राग अंशकर कलंकित अन्तरंगवृत्ति होती है, वह तो परसमयरत है ही उसकी तो बात ही न्यारी है क्योंकि जिस मोक्षमार्गमें धर्मराग निषेध है वहां निरर्गल रागका निषेध सहज में ही होता है ।
आगे उक्त शुभोपयोगताको कथंचित् बन्धका कारण कहा इसकारण मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा कथन करते हैं ।
अरहन्तसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो ।
वंधदि पुणं बहुसो ण दु सो कम्मक्खयं कुणदि ॥ १६६ ॥
संस्कृतछाया. अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः ।
वनाति पुण्यं वहुशो न तु स कर्मक्षयं करोति ॥ १६६ ॥
पदार्थ – [ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः ] अरहंत सिद्ध चैत्यालय प्रतिमा प्रवचन कहिये सिद्धान्त मुनिसमूह भेदविज्ञानादि ज्ञान इनकी जो भक्ति स्तुति सेवादिकसे परिपूर्ण प्रवीण है जो पुरुष सो [ बहुशः ] बहुतप्रकार वा बहुत बार [ पुण्यं ] अनेकप्रकारके शुभकर्मको [वश्नाति ] वांधै है [तु सः] किंतु वह पुरुष. [ कर्मक्षयं ] कर्मक्षयको [न] नहिं [करोति ] करै है ।
भावार्थ-जीस जीवके चित्तमें अरहन्तादिककी भक्ति होय उस पुरुषके कथंचित् मोक्षमार्ग भी हैं परन्तु भक्तिके रागांशकर शुभोपयोग भावोंको छोडता नहीं, वन्धपद्धतिका सर्वथा अभाव नहीं है. इसकारण उस भक्ति के रागांशकरके ही बहुतप्रकार पुण्य कर्मोंको बांधता है किन्तु सकलकर्मक्षयको नहिं करे है. इसकारण मोक्षमार्गियों को चाहिये कि भक्तिरागकी कणिका भी छोडें क्योंकि यह परसमयका कारण है परंपराय मोक्षको कारण
साक्षात् मोक्षमार्गको घातै है इसकारण इसका निषेध है ।
आगें इस जीवके स्वसमयकी जा प्राप्ति नहिं होती उसका राग ही एक कारण है ऐसा कथन करते हैं ।
जस्स हिदयेणुमत्तं वा परदव्वं हि विजदे रागो ।
सो ण विजाणदि समयं सगस्स सच्चागमवरो वि ॥ १६७ ॥
संस्कृतछाया.
यस्य हृदयेऽणुमात्रो वा परद्रव्ये विद्यते रागः ।
ऩ न विजानाति समयं स्वकस्य सर्वागमधरोऽपि ॥ १६७ ॥
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
पदार्थ -- [वा] अथवा [यस्य ] जिस पुरुष के [हृदये] चित्तमं [ अणुमात्रः ] परमाणु मात्र भी [परद्रव्ये ] पुलादि परद्रव्यों में [ रागः ] प्रीतिभाव [ विद्यते ] प्रवर्त्त है [स] वह पुरुष [सर्वागमधरः अपि ] यद्यपि समस्त श्रुतका पाठी है तथापि [स्वकस्य ] आत्माके [समयं] यथार्थरूपको [न] नहीं [विजानाति ] जाने है |
भावार्थ - जिस पुरुष के चित्तमें आत्मीकभावरहित परभावोंमें रागकी कणिका भी विद्यमान है वह पुरुष समस्त सिद्धान्तशास्त्रों को जानता हुवा भी सर्वांग वीतराग शुद्धस्वरूप स्वसमयको नहिं वेदै है. इसकारण यथार्थ शुद्धस्वरूपकी सिद्धिनिमित्त अरहंतादिकमें भी क्रमसे राग छोडना योग्य है ।
आगें राग अंशका कारण पाय अनेक दोषोंकी परंपराय होती है ऐसा कथन करते हैं । धरितुं जस्स ण सक्कं चित्तुभामं विणा दु अप्पाणं । रोधो तस्स ण विज्झदि सुहासुहकद्स्स कम्मस्स ॥ १६८ ॥
संस्कृतछाया.
धर्तुं यस्य न शक्यश्चित्तोद्भामं विनात्वात्मानं ।
रोधस्तस्य न विद्यते शुभाशुभकृतस्य कर्मस्य ॥ १६८ ॥
पदार्थ–[तु] और[यस्य ] जिस पुरुषका [चित्तोद्भामं] मनका संकल्परूप भ्रामकत्व जो है सो [आत्मानं विना ] आत्माके विना [] निरोध करनेको [ शक्यः न ] समर्थ नहीं होता । तस्य ] उस पुरुष के [ शुभाशुभकृतस्य] शुभाशुभभावों से कियेहुये [ कर्मणः] कर्मका [रोधः] संवर [न विद्यते ] नहीं है ।
भावार्थ — अरहन्तादिककी भक्ति भी प्रशस्त रागके विना नहिं होती और जो रागादिक भावकी प्रवृत्ति होती है और जो बुद्धिका विस्तार नहिं होय तो यह आत्मा उस भक्तिको किसीप्रकार धारण करनेमें समर्थ नहीं है क्योंकि बुद्धिके बिना भक्ति नहीं है तथा रागभावके बिना भी भक्ति नहीं है इसकारण इस जीवके रागादिगर्भित बुद्धिका विस्तार होता है. तब इसके अशुद्धोपयोग होता है. उस अशुद्धोपयोग के कारणसे शुभाशुभका आस्रव होता है इसीकारण वन्धपद्धति है. और इसीसे यह बात सिद्ध हुई कि शुभअशुभ गतिरूप संसारके विलासका कारण एकमात्र रागादि संक्लेशरूप विभाव परिणाम ही हैं । आगें संक्लेशका समस्त नाश करनेका कार्य ( उपाय ) बताते हैं ।
तह्माणिदिकामो णिस्लंगो णिम्ममो य हविय पुण्णो । सिस कुणदि भक्ति निव्वाणं तेण पप्पादि ॥ १६९ ॥
संस्कृतछाया.
तस्मान्निवृत्तिकामो निसङ्गो निर्ममत्वश्च भूत्वा पुनः ।
सिद्धेषु करोति भक्ति निर्वाणं तेन प्राप्नोति ।। १६९ ।। पदार्थ - [ तस्मात् ] जिस्से रागका निपेध है उस कारण से [ निवृत्तिकामः ] जो
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । मोक्षका अभिलाषी जीव है सो [पुनः ] फिर [सिद्धेषु] विभाव भावसे रहित परमात्मा भावोंमें [भक्तिं] परमार्थभूत अनुरागताको [करोति ] करता है. क्या करके स्वरूपमें गुप्त होता है [निःसङ्गः] परिग्रहसेरहित [च] और [निर्ममः] परद्रव्यमें ममता भावसे रहित [भूत्वा] हो करकें [तेन] उस कारणसे [निर्वाणं] मोक्षको [प्रामोति ] पाता है।
भावार्थ-संसारमें इस जीवके जब रागादिक भावोंकी प्रवृत्ति होती है तब अवश्य ही संकल्प विकल्पोंसे चित्तकी भ्रामकता हो जाती है. जहां चित्तकी भ्रामकता होती है तहां अवश्यमेव ज्ञानावरणादिक कर्मोका वन्ध होता है, इससे मोक्षाभिलापी पुरुपको चाहिये कि कर्मवन्धका जो मूलकारण संकल्प विकल्परूप चित्तकी भ्रामकता है उसके मूलकारण रागा दिक भावोंकी प्रवृत्तिको सर्वथा दूर करै । जब इस आत्माके सर्वथा रागादिककी प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है तब यह ही आत्मा सांसारिक परिग्रहसे रहित हो निर्ममत्वभावको धारण करता है । तत्पश्चात् आत्मीक शुद्धस्वरूप स्वाभाविक निजस्वरूपमें लीन ऐसी परमात्मसिद्धपदमें भक्ति करता है तब उस जीवके स्वसमयकी सिद्धि कही जाती है. इस ही कारण जो सर्वथाप्रकार कर्मबन्धसे रहित होता है वही मोक्षपदको प्राप्त होता है. जवतक रागभावका अंशमात्र भी होगा तबतक वीतरागभाव प्रगट नहिं होता, इसकारण सर्वथा प्रकारसे रागभाव त्याज्य है। ____आगे अरहन्तादिक परमेष्ठिपदोंमें जो भक्तिरूप परसमयमें प्रवृत्ति है उससे साक्षात् मोक्षका अभाव है तथापि परंपरायकर मोक्षका कारण है ऐसा कथन करते हैं।
लपयत्थं तित्थयरं अभिगवुद्धिस्स सुत्तरोइस्स । दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपओत्तस्स ॥ १७०॥
संस्कृतछाया. सपदार्थ तीर्थकरमभिगतवुद्धेः सूत्ररोचिनः ।।
दूरतरं निर्वाणं संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य.॥ १७० ॥ पदार्थ- [सपदार्थ] नवपदार्थसहित [तीर्थकरं] अरहन्तादिक पूज्य परमेष्ठीमें [अभिगतबुद्धेः] रुचिलिये श्रद्धारूप बुद्धि है जिसकी ऐसा जो पुरुप है उसको [निर्वाणं] सकल कर्मरहित मोक्षपद [दरतरं] अतिशय दूर होता है । कैसा है वह पुरुप जो नव पदार्थ पंचपरमेष्टीमें भक्ति करता है ? [ सूत्ररोचिनः] सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत सिद्धान्तका श्रद्धानी है फिर कैसा है ? [संयमतपःसंप्रयुक्तस्य ] इन्द्रियदंडन और धोर उपसर्गरूप तपसे संयुक्त है।
भावार्थ-जो पुरुष मोक्षके निमित्त उद्यमी हुवा प्रवर्ते है और मनसे अगोचर जिन्होंने संयम तपका भार लिया है अर्थात् अंगीकार किया है तथा परमवैराग्यरूपी भूमिकामें चढनेकी है उत्कृष्ट शक्ति जिनमें ऐसा है, विषयानुराग भावसे रहित है तथापि प्रशस्त रागरूप परसमयकर संयुक्त है । उस प्रशस्त रागके संयोगसे नवपदार्थ तथा पंचपरमेष्टीमें भक्तिपूर्वक
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रतीति श्रद्धा उपजती है, ऐसे परसमयरूप प्रशस्त रागको छोड नहि शक्ता । जैसे रूई धुनने हारा पुरुष (धुनिया) रुई धुनते धुनते पीजनीमें जो लगी हुई रूई है उसको दूरकरनेके भय संयुक्त है. तैसें राग दूर नहिं होता. इसकारण ही साक्षात् मोक्षपदको नहिं पाता । जब ऐसा है तो उसकी गति किसप्रकार होती है ? प्रथम ही तो देवादि गतियोंमें संक्लेश प्राप्तिकी परंपराय होती है, तत्पश्चात् मोक्षपदको प्राप्त होता है क्योंकि परंपराय इस सूक्ष्मपर समयसे भी मोक्ष सधती है । . आगें फिर भी अरहन्तादिक पंचपरमेष्ठीमें भक्तिस्वरूप जो प्रशस्त राग है उससे मोक्षका अन्तराय दिखाते हैं।
अरहंतसिडचेदियपचयणभत्तो परेण णियमेण । जो कुणदि तवो कम्मं सो सुरलोगं समादियादि ॥ १७१ ॥
संस्कृतछाया. ___अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्तः परेण नियमेन ।
यः करोति तपःकर्म स सुरलोकं समादत्ते ॥ १७१ ॥ पदार्थ-[य] जो पुरुष [अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्तः] अरहन्त सिद्ध जिन विब और शास्त्रोंमें जो भक्तिभावसंयुक्त [परेण नियमेन] उत्कृष्ट संयमके साथ [तपःकर्म] तपस्यारूप करतूतिको [करोति ] करता है [सः] वह पुरुष [सुरलोकं] स्वर्गलोकको ही [समादत्ते] अंगीकार करता है।
भावार्थ-जो पुरुष निश्चयकरके अरहन्तादिककी भक्तिमें सावधानबुद्धि करता है और उत्कृष्ट इन्द्रियदमनसे शोभायमान परमप्रधान अतिशय तीव्रतपस्या करता है सो पुरुष उतना ही अरहन्तादिक तपरूप प्रशस्तरागमात्र क्लेशकलंकित अन्तरंगभावोंसे भावितचित्त होकर साक्षात् मोक्षको नहिं पाता किन्तु मोक्षका अन्तराय करन हारे स्वर्गलोकको प्राप्त होते हैं. उस वर्गमें वही जीव सर्वथा अध्यात्म रसके अभावसे इन्द्रियविषयरूप विषवृक्षकी वासनासे मोहित चित्तवृत्तिको धरता हुवा बहुत कालपर्यन्त सरागभावरूप अंगारोंसे दह्यमान हुवा बहुत ही खेदखिन्न होता है। आगें साक्षात् मोक्षमार्गका सार दिखानेकेलिये इस शास्त्रका तात्पर्य्य संक्षेपतासे दिखाते हैं।
तमा णिव्वुदिकामो रागं सवत्थ कुणदि मा किंचि । सो तेण वीदागो भविओ भवसायरं तरदि ॥ १७२॥
संस्कृतछाया. तस्मान्निवृत्तिकामो रागं सर्वत्र करोतु मा किञ्चित् ।
स तेन वीतरागो भव्यो भवसागरं तरति ॥ १७२ ।। पदार्थ-[तस्मात् ] जिस्से कि राग भावों कर स्वर्गादि सांसारिक सुख उत्पन्न होते है तिसकारणसे [निवृत्तिकामः ] मुक्त होनेका इच्छुक [सर्वत्र ] सब जगहँ अर्थात्
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। शुभाशुभ अवस्थावोंमें [किञ्चित् ] कुछ भी [रागं] रागभाव [मा करोतु] मत करो। [तेन] जिससे [सः] वह जीव [वीतरागः] सरागभावोंसे रहित होता संता [भव्यः] मोक्षावस्थाके निकटवर्ती होकर [ भवसागरं] संसाररूपी समुद्रको [तरति ] तर जाता है अर्थात् संसारसमुद्रसे पार हो जाता है । . भावार्थ-जो साक्षात् मोक्षमार्गका कारण होय सो वीतराग भाव है सो अरहन्तादिकमें जो भक्ति है वा राग है वह स्वर्ग लोकादिकके क्लेशकी प्राप्ति करके अन्तरंगों अतिशय दाहको उत्पन्न करै है कैसे हैं ये धर्म राग जैसें चंदनवृक्षमें लगी अग्नि पुरुषको जलाती है. यद्यपि चंदन शीतल है अग्निके दाहका दूर करनेवाला है, तथापि चंदनमें प्रविष्टहुई अग्नि आताप को उपजाती है. इसीप्रकार धर्मराग भी कथंचित् दुःखका उत्पादक है. इसकारण धर्मराग भी हेय (त्यागने योग्य ) जानना । जो कोई मोक्षका अभिलाषी महाजन है सो प्रथम ही विषयरागका त्यागी हो हु. अत्यन्त वीतराग होयकर संसारसमुद्रके पार जावहु । जो संसारसमुद्र नानाप्रकारके सुखदुखरूपी कल्लोलोंकेद्वारा आकुल व्याकुल है. कर्मरूप वाडवाग्निकर बहुत ही भयको उपजाता अति दुस्तर है. ऐसे संसारके पार जाकर परममुक्त अवस्थारूप अमृतसमुद्रमें मग्न होय कर तत्काल ही मोक्षपदको पाते हैं. बहुत विस्तार कहांतक किया जाय, जो साक्षात् मोक्षमार्गका प्रधान कारण है समस्त शास्त्रोंका तात्पर्य है ऐसा जो वीतरागभाव सो ही जयवन्त होहु । सिद्धान्तोंमें दो प्रकारका तात्पर्य दिखाया है. एक सूत्रतात्पर्य एक शास्त्रतात्पर्य जो परंपराय सूत्ररूपसे चला आया होय सो तो सूत्रतात्पर्य है और समस्तशास्त्रोंका तात्पर्य वीतरागभाव हैं. क्योंकि उस जिनेन्द्रप्रणीत शास्त्रकी उत्तमता यह है कि चार पुरुषार्थों से मोक्ष पुरुषार्थप्रधान है. उस मोक्षकी सिद्धिका कारण एकमात्र वीतरागप्रणीत शास्त्र ही हैं क्योंकि षड्द्रव्य पंचास्तिकायके स्वरूपके कथनसे जब यथार्थ वस्तुका स्वभाव दिखाया जाता है तब सहजही मोक्षनामापदार्थ सधता है. यह सव कथन शास्त्रमें ही है. नव पदार्थोंके कथन कर प्रगट किये हैं । बंधमोक्षका सम्बन्ध पाकर वन्धमोक्षके ठिकाने और वन्धमोक्षके भेद, स्वरूप सव शास्त्रोंमें ही दिखाये गये हैं और शास्त्रोंमें ही निश्चय व्यवहाररूप मोक्षमार्गको भले प्रकार दिखाया गया है और जिनशास्त्रोंमें वर्णन कियेहुये मोक्षके कारण जो परम वीतराग भाव हैं, उनसे शान्तचित्त होता है. इसकारण उस परमागमका तात्पर्य वीतरागभाव ही जानना. सो यह वीतरागभाव व्यवहारनिश्चयनयके अविरोधकर जब भले प्रकार जाना जाता है तब ही प्रगट होता है और वांछित सिद्धिका कारण होता है. अन्यप्रकारसे नहीं । ___ आगे निश्चय और व्यवहारनयका अविरोध दिखाते हैं. जो जीव अनादि कालसे लेकर भेदभावकरवासितबुद्धि, हैं. वे व्यवहार नयावलंबी होकर भिन्न साध्यसाधनभावको अंगीकार करते हैं तव सुखसें पारगामी होते हैं. प्रथम ही जे जीव ज्ञानअवस्थामें रहने
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् वाले हैं वे तीर्थ कहाते हैं. तीर्थसाधनभाव जहां है तीर्थफल शुद्ध सिद्धअवस्था साध्यभाव है. तीर्थ क्या है सो दिखाते हैं, जिन जीवोंके ऐसे विकल्प होंहि कि यह वस्तु श्रद्धा करने योग्य है, यह वस्तु श्रद्धा करने योग्य नहीं है, श्रद्धा करनेवाला पुरुष ऐसा है, यह श्रद्धान है, इसका नाम अश्रद्धान है, यह वस्तु जानने योग्य है, यह नहिं जानने योग्य है, यह स्वरूप ज्ञाताका है, यह ज्ञान है, यह अज्ञान है, यह आचरने योग्य है, यह वस्तु आचरने योग्य नहीं है, यह आचारमयी भाव हैं, यह आचरण करनेवाला है, यह चारित्र है, ऐसें अनेकप्रकारके करने न करनेके कर्ताकर्मके भेद उपजते हैं, उन विकल्पोंके होतेहुये उन पुरुष तीर्थोको सुदृष्टिके बढावसे वारंवार उन पूर्वोक्त गुणोंके देखनेसे प्रगट उल्लासलिये उत्साह बढे है । जैसें द्वितीयाके चंद्रमाकी कला बढती जाती है, तैसें ही ज्ञानदर्शनचारित्ररूप अमृतचंद्रमाकी कलावोंका कर्तव्याकर्त्तव्य भेदोंसे उन जीवोंके बढवारी होती है । फिर उन ही जीवोंके शनैः शनैः (होलै होलै) मोहरूप महामल्लका मूल सत्तासे विनाश होता है । किस ही एक कालमें अज्ञानताके आवेशते प्रमादकी आधीनतासे उनही जीवोंके आत्मधर्मकी सिथिलता है. फिर आत्माको न्यायमार्गमें चलानेकेलिये आपको प्रचण्ड दंड देते हैं । शास्त्रन्यायसे फिर ये ही जिनमागी वारंवार जैसा कुछ रत्नत्रयमें दोष लगा होय उसीप्रकार प्रायश्चित्त करते हैं. फिर निरन्तर उद्यमी रहकर अपनी आत्माको जो आत्मस्वरूपसे भिन्नस्वरूप श्रद्धानज्ञानचारित्ररूप व्यवहाररत्नत्रयसे शुद्धता करते हैं. जैसें मलीन वस्त्रको धोवी भिन्न साध्यसाधनभावकर सिलाके उपरि सावन आदि सामग्रियोंसे उज्वल करता है तैसें ही व्यवहारनयका अवलम्ब पाय भिन्न साध्यसाधनभावकेद्वारा गुणस्थान चढनेकी परपाटीके क्रमसे विशुद्धताको प्राप्त होता है। फिर उन ही मोक्षमार्ग साधक जीवोंके निश्चयनयकी मुख्यतासे भेदस्वरूप परअवलंबी व्यवहारमयी भिन्न साध्यसाधनभावका अभाव है. इसकारण अपने दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपविषै सावधान होकर अन्तरंग गुप्त अवस्थाको धारण करता है । और जो समस्त वहिरंग योगोंसे उत्पन्न है क्रियाकांडका आडम्बर, तिनसे रहित निरंतर संकल्प विकल्पोंसे रहित परम चैतन्य भावोंके द्वारा सुंदर परिपूर्ण आनंदवंत भगवान् परब्रह्म आत्मामें स्थिरताको करै है ऐसे जे पुरुप हैं, वे ही निश्चयावलम्बी जीव हैं. व्यवहारनयसे अ. विरोधी क्रमसे परम समरसीभावके भोक्ता होते हैं. तत्पश्चात् परम वीतरागपदको प्राप्त होयकर साक्षात् मोक्षावस्थाके अनुभवी होते हैं । यह तो मोक्षमार्ग दिखाया. अब जे एकान्तवादी हैं मोक्षमार्गसे पराङ्मुख हैं उनका स्वरूप दिखाया जाता है.--जो जीव केवलमात्र व्यवहारनयका ही अवलंबन करते हैं उन जीवोंके परद्रव्यरूप भिन्न साध्यसाधनभावकी दृष्टि है स्वद्रव्यरूप निश्चयनयात्मक अभेदसाध्यसाधनभाव नहीं है. अकेले व्यवहारसे खेदखिन्न हैं. वारंवार परद्रव्यम्वरूप धर्मादिक पदार्थों में श्रद्धानादिक अनेक
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श्री पञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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प्रकारकी वृद्धि करता है बहुत द्रव्यश्रुतके पठनपाठनादि संस्कारसे नानाप्रकारके विकल्प जालोंसे कलंकित अन्तरंगवृत्तिको धारण करते हैं. अनेकप्रकार यतिका द्रव्यलिंग, जिन बहिरंगत्रत तपस्यादिक कर्मकांडोंके द्वारा होता है उनका ही अवलंबन कर खरूपसे भ्रष्ट हुवा है दर्शनमोहके उदयसे व्यवहार धर्मरागके अंशकर किस ही काल पुण्यक्रियामें रुचि करता है किस ही काल में दयावन्त होता है किस ही काल में अनेक विकल्पोंको उपजाता है किसी कालमें कुछ आचरण करता है किसही काल दर्शनके आचरण निमित्त समताभाव धरता है. किस ही कालमें प्रगटदशाको धरता है । किसही काल धर्ममें अस्तित्वभावको धारण करता है शुभोपयोग प्रवृत्तिसे शंका कांक्षा विचिकित्सा मूढदृष्टि आदिक भावोंके उत्थापन निमित्त सावधान होकर प्रवर्त्ते है । केवल व्यवहारनय रूप ही उपबृंहण स्थितिकरण वात्सल्य प्रभाव - नांगादि अंगों की भावना भाव है. वारंवार उत्साहको बढाता है ज्ञानभावना के निमित्त पठन पाठनका काल विचारता रहै है. बहुत प्रकार विनयमें प्रवर्त्ते है. शास्त्रकी भक्तिके निमित्त बहुत आरंभ भी करता है. भले प्रकार शास्त्रका मान करता है गुरु आदिकमें उपकार प्रवृत्तिको मुकुरते नहीं. अर्थ अक्षर और अर्थअक्षरकी एक कालमें एकताकी शुद्धतामें सावधान रहता है. चारित्र के धारण करनेकेलिये हिंसा 'असत्य चौरी स्त्रीसेवन परिग्रह इन पांच अधर्मोंका जो सर्वथा त्यागरूप पंचमहाव्रत हैं तिनमें थिरवृत्तिको करता है । मनवचनकायका निरोध है जिनमें ऐसी तीन गुप्तियोंकर निरन्तर योगावलंबन करता हैं. ईर्या भाषा एपणा आदाननिक्षेपण उत्सर्ग जो पांच समिति हैं उनमें सर्वथा प्रयत्न करता है. तप आचरणके निमित्त अनसन अवमोदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेश इन छह प्रकार बाह्य तपमें निरन्तर उत्साह करे है. प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्त व्युत्सर्ग स्वाध्याय ध्यान इन छह प्रकारके अन्तरंग तपकेलिये चित्तको वश करे है. वीर्याचारके निमित्त कर्मकांड में अपनी सर्वशक्तिसे प्रवर्तें है । कर्मचेतनाकी प्रधानता से सर्वथा निवारी है अशुभकर्मकी प्रवृत्ति जिन्होंने, वे ही शुभकर्मकी प्रवृत्तिको अंगीकार फरते हैं. समस्त क्रियाकांडके आडंबर से गर्भित ऐसे जे जीव हैं ते ज्ञानदर्शनचारित्र - रूपगर्भित ज्ञान चेतनाको किसही कालमें भी नहिं पाते. बहुत पुण्याचरणके भारसे गर्भित चित्तवृत्तिको धरते हैं ऐसे जे केवल व्यवहाराबलंबी मिध्यादृष्टि जीव स्वर्गलोकादिक क्लेशोंकी प्राप्तिकी परंपरायको अनुभव करते हुये परमकलाके अभाव से बहुतकालपर्यन्त संसारमें परिभ्रमण करेंगे । सो कहा भी है.
उक्तं च-गाथा
"चरणकरणप्पाणा सुसमयपरमत्थ मुकवावारा । चरणकरणस्स सारं णिच्चयसुद्धं ण याणंति" ।। १ ॥ और जो जीव केवल निश्चयनयके ही अवलंबी हैं वे व्यवहाररूप
स्वराजी
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कर्मकांडको आडंबर जान व्रतादिकमें विरागी होय रहे हैं. अर्द्ध उन्मीलित लोचनसे ऊर्ध्वमुखी होकर स्वच्छंदवृत्तिको धारण करते हैं. कोई २ अपनी बुद्धिसे ऐसा मानते हैं कि हम स्वरूपको अनुभवते हैं ऐसी समझसे सुखरूप प्रवत्र्त है. भिन्न साध्यसाधनभावरूप व्यवहारको तो मानते नहीं, निश्चयरूप अभिन्न साध्यसाधनको अपनेमें मानते हुये यों ही बहक रहे हैं. वस्तुको पाते नहीं, न निश्चयपदको पाते हैं, न व्यवहार पदको पाते हैं. 'इतोभ्रष्ट उतोभ्रष्ट' होकर बीचमें ही प्रमादरूपी मदिराके प्रभावसे चित्तमें मतवाले हुये मूर्छितसे हो रहे हैं. जैसे कोई वहुत घी, मिश्री दुग्ध इत्यादि गरिष्ट वस्तुके पान भोजनसे सुथिर आलसी हो रहे हैं. अर्थात् अपनी उत्कृष्ट देहके बलसे जड़ हो रहे । हैं. महा भयानक भावसे जानों कि मनकी भ्रष्टतासे मोहित विक्षिप्त हो गये हैं. चैतन्य भावकर रहित जानो कि बनस्पती ही हैं । मुनिपदवी करनेहारी कर्मचेतनाको पुण्यवंधके भयसे अवलम्बन नहिं करते और परम निःकर्मदशारूप ज्ञानचेतनाको अंगीकार करी ही नहीं, इसकारण अतिशय चंचलभावोंके धारी हैं. प्रगट अप्रगटरूप जो प्रमाद हैं उनके आधीन हो रहे हैं । महा अशुद्धोपयोगसे आगामी कालमें कर्मफल चेतनासे प्रधान होते हुये वनस्पतीकी समान जड़ हैं. केवल मात्र पापहीके बांधनेवाले हैं । सो कहा भी है।
उक्तं च गाथा"णिचयमालंवंता णिच्चयदो णिञ्चयं अयाणंता ।
णासंति चरणकरणं वाहरिचरणालसा केई" ॥२॥ और जो कोई पुरुष मोक्षके निमित्त सदाकाल उद्यमी हो रहे हैं वे महा भाग्यवान हैं निश्चय व्यवहार इन दोनों नयोंमें किसी एकका पक्ष नहिं करते, सर्वथा मध्यस्थ भाव रहते हैं. शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्वमें स्थिरता करनेकेलिये सावधान रहते हैं । जब प्रमादभावकी प्रवृत्ति होती है तब उसको दूर करनेकेलिये शास्त्राज्ञानुसार क्रियाकांड परिणतिरूप प्रायश्चित्त करके अत्यन्त उदासीन भाव धारण करते हैं फिर यथा शक्ति आपको आपकेद्वारा आपमें ही वेदै है । सदा निजस्वरूपके उपयोगी होते हैं जो ऐसे अनेकान्त वादी साधक अवस्थाके धरनहारे जीव हैं वे अपने तत्त्वकी थिरताके अनुसार क्रमक्रमसे कर्मोंका नाश करते हैं. अत्यन्त ही प्रमादसे रहित होते अडोल अवस्थाको धरते हैं । ऐसा जानो कि बनमें वनस्पती है दूर कीना है कर्मफल चेतनाका अनुभव जिन्होंने ऐसे, तथा कर्म चेतनाकी अनुभूतिमें उत्साह रहित हैं. केवल मात्र ज्ञान चेतनाकी अनुभूतिसे आत्मीक सुखसे भरपूर हैं. शीघ्र ही संसार समुद्रसे पार होकर समस्त सिद्धान्तोंके मूल शास्वत पदके भोक्ता होते हैं।
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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अब ग्रन्थकर्त्ताने प्रतिज्ञा की थी कि मैं पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ कहूंगा सो उसको संक्षेपमें ही करके समाप्त करते है ।
मग्गष्पभावणङ्कं पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया । भणियं पवयणसारं पंचत्थिय संगहं सुतं ॥ १७३ ॥
संस्कृतछाया. मार्गप्रभावनार्थ प्रवचनभक्तिप्रचोदितेन मया ।
भणितं प्रवचनसारं पञ्चास्तिकायसंग्रहं सूत्रं ॥ १७३ ॥
पदार्थ – [ मया ] मुझ कुन्दकुदाचार्यने [पञ्चास्तिकायसङ्ग्रहं ] कालके बिना पंचास्तिकायरूप जो पांच द्रव्य उनके कथनका संग्रह है जिसमें ऐसा जो यह [ सूत्रं ] शब्द अर्थ गर्मित संक्षेप अक्षर पद वाक्य रचना सो [ भणितं ] पूर्वाचार्यों की परंपराय शब्द ब्रह्मानुसार कहा है । कैसा है यह पञ्चास्तिकाय ग्रंथ ? [ प्रवचनसारं ] द्वादशांगरूप जिनवाणीका रहस्य है. कैसा हूं मैं? [ प्रवचनभक्तिप्रचोदितेन ] सिद्धान्त कहनेके अनुरागकर प्रेरित किया हुवा, किसलिये यह ग्रन्थ रचना कियी ? [ मार्गप्रभावनार्थ ] जिनेन्द्र भगवन्त प्रणीत जिनशासनकी वृद्धिकेलिये ।
भावार्थ–संसारविषयभोगसे परम वैराग्यताकी करनेहारी भगवन्तकी आज्ञाका नाम मोक्षमार्ग है. उसकी प्रभावनाके अर्थ यह ग्रन्थ मैने किया है अथवा उस ही मोक्षमार्गका उद्योत किया है सिद्धान्तानुसार संक्षेपतासे भक्तिपूर्वक पञ्चास्तिकाय नामा मूलसूत्र ग्रन्थ कहा है । इसप्रकार ग्रन्थकर्त्ता श्री कुंदकुंदाचार्य महाराजने यह ग्रन्थ प्रारंभ किया था सो उसके पारको प्राप्त हुये. अपनी कृत्यकृत्य अवस्था मानी, कर्मरहित शुद्धस्वरूपमें स्थिरभाव किया, ऐसी हमारेमें भी श्रद्धा उपजी है ।
इति श्रीसमयव्याख्यायां नवपदार्थपुरःसरमोक्षमार्गप्रपञ्चवर्णनो नाम द्वितीयश्रुतस्कन्धः समाप्तः ।
यह भाषावालावबोध कुछयक अमृतचन्द्रसूरीकृत टीकाके अनुसार श्रीरूपचन्द्र गुरुके प्रसादथी पांडे हेमराजने अपनी बुद्धिमाफिक लिखित कीनी. उसीके अनुसार सुजानगढ जिले बीकानेर निवाथी पन्नालाल बाकलीवाल दिगम्बरी जैनने सरल हिंदीभाषा में लिखी । मिती चैत्रवदि ५ सं० १९६९ वार रविवार ता० ६ मार्च सन १९०४ के प्रातःकाल ही पूर्ण किया । श्रीरस्तु शुभमस्तु ||
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ॐ नमः सिद्धेश्यः।
अथ
पञ्चास्तिकायसमयसारस्य श्रीमदमृतचन्द्राचार्यकृता संस्कृतटीका।
मङ्गलाचरणम् । सहजानन्दचैतन्यप्रकाशाय महीयसे । नमोऽनेकान्तविश्रान्तमहिम्ने परमात्मने ॥१॥ दुर्निवारनयानीकविरोधध्वंसनौषधिः। स्यात्कारजीविता जीयाजैनी सिद्धान्त-पद्धतिः ॥२॥ सम्यग्ज्ञानामलज्योतिर्जननी द्विनयाश्रया। अथातः समयव्याख्या संक्षेपेणाऽभिधीयते ॥ ३॥ पञ्चास्तिकायषद्रव्यप्रकारेण प्ररूपणं । पूर्व मूलपदार्थानामिहं सूत्रकृता कृतम् ॥ ४॥ जीवाजीवद्विपर्यायरूपाणां चित्रवर्त्मनाम् । ततो नवपदार्थानां व्यवस्था प्रतिपादिता ॥५॥ ततस्तत्वपरिज्ञानपूर्वण त्रितयात्मना।
प्रोक्ता मार्गेण कल्याणी मोक्षप्राप्तिरपश्चिमा ॥ ६॥ [१] अथात्र 'नमो जिनेभ्यः' इत्यनेन जिनभावनमस्काररूपमसाधारणं शास्त्रस्याऽऽदौ मङ्गलमुपात्तं । अनादिना संतानेन प्रवर्त्तमाना अनादिनैव संतानेन प्रवर्त्तमानैरिन्द्राणां शतैर्वन्दिता ये इत्यनेन सर्वदैव देवाधिदेवत्वात्तेपामेवाऽसाधारणनमस्कारार्हत्वमुक्तम् । त्रिभुवनमूर्ध्वाधोमध्यलोकवर्ती समस्त एव जीवलोकस्तस्मै निर्व्यावाधविशुद्यात्मतत्वोपलम्भोपायाभिधायित्वाद्धितं । परमार्थरसिकजनमनोहारित्वान्मधुरम् । निरस्तसमस्तशंकादिदोषास्पदत्वाद्विशदवाक्यम् । दिव्यो धनिर्येपामित्यनेन समस्तवस्तुयाथात्म्योपदेशित्वात्प्रेक्षावत्प्रतीक्ष्यत्वमाख्यातम् । अन्तमतीतः क्षेत्रानवच्छिन्नः कालानवच्छिन्नश्च परमचैतन्यशक्तिविलासलक्षणो गुणो येषामित्यनेन तु परमाद्भुतीनातिशयप्रकाशनादवाप्त
१ पूयाय गरिष्टाय वा. २ द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक-भेदेन वा व्यवहारनिश्चयेन. ३ समुच्चयेन. ४ कथ्यते. ५ तावत् प्रथमतः पञ्चास्तिकायषद्रव्यप्रतिपादनरूपेण प्रथमोऽधिकारः. ६ इह ग्रन्थे प्रथमाधिकारे वा. ७ आचार्यण, (मूलकी श्रीवर्धमानः, उत्तरकर्ता श्रीगौतमगणधरः, उत्तरोत्तरकर्ता श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः सूत्रकारः) ८ सप्ततत्वनवपदार्थव्याख्यानरूपेण द्वितीयोऽधिकारः ९ पञ्चास्तिकायपद्रव्यनवपदार्थानां ज्ञानपूर्वेण. १० उत्तमा. ११ अनेकभवगह्नव्यसनप्रापणहेतून् कारातीन् जयन्तीति जिनाः तेभ्यः. १२ नमस्कारेण. १३ असदृशम्. १४ मलं पापं गालयतीति मङ्गलम् , वा मङ्गं मुखं तल्लातीति गृह्णातीति मङ्गलं. १५ विशेषणेन वाक्येन वा. १६ जिनानाम. १७ अनन्यसदृशम्. १८ जीवलोकाय त्रिभुवनाय. १९ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसंजातसहजापूर्वपरमानन्दरूपपारमार्थिकमुखरसास्वादसमरसीभावरसिकजनमनोहारित्रात् मधुरम्. २० प्रकृष्टाश्चर्यदानप्रतापप्रकाशनात् ।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ज्ञानातिशयानामपि योगीन्द्राणां वन्द्यत्वमुदितम् । जितो भव आजवं जवो यैरित्यनेन तु कृतकृत्यत्वप्रकटनात्त एवान्येषामकृतकृत्यानां शरण मित्युपदिष्टम् । इति सर्वपदानां तात्पर्यम् ॥
[ २ ] समयो ह्यागमः । तस्य प्रणामपूर्वकमात्मनाभिधानमंत्र ग्रंतिज्ञातम् । पूज्यते हि स प्रणन्तु. मभिधातुं चाप्तोपदिष्टत्वे सति सफलत्वात् । तत्राप्तोपदिष्टत्वमस्य श्रमणमुखोद्गतार्थत्वात् । श्रमणा हि महाश्रमणाः सर्वज्ञवीतरागाः । अर्थः पुनरनेकशब्दसंवन्धेनाभिधीयमानो वस्तुतयैकोऽभिधेयः। सफलत्वं तु चतसृणां नारकतिर्यग्मनुष्यदेवत्वलक्षणानां गतीनां निवारणत्वात् , साक्षात् पारतत्र्यनिवृत्तिलक्षणन्य निर्वाणस्य शुद्धात्मतत्वोपलम्भरूपस्य परम्परया कारणत्वात् , स्वातन्त्र्यप्राप्तिलक्षणस्य च फलस्य सद्भा. वादिति ॥
[ ३ ] अत्र शब्दज्ञानार्थरूपेण त्रिविधाऽभिधेयता समयशब्दस्य लोकालोकविभागश्चाभिहितः । तंत्र च पश्चानामस्तिकायानां समो मध्यस्थो रागद्वेषाभ्यामनुपहतो वर्णपदवाक्यसन्निवेशविशिष्टः पाठो वादः शब्दसमयः शब्दागम इति यावत् । तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयोच्छेदे सति सैन्यगवायः परिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानागम इति यावत् । तेपामेवाभिधानप्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवायः संघातोऽर्थसमयः सर्वपदार्थसार्थ इति यावत् । तदत्रै ज्ञानसमयप्रसिद्ध्यर्थ शब्दसमयसंबन्धनार्थसमयोऽभिधातुमभिप्रेतः । अथ तस्यैवार्थसमयस्य द्वैविध्यं लोकालोकविकल्पनात् । स एव पञ्चास्तिकायसमयो यावांस्तावाल्लोकस्ततः परममितोऽनन्तो ह्यलोकः, स तु नाभावमात्रं । किं तु तत्समवायातिरिक्तपरिमाणमनन्तक्षेत्रं खमाकाशमिति ॥
[४ ] अत्र पञ्चास्तिकायानां विशेषसंज्ञा सामान्यविशेषास्तित्वं कोयत्वं चोक्तं । तत्र जीवाः पुगलौः धमाधम्मौ आकौशमिति । तेषां विशेषसंज्ञा अँन्वर्थाः प्रत्येयाः । सामान्यविशेषास्तित्वञ्च तेषामुत्पा
व्ययध्रौव्यमय्यां सामान्यविशेषसत्तायां नियतत्वाद्वयवस्थित्वादेवसेयम् । अस्तित्वे नियंतानामपि न तेषामन्यमयत्वम् । यतस्ते सर्वदेवानन्यमया आत्मनिर्वृत्ताः । अनन्यमयत्वेऽपि तेषामस्तित्वनियतत्वं
१ घातिकर्मापायातिशयप्रतिपादनेन. २ कृतकार्यत्वप्रकाशनात्. ३ अकृतकार्याणाम्. ४ शरणं नान्य इति प्रतिपादितमस्ति. ५ द्रव्यागमरूपशब्दसमयोऽभिधानवाचकः ६ आगमस्य मध्ये. ७ प्रतिज्ञयावधारितम्. ८ अत्र समयव्याख्यायां समयशब्दस्य शब्दज्ञानार्थभेदेन पूर्वोक्तमेव त्रिविधव्याख्यानं वित्रियते पञ्चानां जीवाद्यस्तिकायानां प्रतिपादको वर्णपदवाक्यरूपो वादः पाठः शब्दसमयो द्रव्यागम इति यावत् । तेषां पञ्चानां मिथ्यासोदयाभावे सति संशय, विमोह, विभ्रम, रहितत्वेन सम्यग् यो वोधनिर्णयो निश्चयो ज्ञानसमर्थोऽर्थपरिच्छित्तिर्भावश्रुतरूपो भावागम इति यावत् तेन द्रव्यागमरूपसमयेन वाच्यो भावश्रुतरूपज्ञानसमयेन परिच्छेद्यः पञ्चानामस्तिकायानां समूहः समय इति हि मन्यते । तत्र शब्दसमयाधारेण ज्ञानसमयप्रसिद्ध्यर्थं समयोऽत्र व्याख्यातुं प्रारब्धः ९ त्रिपु समयेपु. १० द्रव्यरूपशब्दसमयः. ११ भावागमसम्यग्ज्ञानम्. १२ ज्ञातानाम्. १३ अत्र ग्रन्थे त्रिपु मध्ये वा. १४ वाञ्छितः प्रारब्धः. १५ लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोकः. १६ लोकात्तस्मात् वहिर्भूतमनन्तशुद्धाकाशमलोकः. १७ कायाकायाइव काया वहुप्रदेशोपचयत्वात् शरीरवत्वं प्रतिपादितं. १८ यत्किमपि चिद्रूपं स जीवास्तिकायो भण्यते. १९ यदृश्यमानं किमपि पञ्चेन्द्रिययोग्यं स पुद्गलास्तिकायो भण्यते. २० तयोर्जीवपुद्गलयोर्गतिहेतुलक्षणो धर्मः. २१ स्थितिहेतुलक्षणश्चाधर्मः. २२ अवगाहनलक्षणं. २३ अस्तिकायानां पञ्चानां. २४ यथार्थाः. २५ अस्तित्वे सामान्य विशेषसत्तायां नियताः स्थिताः तर्हि सत्तायाः सकाशात् कुण्डे वदराणीव भिन्ना भविष्यन्ति. २६ निश्चितखात्. २७ . विशेपरहितं ज्ञातव्यं. २८ अविनश्वराणाम्. २९ तेषां पञ्चास्तिकायानां. ३० पृथग्वलम्. ३१ अपृथग्भूताः । यथा घटे रूपादयः शरीरे हस्तादयः । अनेन व्याख्यानेन आधाराधेयभावेऽप्यभिन्नास्तिवम्. ३२ स्वतः निप्पन्नाः. ३३ नियतत्वं निश्चलत्वम्.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका। नयेप्रयोगात् । द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । तत्र न खल्वेकनयायत्ताऽऽदेशनों किन्तु तदुभयायत्ता । ततः पर्यायार्थादेशादस्तित्वे स्वतःकथंचिद्भिन्नेऽपि व्यवस्थिताः द्रव्यार्थादेशात्स्वयमेव सन्तः संतोऽनन्यमयों भवन्तीति । कायत्वमपि तेपामणुमहत्वात् । अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्त्ताऽमूर्ताश्च निर्विभागांशास्तैः महान्तोऽणुमहान्तः प्रदेशप्रचयात्मका इति सिद्धं तेषां कोयत्वं । अणुभ्यां महान्त इति व्युत्पत्त्या द्वयणुकपुद्गलस्कन्धानामपि तथाविधत्वम् । अणवश्च महान्तश्च व्यक्तिशक्तिरूपाभ्यामिति परमाणूनामेकप्रदेशात्मकत्वेऽपि तत्सिद्धिः । व्यत्यपेक्षया शक्त्यपेक्षया च प्रदेशप्रचयात्मकस्य महत्वस्याभावात्कालोनामस्तित्वनियतत्वेऽप्यकायत्वमनेनैव साधितम् । अतएव तेषामस्तिकायप्रकरणे सतामप्यनुपादानमिति ॥
[५] अंत्र पञ्चास्तिकायानामस्तित्वसंभवप्रकारः कायत्वसंभवप्रकारश्चोक्तः । अस्ति यस्तिकायानां गुणः पर्यायैश्च विविधैः सह स्वभावो आत्मभावोऽन्यत्वम् । वस्तुनो विशेषी हि व्यतिरेकिणः पर्साया गुणास्तु त एवान्वयिनः । तत एकेन पर्यायेण प्रलीयमानस्सान्येनोपजायमानस्यान्वयिना गुणेन श्रौव्यं विभ्राणस्सैकस्याऽपि वस्तुनः समुच्छेदोत्पादध्रौव्यलक्षणमस्तित्वमुपपद्यतएव । गुणपर्यायैः सह सर्वथान्यत्वे त्वन्यो विनश्यत्यन्यः प्रादुर्भवत्यन्यो ध्रुवत्वमालम्बत इति सर्व विप्लवते । ततः साध्वस्तित्वसंभवप्रकारकथनं । कायत्वसंभवप्रकारस्त्वयमुपदिश्यते । अवयविनो हि जीवपुद्गलधर्माऽधाऽऽकाशपदार्थास्तेमवयवा अपि प्रदेशाख्याः परस्परध्यतिरेकित्वात्पर्याया उच्यन्ते । तेषां तैः सहानन्यत्वे कायत्वसिद्धिरुपैत्तिमती । निरवयवस्यापि परमाणोः सा वयवत्वशक्तिसद्भावात् कायत्वसिद्धिरत एवानपवादा । न चैवं तदा शङ्कयम् पुद्गलादन्येषाममूर्तत्वादविभाज्यानां सावयत्वकल्पनमन्याय्य॑म् । दृश्यत एवाविभाज्येऽपि विहायसीदं घटाकाशमिदमघटाकाशमिति विभागकल्पनम् । यदि तंत्र विभागो न कल्पेत तदा यदेव घटाकाशं तदेवाघटाकाशं स्यात् । न च तदिष्टं । ततः कालाणुभ्योऽन्यत्र सर्वेषां कायत्वाख्यं सावयवत्वमवसेयं । त्र्यैलोक्यरूपेण निष्पन्नत्वमपि तेषामस्तिकायत्वसाधनपरमुपन्यस्तम् । तथाच-त्रयाणामू;ऽधोमध्यलोकानामुत्पादव्ययधौव्यवन्तस्तैदेविशेषात्मका भावा भवन्तस्तेषां मूलपदार्थानां गुणपर्यय
१ द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्ये पर्याय वा वस्तुताध्यवसायो नय इति यावत् । यद्वा स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेपव्यजको नयः. २ तत्र पर्यायाभावात् द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः. ३ द्रव्याभावात् पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः. ४ द्वयोर्नययोमध्ये. ५ सर्वज्ञानामुपदेशः. ६ तिष्टमानाः पञ्चास्तिकायाः. ७ विद्यमानाः भवन्तः. ८ अस्तित्वतः. ९ अपृथग्भूताः. १० निर्विभागैरणुभिः. ११ अणुभिः प्रदेशैर्महान्तः अणुमहान्तः यणकस्कन्धापेक्षया द्वाल्यामणुभ्यां महान्त इति कायवमुक्तं । एकप्रदेशाणोः कथं कायत्वमिति चेत् स्कन्धानां कारणभृतायाः स्निग्धरूपत्वशक्तेः सद्भावादुपचारेण कायत्वं भवति. १२ कायत्वसिद्धिः. १३ कालाणूनां पुनर्वन्धकारणभृतायाः स्निग्धरूक्षत्वशक्तेः सदभावादुपचारेण कायत्वं नास्ति. १४ कालाणूनां. १५ विद्यमानानाम्. १६ अथ पूर्वोक्तमस्तित्वं केन प्रकारेण संभवतीति प्रतिज्ञापयति. १७ सहभुवो गुणाः. १८ व्यतिरेकिणः पर्यायैः. १९ अभिन्नत्वं. २० वस्तुनः द्रव्यस्य. २१ केवलज्ञानादयो गुणाः. २२ एकस्यापि वस्तुनो भूतभाविभवत्पर्यायभंदपु वर्तमानस्य यदनुगतप्रत्ययोत्पादकं सोऽन्वयः स एपामिति ते अन्वयिनः. २३ भिन्नत्वे. २४ विनश्यति. २५ प्रदेशाच्या अवयवाः विद्यन्ते येषां ते अवयविनः. २६ तेषां जीवादिपदार्थानाम् त्रिभुवनाकारपरिणतानां सावयवत्वात सः प्रदेशाड्यः. २७ अन्योन्यभिन्नत्वात् भिन्नत्वात् पृथग्भावाद्वा. २८ अस्तिकायानां. २९ तैः पर्यायः. ३० अभिन्नत्वे. ३१ युक्तिमती. ३२ अपवादरहिता निश्चयसिद्धिरित्यर्थः. ३३ विभागरहितानां अखण्डानां. १४ अयोग्यमिति शहा न कर्तव्या. ३५ विभागरहिते. ३६ आकाशे. ३७ इंटं मान्यं, २८ कालद्रव्यं विहाय कायत्वं च विद्यते इति अङ्गीकर्तव्यम्. ३९ तेपामूर्ध्वाधोमध्यलोकानां.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
योगपूर्वकम स्तित्वं साधयन्ति । अनुमीयते च धर्माधर्म्माकाशानामृर्थ्याऽधोमध्यलोक विभागरूपेण परिणमनात्कायत्वाख्यं सावयवत्वम् । जीवानामपि प्रत्येक मूर्ध्वाधोमध्यलोक विभागरूपे परिणमनत्वालोकपूरणावस्थाव्यवस्थितव्यक्तस्सदा सन्निहितशक्तेस्तदनुमीयत एव । पुलानामप्यूर्ध्वाधोमध्यलोकविभागरूपपरिणतमहास्कन्धत्वप्राप्तिव्यक्तिशक्तियोगित्वात्तथाविधा सावयवत्वसिद्धिरस्त्येवेति ॥
४
[ ६ ] अत्र पञ्चास्तिकायानां कालस्य च द्रव्यत्वमुक्तम् । द्रव्याणि हि संहमभुवां गुणपर्यायाणामनन्यतयाssधारभूतानि भवन्ति । ततो वृत्तवर्तमानवर्तिप्यमाणानां भावानां पर्यायाणां स्वरूपेण परिणतत्वादस्तिकायानां परिवर्तनलिङ्गस्य कालस्य चास्ति द्रव्यत्वं । नच तेषां भूतभवद्भविप्यभावात्मना परिणममानानामनित्यत्वम् । यतस्ते भूतभवद्भविष्यद्भावावस्थास्वपि प्रतिनियतस्त्ररूपापरित्यागान्नित्या एव । अंत्र कालः पुद्गलादिपरिवर्तन हेतुत्वात्पुद्गलादिपरिवर्तनगम्यमानपर्यायत्याच्चास्तिकायेप्यन्तर्भावार्थ - परिवर्तनलिङ्ग इत्युक्त इति ॥
[ ७ ] अत्र षण्णां द्रव्याणां परस्परमत्यन्तसंकरेऽपि प्रतिनियतं स्वरूपादप्रच्यवनमुक्तम् । अत एव तेषां परिणामवत्वेऽपि प्राग्नित्यत्वमुक्तम् । अत एव च न तेषामेकत्वापत्तिर्न च जीवकर्मणोर्व्यत्रहारनयादेशादेकत्वेऽपि परस्परस्वरूपोपादानमिति ॥
I
[८] अत्रास्तित्वस्वरूपमुक्तम् । अस्तित्वं हि सत्ता नाम सतो भावः । सत्यं न सर्वथा नित्यतया सर्वथा क्षणिकतया वा विद्यमानमात्रं वस्तु । सर्वथा नित्यस्य वस्तुनस्तत्वतः क्रमभुवां भवानामभावा`त्कुतो विकारवत्वम् । सर्वथा क्षणिकस्य च तत्वतः प्रत्यभिज्ञानाभावात् कुत एकसंतानत्वम् । ततः प्रत्यभिज्ञानहेतुभूतेन केनचित्स्वरूपेण श्रौव्यमालम्व्यमानं काभ्यांचित्क्रमप्रवृत्ताभ्यां स्वरूपाभ्यां प्रलीयमानमुपजायमानं चैककालमेव परमार्थतस्त्रितयीमवस्थां विभ्राणं वस्तु सदवबोध्यम् । अत एव सत्ताप्युत्पादव्ययश्रौव्यात्मिकाऽववोद्धव्या । भावभाववैतोः कथंचिदेकस्वरूपत्वात् । सा च त्रिलक्षणस्य समस्तस्यापि वस्तुविस्तारस्य सादृश्यसूचकत्वादेका । सर्वपदार्थस्थिता च । विलक्षणस्य सदित्यभिधानस्य सदिति प्रत्ययस्य च सर्वपदार्थेषु तन्मूलस्यैवोपलम्भात् । सविश्वरूपा च विश्वस्य समस्तवस्तुविस्तारस्यापि रूपैस्त्रिलक्षणैः स्वभावैः सह वर्तमानत्वात् । अनन्तपर्याया चानन्ताभिर्द्रव्यपर्व्यायव्यक्तिभिस्त्रिलक्षणाभिः परिर्गेभ्यमानत्वात् । एवंभूतापि सा न खलु निरङ्कुशा किं तु सप्रतिपक्षा । प्रतिपक्षो ह्यसत्ता सत्तायाः, अत्रिलक्षणत्वं त्रिलक्षणायाः, अनेकत्वमेकस्याः, एकपदार्थस्थितत्वं सर्वपदार्थस्थितायाः, एकरूपत्वम् सर्वविश्वरूपायाः, एकपर्यायत्वमनन्तपर्यायाया इति । द्विविधा हि सत्ता महासत्तावान्तरसत्ता च । तत्र सर्वपदार्थसार्थव्यापिनी सादृश्यास्तित्वसूचिका महासत्ता प्रोक्तव । अन्या तु प्रतिनियमवस्तुवर्तिनी खरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता । तत्र महासत्ताऽवान्तरसत्तारूपेणाऽसत्ताऽवान्तरसत्ता
१ शुद्धजीवास्तिकायस्य या अनन्तज्ञानादिगुणसत्ता सिद्धिपर्यायसत्ता च शुद्धा संख्यात प्रदेशरूपं कायत्वमुपादेयमिति २ द्रव्यस्य सहभुवो गुणाः ३ द्रव्यस्य क्रमभुवः पर्यायाः ४ पञ्चास्तिकायाः ५ अत्र पञ्चास्तिकाय प्रकरणे. ६ परिवर्तनमेव पुद्गलादिपरिणमनमेव अधूमवत्कार्यभूतं लिङ्गं चिह्नं गमकं सूचकं यस्य स भवति परिवर्तन लिङ्गका लाणुद्रव्य रूपो द्रव्यकालस्तेन संयुक्तः । ननु कालद्रव्यसंयुक्त इति वक्तव्यं परिवर्तनलिङ्गसंयुक्त इत्यवक्तव्यवचनं किमर्थमिति । नैवं पञ्चास्तिकाय प्रकरणे कालमुख्यता नास्तीति पदार्थानां नवजीर्णपरिणतिरूपेण कायलिङ्गेन ज्ञायते ७ स्वकीय स्वकीय स्वरूपात् ८ तेपां द्रव्याणां निश्चयात् स्वभावात्. १० पर्यायाणाम्. ११ पूर्वानुभूतदर्शनेन जायमानं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम्. १२ पर्यायाभ्याम् १३ पर्यायद्रव्ययोः परिणामपरिणामिनोर्वा. १४ उत्पादधौव्यव्यययुक्तस्य. १५ अर्थस्य तयोराधारभूतस्य तद्गुणस्य. १६ व्यापकत्वात्. १७ अवान्तरसत्ता.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका ।
च महासत्तारूपेणाऽसत्तेत्यसत्ता सत्तायाः । येन स्वरूपेणोत्पादस्तत्तथोत्पादै कलक्षणमेव येन स्वरूपेणोच्छेदस्तत्तथोच्छेदैकलक्षणमेव येन स्वरूपेण श्रौव्यं तत्तथा धौव्यैकलक्षणमेव तत उत्पद्यमानो - च्छिद्यमानाऽवतिष्ठमानानां वस्तुनः स्वरूपाणां प्रेत्येकं त्रैलक्षण्याभावाद विलक्षणत्वं त्रिलक्षणायाः । एकस्य वस्तुनः स्वरूपसत्ता नान्यस्य वस्तुनः स्वरूपसत्ता भवतीत्यनेकत्वमेकस्याः । प्रतिनियतपदार्थस्थिताभिरेव सत्ताभिः पदार्थानां प्रतिनियमो भवतीत्येकपदार्थस्थितत्वं सर्वपदार्थस्थितायाः । प्रतिनियतैकरूपाभिरेव सत्ताभिः प्रतिनियतैकरूपत्वं वस्तूनां भवतीत्येकरूपत्वं सविश्वरूपायाः । प्रतिपर्यायनियताभिरेव सत्ताभिः प्रतिनियतैकपर्यायाणामानन्त्यं भवतीत्येकपर्यायत्वमनन्तपर्याययाः । इति सर्वमनवद्यम् सामान्यविशेषप्ररूपणप्रवणनयैद्वयायत्तत्वात् तद्देशनायाः ॥
[९] अत्र सत्ताद्रव्ययोरर्थान्तरत्वं प्रत्याख्यातम् । द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्यामोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्च सद्भावपर्यायान् स्वभावविशेषानित्यनुगतार्थया निरुत्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् । द्रव्यं च लक्ष्यलक्षणभावादिभ्यः कश्चिद्भेदेऽपि वस्तुतः सत्तायाः अपृथग्भूतमेवेति मन्तव्यम् । ततो यत्पूर्व सत्वमसत्वं त्रिलक्षणत्वमत्रिलक्षणत्वमेकत्वमनेकत्वं सर्वपदार्थस्थितत्वमेकपदार्थस्थितत्वं विश्वरूपत्वमेकरूपत्वमनन्तपर्यायत्वमेकपर्यायत्वं च प्रतिपादितं सत्तायास्तत्सर्वं तदनर्थान्तरभूतस्य द्रव्यस्यैव द्रष्टव्यं । ततो न कश्चिदपि तेषु सत्ताविशेषोऽवशिष्येत यः सत्तां वस्तुतो द्रव्यात्पृथक् व्यवस्थापयेदिति ॥
[१०] अत्र त्रेधा द्रव्यलक्षणमुक्तम् । सद्दव्यलक्षणमुक्तलक्षणायाः सत्ताया अविशेषाद्द्रव्यस्य सत्स्त्ररूपमेव लक्षणम्, नचानेकान्तात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वरूपं । यतो लक्ष्यलक्षणविभागाभाव इति उत्पादव्ययनौव्याणि वा द्रव्यलक्षणं । एकजात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावानां संताने पूर्व भावविनाशः समुच्छेद् उत्तरभावप्रादुर्भावश्च समुत्पादः । पूर्वोत्तरभावोच्छेदोत्पादयोरपि स्वजातेरपरित्यागो धौव्यं । तानि सामान्यादेशादभिन्नानि विशेष देशाद्भिन्नानि युगपद्भावीनि स्वभावभूतानि द्रव्यस्य लक्षणं भवन्तीति । गुणपर्याया वा द्रव्यलक्षणं । अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनोऽन्वयिनो विशेषा गुणाः व्यतिरेकिणः पर्यायास्ते द्रव्ये यौगपद्येन क्रमेण च प्रवर्तमानाः कथञ्चिद्भिन्नाः स्वभवभूताः द्रव्यलक्षणतामापद्यन्ते । त्रयाणामप्यमीषां द्रव्यलक्षणानामेकस्मिन्नभिहितेऽन्यदुभयमैर्थदेवापद्यते । सचेदुत्पादव्ययभौव्यवच्च गुणपर्यायवच्च । उत्पादव्ययत्रौव्यवच्चेत्सच्च गुणपर्यायवच्च । गुणपर्यायवच्चेत्सच्चोत्पादद्व्यय धौव्यवच्चेति । सद्धि नित्यानित्यस्वभावत्वाद्ध्रुवत्वमुत्पादव्ययात्मकताञ्च प्रथयति । श्रुवत्वात्मकैर्गुणैरुत्पादव्ययादव्ययात्मकैः पर्यायैश्च सहैकत्वञ्चाख्याति । उत्पादव्ययत्रव्याणि तु नित्यानित्यस्वरूपं परमार्थ सदावेदयन्ति | गुणपर्यायांश्चात्मलाभनिबन्धनभूतान् प्रर्थयन्ति गुणपर्यायास्त्वन्वयव्यतिरेकित्या व्योत्पत्तिविनाशान् सूचयन्ति नित्यानित्यस्वभावं परमार्थ सचोपलक्षयन्ति ॥
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[ ११ ] अत्रोभययाभ्यां द्रव्यलक्षणं प्रविभक्तम् । द्रव्यस्य हि सहकमप्रवृत्तगुणपर्यीयसद्भावरूपस्य त्रिकालावस्थायिनोऽनादिनिधनस्य न समुच्छेदसमुदयौ युक्तौ । अथ तस्यैव पर्यायाणां सहप्रवृत्तिभाजां केषांचित् श्रौव्यसंभवेऽप्यपरेषां क्रमप्रवृत्तिभाजां विनाशसंभव संभावनमुपपन्नम् । ततो
१ एकमेकस्वरूपं प्रति त्रिलक्षणत्वाभावात्. २ निश्वयः ३ अत्र सत्तादेशनाया द्विनयाधीनत्वात्. ४ प्रत्याख्यातं निराकृतं । “प्रत्याख्यातो निराकृतः” इति वचनात् ५ स्वरूपभेदान्. ६ संज्ञालक्षणप्रयोजनेन ७ परमातः ८ ज्ञातव्यं अवयोद्धव्यं वा ९ द्रव्यम्. १० गुणपर्य्यायाः ११ द्रव्यस्य लक्षणभूताः १२ प्राप्नुवन्ति १३ सत्ता, उत्पादव्ययभाव्यत्वं, गुणपर्यायत्वं चेति त्रयाणाम्. १४ लक्षणे. १५ कथ्यते. १६ अर्थानुसारात्. १७ कथयति. १८ कर्तृषि. १९ विस्तारयन्ति २० दर्शयन्ति अवबोधयन्ति वा २१ द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनयाभ्याम्.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् द्रव्यापिणायामनुत्पादमनुच्छेदं सत्स्वभावमेव द्रव्यं । तदेव पर्यायापिणायां सोत्पादं सोच्छेदं चावबोद्धव्यम् । सर्वमिदमनवद्यश्च द्रव्यपार्यायाणामभेदात् ॥
[१२] अत्र द्रव्यपर्यायाणामभेदो निर्दिष्टः । दुग्धदाधिनवनीतघृतादिवियुतगोरसवत्पर्यायविद्युत द्रव्यं नास्ति । गोरसवियुक्तदुग्धदधिनवनीतघृतादिवट्ठव्यवियुक्ताः पर्याया न सन्ति । ततो द्रव्यस्य पर्या याणाश्चादेशवशात्कथंचिद् भेदेऽप्ये कास्तित्वनियतत्वादन्योन्याजहद्वृत्तीनाम् वस्तुत्वेनाभेद इति ॥
[१३ ] अत्र व्यगुणानामभेदो निर्दिष्टः । पुद्गलभूतस्पर्शरसगन्धवर्णवद्रव्येण विना न गुणाः संभवन्ति । स्पर्शरसगन्धवर्णपृथग्भूतपुद्गलवद्गुणैर्विना द्रव्यं न संभवति । ततो द्रव्यगुणानामप्यादेशात् कथंचिद्भेदेऽप्येकास्तित्वनियतत्वादन्योन्याजहद्वृत्तीनां वस्तुत्वेनाभेद इति ॥
[१४] अत्र द्रव्यस्यादेशवशेनोक्ता सप्तभङ्गी । स्यादस्ति द्रव्यं स्यान्नास्ति द्रव्यं स्यादस्ति च नास्ति च द्रव्यं स्यादवक्तव्यं द्रव्यं स्यादस्ति चावक्तव्यं स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यमिति । अत्रै सर्वथात्वनिषेधकोऽनैकान्तिको द्योतकः कथंचिदर्थ स्थाच्छब्दो निपातः । तत्र स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरादिष्टमस्ति द्रव्यं । परद्रव्यक्षेत्रकालभावैरादिष्टं नास्ति द्रव्यं । स्वद्रव्यक्षेत्रकाल. भावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च क्रमेणादिष्टमस्ति च नास्ति च द्रव्यं स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावश्च युगपदादिष्टमवक्तव्यं द्रव्यं । स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावयुगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्वादिष्टमस्ति चावक्तव्यञ्च द्रव्यं । परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टं नास्ति चावक्तव्यं द्रव्यं । स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्वादिष्टमस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यमिति । नचैतदनुपर्पन्नम् । सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपादिना अशून्यत्वात्पररूपादिना शून्यत्वात् । उभाभ्यामशून्यशून्यत्वात् सहावाच्यत्वात् भैङ्गसंयोगार्पणायामशून्यावाच्यत्वात् शून्यावाच्यत्वात् अशून्यशून्यावाच्यत्वाचेति ॥ १४ ॥
[१५] अत्रासंत्प्रादुर्भावमुत्पादस्य सदुच्छेदत्वं विगमय निषिद्धं । भविस्य सतो हि द्रव्यस्स न ट्रेव्यत्वेन विनाशः । अभावस्यासतोऽन्यद्रव्यस्य न द्रव्यत्वेनोत्पादः । किं तु भावाः सन्ति द्रव्याणि सदुच्छेदमसदुत्पादं चान्तरेणैव गुणपर्यायेषु विनाशमुत्पादं चारभन्ते । यथा हि घृतोत्पत्तो गोरसस्स सतो न विनाशः न चापि गोरसव्यतिरिक्तस्यार्थान्तरस्यासतः उत्पादः किंतु गोरसस्यैव सदुच्छेदमसदुत्पादश्चानुपलभ्यमानस्य स्पर्शरसगन्धवर्णादिषु परिणामिषु गुणेषु पूर्वावस्थया विनश्यत्सूत्तरावस्थया प्रादुर्भवत्सु नश्यति च नवनीतप-यो घृतपर्याय उत्पद्यते तथा सर्वभावानामपीति ॥ १५ ॥ [१६] अत्रं भावगुणपर्यायाः प्रज्ञापिताः। भावा हि जीवादयः षटू पदार्थाः। तेषाम् गुणाः पर्यायाश्च
१ शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नरनारकादिविभावपरिणामोत्पत्तिविनाशरहितम्. २ निश्चयनयेन. ३ रहितम्. ४ द्रव्यरहिताः. ५ द्रव्यगुणयोरभिन्नसत्तानिष्पनत्वेनाभिन्नद्रव्यत्वात् अभिन्नप्रदेशनिष्पनत्वेनाभिनक्षेत्रलात. ६ निश्चयनयेन. ७ सप्तभङ्गयां. ८ स्याद्वादस्वरूपेऽस्तिनास्तिकथने. ९ तच्च स्वद्रव्यचतुष्टयं शुद्धजीवविषये कथ्यते, शुद्धपर्यायाधारभूतं द्रव्यं भण्यते, लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेशाः क्षेत्रं, भण्यते वर्तमानशुद्धपायरूपपरिणतो वर्तमानसमयकालो, भण्यते शुद्धचैतन्यभावश्चेत्युक्तलक्षणद्रव्यादिचतुष्टयः. १० अयुक्तम्. ११ अस्तित्वात. १२ नास्तिवात. १३ अस्तिनास्तिरूपेण सह एकस्मिन्समावेशशून्यखात्. १४ द्वाभ्या अस्तिनास्तिभ्यां अस्तिनास्तित्वात्. १५ अस्तिनास्त्यादिभङ्गयां योज्यमानायाम्. १६ व्ययस्य विनाशस्य वा. १७ भावस्येति पदस्य कोऽर्थः । तद्यथा-सतो हि द्रव्यस्येत्यनेन विद्यमानस्य द्रव्यत्वेन न विनाश इत्यर्थः. १८ अप्राप्यमाणस्य. १९ द्रव्यगुणपर्यायाः.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका ।
प्रसिद्धाः । तथापि जीवस्य वक्ष्यमाणोदाहरण प्रसिद्ध्यर्थमभिधीयन्ते । गुणा हि जीवस्य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना, कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना, चैतन्यानुविधायिपरिणामलक्षणः सेविकल्पनिर्विकल्परूपः शुद्धाशुद्धतया सकलविकलतां दधानो द्वैधोपयोगश्च । पर्य्यायास्त्वगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्ताः शुद्धाः । सूत्रोपात्तास्तु सुरनारकतिर्यङ्मनुष्यलक्षणाः परद्रव्यसंबन्धनिर्वृत्तत्वादशुद्धाचेति ॥
[१७] इदं भावनाशाभावोत्पाद निषेधोदाहरणम् । प्रतिसमयसंभवद्गुरुलघुगुणहानिवृद्धि निर्वृत्तस्वभावपर्य्यायसंतत्यविच्छेदकेनैकेन सोपधिना मनुष्यत्वलक्षणेन पर्यायेण विनश्यति जीवः । तथाविधेन देवत्वलक्षणेन नारकतिर्य्यक्त्वलक्षणेन चान्येन पर्यायेणोत्पद्यते । न च मनुष्यत्वेन नाशे जीवत्वेनाऽपि नश्यति । देवत्वादिनोत्पादे जीवत्वेनाप्युपपद्यते । किंतु सदुच्छेदमसदुत्पादमन्तरेणैव तथा विवर्तत इति ॥
[ १८ ] अत्र कथंचिद्वययोत्पादवत्वेऽपि द्रव्यस्य सदा विनष्टानुत्पन्नत्वं ख्यापितं । यदेव पूर्वोत्तरपर्याय विवेकसंपर्कापादितामुभयीमवस्थामात्मसात् कुर्वाणमुच्छिद्यमानमुत्पद्यमानं च द्रव्यमालक्ष्यते । तदेव तथाविधोभयावस्थाव्यापिना प्रतिनियतैकवस्तुत्वनिबन्धनभूतेन स्वभावेनाविनष्टमनुत्पन्नं या वेद्यते । पर्यायास्तु तस्य पूर्वपूर्वपरिणामोपमद्दत्तरोत्तरपरिणामोत्पादरूपाः प्रणाशसंभवधर्माणोऽभिधीयन्ते । तेच वस्तुत्वेन द्रव्यादपृथग्भूता एवोक्ताः । ततः पर्य्यायैः सहैकवस्तुत्वाज्जायमानं म्रियमाणमपि जीवद्रव्यं सर्वदानुत्पन्नाविनष्टं दृष्टव्यम् । देवमनुष्यादिपर्यायास्तु क्रमवर्तित्वादुपस्थितातिवाहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति ॥
[१९] अत्र सदसतोरविनाशानुत्पादौ स्थितिपक्षत्वेनोपन्यस्तौ । यदि हि जीवो य एव म्रियते स एव जायते य एव जायते स एव म्रियते तदेवं सतो विनाशोऽसत उत्पादश्च नास्तीति व्यवतिष्ठते । यत्तु देवो जायते मनुष्यो म्रियते इति व्यपदिश्यते तदेवधृतकालदेव मनुष्यत्वपर्ययनिर्वर्तकस्य देवमनुष्यगतिनान्नस्तन्मत्रत्वादविरुद्धं । यथा हि महतो वेणुदण्डस्यैकस्य क्रमवृत्तीन्यनेकानि पर्वण्यात्मीयात्मीयप्रमाणावच्छिन्नत्वात् पर्व्वान्तरमगच्छन्ति स्वस्थानेषु भावभाजि परस्थानेष्वभावभाजि भवन्ति । वेणुदण्डस्तु सर्वेष्वपि पर्वस्थानेषु भावभागपि पर्वान्तरसंबन्धेन पर्व्वन्तरसंबन्धाभावात् अभावभाग्भवति । तथा निरवधित्रिकालावस्थायिनो जीवद्रव्यस्यैकस्य क्रमवृत्तयोऽनेके मनुष्यत्वादिपर्याया आत्मीयात्मीयप्रमाणावच्छिन्नत्वात् पर्य्यायान्तरमगच्छन्तः स्वस्थानेषु भवभाजः परस्थानेष्वैभावभाजो भवन्ति । जीवद्रव्यं तु सर्वपर्य्यायस्थानेषु भावभागपि पर्यायान्तरसंबन्धेन पर्यायान्तरसंबन्धाभावाभावभाग्भवति ॥
[२०] अत्रात्यन्तासदुत्पादत्वं सिद्धस्य निषिद्धम् । यथा स्तोककालान्वयिपु नामकर्मविशेपोदय
१ कर्मणां फलानि सुखादीनि कर्मफलानि तेषामनुभूति: अनुभवनं भुक्तिः सैव लक्षणं यस्याः सेति. २ ज्ञानदर्शनोपयोगः ३ निप्पन्न- ८ सविकारेण ५ पूर्वोत्तरपर्यायौ विवेकसंपक पूर्वपर्यायस्य मनुष्यत्वलक्षणस्य विवेकः विवेचनं विनाश इति यावत्, उत्तरपर्यायस्य देवत्वलक्षणस्य संपर्क: संबन्धः संयोगः उत्पाद इत्यर्थः, इति पूर्वोत्तरपर्यायविवेकसंपर्कों, ताभ्यां निष्पादिता या सा ताम् ६ उत्पादव्ययसमर्थाम्. ७ उपमर्दो विनाश:. ८ पर्यायाः. ९ परमार्थेन. १० कथ्यते. ११ आयुः प्रमाणम्. १२ उत्पादव्ययमात्रत्वात्. १३ स्वकीयप्रमाणपरिच्छेयात्. १४ उत्पत्तिभोक्तारः १५ विनाशभाजः भवन्ति १६ देवलक्षणोत्तर पय्यीय. संपन्न. १७ मनुष्यलक्षणपूर्व पर्याय संबन्धाभावान.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् निवृत्तेषु जीवस्य देवादिपर्यायेष्वेकस्मिन् स्वकारणनिर्वृत्तौ निर्वृत्तेऽभूतपूर्व एव चान्यस्मिन्नुत्पन्ने नौसदुत्पत्तिः । तथा दीर्घकालान्वयिनि ज्ञानावरणादिकर्मसामान्योदयनिर्वृत्तिसंसारित्वपर्याये भव्यस्य स्वकारणनिवृत्तौ निवृत्ते समुत्पन्ने चाभूतपूर्व सिद्धत्वपर्याये नासदुत्पत्तिरिति । किंच यथा द्राधीयमि वेणुदण्डे व्यवहिताव्यवहितविचित्रकिम्भरताखचिताधस्तनार्द्धभागे एकान्तव्यवहितसुविशुद्धोद्धभागेऽवतारिता दृष्टिः समन्ततो विचित्रचित्रकिमरिताव्याप्तिं पश्यन्ती समर्नुमिनोति तस्य सर्वत्रीविशुद्धत्वम् । तथा क्वचिदपि जीवद्रव्ये व्यवहिताव्यवहितज्ञानावरणादिकमकिमरिताखचितबहुतराधस्तनार्द्धभागे एकान्तव्यवहितसुविशुद्धबहुतरोप्रभागेऽवतारिता बुद्धिः समन्ततो ज्ञानावरणादिकर्मकिरिताव्याप्ति व्यवस्यन्ती समनुमिनोति तस्य सर्वत्राविशुद्धत्वम् । यथा च तत्र वेणुदण्डे व्याप्तिज्ञानाभासनिबन्धनविचिकिमरितान्वयः । तथा च कचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानावरणादिकर्मकिमरितान्वयः । यथैव च तत्र वेणुदण्डे विचित्रचित्रकिरिताभावात्सुविशुद्धत्वं । तथैव च ऋचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानावरणादिकर्मकिरितान्वयाभावादाप्तागमसम्यगनुमानातीन्द्रियज्ञानपरिच्छिन्नासिद्धत्वमिति ॥
[२१] जीवस्योत्पादव्ययसदुच्छेदासदुत्पादकर्तृत्वोपपत्त्युपसंहीरोऽयं । द्रव्यं हि सर्वदाऽविनष्टानु. त्पन्नमाम्नातं । ततो जीवद्रव्यस्य द्रव्यरूपेण नित्यत्वमुपन्यस्तं । तस्यैव देवादिपव्यरूपेण प्रादुर्भवतो भौवकर्तृत्वमुक्तं । तस्यैव च मनुष्यादिपव्यरूपेण व्ययतो भावकर्तृत्वमाख्यातं । तस्यैव च सतो देवादिपर्यायस्योच्छेदमारभमाणस्य भावाभावकर्तृत्वमुपपादितं । तम्यैव चासतः पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्याभावभावकर्तृत्वमभिहितं । सर्वमिदमनवयं द्रव्यप-याणामन्यतरगुणमुख्यत्वेन व्याख्यानात् । तथा हि यदा जीवः पर्यायेंगुणत्वेन द्रव्यमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा नोत्पद्यते न विनश्यति न च क्रमवृत्त्या वर्तमानत्वात् सत्पर्य्यायजातमुच्छिनत्ति नासदुत्पादयति । यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्य्यायमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा प्रादुर्भवति विनश्यति सत्पर्य्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति
असदुपस्थितं स्वकालमुत्पादयति चेति । स खल्वयं प्रसादोऽनेकान्तवादस्य यदीदृशोऽपि विरोधो न विरोधः । इति षड्द्रव्यसामान्यप्ररूपणा ।।
[२२] अत्र सामान्येनोक्तलक्षणानां पण्णां द्रव्याणां मध्यात् पञ्चानामस्तिकायत्वम् व्यवस्थापितम् । अकृतत्वात् अस्तित्वमयत्वात् विचित्रात्मपरिणतिरूपस्य लोकस्य कारणत्वाचाभ्युपगम्यमानेषु पट्सु द्रव्येषु जीवपुद्गलाकाशधर्माधर्माः प्रदेशप्रचयात्मकत्वात् पञ्चास्तिकायाः। न खलु कॉलस्तदभावादस्तिकाय इति सामर्थ्यादेवसीयत इति ॥
[२३] अत्रास्तिकायत्वेनानुक्तस्यापि कालस्यार्थापन्नत्वं द्योतितं । इह हि जीवानां पुद्गलानां च सत्तास्वभावत्वादस्ति प्रतिक्षणमुत्पादव्ययध्रौव्यैकवृत्तिरूपः परिणामः । स खलु सहकारिकारण
१ निष्पन्नेयु. २ पाये. ३ अविद्यमानोत्पत्तिन. ४ वहुकालानुवर्तिनि. ५ अतिक्रान्ते. ६ विनाशं गते सति. ७ पूर्वमनुत्पने. ८ आच्छादितानाच्छादितः. ९ आरोपिता. १० अनुमानं करोति संकल्पयति प्रमाणयति वा. ११ वेणुदण्डस्य. १२ सर्वस्मिन्नूर्वाधोभागे. १३ प्रलिप्तत्वम्. १४ चिन्तयन्ती. १५ अनुमानं करोति. १६ तस्य जीवस्य. १७ सर्वस्मिन् जीवद्रव्यज्ञानावरणादित्वम्. १८ चित्ररचनासंतानः. १९ पर्यायाभावान्वयः इति पाठान्तरम्. २० अभिप्रायः. २१ तस्य जीवस्य. २२ पायोत्पादकत्वमुक्तम्. २३ अविद्यमानस्य. २४ गौणत्वेन. २५ उच्छेदयति. २६ असद्रूपेणावस्थितम्. २७ कालः खल्वस्तिकाय इति बलात्कारेणाङ्गीक्रियते न व्यवह्रियते इत्यर्थः. २८ प्रदेशप्रचयात्मकस्याभावात् कायत्वाभावात्. २९ निश्चीयते. ३० स परिणामः
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. पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका । सद्भावे दृष्टः । गतिस्थित्यवगाहपरिणामवत् । यस्तु सहकारिकारणं स कालस्तत्परिणामान्यथानुपपत्तिगम्यमानत्वादनुक्तोऽपि निश्चयकालोऽस्तीति निश्चीयते । यस्तु निश्चयकालपर्यायरूपो व्यवहारकालः स जीवपुद्गलपरिणामेनाभिव्यज्यमानत्वात्तदायत्त एवाभिगम्यत एवेति ॥
[ २४-२५ ] अत्र व्यवहारकालस्य कथंचित्परायत्तत्वं द्योतितम् । परमाणुप्रचलनायत्तः समयः, नयनपुटघटनायत्तो निमिषः, तत्संख्याविशेषतः काष्ठा केला नाडी च । गगनमणिगमनायत्तो दिवाराँत्रः । तत्संख्याविशेषतः मासः, ऋतुः, अयनं, संवत्सरः इति । एवंविधो हि व्यवहारकालः केवलकालपर्यायमात्रत्वेनावधारयितुमशक्यत्वात् परायत्त इत्युपमीयत इति ॥
[२६] अत्र व्यवहारकालस्य कथंचित् परायत्तत्वे सदुपपत्तिरुक्ता । इह हि व्यवहारकाले निमिपसमयादौ अस्ति तावत् चिर इति क्षिप्र इति संप्रत्ययः । स खलु दीर्घहस्वकालनिवन्धनं प्रमाणमन्तरेण न संभाव्यते । तदपि प्रमाणं पुद्गलद्रव्यपरिणाममन्तरेण नावधार्यते । ततः परिणामद्योत्यमानत्वाद्यवहारकालो निश्चयेनानन्याश्रितोऽपि प्रतीत्यभाव इत्यभिधीयते । तदत्रास्तिकायसामान्यप्ररूपणायामस्तिकायत्वाभावात्साक्षादनुपन्यस्यमानोऽपि जीवपुद्गलपरिणामान्यथानुपपत्त्या निश्चयरूपस्तत्परिणामायत्ततया व्यवहाररूपः कालोऽस्तिकायपञ्चकवल्लोकरूपेण परिणत इति खरतरदृष्टयाभ्युपगम्यत इति ।
इति समयव्याख्यायामन्तीति-षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकायसामान्यव्याख्यानरूपः पीठवन्धः समाप्तः ॥
अथामीषामेव विशेषव्याख्यानम् । तत्र तावज्जीवद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं । भट्टमतानुसारिशिष्यं प्रति सर्वज्ञसिद्धिः । [२७] अत्र संसारावस्थस्याऽऽत्मनः सोपाधि निरुपाधि च स्वरूपमुक्तं । आत्मा हि निश्चयेन भावप्राणधारणाजीव । व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणाजीवः । निश्चयेन चिदात्मकत्वाद् व्यवहारेण चिच्छक्तियुक्तत्वाच्चेतयिती । निश्चयेनापृथग्भूतेन व्यवहारेण पृथग्भूतेन चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेनोपलक्षितत्वादुपयोगविशेषितः । निश्चयेन भावकर्मणां व्यवहारेण द्रव्यकर्मणामास्रवणबन्धनसंवरणनिर्जरणमोक्षणेषु स्वयमीशैत्वात्प्रभुः । निश्चयेन पौद्गलिककर्मनिमित्तात्मपरिणामानां व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौरालिककर्मणां कर्तृत्वोत्कर्ता । निश्चयेन शुभाशुभकर्मनिमित्तसुखदुःखपरिणामानां
१ अस्तित्वे सति. २ प्रकटीक्रियमाणत्वात्. ३ जीवपुद्गलपरिणामाधीन एव गम्यते. ४ पञ्चदशनिसिषैः काष्टा. ५ विंशतिकाष्टाभिः कला. ६ साधिकविंशतिकलाभिः घटिका. ७ त्रिंशन्मुहतैरहोरात्रः. ८ पञ्चास्तिकायानां. ९ सत्तासुखयोधचैतन्यात्. १० आत्मा हि शुद्धनिश्चयेन सुखसत्ताचैतन्यवोधादिशुद्धप्राणैर्जीवति, तथाचाशुद्ध निश्चयेन क्षायोपशमिकौदयिकभावप्राणैजीवति । तथैवानुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यप्राणैश्च यथासंभवं जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वश्चेति जीवो भवति. ११ शुद्धनिश्चयेन शुद्धज्ञानचेतनया तथैवाशुद्धनिश्चयेन कर्मकर्मफलरूपया वाऽशुद्धचेतनया युक्तत्वाचेतयिता भवति. १२ निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धोपयोगेन तथैवागुनिश्चयेन मतिज्ञानादिक्षायोपशमिकाशुद्धोपयोगेन युक्तलादुपयोगविशेपितो भवति. १३ समर्थत्वात. १४ शुद्धनिश्चयेन शुद्धभावानां परिणामानां तथैवाशुद्धनिश्चयेन पौद्गलिककर्मनिमित्तात्परिणामानां रागद्वेपमोहानां वर्नत्वात् कर्ता. १५ निश्चयेन मोक्षमोक्षकारणरूपशुद्धपरिणमनसमर्थत्वात्तथैवाशुद्धनिश्चयेन संसारसंसारकारणरूपाशुद्धपरिणमनसमर्धत्वात् प्रभुर्भवति । भावकर्मरूपरागादिभावानां तधाचानुपचरितासद्धृतव्यवहारेण द्रव्यकर्मणो धर्मादीनां कर्तृत्वात् कर्ता भवति.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्यवहारेण शुभाशुमकर्मसंपादितेष्टानिष्टविषयाणां भोक्तृत्वासोती । निश्चयेन लोकमानोऽपि विशिष्टावगाहपरिणामशक्तियुक्तत्वात् नामकर्मनिवृत्तमणुमहच्च शरीरमधितिष्ठन् व्यवहारेण देहमात्रो व्यवहारण कर्मभिः सहैकत्वपरिणामान्मूर्तोऽपि निश्चयेन नीरूपम्वभावत्वान्नहि मूर्तः । निश्रयेन पुद्गलपरिणामानुरूपचैतन्यपरिणामात्माभिव्यवहारेण चैतन्यपरिणामानुरूपपुद्गलपरिणामात्मभिः कर्मभिः संयुक्तत्वात्कर्मसंयुक्त इति ॥
[२८] अत्र मुक्तावस्थस्सात्मनो निरुपाधि स्वरूपमुक्तम् । आत्मा हि परद्रव्यत्वात्कर्मरजसा सार्कल्येन यस्मिन्नेव क्षणे मुच्यते तस्मिन्नेवोर्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकान्तमधिगम्य परतो गतिहेतोरभावादवस्थितः केवलज्ञानदर्शनाभ्यां स्वरूपभूतत्वादमुक्तोऽनन्तमतीन्द्रियं सुखमनुभवति । मुक्तस्य चास्य भावप्राणधारणलक्षणं जीवत्वं, चिद्रूपलक्षणं चेतयितृत्वं, चित्परिणामलक्षणं उपयोगः, निर्वर्तितसमस्ताधिकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं, समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिवर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूपभूतस्वातन्त्र्यलक्षणसुखोपलम्भरूपं भोक्तृत्वं, अतीतानन्तरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं देहमानत्वं, उपाधिसंवन्धविविक्तमात्यन्तिकममूर्तत्वं । कर्मसंयुक्तत्वं तु द्रव्यभावकर्मविप्रमोक्षान्न भवत्येव । द्रव्यकर्माणि हि पुद्गलस्कन्धाभावकाणि तु चिद्विवर्ताः । "विवर्तते हि चिच्छक्तिरनादिज्ञानावरणादिकर्मसंपर्कणितप्रचारा परिच्छेद्यैस्स विश्वस्यैकदेशेषु क्रमेण व्याप्रियमाणा । यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसंपर्कः प्रणश्यति तदा परिच्छेद्यस्य विश्वस्य सर्वदेशेषु युगपयाप्ती कथंचित्कौटस्थ्यमवाप्य विषयान्तरमनाप्नुवन्ती न विवर्तते । स खल्वेष निश्चितः सर्वज्ञसर्वदर्शित्वोपलम्भः । अयमेव द्रव्यकर्मनिवन्धनभूतानां भावकर्मणां कर्तृत्वोच्छेदः । अयमेव च विकारपूर्वकानुभवाभावादीपाधिकसुखदुःखपरिणामानां भोक्तृत्वोच्छेदः । इदमेव चानादिविवर्तखेदविच्छित्तिसुस्थितानन्तचैतन्यस्यात्मनः स्वतन्त्रस्वरूपानुभूतिलक्षणसुखस्य भोक्तृत्वमिति ॥
[२९] इदं सिद्धस्य निरुपाधिज्ञानदर्शनसुखसमर्थनम् । आत्मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्वभावः संसारावस्थायामनादिकर्मक्लेशसंकोचितात्मशक्तिः परद्रव्यसंपर्केण क्रमेण किंचित्किचिज्जानाति पश्यति परप्रत्ययं मूर्तसंवन्धं सव्यावाधं सान्तं सुखमनुभवति च । यदा त्वस्य कर्मक्लेशाः सामस्त्येन प्रणश्यन्ति, तदाऽनर्गलाऽसंकुचितात्मशक्तिरसहायः स्वयमेव युगपत्समग्रं जानाति, पश्यति, स्वप्रत्ययममूर्तसंबन्धभव्यावाधमनन्तसुखमनुभवति च । ततः सिद्धस्य समस्तं स्वयमेव जानतः, पश्यतः, सुखमनुभवतश्च, स्वं न परेण प्रयोजनमिति ॥ [३०] जीवत्वगुणव्याख्येयम् । इन्द्रियबलाः पुरूच्छासलक्षणा हि प्राणाः। ते चित्सामान्यान्वयिनो
१ शुद्धनिश्चयेन शुद्धात्मोथिवीतरागपरमानन्दरूपसुखस्य तथैवाशुद्धनिश्चयेनेन्द्रियजनितसुखदुःखानां तथाचोपचरितासद्भूतव्यवहारेण सुखदुःखसाधकेष्टानिष्टाशनपानादिवहिरङ्गविषयाणां च भोक्तृत्वात् भोक्ता भवति. २ निश्चयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमितोऽपि व्यवहारेण शरीरनामकर्मोदयजनिताऽणुमहच्छरीरप्रमाणत्वात्स्वदेहमानो भवति. ३ असद्भूतव्यवहारेणानादिकर्मवन्धसहितत्वान्मूर्तोऽपि शुद्धनिश्चयेन वणीदिरहितत्वादमूर्तोऽपि भवति. ४ शुद्धनिश्चयेन कर्मरहितोऽप्यनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वात तथैवाशुद्धनिश्चयेन रागादिरूपभावकर्मसंयुक्तो भवति. ५ द्रव्यभावरूपेण. ६ समये. ७ सत्तामुखबोधचैतन्यलक्षणं. ८ रचित---. ९ विस्तार--- १० पर्यायाः. ११ व्याधुट्टनं करोति. १२ संकोचित- १३ ज्ञेयस्य. १४ चिच्छक्तिः. १५ निश्चलत्वं प्राप्य. १६ ज्ञेयरूपं परद्रव्यं अनाप्नुवन्ती. १७ पराधीनं वा पराश्रितं मुसं. १८ आत्मनः. १९ खात्मोत्थं सुखम्. २० प्राणेपु.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका । भावप्राणाः, पुद्गलसामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणाः, तेषामुभयेपामपि त्रिष्वपि कालेष्वनवच्छिन्नसंतानत्वेन धारणात्संसारिणो जीवत्वं । मुक्तस्य तु केवलानामेव भावप्राणानां धारणात्तदवसेयमिति ॥
[३१-३२] अत्र जीवानां स्वाभाविकं प्रमाणं मुक्तामुक्तविभागश्चोक्तः । जीवा पविभागैकद्रव्यत्वाल्लोकप्रमाणैकप्रदेशाः । अगुरुलघवो गुणास्तु तेषामगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिवन्धनस्य स्वभावस्थाविभागपरिच्छेदाः प्रतिसमयसंभवत्पट्स्थानपतितवृद्धिहानयोऽनन्ताः । प्रदेशास्तु अविभागपरमाणुपरिच्छिन्नसूक्ष्मांशरूपा असंख्येयाः । एवंविधेषु तेषु केचित्कथंचिल्लोकपूरणावस्थाप्रकारेण सर्वलोकव्यापिनः । केचित्तु तव्यापिनः इति । अथ ये तेषु मिथ्यादर्शनकपाययोगैरनादिसन्ततिप्रवृत्तैर्युक्तास्ते संसारिणो ये विमुक्तास्ते सिद्धास्ते च प्रत्येकं वहव इति ॥
[३३] एप देहमात्रत्वदृष्टान्तोपन्यासः । यथैव हि पद्मरागरनं क्षीरे क्षिप्तं स्वतो व्यतिरिक्तप्रभास्कन्धेन तद् व्याप्नोति क्षीरं । तथैव हि जीवः अनादिकपायमलीमसत्वमूले शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशैस्तदभिव्यानोति शरीरम् । यथैव च तत्र क्षीरेऽग्निसंयोगादुद्वलमाने तस्य पद्मरागरत्नस्य प्रभास्कन्ध उद्बलते पुनर्निविशमाने निविशते च । तथैव च तत्र शरीरे विशिष्टाऽऽहारादिवशादुत्सर्पति तस्य जीवस्य प्रदेशाः उत्सर्पन्ति पुनरपसर्पति अपसर्पन्ति च । यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र भूतक्षीरे क्षिप्तं स्वप्रभास्कन्धविस्तारेण तद् व्याप्नोति प्रभूतक्षीरम् । तथैव हि जीवोऽन्यत्र महति शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशविस्तारेण तद् व्याप्नोति महच्छरीरं । यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र स्तोकक्षीरे निक्षिप्त स्वप्रभास्कन्धोपसंहारेण तद् व्यामोति स्तोकक्षीरं । तथैव च जीवोऽन्यत्राणुशरीरे ऽवतिष्ठमानः स्त्रप्रदेशोपसंहारेण तद् व्यामोत्यणुशरीरमिति ॥
[३४] अत्र जीवस्य देहादेहान्तरेऽस्तित्वं, देहात्पृथग्भूतत्वं, देहान्तरसंचरणकारणं चोपन्यस्तम् । आत्मा हि संसारावस्थायां क्रमवर्तिन्यनवच्छिन्नशरीरसंताने यथैकस्मिन् शरीरे वृत्तः, तथा क्रमेणान्येप्वपि शरीरेषु वर्तत इति तस्य सर्वत्रास्तित्वम् । न चैकस्मिन् शरीरे नीरक्षीरमिवैक्येन स्थितोऽपि भिन्नस्वभावत्वात्तेन सहक इति । तस्स देहात्पृथग्भूतत्वं अनादिवन्धनोपाधिविवर्तितविविधाऽध्यवसायविशिष्टत्वात्तन्मूलकर्मजालमलीमसत्वाच चेष्टमानसाऽऽत्मनस्तथाविधाऽध्यवसायकर्मनिवर्तितेतरशरीरप्रवेशो भवतीति तेस्य देहान्तरसंचरणकारणोपन्यास इति ।
[३५] सिद्धानां जीवत्वदेहमात्रत्वव्यवस्थेयम् । सिद्धानां हि द्रव्यप्राणधारणात्मको मुख्यत्वेन जीवस्वभावो नास्ति । न च जीवस्वभावस्य सर्वथा भावोऽस्ति भावाणधारणात्मकस्य जीवस्त्रभावस्य मुख्यत्वेन सद्भावात् । नच तेषां शरीरेण सह नीरक्षीरयोरिवैक्येन वृत्तिः । यतस्ते तत्संपर्कहेतुभूतकषाययोगविप्रयोगादतीतानन्तर शरीरमात्रावगाहपरिणतत्वेऽप्यत्यन्तभिन्नदेहाः । वाचां गोचरमतीतश्च तन्महिमा । यतस्ते लौकिक प्राणधारणमन्तरेण शरीरसंबन्धमन्तरेण च परिप्राप्तनिरुपाधिस्वरूपाः सततं प्रपन्तीति ॥
१ अशुद्धनिधयेन भावरूपाणां, उपचरितासद्भुतव्यवहारेण द्रव्यरूपाणाम्. २ जीवानाम्. ३ अभिन्नाः. ४ प्रचुरदुग्धे. ५ अन्यन्मिन्. ६ एकस्वरूपत्वेन. ७ अनादि च तदेव बंधनं च तस्योपाधिः तेन विवर्तिताः निप्पादिताः ते च ते विविधा नानाप्रकाराः अध्यवसाया रागद्वेषमोहपरिणतिरूपाश्च तैर्विशिष्टत्वात्संयुक्तत्वात्. ८ रागद्वपमोहरूपेण विनियां कुर्वाणस्य. ९ जीवस्य. १० द्रव्यप्राणाः इन्द्रियवलाः पुरूच्छासलक्षणात्मकाः. ११ भावप्राणस्य सत्तासुखवोधचतन्यलक्षणस्य. १२ तेषां सिद्धानां. १३ तस्य शरीरस्य संपर्कः संयोगः तत्संपकोहेनुभूताश्च ते कपाययोगाच तेषां विप्रयोगो विनाशस्तन्मात. १४ अतिशयेन लक्तदेहाः. १५ तेषां सिद्धानां महिना तन्महिमा. १६ प्रकाशयन्ति.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ ३६ ] सिद्धस्य कार्यकारणभावनिरासोऽयम् । यथा संसारी जीवो भावकर्मरूपयाऽऽत्मपरिणामसंतत्या द्रव्यकर्म्मरूपया च पुद्गल परिणामसंतत्या कारणभूतया तेन तेन देवमनुष्य तिर्यग्नारकरूपेण कार्यभूत उत्पद्यते न तथा सिद्धरूपेणापीति । सिद्धो भयकर्मक्षये स्वयमुत्पद्यमानो नान्यतः कुतश्चिदुत्पद्यत इति । यथैव च स एव संसारी भावकर्म्मरूपामात्मपरिणामसंततिं द्रव्यकर्मरूपां च पुद्गलपरिणामसंततिं कार्यभूतां कारणभूतत्वेन निर्वर्तयन् तानि तानि देवमनुष्यतिर्यमारकरूपाणि कार्याण्युत्पादय त्यात्मनो न तथा सिद्धरूपमपीति । सिद्धो छुभयकर्म्मक्षये स्वयमात्मानमुत्पादयन् नान्यत्किञ्चिदुत्पादयति ॥
[३७] अत्र जीवाभावो मुक्तिरिति निरस्तम् । द्रव्यं द्रव्यतया शश्वतमिति, नित्ये द्रव्ये पर्यायाणां प्रतिसमयमुच्छेद इति द्रव्यस्य सर्वदा अभूतपर्यायः भाव्यमिति द्रव्यस्य सर्वदा भूतपयैरभाव्यमिति, द्रव्यमन्यद्रव्यैः सह सदा शून्यमिति, द्रव्यं स्वद्रव्येण सदाऽशून्यमिति, कचिज्जीवद्रव्येऽनन्तं ज्ञानं क्वचित्सान्तं ज्ञनमिति, क्वचिज्जीवद्रव्येऽनन्तं क्वचित्सान्तर्मज्ञानमिति । एतदन्यथानुपपद्यमानं मुक्तौ जीवस्य सद्भावमावेदयतीति ॥
[ ३८ ] चेतयितृत्वगुणव्याख्येयम् । के हि चेतयितारः प्रकृष्टतरमोहमलीमसेन प्रकृष्टतरज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन प्रकृष्टतरवीर्यान्तरायाऽसादितकार्य कारणसामर्थ्याः सुखदुःखरूपं कर्मफलमेव प्राधान्येन चेतयन्ते । अन्ये तु प्रकृष्टतरमोह मलीमसेनापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन मनाग्वीर्यान्तरायक्षयोपशमासादित कार्यकारणसामर्थ्याः सुखदुःखानुरूपकर्मफलानुभवनसंवलितमपि कार्यमेव प्राधान्येन चेतयन्ते । अन्यतरे तु प्रक्षालितसकलमोहकलङ्केन समुच्छिन्नकृत्स्नज्ञानावरणतयाऽत्यन्तन्मुद्रितसमस्तानुभावेन चेतकस्वभावेन समस्तवीर्यान्तरायक्षयासादितानन्तवीर्या अपि निर्जीर्णकर्मफलत्वादत्यन्तकृतकृत्यत्वाच्च स्वतो व्यतिरिक्तं स्वाभाविकं सुखं ज्ञानमेत्र चेतयन्त इति ॥
[ ३९ ] अत्र कः किं चेतयत इत्युक्तं । चेतयन्तेऽनुभवन्ति उपलभन्ते विदन्तीत्येकार्थश्चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् । तत्र स्थावराः कर्मफलं चेतयन्ते । साः कार्यं चेतयन्ते । केवलज्ञानिनो ज्ञानं चेतयन्त इति ॥
अथोपयोगगुणव्याख्यानम् ।
[ ४० ] आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । सोऽपि द्विविधः । ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयो१ सिद्धावस्थायां तावद्द्ङ्कोत्कीर्णज्ञापकैकरूपेण विनश्वरत्वाद्द्रव्यरूपेण शाश्वतस्वरूपमस्ति. २ अथ पर्यायरूपेणागुरुलघुकगुणपदस्थानगतहानिवृद्धयपेक्षयोच्छेदोऽस्ति ३ निर्विकारचिदानन्दैकस्वभावपरिणामेन भवनं भव्यत्वं. ८ अतीतमिथ्यात्वरागादिविभावपरिणामेन भवनं अपरिणमनमभव्यत्वं च ५ खशुद्धात्मद्रव्यविलक्षणेन परद्रव्यक्षेत्रकालभावचतुष्टयेन नास्तित्वं शून्यत्वम्. ६ निजपरमात्मतत्वानुगतद्रव्यक्षेत्र कालभाव रूपेणेतरमशून्यत्वम्. ७ समस्तद्रव्यगुणपर्यायैकसमय प्रकाशनसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानगुणेन विज्ञानम्. ८ विनष्टमतिज्ञानादिछद्मस्थाज्ञाने परिज्ञानादविज्ञानम्. ९ मोक्षावस्थायामिदं नित्यत्वादिस्वभावगुणाष्टकमविद्यमानजीवसद्भावे मोक्षे न युज्यते न घटते । तदस्तित्वादेव ज्ञायते मुक्तौ शुद्धजीवसद्भावोऽस्ति १० स्थावरकायाः ११ आच्छादिता - तमाहात्म्येन. १२ आच्छादित - १३ द्वीन्द्रियादयः १४ सिद्धाः १५ अव्यक्तसुखदुःखानुभवरूपं शुभाशुभकर्मफलमनुभवन्ति. १६ द्वीन्द्रियादयस्त्रसजीवाः पुनस्तदेव कर्मफलं निर्विकारपरमानन्दैकखभावमात्ममुखमलभमानाः सन्तो विशेपरागद्वेषानुरूपया कार्यचेतनया सहितमनुभवन्ति १७ चैतन्यमनुविदधात्यन्वयरूपेण परिणमति, अथवा पदार्थपरिच्छित्तिकाले घटोऽयं घटोऽयमित्याद्यर्थग्रहणरूपेण व्यापारयतीति चैतन्यानुविधायी.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका ।
गश्च । तत्र विशेषग्राहि ज्ञानं । सामान्यग्राहि दर्शनम् । उपयोगश्च सर्वदा जीवादपृथग्भूत एव । एकास्तित्वनिवृत्तत्वादिति ॥
[४१ ] ज्ञानोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत् । तत्राभिनिवोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं, मनःपैय॑यज्ञानं, केवलज्ञानं, कुमतिज्ञानं, कुश्रुतज्ञानं, विभङ्गज्ञानमिति नामाभिधानम् । आत्मा खनन्तसर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्धज्ञानसामान्यात्मा । स खल्वनादिज्ञानावरणकर्मच्छन्नप्रदेशः सन्, यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तीमूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणाऽवबुध्यते तदाभिनिवोधिकज्ञानम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादनिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तत् श्रुतज्ञानं । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदवधिज्ञानम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव परमनोगतं मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तन्मनःपर्ययज्ञानम् । यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एव मूर्त्तामूर्तद्रव्यं सकलं विशेषेणाववुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलज्ञानम् । मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमाभिनिवोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम् । मिथ्यादर्शनोदयसहचरितं श्रुतज्ञानमेव कुश्श्रुतज्ञानं । मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमवधिज्ञानमेव विभङ्गज्ञानमिति स्वरूपाभिधानम् ॥ इत्थं मतिज्ञानादिज्ञानोपयोगाष्टकं व्याख्यातम् ॥ ७ ॥
[४२ ] दर्शनोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत् । चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनमिति नामाभिधानम् । आत्मा घनन्तसर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्धदर्शनसामान्यात्मा । स खल्वनादिदर्शनावरणकावच्छन्नप्रदेशः सन् यत्तदावरणक्षयोपशमाचक्षुरिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनं । यत्तदावरणक्षयोपशमाचक्षुजितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्याच मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुदर्शनं । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनाववुध्यते तदवधिदर्शनम् । यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एव मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं सामान्येनाववुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम् ॥
[४३ ] एकस्यात्मनोऽनेकज्ञानात्मकत्वसमर्थनमेतत् । न तावानी ज्ञानात् पृथग्भवति, द्वयोरप्येकास्तित्वनिवृत्तत्वेनैकद्रव्यत्वात् । द्वयोरप्यभिन्नप्रदेशत्वेनैकक्षेत्रत्वात् । द्वयोरप्येकसमयनिर्वृत्तत्वेनैककालत्वात् । द्वयोरप्येकस्वभावत्वेनैकभावत्वात् । न चैवमुच्यमानेऽप्येकस्मिन्नात्मन्याभिनिवोधिकादीन्यनेकानि ज्ञानानि विरुध्यन्ते द्रव्यस्य विश्वरूपत्वात् । द्रव्यं हि सहक्रमप्रवृत्तानन्तगुणपर्यायाधारतयाऽनन्तरूपत्वादेकमपि विश्वरूपमभिधीयत इति ॥ [४४ ] द्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदे, गुणानां च द्रव्यानेदे दोपोपन्यासोऽयम् । गुणा हि क्वचिदाश्रिताः ।
५ अव समन्तात् द्रव्यक्षेत्रकालभावैः परिमितित्वेन धीयते ध्रियते इत्यवधिः. २ परकीयमनोगतार्थ उपचारात् मनः, मनः पर्येति गच्छतीति मनःपर्ययः. ३ अयमात्मा निश्चयनयेनाखण्डैकदर्शनस्वभावोऽपि व्यवहारनयेन संसारावस्थायां निर्मलशुद्धात्मानुभूत्यभावोपार्जितेन कर्मणा कम्पितः सन् चक्षुर्दर्शनावरणक्षयोपशमे सति बहिरङ्गचक्षुर्द्रव्येन्द्रियावलम्बेन यन्मूर्तवस्तुनि निर्विकल्पसत्तावलोकेन पश्यति तच्चक्षुर्दर्शनम्. ४ शेपेन्द्रियनोइन्द्रियावरणक्षयोयशने सति वहिरङ्गचक्षुईव्येन्द्रियावलम्बनेन यन्मृर्तामूत वस्तु निर्विकल्पसत्तावलोकेन यथासंभवं पश्यति तदचक्षुर्दर्शनम्. ५ स एवात्माऽवधिदर्शनावरणक्षयोपशमे सति यन्मृत वस्तु निर्विकल्पसतावलोकेन प्रत्यक्षं पदयति तदवधिदर्शनं. ६ रागादिदोषरहितं चिदानन्दकखभावनिजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं निर्विकल्प यानेन निरवशेपकेवलदर्शनावरणक्षये सति जगत्त्रयकालत्रयवर्ति वस्तु वस्तुगतसत्तासामान्यमेकसमयेन पदयति तदनिधनमनन्तविपयं स्वाभाविकं केवलदर्शनं भवति. ७ आत्मा. ८ आत्मज्ञानयोः.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् यत्राश्रितास्तव्यम् । तच्चेदन्यद् गुणेभ्यः। पुनरपि गुणाः क्वचिदाश्रिताः । यत्राश्रितास्तद्रव्यं । तदपि अन्यच्चेद्नुणेभ्यः । पुनरपि गुणाः कचिदाश्रिताः। यत्राश्रिताः तद्रव्यम् । तदप्यन्यदेव गुणेभ्यः । एवं द्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदे भवति द्रव्यानन्त्यम् । द्रव्यं हि गुणानां समुदायः । गुणाश्चदन्ये समुदायात् , कोनाम समुदायः । एवं गुणानां द्रव्याद भेदे भवति द्रव्याभाव इति ॥
[४५ ] द्रव्यगुणानां स्वोचितानन्य वोक्तिरियम् । अविभक्तप्रदेशत्वलक्षणं द्रव्यगुणानामनन्यत्वमभ्युपैगम्यते । विभक्तप्रदेशत्वलक्षणं त्वन्यत्वमनन्यत्वं च नाभ्युपगम्यते । तथा हि-यथैकस्य परमाणोरेकेनात्मप्रैदेशेन सह विभक्तत्वादनन्यत्वं । तथैकस्य परमाणोस्तद्वर्तिनां स्पर्शरसगन्धवर्णादिगुणानां चाविभक्तप्रदेशत्वादनन्यत्वं । यथा त्वत्यन्तविप्रकृष्टयोः सह्यविन्ध्ययोरत्यन्तसन्निकृष्टयोश्च मिश्रितयोस्तोयपयसोर्विभक्तप्रदेशत्वलक्षणमन्यत्वमनन्यत्वं च । न तथा द्रव्यगुणानां विभक्तप्रदेशत्वाभावादन्यत्वमनन्यत्वं चेति ॥
[४६ ] व्यपदेशादीनामेकान्तेन द्रव्यगुणान्यत्वनिवन्धनत्वमत्र प्रत्याख्यातम् । यथा देवदत्तस्य गौरित्यन्यत्वे षष्ठीव्यपदेशः, तथा वृक्षस्य शाखा द्रव्यस्य गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि । यथा देवदत्तः फलमङ्कुशेन धनदत्ताय वृक्षाद्वाटिकायामवचिनोतीत्यन्यत्वे कारकव्यपदेशः । तथा मृत्तिका घटभावं स्वयं स्वेन स्वस्मै स्वस्मात् स्वस्मिन् करोतीत्याऽऽत्माऽऽत्मानमात्मनाऽऽत्मने आत्मन आत्मनि जानातीत्यनन्यत्वेऽपि । यथा प्रांशोदेवदत्तस्य प्रांशुगौरित्यन्यत्वे संस्थानं । तथा प्रांशोवृक्षस्य 'पांशुः शाखाभरो, मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि । यथैकस्य देवदत्तस्य दश गाव इत्यन्यत्वे संख्या । तथैकस्य वृक्षस्य दश शाखाः, एकस्य द्रव्यस्यानन्ता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि । यथा 'गोठे गाव इत्यन्यत्वे विषयः । तथा वृक्षे शाखाः, द्रव्ये गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि । ततो न व्यपदेशादयो द्रव्यगुणानां वस्तुत्वेन भेदं साधयन्तीति॥
[४७ ] वस्तुत्वभेदाभेदोदाहरणमेतत्। यथा धनं भिन्नास्तित्वनिवृत्तम् भिन्नास्तित्वनिवृत्तस्य, भिन्नसंस्थानं भिन्नसंस्थानस्य, भिन्नसंख्यं भिन्नसंख्यस्य, भिन्नविषयलव्धवृत्तिकं भिन्नविषयलब्धवृत्तिकस्य, पुरुषस्य धनीति व्यपदेशं पृथक्त्वप्रकारेण कुरुते । यथा च ज्ञानमभिन्नास्तित्वनिवृत्तमभिन्नास्तित्वनिर्वृत्तस्याभिन्नसंस्थानं अभिन्नसंस्थानस्याभिन्नसंख्यमभिन्नसंख्यस्याभिन्नविषयलब्धवृत्तिकमभिन्नविषयलव्धवृत्तिकस्य पुरुषस्य ज्ञानीति व्यपदेशमेकत्वप्रकारेण कुरुते । तथान्यत्राऽपि । यत्र द्रव्यस्य भेदेन व्यपदेशोऽस्ति तत्र पृथक्त्वं, यत्राभेदेन तत्रैकत्वमिति ॥
[४८ ] द्रव्यगुणानामर्थान्तरभूतत्वे दोषोऽयम् । ज्ञानी ज्ञानाद्यद्यर्थान्तरभूतस्तदा स्वकरणांशमन्तरेण परशुरहितदेवदत्तवत्करणव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानोऽचेतन एव स्यात् । ज्ञानञ्च यदि ज्ञानिनोऽर्थान्तरभूतं तदा तत्कॅत्रशमन्तरेण देवदत्तरहितपरशुवत्तत्कर्तृत्वव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानमचेतन
१ यस्मिन्वस्तुनि आश्रितास्तद्र्व्यं स्यात्. २ गुणेभ्यो द्रव्यस्य भेदे सत्येकद्रव्यस्याप्यानन्त्यं प्राप्नोति । अथवा द्रव्यात्सकाशाद्यद्यन्ये भिन्ना गुणा भवन्ति तदा द्रव्यस्याभावं प्रकुर्वन्ति. ३ “अङ्गीकारोऽभ्युपगमः" इति हैमः । तेन अङ्गीक्रियते इत्यर्थः. ४ स्वकीयप्रदेशेन. ५ अत्यन्तभिन्नयोः. ६ मिलितयोः. ७ पुष्टस्य. ८ पुष्टः. ९ पुष्टस्य वा महतः. १० महान्. ११ गावः तिष्ठन्त्यत्रेति गोष्टं गवांस्थानं तस्मिन्. १२ संज्ञाम्. १३ ज्ञानं विना. १४ यथाऽग्नेर्गुणिनः सकाशादत्यन्तभिन्नः सन्नुष्णत्वलक्षणगुणोऽनेर्दहनक्रियां प्रत्ययमसमर्थः सनिश्चयेन शीतलो भवति । तथा जीवात् गुणिनः सकाशादत्यन्तभिन्नो ज्ञानगुणः पदार्थपरिच्छित्तिं प्रत्ययमसमर्थः सनियमेन जडो भवति । यथोप्णगुणादत्यन्तभिन्नः सन् वह्निर्गुणी दहनक्रियां प्रत्यसमर्थः सनिश्चयेन शीतलो भवति। तथा ज्ञानगुणादत्यन्तभिन्नः सन् जीवो गुणी पदार्थपरिच्छितिं प्रत्यसमर्थः सनिश्चयेन जडोभवति। अथ मतं । यथा भिन्नदात्रोपकरणेन देवदत्तो लावको भवति तथा भिनज्ञानेन ज्ञानी भवति इति नैव वक्तव्यं ।
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका। मेव स्यात् । न च ज्ञानज्ञानिनोयुतसिद्धयोसंयोगेन चेतनत्वं द्रव्यस्य निर्विशेषस्य गुणानां निराश्रयाणां शून्यत्वादिति ॥
[४९ ] ज्ञानज्ञानिनोः समवायसंवन्धनिरासोऽयम् । ने खलु ज्ञानादर्थान्तरभूतः पुरुषो ज्ञानसमवायात् ज्ञानी भवतीत्युपपन्नं । स खलु ज्ञानसमवायात् पूर्व किं ज्ञानी किमज्ञानी ? । यदि ज्ञानी तदा ज्ञानसमवायो निष्फलः । अथाज्ञानी तदा किमज्ञानसमवायात्, किमज्ञानेन सहैकत्वात् ? । न तावदज्ञानसमवायात् । अथाज्ञानिनो ह्यज्ञानसमवायो निष्फलः । ज्ञानित्यन्तु ज्ञानसमवायाभावात् नास्त्येव । ततोऽज्ञानीति वचनमज्ञानेन सहैकत्वमवश्यं साधयत्येव । सिद्धे चैवमज्ञानेन सहैकत्वे ज्ञानेनाऽपि सहकत्वमवश्यं सिद्धयतीति ॥
[५० ] समवायस्य पदार्थान्तरत्वनिरासोऽयम् । द्रव्यगुणानामेकास्तित्वनिवृत्तत्वादनादिरनिधना सहवृत्तिहि समवर्तित्वम् । स एव समवायो जैनानाम् । तदेव संज्ञादिभ्यो भेदेऽपि वस्तुत्वेनाभेदादपृथग्भूतत्वम् । तदेव युतसिद्धिनिवन्धनत्यास्तित्वान्तरस्याभावादयुतसिद्धत्वम् । ततो द्रव्यगुणानां समवर्तित्वलक्षणसमवायभाजामयुतसिद्धिरेव, न पृथग्भूतत्वमिति ॥
[५१-५२ ] दृष्टान्तदान्तिकार्थपुरस्सरो द्रव्यगुणानामनन्तरत्वव्याख्योपसंहारोऽयम् । वर्णरसगन्धस्पर्शा हि परमाणोः प्ररूप्यन्ते । ते च परमाणोरविभक्तप्रदेशत्वेनानन्यत्वेऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिवन्धनैविशेषैरन्यत्वं प्रकाशयन्ति । एवं ज्ञानदर्शने अप्यात्मनि संवद्धे आत्मद्रव्यादविभक्तप्रदेशत्वेनाऽनन्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिवन्धनैर्विशेषैः पृथक्त्वमासादयतः । स्वभावतस्तु नित्यमपृथक्त्वमेव विभ्रतः ॥
इति उपयोगगुणव्याख्यानं समाप्तं ॥
अथ कर्तृत्वगुणव्याख्यानम् ।
तत्रादिगाथात्रयेण तदुपोद्घातः । [५३ ] जीवा हि निश्चयेन परभावानामकरणात् स्वभावानां कर्त्तारो भविष्यन्ति । तांश्च कुर्वाणाः किमनादिनिधनाः, किं सादिसनिधनाः, किं साद्यनिधनाः, किं तदाकारेण परिणताः, किमपरिणताः भविष्यन्तीत्याशङ्कयेदमुक्तम् । जीवा हि सहजचैतन्यलक्षणपारिणामिकभावेनाऽनादिनिधनाः । त एवौदयिकक्षायोपशमिकौपशमिकमावैः सादिसनिधनाः । त एव क्षायिकभावेन साद्यनिधनाः । नच सादित्वात् सनिधनत्वं क्षायिकभावस्याङ्कयम् । स खलूपाधिनिवृत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव । जीवस्य सद्भावेन चानन्ती एव जीवाः प्रतिज्ञायन्ते । न च तेषामनादिनिधनसहजचैतन्यलक्षणकभावानां सादिसनिधनानि साधनिधनानि भावान्तराणि नोपपद्यन्त इति वक्तव्यम् । ते खल्वनादिकर्ममलीमसाः पक्षसंपृक्ततोयंवत्तदाकारे परिणतत्वात्पञ्चप्रधानगुणप्रधानत्वेनैवानुर्भूयन्त इति ॥ लेदनक्रियां प्रति दात्रं वाह्योपकरणं । वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितः पुरुपशक्तिविशेपस्त्वभ्यन्तरोपकरणं । शक्तेरभा. वे दानोपकरणे हि तयापारे च सति यथा छेदनक्रिया नास्ति, तथा प्रकाशोपाध्यायादिवहिरङ्गसहकारिसद्भावे सत्यभ्यन्तरज्ञानोपकरणाभावे पुरुषस्य पदार्थपरिच्छित्तिक्रिया न भवतीति.
१ अथ ज्ञानज्ञानिनोरत्यन्तभेदे सति समवायसंवन्धेनाप्येकत्वं कर्तुं नायातीति प्रतिपादयति. २ त्वया अजीकृतं चेत्तर्हि शृणु. ३ अथ गुणगुगिनोः कथचिढेकत्वं विहायान्यः कोऽपि समवायो नास्तीति समर्थयति. ४ एवं समवायनियमकरणमुख्यत्वेन गाथाद्वयं गतम्. ५ कथञ्चिद्भिन्नत्वम् । ६ इति नाशयम्. ७ क्षायिकभावः. ८ विनाशरहिताः. कार्दमनंमिश्रजलवत्. १० यद्यपि स्वभावेन विशुद्धास्तथापि व्यवहारेणाना दिकर्मवन्धवशासफार्दमजलपदौयिकादिभावपरिणता दृश्यन्ते.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [५४ ] जीवस्य भाववशात्सादिसनिधनत्वे साद्यनिधनत्वे च विरोधपरिहारोऽयम् । एवं हि पञ्चभिर्भावैः स्वयं परिणममानस्याऽस्य जीवस्य कदाचिदौदायिकेनैकेन मनुष्यत्वादिलक्षणेन भावेन सतो विनाशस्तथा परेणौदयिकेनैव देवत्वादिलक्षणेन भावेन असत उत्पादो भवत्येव । एतच्च 'न सतो विनाशो नासत उत्पाद' इति पूर्वोक्तसूत्रेण सह विरुद्धमपि न विरुद्धम् । यतो जीवस्य द्रव्यार्थिकनयादेशेन न सत्प्रणाशो नासदुत्पादः । तस्यैव पर्यायार्थिकनयादेशेन सत्प्रणाशो सदुत्पादश्च । न चैतदनुपपन्नम् । नित्ये जले कल्लोलानामनित्यत्वदर्शनादिति ॥
[ ५५ ] जीवस्य सदसद्भावोच्छित्युत्पत्तिनिमित्तोपाधिप्रतिपादनमेतत् । यथा हि जलराशेर्जलराशित्वेनासदुत्पादं सदुच्छेदं चाननुभवतश्चतुर्थ्यः ककुबिभागेभ्यः क्रमेण वहमानाः पवमानाः कल्लोलानामसदुत्पादं सदुच्छेदं च कुर्वन्ति । तथा जीवस्याऽपि जीवत्वेन सदुच्छेदमसदुत्पत्तिं चाननुभवतः क्रमेणोदीयमानाः नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवनामप्रकृतयः सदुच्छेदमसदुत्पादं च कुर्वन्तीति ॥
[५६ ] जीवस्य भावोदयवर्णनमेतत् । कर्मणां फलदानसमर्थतयोद्भतिरुदयः । अनुइँतिरुपशमः । उद्भूत्यनुभूती क्षयोपशमः । अत्यन्तविश्लेषः क्षयः । द्रव्यात्मलाभहेतुकः परिणामः । तत्रोदयेन युक्त औदायिकः । उपशमेन युक्त औपशमिकः । क्षयोपशमेन युक्तः क्षायोपशमिकः । क्षयेण युक्तः क्षयिकः । परिणामेन युक्तः पारिणामिकः । त एते पञ्च जीवेंगुणाः । तत्रोपाधिचतुर्विधत्वनिवन्धनाश्चत्वारः । स्वभावनिबन्धन एकः । एते चोपाधिभेदात् स्वरूपभेदाच भिद्यमाना बहुष्वर्थेषु विस्तार्यन्त इति ॥
[५७ ] जीवस्यौदयिकादिभावानां कर्तृत्वप्रकारोक्तिरियम् । जीवेन हि द्रव्यकर्म व्यवहारनयेनानुभूयते । तच्चानुभूयमानं जीवभावानां निमित्तमात्रमुपवर्ण्यते । तस्मिन्निमित्तमात्रभूते जीवेन कर्तृत्वभूतेनात्मनः कर्मभूतो भावः क्रियते । अमुना यो येन प्रकारेण जीवेन भावः क्रियते, स जीवस्तस्य भावस्य तेन प्रकारेण कर्ती भवतीति ॥
[५८] द्रव्यकर्मणां निमित्तमात्रत्वेनौदयिकादिभावकर्तृत्वमत्रोक्तम् । न खलु कर्मणा विना जीवस्योदयोपशमौ क्षयक्षायोपशमावपि विद्यते । ततः क्षायिकक्षायोपशमिकश्चौदयिकौपशमिकश्च भावः कर्मकृतोऽनुमन्तव्यः । पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो निरुपाधिः स्वाभाविक एव । झायिकस्तु स्वभावव्यक्तिरूपत्वादनन्तोऽपि कर्मणः क्षयेनोत्पद्यमानत्वात् सादिरिति कर्मकृत एवोक्तः। भौपशमिकस्तु कर्मणामुपशमे समुत्पद्यमानत्वादनुपशमे समुच्छिद्यमानत्वात् कर्मकृत एवेति । अथवा उदयोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणाश्चतस्रो द्रव्यकर्मणामेवावस्थाः । न पुनः परिणामलक्षणकावस्थस्य जीवस्य । तत उद्यादिसंजातानामात्मनो भावानां निमित्तमात्रभूततथाविधावस्थत्वेन त्वयं परिणमनाव्यकर्मापि व्यवहारनयेनात्मनो भावानां कर्तृत्वमापद्यत इति ॥
[५९ ] जीवभावस्य कर्मकर्तृत्वे पूर्वपक्षोऽयम् । यदि खल्वौदयिकादिरूपो जीवस्य भावः कर्मणा क्रियते तदा जीवस्तस्य कर्त्ता न भवति । नच जीवस्याकर्तृत्वमिष्यते । ततः पारिशेष्येण द्रव्यकर्मणः कर्ताऽऽपद्यते। तत्तु कथं । यतो निश्चयनयेनात्मा स्वभावमुज्झित्वा नान्यत्किमपि करोतीति ॥
१ अविद्यमानस्य भावस्य. २ अनुपलभ्यमानस्य. ३ वायवः. ४ कर्मणां फलदानसमर्थतयाऽनुद्भतिरनुदयः. ५ नीरागनिर्भरानन्दलक्षणप्रचण्डाखण्डज्ञानकाण्डपरिणतात्मभावनारहितेन मनोवचनकायव्यापाररूपकर्मकाण्ड. परिणतेन च पूर्वं यदुपार्जितं ज्ञानावरणादि कर्म तदुदयागतं व्यवहारेणैव. ६ उपाधिचतुर्विधत्वं निवन्धनं कारणं येषां ते. ७ रागादिपरिणामानामुदयागतं द्रव्यकर्म व्यवहारेण कारणं दर्शयति.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका । [६० ] पूर्वसूचोदितपूर्वपक्षसिद्धान्तोऽयम् । व्यवहारेण निमित्तमात्रत्वाज्जीवभावस्य कर्म कर्तृ, कर्मणोऽपि जीवभावः कर्ता । निश्चयेन तु न जीवभावानां कर्म कर्तृ, न कर्मणो जीवभावः । न च ते' कर्तारमन्तरेण संभूयते । यतो निश्चयेन जीवपरिणामानां जीवः कर्ता, कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति ॥
[६१ ] निश्चयेन जीवस्य स्वभावानां कर्तृत्वं पुद्गलकर्मणामकर्तृत्वं चागमेनोपदर्शितमत्र इति ॥
[६२] अत्र निश्चयेनाभिन्नकारकत्वात् कर्मणो जीवस्य च स्वयं स्वरूपकर्तृत्वमुक्तम् । कर्म खलु कर्मत्वप्रवर्तमानपुद्गलस्कन्धरूपेण कर्तृतामनुविभ्राणं कर्मत्वगमनशक्तिरूपेण करणतामात्मसात्कुर्वत् प्राप्यकर्मत्वपरिणामरूपेण कर्मतां कलयत् पूर्वभावव्यपायेऽपि ध्रुवत्वालम्बनादुपात्तापादानत्वमुपजायमानपरिणामरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढसंप्रदानत्वमाधीयमानपरिणामाधारत्वाद्गृहीताधिकरणत्वं स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकान्तरमपेक्षते । एवं जीवोऽपि भावपर्यायेण प्रवर्तमानात्मद्रव्यरूपेण कर्तृतामनुविभ्राणो भावपव्यगमनशक्तिरूपेण करणतामात्मसात्कुर्वन्, प्राप्यभावपर्यायरूपेण कर्मतां कलयन् , पूर्वभावपर्यायव्यपायेऽपि ध्रुवत्वालम्बनादुपात्तापादानत्वः, उपजायमानभावपर्यायरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढसंप्रदानत्वः, आधीयमानभावपर्यायाधारत्वाद्गृहीताधिकरणत्वः स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते । अतः कर्मणः कर्तुर्नास्ति जीवः कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्म कर्तृ निश्चयेनेति ॥ [६३ ] कर्मजीवयोरन्योन्याकर्तृत्वेऽन्यदत्तफलान्योपभोगलक्षणदूषणपुरःसरः पूर्वपक्षोऽयम् ॥
अथ सिद्धान्तसूत्राणि । [६४ ] कर्मयोग्यपुद्गला अन्नचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोकव्यापित्वाद्यत्रात्मा तत्रानानीता एवावतिष्ठन्त इत्यत्रोक्तम् ॥
[६५] अन्याकृतकर्मसंभूतिप्रकारोक्तिरियम् । आत्मा हि संसारावस्थायां पारिणामिकचैतन्यस्वभावमपरित्यजन्नेवानादिवन्धनबद्धत्वादनादिमोहरागद्वेषस्निग्धैरविशुद्धैरेव भावविवर्तते । स खलु यत्र यदा मोहरूपं, रागरूपं, द्वेषरूपं वा स्वस्य भावमारभते । तत्र तदा तमेव निमित्तीकृत्य जीवप्रदेशेषु परस्परावगाहेनानुप्रविष्टाः स्वभावैरेव पुद्गलाः कर्मभावमापद्यन्त इति ॥
[६६ ] अनन्यकृतत्वं कर्मणां वैचित्र्यस्यात्रोक्तम्। यथा हि स्वयोग्यचन्द्रार्कप्रभोपलम्भे संध्याभ्रेन्द्रचापपरिवेषप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैः पुद्गलस्कन्धविकल्पाः कत्रन्तरनिरपेक्षा एवोत्पद्यन्ते । तथा स्वयोग्यजीवपरिणामोपलम्भे ज्ञानावरणप्रभृतिभिर्वहुभिप्रकारैः कर्माण्यपि कर्वन्तरनिरपेक्षाण्येवोत्पद्यन्ते इति॥
[६७ ] निश्चयेन जीवकर्मणोश्चैककर्तृत्वेऽपि व्यवहारेण कर्मदत्तफलोपलम्भो जीवस्य न विरुध्यत इत्यत्रोक्तम् । जीवा हि मोहरागद्वेषस्निग्धत्वात्पुद्गलस्कन्धाश्च स्वभावस्निग्धत्वाद्वन्धावस्थायां परमाणुद्वन्द्वानीवान्योन्यावगाहग्रहणप्रतिवद्धत्वेनावतिष्ठन्ते । यदा तु "ते परस्परं वियुज्यन्ते, तदोदितप्रच्यव
५ भावकर्मणी अत्र द्विवचनम्. २ अन्यपट्कारकाणि न वाञ्छते. ३ रागद्वेपरूपेण भावकर्मणा. ४ निश्चयतः. ५ 'समुद्गकः' इत्युत्ते 'संपुटकः' इत्यर्थो भवति; तथाचोक्कममरकोशे नृवर्गे “समुद्कः संपुटकः" इति । अजनवणेन मर्दिताजनेन यथा समुद्गकः संपुटकः कन्जलधरसंभृतो भवति तथा पद्रव्यर्लोकः संभृतो. ऽस्तीति भावः. ६ आत्मा. ७ रागद्वेपरूपमात्मभावम्. ८ अन्यकर्तारं विना. ९ उपादानरूपेण निजनिज. सम्पत्वेऽपि. १० जीवपुद्गलस्कन्धाः.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् माना निश्चयेन सुखदुःखरूपात्मपरिणामानां; व्यवहारेणेप्टानिष्टविषयाणां निमित्तमात्रत्वात्पुद्गलकायाः सुखदुःखरूपं फलं प्रयच्छन्ति । जीवाश्च निश्चयेन निमित्तमात्रभूतद्रव्यकर्मनिवर्तितमुखदुःखस्वरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेण द्रव्यकर्मोदयापादितेष्टानिष्टविषयाणां भोक्तृत्वात्तथाविधं फलं भुञ्जते इति । एतेन जीवस्य भोक्तृत्वगुणोऽपि व्याख्यातः ॥
[ ६८ ] कर्तृत्वभोक्तृत्वव्याख्योपसंहारोऽयम् । तत एतत् स्थितं निश्चयेनात्मनः कर्म कर्तृ, बवहारेण जीवभावस्य । जीवोऽपि निश्चयेनात्मभावस्य कर्ता व्यवहारण कर्मण इति । यथानोभयनयाभ्यां कर्म कर्तृ, तथैकेनापि नयेन न भोक्तृ । कुतः चैतन्यपूर्वकानुभूतिसद्भावाभावात् । ततश्चेतनत्वात्केवल एव जीवः कर्मफलभूतानां कथंचिदात्मनः सुखदुःखपरिणामानां कथंचिदिष्टानिष्टविपयाणां भोक्ता प्रसिद्ध इति ॥
[६९ ] कर्मसंयुक्तत्वमुखेन प्रभुत्वगुणव्याख्यानमेतत् । एवमयमात्मा प्रकटितप्रभुत्वशक्तिः स्वकैः कर्मभिगृहीतकर्तृत्वभोक्तृत्वाधिकारोऽनादिमोहावच्छिन्नत्वादुपजातविपरीताभिनिवेशः प्रत्यस्तमितसम्यग्ज्ञानज्योतिः सान्तमनन्तं वा संसारं परिभ्रमतीति ॥
[७० ] कर्मवियुक्तत्वमुखेन प्रभुत्वगुणव्याख्यानमेतत् । अयमेवात्मा यदि जिनाच्या मार्गमुपगम्योपशान्तक्षीणमोहत्वात्प्रहीणविपरीताभिनिवेशः समुद्भिन्नसम्यग्ज्ञानज्योतिः कर्तृत्वभोक्तृत्वाधिकार परिसमाप्य सम्यक्प्रकटितप्रभुत्वशक्तिमा॑नस्यैवानुमार्गेण चरति, तदा विशुद्धात्मतत्योपलम्भनरूपमपवर्गनगरं विगाहत इति ॥
_____ अथ जीवविकल्पा उच्यन्ते । [७१-७२ ] स खलु जीवो महात्मा नित्यचैतन्योपयुक्तत्वादेक एव । ज्ञानदर्शनभेदादिविकल्पः । कर्मफलकार्यज्ञानचेतनाभेदेन लक्ष्यमाणत्वात्रिलक्षणः। श्रौव्योत्पादविनाशभेदेन वा चतस्यु गतिपु चंक्रमणत्वाच्चतुश्चमणः । पञ्चभिः पारिणामिकौदयिकादिभिरग्रगुणैः प्रधानत्वात् पञ्चाग्रगुणप्रधानः । चतसृषु दिक्षुर्ध्वमधश्चेति भवान्तरसंक्रमणपटेनापक्रमेण युक्तत्वात् षटापक्रमयुक्तः । अस्तिनास्त्यादिभिः सप्तभङ्गैः सद्भावो यस्येति सप्तभङ्ग-सद्भावः । अष्टानां कर्मणां गुणानां वा आश्रयत्वादृष्टाश्रयः । नवपदार्थरूपेण वर्तनान्नवार्थः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसाधारणप्रत्येकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियरूपेषु दशसु स्थानेषु गतत्वाद्दशस्थानग इति ॥ [७३ ] बद्धजीवस्य पगतयः कर्मनिमित्ताः । मुक्तस्याप्यूर्ध्वगतिरेका स्वाभाविकीत्यत्रोक्तम् ।
इति जीवद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम् ।
अथ पुद्गलद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम् । [७४ ] पुद्गलद्रव्यविकल्पादेशोऽयम् । पुद्गलद्रव्याणि हि कदाचित् स्कन्धपर्यायेण, कदाचित् स्कन्धदेशप-येण, कदाचित् स्कन्धप्रदेशप-येण, कदाचित् परमाणुत्वेनात्र तिष्ठन्ति । नान्यागतिरस्ति । इति तेषां चतुर्विकल्पत्वमिति ॥
[७५ ] पुद्गलद्रव्यविकल्पनिर्देशोऽयम् । अनन्तानन्तपरमाण्वारब्धोऽप्येकः स्कन्धनाम पायः । तदर्ध स्कन्धदेशो नाम पर्यायः। तदर्धाध स्कन्धप्रदेशो नाम पायः। तद स्कन्धदेशो नाम पायः । १ खकीयस्य. २ निराकृत्य. ३ लोके.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका । तदर्धा स्कन्धप्रदेशो नाम पर्यायः । एवं भेदवशावथणुकस्कन्धादनन्ताः स्कन्धप्रदेशपर्यायाः। निर्विभागैकप्रदेशः स्कन्धस्याभेदपरमाणुरेकः । पुनरपि द्वयोः परमाण्वोः संघातादेको द्वथणुकस्कन्धपर्यायः । एवं संघातवशादनन्ताः स्कन्धपर्यायाः । एवं भेदसंघाताभ्यामप्यनन्ता भवन्तीति ॥
[७६ ] स्कन्धानां पुद्गलव्यवहारसमर्थनमेतत् । स्पर्शरसवर्णगन्धगुणविशेषैः पट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिः पूरणगलनधर्मत्वात् स्कन्धव्यक्त्याविर्भावतिरोभावाभ्यामपि च पूरणगलनोपपत्तेः परमाणवः पुद्गला इति निश्चीयन्ते । स्कन्धास्त्वनेक पुद्गलमयैकपर्यायत्वेन पुद्गलेभ्योऽनन्यत्वात्पुद्गला इति व्यवह्रियन्ते । तथैव च वादरसूक्ष्मत्वपरिणामविकल्पैः पट्प्रकारतामापद्य त्रैलोक्यरूपेण निष्पद्य स्थितवन्त इति । तथाहि-बादरवादराः, वादराः, बादरसूक्ष्माः, सूक्ष्मवादराः, सूक्ष्माः, सूक्ष्मसूक्ष्माः इति । तत्र छिन्नाः स्वयं संधानासमर्थाः काठपाषाणादयो बादरवादराः । छिन्नाः स्वयं संधानसमर्थाः क्षीरघृततैलतोयरसप्रभृतयो वादराः । स्थूलोपलम्भा अपि छेत्तुं भेत्तुमादातुमशक्या छायाऽऽतपतमोज्योत्स्नादयो वादरसूक्ष्माः । सूक्ष्मत्वेऽपि स्थूलोपलम्भाः स्पर्शरसगंधवर्णशब्दाः सूक्ष्मवादराः । सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्याः कर्मवर्गणादयः सूक्ष्माः । अत्यन्तसूक्ष्माः कर्मवर्गणाभ्योऽधो द्वयणुकस्कन्धपर्यन्ताः सूक्ष्मसूक्ष्मा इति ॥
[७७ ] परमाणुव्याख्येयम् । उक्तानां स्कन्धपायाणां योऽन्त्यो भेदः स परमाणुः । स तु पुनर्विभागाभावादविभागी । निर्विभागैकप्रदेशत्वादेकः । मूर्तद्रव्यत्वेन सदाप्यविनश्वरत्वान्नित्यः । अनादिनिधनरूपादिपरिणामोत्पन्नत्वान्मूर्तिभवः । रूपादिपरिणामोत्पन्नत्वेऽपि शब्दस्य परमाणुगुणत्वाभावात्पुद्गलस्कन्धपव्यत्वेन वक्ष्यमाणत्वाचाशब्दो निश्चीयत इति ॥
७८ ] परमाणूनां जात्यन्तरत्वनिरासोऽयम् । परमाणोहि मूर्तत्वनिवन्धनभूताः स्पर्शरसगन्धवी आदेशमात्रेणैव भिद्यन्ते । वस्तुतस्तु यथा तस्य स एव प्रदेश आदिः, स एव मध्यः स एवान्तः इति । एवं द्रव्यगुणयोरविभक्तप्रदेशत्वात् य एव परमाणोः प्रदेशः स एव स्पर्शस्य, स एव गन्धस्य, स एव रूपस्येति । ततः चित्परमाणो गन्धगुणे, क्वचित् गन्धरसगुणयोः, कचित् गन्धरसरूपगुणेषु अपकृष्यमाणेषु तदविभक्तप्रदेशः परमाणुरेव विनश्यतीति । न तदपको थुक्तः । ततः पृथिव्यप्तेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यैक एव परमाणुः कारणं । परिणामवशात् विचित्रो हि परमाणोः परिणामगुण, छचित्कस्यचिद्गुणस्य व्यक्ताव्यक्तत्वेन विचित्रां परिणतिमादधाति । यथा च तस्य परिणामवशा
व्यक्तो गन्धादिगुणोऽस्तीति प्रतिज्ञायते न तथा शब्दोऽप्यव्यक्तोऽस्तीति ज्ञातुं शक्यते । तस्यैकप्रदेशत्यानेकप्रदेशात्मकेन शब्देन सहैकत्वविरोधादिति ॥
[७९ ] शब्दस्य पुद्गलसंघपर्यायत्वख्यापनमेतत् । इह हि वाह्यश्रवणेन्द्रियावलम्बितो भावेन्द्रियपरिच्छेखो ध्वनिः शब्दः । स खलु स्वरूपेणानन्तपरमाणूनामेकस्कन्धो नाम पर्यायः । बहिरङ्गसाधनीभृतमहात्कन्धेभ्यः तथाविपरिणामेन समुत्पद्यमानत्वात् स्कन्धप्रभवः । यतो हि परस्पराभिहतेषु महात्कन्धेपु शब्दः समुपजायते । किंच स्वभावनिर्वृत्ताभिरेवानन्तपरमाणुमयीभिः शब्दयोग्यवर्गणाभि
१ अस्तित्वप्रीयत्वादयतु सामान्यगुणात्सपां द्रव्याणां मध्ये साधारणरूपेण विद्यन्ते । पुनः स्पर्शरसगन्धवर्णगुणातु पुलद्रव्ये एव विद्यन्ते। अत एव गुणविशेषाः कथ्यन्ते. २ वर्णगन्धरसस्पर्शः पूरणं गलनं पुर्वन्ति स्वन्धदत्तत्मात्पुद्गला परनाणवः. : द्विप्रदेशादिस्कन्धानां पुद्गललग्रहण प्रदेशपूरणगलनरूपत्वात् . ४ पृथन कियन्ते. ५ पूर्वोक्तेषु एतेषु गुणेपु अपकृप्यमागेषु नौणतां प्राप्तेषु सत्सु. ६ तस्य परमाणोरपको विनायो न युतः. ७ परमाणो. सहाव्दपारण. ९ अन्योन्नसंघटितेपु.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् रन्योन्यमनुप्रविश्य समन्ततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरङ्गकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र तोः शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमन्त इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कन्धप्रभवत्वमिति ॥
[८०] परमाणोरेकप्रदेशत्वख्यापनमेतत् । परमाणुः स खल्वेकेन प्रदेशेन रूपादिगुणसामान्यभाजा सर्वदैवाविनश्वरत्वान्नित्यः । एकेन प्रदेशेन तदविभक्तवृत्तीनां स्पर्शादिगुणानामवकाशदानान्नानवकोशः । एकेन प्रदेशेन द्वयादिप्रदेशाभावादात्मादिनात्ममध्येनात्मान्तेन न सावकांशः। एकेन प्रदेशेन स्कन्धानां भेदनिमित्तत्वात् स्कन्धानां भेत्ता । एकेन प्रदेशेन स्कन्धसंघातनिमित्तत्वात्स्कन्धानां कर्ता । एकेन प्रदेशेनैकाकाशप्रदेशातिवर्तिततद्गतिपरिणामापन्नेन समयलक्षणकालविभागकरणात् कालस्य प्रविभक्ता। एकेन प्रदेशेन तत्सूत्रितद्वयादिभेदपूर्विकायाः स्कन्धेषु द्रव्यसंख्यायाः, एकेन प्रदेशेन तद्वच्छिन्नैकाकाशप्रदेशपूर्विकायाः क्षेत्रसंख्यायाः, एकेन प्रदेशेनैकाकाशप्रदेशातिवर्तिततद्गतिपरिणामावच्छिन्नसमयपूर्विकायाः कालसंख्यायाः, एकेन प्रदेशेन तद्विवर्तिजघन्यवर्णादिभात्रावबोधपूर्विकाया भावसंख्यायाः प्रविभागकरणात् प्रविभक्ता संख्याया अपीति ॥
[८१] परमाणुद्रव्ये गुणपर्यायवृत्तिप्ररूपणमेतत् । सर्वत्रापि परमाणौ रसवर्णगन्धस्पर्शाः सहभुवो गुणाः । ते च क्रमप्रवृत्तैस्तत्र स्वपर्यायैर्वर्तन्ते । तथाहि-पञ्चानां रसपायाणामन्यतमेनैकेनैकदा रसो वर्तते । पञ्चानां वर्णपर्यायाणामन्यतमेनैकेनैकदा वर्णों वर्तते । उभयोर्गन्धपायोरन्यतरेणैकेनेकदा गन्धो वर्तते । चतुर्णा शीतस्निग्धशीतरूक्षोष्णस्निग्धोष्णरूक्षरूपाणां स्पर्शपायद्वन्द्वानामन्यतमेनकेनैकदा स्पर्शो वर्तते । एवमयमुक्तगुणवृत्तिः परमाणुः शब्दस्कन्धपरिणतिशक्तिस्वभावात् शब्दकारणं। एकप्रदेशत्वेन शब्दपर्यायपरिणतिवृत्त्यभावादशब्दः । स्निग्धरूक्षत्वप्रत्ययबन्धवशादनेकपरमाण्वेकत्वपरिणतिरूपस्कन्धान्तरितोऽपि स्वभावमपरित्यजन्नुपात्तसंख्यत्वादेकमेव द्रव्यमिति ॥
[८२] सकलपुद्गलंविकल्पोपसंहारोऽयम् । इन्द्रियविषयाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाश्च, द्रव्येन्द्रियाणि स्पर्शनरसनप्राणचक्षुःश्रोत्राणि, कायाः औदारिकवैक्रियकाहारकतैजसकार्मणानि, द्रव्यमनोद्रव्यकर्माणि नोकर्माणि, विचित्रपर्यायोत्पत्तिहेतवोऽनन्ताऽनन्ताणुर्वगणाः, अनन्ताऽसंख्येयाणुवर्गणाः, अनन्ताः संख्येयाणुवर्गणाः, द्वयणुकस्कन्धपर्यन्ताः परमाणवश्व, यदन्यदपि मूर्ती तत्सर्वं पुद्गलविकल्पत्वेनोपसंहर्तव्यमिति ॥
इति पुद्गलद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम् ।
अथ धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम् । [८३ ] धर्मस्वरूपाख्यानमेतत् । धर्मो हि स्पर्शरसगन्धवर्णानामत्यन्ताभावादमूर्तस्वभावः । तत एवं चाशब्दः । सकललोकाकाशाभिव्याप्यावस्थितत्वाल्लोकावगाढः । अयुतसिद्धप्रदेशत्वात् स्पृष्टः । स्वभावादेव सर्वतो विस्तृतत्वात्पृथुलः । निश्चयनयेनैकप्रदेशोऽपि व्यवहारनयेनाऽसंख्यातप्रदेश इति ॥
[८४ ] धर्मस्यैवावशिष्टस्वरूपाख्यानमेतत् । अपि च धर्मः अगुरुलघुभिर्गुणैरगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिवन्धनस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदैः प्रतिसमयसंभवत्पट्स्थानपतितद्धिहानिभिरनन्तैः सदापरिणतत्वादुत्पादव्ययवत्वेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनान्नित्यः । गतिक्रियापरिणतानामुँदासीनाऽविनाभूतसहायमानत्वात्कारणभूतः । स्वास्तित्वमात्रनिर्वृत्तत्वात् स्वयमकार्य इति ॥
१ शब्दयोग्यपुद्गलवर्गणाः. २ अवकाशरहित इत्यर्थः. ३ अवकाशसहित इयर्थः. ४ अङ्गीकर्तव्यम् । ५ धर्म विना गमनं नास्ति. ६ जीवपुद्गलानाम्.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका। [८५] धर्मस्य गतिहेतुत्वे दृष्टान्तोऽयम् । यथोदकं स्वयमगच्छद्गमयच्च स्वयमेव गच्छतां मत्स्यानामुदासीनाऽविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति । तथा धर्माऽपि स्वयमगच्छन् अगमयंश्च स्वयमेव गच्छतां जीवपुद्गलानामुदासीनाऽविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति इति ॥
[८६ ] अधर्मस्वरूपाख्यानमेतत् । यथा धर्मः प्रज्ञापितस्तथाऽधर्माऽपि प्रख्यापनीयः । अयं तु विशेषः । सगतिक्रियायुक्तानामुदकवत्कारणभूत ऐपः । पुनः स्थितिक्रियायुक्तानां पृथिवीवत्कारणभूतः । यथा पृथिवी स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन्ती परमस्थापयन्ती च स्वयमेव तिष्ठतामश्वादीनामुदासीनाऽविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णाति ॥
[८७ ] धर्माधर्मसद्भावे हेतूपन्यासोऽयम् । धर्माधौं विद्यते । लोकालोकविभागान्यथानुपपत्तेः । जीवादिसर्वपदार्थानामेकत्रवृत्तिरूपो लोकः । शुद्धैकाकाशवृत्तिरूपोऽलोकः । तत्र जीवपुद्गलौ स्वरसते एव गतितत्पूर्वस्थितिपरिणामापन्नौ । तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्वहिरङ्गहेतू धर्माधर्मों न भवेताम्, तदा तयोनिरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वायेंत । ततो न लोकालोकविभागः सिध्येत । धर्माधर्मयोस्तु जीवपुद्गलयोर्गतितत्पूर्वस्थित्योर्वहिरङ्गहेतुत्वेन सद्भावेऽभ्युपगम्यमाने लोकालोकविभागो जायत इति । किञ्च धर्माधर्मो द्वावपि परस्परं पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वाद्विभक्तौ । एकक्षेत्रावगाढत्वादविभक्तौ । निष्क्रियत्वेन सकललोकवर्तिनोर्जीवपुद्गलयोगतिस्थित्युपग्रहणकरणाल्लोकमात्राविति ॥
[८८] धर्माधर्मयोर्गतिस्थितिहेतुत्वेऽप्यत्यन्तौदासीन्याख्यापनमेतत् । यथा हि गतिपरिणतः प्रभञ्जनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुक ऽवलोक्यते न तथा धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते । कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वं । किन्तु सलिलमिव मत्स्यानां जीवपुद्गलानामाश्रयकारणमात्रत्वेनोदासीन एवाऽसौ गतेः प्रेसरो भवति । अपि च यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतस्तुरङ्गोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते न तथा धर्मः । स खल निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपूर्वस्थितिपरिणाममेवापद्यते । कुतोऽस्य सहस्थायित्वेन परेषां गतिपूर्वस्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वं । किन्तु पृथिवीवत्तुरङ्गस्य जीवपुद्गलानामाश्रयकारणमानत्वेनोदासीन एवाऽसौ गतिपूर्वस्थितेः प्रसरो भवतीति ।।
[८९ ] धर्माधर्मयोरौदासीन्ये हेतूपन्यासोऽयम् । धर्मः किल न जीवपुद्गलानां कदाचिद्गतिहेतुत्वमभ्यस्यति, न कदाचित्स्थितिहेतुत्वमधर्मः । तौ हि परेषां गतिस्थित्योर्यदि मुख्यहेतू स्यातां; तदा येषां गतिस्तेषां गतिरेव न स्थितिः, येषां स्थितिस्तेषां स्थितिरेव न गतिः । तत एकेषामपि गतिस्थितिदर्शनादनुमीयते न तो तयोर्मुख्यहेत् । किन्तु व्यवहारनयव्यवस्थापितो उदासीनौ । कथमेवं गतिस्थितिमतां पदार्थानां गतिस्थिती भवत इति चेत्, सर्वे हि गतिस्थितिमन्तः पदार्थाः स्वपरिणामैरेव निश्चयेन गतिस्थिती कुवन्तीति ॥
इति धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम् ।
१ अन्यमगनयत् . २ अधर्मः. ३ स्वभावतः. ४ जीवपुद्गलयोः. ५ अङ्गीक्रियमाणे सति. ६ वायुः. ७ पताकानाम् . ८ धर्मद्रव्यस्य. ९ प्रवर्तको भवति । न प्रेरकतया प्रेरकः. १० अधर्मद्रव्यम्य. ११ सहचसनस्पेण. १२ एक्लरूपसरूपनमूहजीवपुद्गलानाम..
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अथाकाशद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्[९० ] आकाशस्वरूपाख्यानमेतत् । पद्रव्यात्मके लोके सर्वेषां शेपेद्रव्याणां यत्समस्तावकाशनिमित्तं विशुद्धक्षेत्ररूपं तदाकाशमिति ॥
[ ९१] लोकाद्वहिराकाशसूचनेयं । जीवादीनि शेपव्याण्यवधृतपरिमाणत्वाल्लोकादनन्यान्येव । आकाशं त्वनन्तत्वाल्लोकादनन्यदन्यच्चेति ॥
[९२ ] आकाशस्यावकाशकहेतोगतिस्थितिहेतुत्वशङ्कायां दोपोपन्यासोऽयम् । यदि खल्वाकाशमवगाहिनामवगाहहेतुर्गतिस्थितिमतां गतिस्थितिहेतुरपि स्यात् , तदा सर्वोत्कृष्टस्वाभाविकोर्ध्वगातिपरिणता भगवन्तः सिद्धा बहिरङ्गान्तरङ्गसाधनसामग्र्यां सत्यामपि कुतस्तत्राकाशे तिष्ठन्त इति ॥
[ ९३ ] स्थितिपक्षोपन्यासोऽयम् । यतो गत्वा भगवन्तः सिद्धाः लोकोपयवतिष्ठन्ते, ततो गतिस्थितिहेतुत्वमाकाशे नास्तीति निश्चेतव्यम् । लोकालोकावच्छेदको धर्माधीवेब गतिस्थितिहेतू मन्तव्याविति ॥
[९४ ] आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वाभावे हेतूपन्यासोऽयम् । नाकाशं गतिस्थितिहेतु लोकालोकसीमव्यवस्थायास्तथोपपत्तेः । यदि गतिस्थित्योराकाशमेव निमित्तमिष्येत् , तदा तस्यै सर्वत्र सद्भावाजीवपुद्गलानां गतिस्थित्योनिःसीमत्वात्प्रतिक्षणमलोको हीयते । पूर्व पूर्व व्यवस्थाप्यमानश्चान्तो लोकसोत्तरोत्तरपरिवृद्ध्या विघटते । ततो न तत्रं तद्धेतुरिति ॥
[९५] आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वनिरासव्याख्योपसंहारोऽयम् । धर्माधर्मावेव गतिस्थितिकारणेनाकाशमिति ॥
[९६] धर्माऽधर्माऽलोकाकाशानामवगाहवशादेकत्वेऽपि वस्तुत्वेनान्यत्वमत्रोक्तम् । धर्माधर्मालोकाकाशानि हि समानपरिमाणत्वात्सहावस्थानमात्रेणेवैकत्वभाञ्जि । वस्तुतस्तु व्यवहारेण गतिस्थित्यवगाहहेतुत्वरूपेण निश्चयेन विभक्तप्रदेशत्वरूपेण विशेषेण पृथगुपलभ्यमानेनान्यत्वभाज्येव मवन्तीति ॥
इत्याकाशद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम् ।
अथ चूलिका। [९७ ] अत्र द्रव्याणां मूर्तामूर्तत्वं चेतनाचेतनत्वं चोक्तम् । स्पर्शरसगन्धवर्णसद्भावस्वभावं मूर्त । स्पर्शरसगन्धवर्णाऽभावस्वभावममूर्त, चैतन्यसद्भावस्वभावं चेतनं । चैतन्याभावस्वभावमचेतनं । तत्रामूर्तमाकाशं, अमूर्तः कालः, अमूर्तः स्वक्षेपण जीवः, पररूपवेिशान्मूर्तोऽपि अमूर्ती धर्मः, अमूर्तीऽधर्मः, मूर्तः पुद्गल एवैक इति । अचेतनमाकाशं, अचेतनः कालः, अचेतनो धर्मः, अचेतनोऽधर्मः, अचेतनः पुद्गलः, चेतनो जीव एवैक इति ॥
[ ९८ ] अत्र सक्रियत्वनिष्क्रियत्वमुक्तम् । प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दनरूपपर्यायः क्रिया । तत्र सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः जीवाः । सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः पुद्गलाः । निष्क्रियमाकाशं, निष्क्रियो धर्मः, निष्क्रियोऽधर्मः, निष्क्रियः कालः । जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं
१ पन्नद्रव्याणाम् . २ जीवपुद्गलानाम् . ३ आकाशस्य. ४ लोकस्यान्तो. ५ आकाशे. ६ गमनस्थिलोः कारणं न. ७ खभावेन. ८ कर्मनोकर्मसंयोगात्.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका। कर्मनोकर्मोपचयरूपाः पुद्गला इति । ते पुद्गलकरणाः । तदभावान्निःक्रियत्वं सिद्धानां । पुद्गलानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं परिणामनिर्वर्तकः काल इति ते कालकरणाः । नच कर्मादीनामिव कालखाभावः । ततो न सिद्धानामिव निष्क्रियत्वं पुद्गलानामिति ॥
[९९] मृर्तामूर्तलक्षणाख्यानमेतत् । इह हि जीवैः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुभिरिन्द्रियैस्तद्विषयभूताः स्पर्शरसगन्धवर्णस्वभावा अर्था गृह्यन्ते । श्रोत्रेन्द्रियेण तु तँ एव तद्विपयहेतुभूतशब्दाकारपरिणता गृखन्ते । ते' कदाचित्स्थूलस्कन्धत्वमापन्नाः कदाचित्सूक्ष्मत्वमापन्नाः कदाचित्परमाणुत्वमापन्नाः इन्द्रियग्रहणयोग्यतासद्भावाद् गृह्यमाणा अगृह्यमाणा वा मूर्ता इत्युच्यन्ते । शेषमितरत् समस्तमप्यर्थसंजातं स्पर्शरसगन्धवर्णाभावस्वभावमिन्द्रियग्रहणयोग्यताया अभावादमूर्तमित्युच्यते । चित्तग्रहणयोग्यतासद्भावभाग्भवति तदुभयमपि । चित्तं खनियत विषयमप्राप्यकारि मतिश्रुतज्ञानसाधनीभूतं मूर्तममूर्त च समाददातीति ॥
इति चूलिका समाप्ता।
अथ कालद्रव्यव्याख्यानम् । [१०० ] व्यवहारकालस्य निश्चयकालस्य च स्वरूपाख्यानमेतत् । तत्र क्रमानुपाती समयाख्यः पर्यायो व्यवहारकालः । तदाधारभूतं द्रव्यं निश्चयकालः । तत्र व्यवहारकालो निश्चयकालपर्यायरूपोऽपि जीवपुद्गलानां परिणामेनावच्छिद्यमानत्वात्तत्परिणामभव इत्युपगीयते । जीवपुद्गलानां परिणामस्तु बहिरङ्गनिमित्तभूतद्रव्यकालसद्भावे सति संभूतत्वाव्यकालसंभूत इत्यभिधीयते । तत्रेदं तात्पर्य । व्यवहारकालो जीवपुद्गलपरिणामेन निश्चीयते, निश्चयकालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्त्येति । तत्र क्षणभङ्गी व्यवहारकालः । सूक्ष्मपर्यायस्य तावन्मात्रत्वात् । नित्यो निश्चयकालः स्वगुणपर्यायाधारद्रव्यत्येन सर्वदेवाऽविनश्वरत्वादिति ।।
[१०१ ] नित्यक्षणिकत्वेन कालविभागख्यापनमेतत् । यो हि द्रव्यविशेषः 'अयं कालः, अयं कालः' इति सदा व्यपदिश्यते स खलु स्वयं सद्भावमावर्दयन् भवति नित्यः । यस्तु पुनरुत्पन्नमात्र एव प्रध्वस्यते स खलु तस्यैव द्रव्यविशेषस्य समयाख्यः पर्याय इति । 'से तूत्सङ्गितक्षणभङ्गोऽप्युपदर्शितवसंतीनो नयवलाद्दीर्घान्तरस्थाय्युपगीयमानो न दुष्यति । ततो न खल्वाऽऽवलिकापल्योपमसागरोपमादिव्यवहारो विप्रतिपिध्यते । तदन निश्चयकालो नित्यः द्रव्यरूपत्वात् । व्यवहारकालः क्षणिकः पर्यायरूपत्वादिति ॥
१ जीवाः. २ पुद्गलकरणाभावात् . ३ निप्पादकः. ४ अत्र यथा शुद्धात्माऽनुभूतिवलेन कर्मपुद्गलानामभावात्सिद्धानां निफियत्वं भवति न तथा पुद्गलानां । कम्मात्कालस्यैव सर्वत्रैव विद्यमानत्खादित्यर्थः. ५ कर्तृभूतैः. ६ करणभृतः. ७ अर्थाः ८ श्रोत्रेन्द्रियविपयभूतशब्दाकारपरिणताः. ९ विपयाः अर्थाः. ५० मृत मृत्त. १५ यथा स्पर्शनेन्द्रियस्य स्पर्शः, रसनेन्द्रियस्य रसः, घ्राणेन्द्रियस्य गन्धश्चक्षुरिन्द्रियस्य रूपं, कर्णन्द्रियस्य शब्दः विपयस्तथा चित्तस्य मनसः न नियतविपयोऽत एव चित्तमनियतविपयात्मकम् . १२ यथा स्पर्शरसघ्राणकणेन्द्रियाणि प्राप्यकारीणि तथा चित्तं प्राप्यकारि न, चक्षुरिन्द्रियवत्. १३ निश्चीयते. १४ समपादिरूपस्य. १५ नित्यत्वेन क्षणिकत्वेन निलो निश्चयकालः, क्षणिको व्यवहारकालः. १६ स्वकीयस्य. १७ अस्तिलम् . ५८ कपयन्सनिलो भवति । अत्र दृष्टान्तः। यथा-यो हि अक्षरद्वयवाच्यो सिंहशब्दः स सस्य सिंहनानः तिरदचो सद्भावमस्तित्वमावेदयन् निलो भवति. १९ व्यवहारकाल:. २० समयावलिपल्लादिनंतानः, वा क्रमेण समयोत्तरसंतानः
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [१०२] कालस द्रव्यास्तिकायत्वविधिप्रतिषेधविधानमेतत् । यथा खलु जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानि सकलद्रव्यलक्षणसद्भावाद्व्यव्यपदेशभाजि भवन्ति, तथा कालोऽपि । इत्येवं षड्द्रव्याणि । किंतु यथा जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां द्वयादिप्रदेशलक्षणत्वमस्ति अस्तिकायत्वं । न तथा लोकाकाशप्रदेशसंख्यानामपि कालाणूनामेकप्रदेशत्वादस्त्यस्तिकायत्वम् । अत एव च पञ्चास्तिकायप्रकरणे न हीह मुख्यत्वेनोपन्यस्तः कालः । जीवपुद्गलपरिणामावच्छिद्यमानपव्यत्वेन तत्परिणामान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानद्रव्यत्वेनात्रैवान्तर्भावितः ॥
इति कालद्रव्यव्याख्यानं समाप्तम् ।
[१०३ ] तदवबोधफलपुरस्सरः पञ्चास्तिकायव्याख्योपसंहारोऽयम् । न खलु कालकलितपञ्चास्तिकायेभ्योऽन्यत् किमपि सकलेनाऽपि प्रवचनेन प्रतिपाद्यते । ततः प्रवचनसार एवायं पञ्चास्तिकायसंग्रहः । यो हि नामाऽमुं समस्तवस्तुतत्वाभिधायिनमर्थतोऽथितैयाऽवबुध्यात्रैव जीवास्तिकायान्तर्गतमात्मानं स्वरूपेणात्यन्तविशुद्धचैतन्यस्वभावं निश्चित्य परस्परकार्यकारणीभूतानादिरागद्वेषपरिणामकर्मबन्धसंततिसमारोपितस्वरूपविकारं तदात्वेऽनुभूयमानमवलोक्य तत्कालोन्मीलितविवेकज्योतिः कर्मवन्धसंततिप्रवर्तिकां रागद्वेषपरिणतिमत्थस्यति स खलु जीयमाणस्नेहो जघैन्यस्नेहगुणाभिमुखपरमाणुबवाविवन्धपराङ्मुखः पूर्वबन्धात्प्रच्यवमानः शिखितप्तोदकदौथ्यानुकारिणो दुःखस्य परिमोक्षं विगाहत इति ॥
[१०४ ] दुःखविमोक्षकरणक्रमाख्यानमेतत् । एतस्य शास्त्रस्यार्थभूतं शुद्धचैतन्यस्वभावमात्मानं कश्चिज्जीवस्तावज्जानीते । ततस्तमेवानुगन्तुमुद्यमते । ततोऽस्य क्षीयते 'दृष्टिमोहः । ततः स्वरूपपरिचयादुन्मज्जति ज्ञानज्योतिः । ततो रागद्वेषौ प्रशाम्यतः । ततः उत्तरः पूर्वश्च बन्धो विनश्यति । ततः पुनर्वन्धहेतुत्वाभावात् स्वरूपस्थो नित्यं प्रतपतीति ॥
इति समयव्याख्यायामन्तींतषद्रव्यपञ्चास्तिकायवर्णनात्मकः प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ।
द्रव्यखरूपप्रतिपादनेन शुद्धं बुधानामिहं तत्त्वमुक्तम् ।
पदार्थभङ्गेन कृतावतारं प्रकीर्त्यते संप्रति वर्त्म तस्य ॥ १ ॥ [१०५] आप्तस्तुतिपुरस्सरा प्रतिज्ञेयम् । अमुना हि प्रवर्तमानमहाधर्मतीर्थस्य मूलकर्तृत्वेनाऽपुनर्भवकारणस्य भगवतः परमभट्टारकमहादेवाधिदेवश्रीवर्द्धमानस्वामिनः सिद्धिनिवन्धनभूतां तां भावस्तुतिमासूत्र्य, कालकलितपञ्चास्तिकायानां पदार्थविकल्पे मोक्षस्य मार्गश्च वक्तव्यत्वेन प्रतिज्ञात इति ॥
१ कालस्य द्रव्यत्वविधिविधानं दर्शितं । पुनः अस्तिकायत्वप्रतिषेधविधानं दर्शितश्चात्र सूत्रैः. २ पञ्चास्तिका. यमध्ये कालान्तरभावः. ३सिद्धान्तेन. ४ कथ्यते. ५ पञ्चास्तिकायसंग्रहम्. ६ परमार्थतः. ७ कार्यतया. ८ वर्तमानकाले. ९ त्यजति. १० पूर्वोक्तः जीवः. ११ जीर्यमाणस्नेहो मोहः यस्य एवंभूतः सन् . १२ यथा जघन्यत्नेहजघन्यसचिक्कणगुणेन अभिमुखसहितपरमाणुन वध्यते पूर्ववन्धात्प्रच्यवते च जघन्यसचिक्कणत्वात् ।नेहस्य जघन्यांशत्वादित्यर्थः. १३ अग्नितप्तोदकं दौस्थ्यं जाज्वल्यमानं तप्तभावं अनुकारि सदृशं जायते तत्सदृशस्य दुःखस्याभावं लभते । तद्यथा जलस्य शीतलखभावोऽस्ति परन्तु अग्निसंयोगात्तप्तरूपं विकारभावं प्राप्नोति । पुनः कर्मवन्धवत् यदाऽग्निसंयोगो विघटते तदा शुद्धखभावं स्वस्य शीतलखभावं लभते एव । तथा हि-यदा कर्मवन्धरहितः स आत्मा भवति तदा दुःखस्य अभावं लभते. १४ दर्शनमोहः. १५ प्रकटीभवति प्रकाशते. १६ प. ग्वास्तिकायव्याख्यायाम् . १७ पदार्थविकल्पनेन भेदेन वा विवरणेन. १८ शुद्धात्मतत्त्वस्य. १९ सूत्रेण.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका । [१०६ ] मोक्षमार्गस्यैव तावत्सूचनेयम् । सम्यक्त्वज्ञानयुक्तमेव नासम्यक्त्वज्ञानयुक्तं, चारित्रमेव नाचारित्रं, रागद्वेषपरिहीणमेव न रागद्वेषापरिहीणम्, मोक्षस्यैव न भावतो वैन्धस्य, मार्ग एव नामार्गः, भव्यानामेव नाभव्यानां, लब्धबुद्धीनामेव नालव्धबुद्धीनां, क्षीणकपायत्वे भवत्येव, न कपायसहितत्वे भवतीत्यष्टधा नियमोऽत्र द्रष्टव्यः ॥
[१०७ ] सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां सूचनेयम् । भावाः खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्थास्तेषां मिथ्यादर्शनोदयापादिताश्रद्धानाभावस्वभावं, भावान्तरश्रद्धानं, सम्यग्दर्शनं शुद्धचैतन्वरूपात्मतत्वविनिश्चयवीजम् । तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयान्नौया संस्कारादिस्वरूपविपर्ययेणाध्यवसीयमानानां तन्निवृत्तौ समञ्जसाऽध्यवसायः । सम्यक्ज्ञानं मनाक्ज्ञानचेतनाप्रधानात्मतत्त्वोपलम्भवीजम् । सम्यग्दर्शनज्ञानसन्निधानादमार्गेभ्यः समग्रेभ्यः परिच्युत्य स्वतत्त्वे विशेषेण रूढमार्गाणां सतामिन्द्रियानिन्द्रियविषयभूतेष्वर्थेषु, रागद्वेषपूर्वकविकाराभावान्निर्विकारावबोधस्वभावः समभावश्चारित्रं तदात्वायतिरमणीयमनणीयसोऽपुनर्भवसौख्यस्यैकवीजम् । इत्येष त्रिलक्षणो मोक्षमार्गः पुरस्तान्निश्चयव्यवहाराभ्यां व्याख्यास्यते । इह तु सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्दर्शनज्ञानयोर्विषयभूतानां नवपदार्थानामुपोद्घातहेतुत्वेन सूचित इति ॥
[१०८] पदार्थानां नामस्वरूपाभिधानमेतत् । जीवः, अजीवः, पुण्यं, पापं, आस्रवः, संवरो, निर्जरा, वन्धः, मोक्ष इति नवपदार्थानां नामानि । तत्र चैतन्यलक्षणो जीवास्तिकाय एवेह जीवः । चैतन्याभावलक्षणोऽजीवः । स पञ्चधा पूर्वोक्त एव पुद्गलास्तिकः, आकाशास्तिकः, धर्मास्तिकः, अधर्मास्तिकः, कालद्रव्यश्चेति । इमौ हि जीवाजीवौ पृथग्भूताऽस्तित्वनिर्वृत्तत्वेन भिन्नस्वभावभूतौ मूलपदार्थों । जीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिवृत्ताः सप्ताऽन्ये च पदार्थाः । शुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्त कर्मपरिणामः पुद्गलानाञ्च पुण्यम् । अशुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानाञ्च पापम् । मोहरागद्वेषपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाश्चास्रवः । मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाञ्च संवरः । कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिवृहितशुद्धोपयोगो जीवस्य, तदनुभीवनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानाञ्च निर्जरा । मोहरागद्वेषस्निग्धपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तेन कर्मत्वपरिणतानां जीवेन
१ खात्मोपलब्धिरूपस्य. २ शुद्धात्मानुभूतिप्रच्छादकवन्धस्य. ३ कथंभूतं सम्यग्दर्शनं शुद्धचैतन्यस्ख. रूपात्मतत्वविनिश्चयवीजम् . ४ नवपदार्थानामेव. ५ यथा नौयानसंस्कारादिस्वरूपविपर्ययेणेत्यनेन नावि स्थितस्य खस्य गमनं न दृश्यते । अन्येषां स्थिरीभूतानां सर्वपां वृक्षपर्वतादीनां गमनं दृश्यते । कुतः खसारादिखस्पविपर्ययात् । अनेन संस्कारादिखरूपविपर्यायेण अध्यवसीयमानानां निश्चीयमानानां, तथा मियादर्शनोदयात् वरूपविपर्ययेण गृहीतानां नवपदार्थानाम् . ६ पुनः तनिवृत्ती मिथ्यादर्शननिवृत्ती सत्याम्. ७ सम्यग्निर्णयः. ८ कथंभूतं सम्यग्ज्ञानं मनाक् ज्ञानचेतनायाः प्रधानात्मतत्त्वोपलम्भवीजम् . ९ मार्ग आरूढानां तिष्टतां. १० कथंभूतं चारित्रं तदात्वायतिरमणीयं वर्तमाने उत्तरकाले च रमणीयं सुखदायक। पुनः कीदृशम् अनीयसः अपुनर्भवसौग्न्यस्यैकबीजं । अनणीयसः महतः अपुनर्भवसौख्यस्य मोक्षस्य एकं वीजम् । १६ भावपुष्पम् . १२ तदेव भावपुप्पं निमित्तं कारणं यस्य सः. १३ कर्माष्टकपर्य्यायः द्रव्यपुण्यं. १४ वपित-. १५ तस्य शुद्धोपयोगस्य अनुभावं प्रभावं तेन कारणेन रसरहितानां समुपात्तकर्मपुद्गलानां च निर्जरा ज्ञातव्या.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सहान्योन्यसंमूर्छनं पुद्गलानाञ्च बन्धः । अत्यन्तशुद्धात्मोपलम्भो जीवस्य जीवेन सहात्यन्तविश्लेषः कर्मपुद्गलानाञ्च मोक्ष इति ॥
अथ जीवपदार्थानां व्याख्यानं प्रपञ्चनार्थम् । [१०९] जीवखरूपोपदेशोऽयम् । जीवाः हि द्विविधर्धाः । संसारस्था अशुद्धा निर्वृत्ताः शुद्धाश्च । ते खलूभयेऽपि चेतनस्वभावाः । चेतनपरिणामलक्षणेनोपयोगेन लक्षणीयाः । तत्र संसारस्था देहप्रवीचाराः । निर्वृत्ता अदेहप्रवीचारा इति ॥
[११० ] पृथिवीकायादिपञ्चविधोद्देशोऽयम् । पृथिवीकायाः, अप्कायाः, तेजःकायाः, वायुकायाः, वनस्पतिकायाः, इत्येते पुद्गलपरिणामा बन्धवशाज्जीवानुसंश्रिताः । अवान्तर्रजातिभेदादहका अपि स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमभाजां जीवानां वहिरङ्गस्पर्शनेन्द्रियनिवृत्तिभूताः कर्मफलचेतनाप्रधानत्यान्मोहवहुलमेव स्पर्शोपलम्भमुपपादयन्ति ॥
[१११-११२ ] पृथिवीकायिकादीनां पञ्चानामेकेन्द्रियत्वनियमोऽयम् । पृथिवीकायिकादयो हि जीवा स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सत्येकेन्द्रिया अमनसो भवन्तीति॥
[११३] एकेन्द्रियाणां चैतन्यास्तित्वे दृष्टान्तोपन्यासोऽयम् । अण्डान्तलींनानां, गर्भस्थानां, मूछितानां च बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनेऽपि येन प्रकारेण जीवत्वं निश्चीयते, तेन प्रकारेणैकेन्द्रियाणामपि उभयेषामपि बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनस्य समानत्वादिति ॥
[११४ ] द्वीन्द्रियप्रकारसूचनेयम् । एते स्पर्शनरसनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सति, स्पर्शरसयोः परिच्छेत्तारो द्वीन्द्रिया अमनसो भवन्तीति ॥
[११५] त्रीन्द्रियप्रकारसूचनेयम् । एते स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सति, स्पर्शरसगन्धानां परिच्छेत्तारस्त्रीन्द्रिया अमनसो भवन्तीति ॥
[११६ ] चतुरिन्द्रियप्रकारसूचनेयम् । एते स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमात्, श्रोत्रेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सति, स्पर्शरसगन्धवर्णानां परिच्छेत्तारश्चतुरिन्द्रिया अमनसो भवन्तीति ॥
[११७ ] पञ्चेन्द्रियप्रकारसूचनेयम् । अथ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् नोइन्द्रियावरणोदये सति स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दानां परिच्छेत्तारः पञ्चेन्द्रिया अमनस्काः । केचित्तु नोइन्द्रियावरणस्यापि क्षयोपशमात् समनस्काश्च भवन्ति । तत्र देवमनुष्यनारकाः समनस्का एव, तिर्यश्च उभयजातीया इति ॥
१ एकदेशसहयः. २ एकत्र सम्बन्धित्वं द्रव्यवन्धः. ३ 'प्रपञ्चयति' इति वा पाठः. ४ संसारस्थाः, निवृत्ताः। तत्र संसारस्था अशुद्धा ज्ञातव्यास्तु पुनः निर्वृत्ताः शुद्धा ज्ञातव्या इत्यर्थः. ५ परीक्षणीयाः. ६ देहस्य प्रवीचारो भोगस्तेन सहिताः देहसहिता इत्यर्थः. ७ न देहप्रवीचारा अदेहप्रवीचारा इति समासः. ८ सर्वेषां चेत् विवक्षा पृथक् पृथक् एवं पृथिवीकायिकाः सप्तलक्षजातिका एवं अप् तेज: वायुरपि सप्तसप्तलक्षजातयः, वनस्पतीनां दशलक्षजातयः सन्ति । एवं पञ्चानां वहुका अवान्तरभेदा ज्ञातव्याः. ९ जीवलं निश्चीयते. १० एकेन्द्रियाणां अण्डमध्यादिवर्तिपोन्द्रियाणाश्च.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका ।
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[११८] इन्द्रियभेदेनोक्तानां जीवानां चतुर्गतिसंवन्धत्वेनोपसंहारोऽयम् । देवगतिनाम्नो देवायुपश्चोदयाद्देवास्ते च भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकनिकायभेदाच्चतुर्धा । मनुष्यगतिनानो, मनुप्यायुषश्च उदद्यान्मनुष्याः । ते कर्मभोगभूमिज भेदात् द्विविधाः । तिर्यग्गतिनाश्नस्तिर्यगायुषश्च उदयात्तियैश्चस्ते पृथिवीशम्बूक यू कोद्देश जलचरोरगपक्षिपरिसर्पचतुष्पदादिभेदादनेकधा । नरकगतिनाम्नो, नरकायुषश्च उदद्यान्नारकाः । ते रत्नशर्करावालुकापङ्क धूमतमोमहातमः प्रभाभूमिज भेदात्सप्तधा । तंत्र देवमनुष्यनारकाः पश्ञ्चेन्द्रिया एव । तिर्यञ्चस्तु केचन पञ्चेन्द्रियाः केचिद्देवमनुष्यनारकाः पञ्चेन्द्रिया एव । तिर्यञ्चस्तु केचित्पञ्चेन्द्रियाः । केचिदेक-द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिया अपीति ॥
[११९] गत्यायुन्नी मोदद्यनिर्वृत्तत्वाद्देवत्वादीनामनात्मस्वभावत्वोद्योतनमेतत् । क्षीयते हि क्रमेणारब्धफलो गतिनामविशेषायुर्विशेषश्च जीवानाम् । एवमपि तेषां गत्यन्तरस्यार्युरन्तरस्य च कषायानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिलेया भवति बीजं ततस्तदुचिंतमेव । गत्यन्तरमायुरन्तरश्च ते प्रामुवन्ति । एवं क्षीणाक्षीणा - भ्यामपि पुनः पुनर्नवीभृताभ्यां गतिनामायुः कर्मभ्यामनात्मस्वभावभूताभ्यामपि चिरमनुगम्यमानाः संसरन्त्यात्मानमचेतयमाना जीवा इति ॥
[ १२० ] उक्तजीवप्रपञ्चोपसंहारोऽयम् । एते युक्तप्रकाराः सर्वे संसारिणो देहप्रवीचारा अदेहप्रवीचारा भगवन्तः सिद्धाः शुद्धा जीवाः । तत्र देहप्रवीचारत्वादेकप्रकारत्वेऽपि संसारिणो द्विप्रकाराः । भव्या अभव्याश्च । ते शुद्धस्वरूपोपलम्भशक्तिसद्भावासद्भावाभ्यां पाच्याsपाच्यमुद्द्रवदभिधीयन्त इति ॥
[ १२१ ] व्यवहारजीवत्वैकान्तप्रतिपत्तिनिरासोऽयम् । य इमे एकेन्द्रियादयः पृथिवीकायिकादयश्चानादिजीवपुद्गल परस्परावगाहमवलोक्य, व्यवहारनयेन जीवप्राधान्याज्जीवा इति प्रज्ञाप्यन्ते । निश्चयनयेन तेर्षु' स्पर्शनादीन्द्रियाणि, पृथिव्यादयश्च कायाः जीवलक्षण भूत चैतन्य स्वभावाभावान्न जीवा भवन्तीति । तेष्ववर्पत्स्वपरपरिच्छित्तिरूपेण प्रकाशमानं ज्ञानं तदेव गुणगुणिनोः कथञ्चिदभेदाज्जीवत्वेन प्ररूप्यत इति ॥
[ १२२ ] अन्यासाधरणजीव कार्यख्यापनमेतत् । चैतन्यस्वभावत्वात्कर्तृस्थायाः क्रियायाः ज्ञप्तेर्दृशेश्व जीव एव कर्त्ता न तत्सर्वेन्धः पुद्गलो यथाकाशादि । सुखाभिलाषक्रियायाः दुःखोद्वेगक्रियायाः स्वसंवेदितहिताहितनिर्वर्तनक्रियायाश्च चैतन्यविवर्तनरूपसङ्कल्पप्रभवत्वास एवं कर्त्ता नान्यः । शुभाशुभकर्मफलभृताया इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियायाश्च सुखदुःखस्वरूपस्वपरिणामक्रियाया इव स एव कर्त्ता नान्यः । एतेनसाधारणकार्यानुमेयत्वं पुद्गलव्यतिरिक्तस्यात्मनो द्योतितमिति ॥
[ १२३ ] जीवाजीवव्याख्योपसंहारोपक्षेपसूचनेयम् । एवमनया दिशा व्यवहारनयेन कर्मग्रन्थ
१ अणिमादिगुणैर्दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः. २ मनसा निपुणा मनसा उत्कृष्टा वा मनुष्या मनुष्या वा. ३ तिरोऽञ्चतीति तिर्यङ् । तिरस् शब्दस्य वक्रवाचिनः ग्रहणात्. ४ नरान् प्राणिनः कायति कदर्द्धयतीति नरकं कर्म तदुदयात् जाताः नारकाः । अथवा नरान् अज्ञानिनः कायति घातयति खण्डीकरोतीति नरकं कर्म तदुदयानाता नारकाः ५ चतुर्गत्यादिभेदेपु. ६ अविद्यमानात् आयुपः अन्यत् इति आयुरन्तरं तस्य. ७ कर्मभिः आत्मानं लिम्पतीति लेश्या आत्मप्रवृत्तिलेश्या कपायोदयानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या इति. ८ कारणं. ९ तेपां जीवानां लेश्याया वा उचितं योग्यम्. १० प्राप्यमाणाः. ११ संसारिजीवेषु. १२ इन्द्रियकायेपु. १३ कथंनृतायाः क्रियायाः कर्तृस्थायाः । कर्तरि तिष्टति इति कर्तृस्था, तस्याः कर्तृस्थायाः १४ अनादिकर्मवन्यत्वात् तत्संबन्धः जीवसंबन्धः पुलः कथ्यते । स पुलो इप्तिक्रियायाश्च कत्ती दृशिक्रियायाश्च नेति तात्पर्यम्. १५ पर्य्यायरूपः १६ जीवः १७ इप्तेशेष क्रियायाः कर्त्ता न स्यादित्यनेन १८ गोमटसारादिकर्मग्रन्थाः प्रतिविद्यन्त एव । वा अन्या अपि कर्मपद्धतयः सन्त्येव तैः प्रतिपादितः.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रतिपादितजीवगुणमार्गणास्थानादिप्रपञ्चितविचित्रविकल्परूपैः, निश्चयनयेन मोहरागद्वेपपरिणतिसम्पादितविश्वरूपत्वात्कदाचिदशुद्धैः कदाचित्तदभावाच्छुद्धैश्चैतन्यविवर्तग्रन्थिरूपैर्वहुभिः पर्यायैः जीवमधिगच्छेत् । अधिगम्य चैवमचैतन्यस्वभावत्वात् ज्ञानादर्थान्तरभूतैरितः प्रपञ्चमानैलिङ्गैर्जीवसंबद्धमसंबद्धं वा स्वतो मे. दबुद्धिप्रसिद्ध्यर्थमजीवमधिगच्छेदिति ॥
इति जीवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम् ।
अथाजीवपदार्थव्याख्यानम् । [ १२४ ] आकाशादीनामेव जीवत्वे हेतूपन्यासोऽयम् । आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मषु चैतन्यविशेपरूपा जीवगुणा नो विद्यन्ते । आकाशादीनां तेपामचेतनत्वसामान्यत्वात् । अचेतनत्वसामान्यञ्चाकाशादीनामेव । चेतनता जीवस्यैव । चेतनत्वसामान्यादिति ॥
[ १२५ ] आकाशादीनामचेतनत्वसामान्ये पुनरनुमानमेतत् । सुखदुःखज्ञानस्य हितपरिकर्मणोऽहितभीरुत्वस्य चेति, चैतन्यविशेषाणां नित्यमनुपलब्धेरविद्यमानचैतन्यसामान्या एवाकाशादयोऽजीवा इति ॥
[१२६-१२७ ] जीवपुद्गलयोः संयोगेऽपि भेदनिवन्धनस्वरूपाख्यानमेतत् । यत्खलु शरीरशैरीरिसंयोगेन स्पर्शरसगुणगन्धवर्णत्वाच्छन्दत्वात्संस्थानसङ्घातादिपर्यायपरिणतत्वाच्च, इन्द्रियग्रहणयोग्यं तत्पुद्गेलद्रव्यम् । यत्पुनः स्पर्शरसगन्धवर्णगुणत्वादशव्दत्वादेनिर्दिष्टसंस्थानत्वादव्यक्तत्वादिपर्यायैः परिणतत्वाच्च नेन्द्रियग्रहणयोग्यम् , तच्चेतनागुणत्वात् रूपिभ्योऽरूपिभ्यश्चाजीवेभ्यो विशिष्टं जीवद्रव्यम् । एवमिह जीवाजीवयोयोर्वास्तवो भेदः सम्यग्ज्ञानानां मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति ॥
____ इति अजीवपदार्थव्याख्यानं पूर्णम् । - [ १२८ ] उक्तौ मूलपदार्थो । अथ संयोगपरिणामनिवृत्तेतरसप्तपदार्थानामुपोीतार्थ जीवपुद्गलकर्मचक्रमनुवर्ण्यते ॥
[१२८-१२९-१३०] इह हि संसारिणो जीवादनादिवन्धनोपाधिवशेन स्निग्धः परिणामो भवति । परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म । कर्मणो नारकादिगतिपु गतिः । गत्यधिगमनाद्देहः।देहादिन्द्रियाणि । इन्द्रियेभ्यो विषयग्रहणं । विषयग्रहणाद्रागद्वेषौ । रागद्वेषाभ्यां पुनः सिग्धः परिणामः । परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म । कर्मणः पुनर्नारकादिगतिपु गतिः । गत्यधिगमनात्पुनर्देहः । देहात्पुनरिन्द्रियाणि । इन्द्रियेभ्यः पुनर्विषयग्रहणं । विषयग्रहणात्पुनारागद्वेषौ । रागद्वेषाभ्यां पुनरपि स्निग्धः परिणामः । एवमिदमन्योन्यकार्यकारणभूतजीवपुद्गलपरिणामात्मकं कर्मजालं संसारचक्रजीवस्यानाद्यनिधनं सादिसनिधनं वा चक्रवत्परिवर्तते । तत्र पुद्गलपरिणामनिमित्तो जीवपरिणामो जीवपरिणामनिमित्तः पुद्गलपरिणामश्च वक्ष्यमाणपदार्थवीजत्वेन संप्रधारणीय इति ॥
१ तेपां रागद्वेपमोहादीनामभावात्. २ इतः परं कथ्यमानैः, ३ शीर्यतेऽनेनात्मा तत् शरीरम् । शरीरसंयोगे सति समचतुरस्रादिपु स्थानपर्य्यायपरिणतत्वात्.. ४ वज्रऋपभसंहननादिपर्य्यायपरिणतं तदपि पुद्गलमेव । अतएव इन्द्रियपरिणतं तदपि पुद्गलमेव । अतएव इन्द्रियग्रहणयोग्यम्. ५ आकाररहितत्वात्, अतएव आत्मनि आकारो वयेते. ६ ज्ञानस्य अगुरुलघुकैः पर्यायैः परिणतलात्. ७ पुद्गलेभ्यः. ८ धर्मादिभ्यः. ९ वस्तुसंवन्धी भेदः. १० उदाहरणार्थम्.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका ।
अथ पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम् । [१३१ ] पुण्यपापयोग्यभावस्वभावख्यापनमेतत् । इह हि दर्शनमोहनीयविपाककलुपपरिणामता मोहः । विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ । तस्यैव मन्दोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः । एवमिमे यस्य भावे भवन्ति, तस्यावश्यं भवति शुभोऽशुभो वा परिणामः । तत्र यंत्र प्रशस्तरागश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः परिणामः । यत्र मोहद्वेपावप्रशस्तरागश्च तत्राऽशुभ इति ॥
[१३२] पुण्यपापखरूपाख्यानमेतत् । जीवस्य कर्तुः निश्चयमतापन्नः शुभपरिणामो द्रव्यपुण्यस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्व भवति भावपुण्यम् । एवं जीवस्य कर्तुनिश्चयकर्मतामापन्नोऽशुभपरिणामो द्रव्यपापस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्व भावपापम् । पुद्गलस्य कर्तृनिश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपुण्यम् । पुद्गलस्य कर्तृनिश्चयकर्मतामापन्नोऽविशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवाऽशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपापम् । एवं व्यवहारनित्रयाभ्यामात्मनो मूर्तममूर्तश्च कर्म प्रज्ञापितमिति ॥ _ [१३३ ] मूर्तकर्मसमर्थनमेतत् । यतो हि कर्मणां फलभूतः सुखदुःखहेतुविषयो मूर्ती, मूर्तरिन्द्रियैजीवेन नियतं भुज्यते । ततः कर्मणां मूर्तत्वमनुमीयते । तथाहि-मूर्तं कर्म मूर्तसंवन्धेनानुभूयमानं मूर्तफलत्वादाखुविषवदिति ॥
[ १३४ ] मूर्तकर्मणोरमूर्तजीवमूर्तकर्मणोश्च बन्धप्रकारसूचनेयम् । इह हि संसारिणि जीवेऽनादिसंतानेन प्रवृत्तमास्ते मूर्तकर्म । तत्स्पर्शादिमत्त्वादागामि मूर्तकर्म स्पृशति । ततस्तन्मूर्त तेन सह स्नेहगुणवशाद्वन्धनमनुभवति । एष मूर्तयोः कर्मणोर्वन्धप्रकारः । अथ निश्चयनयेनाऽमूर्ती जीवोऽनादिमूर्तकर्मनिमित्तरागादिपरिणामस्निग्धः सन्, विशिष्टतया मूर्त्तानि कर्माण्यवाहते । तत्परिणामनिमित्तलव्धात्मपरिणामैः मूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च । अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्तकर्मणोर्वन्धप्रकारः । एवममूर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापकर्मणा कथञ्चिद्वन्धो न विरुध्यते ॥
इति पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम् ।
अथास्रवपदार्थव्याख्यानम् । [ १३५ ] पुण्याखवस्वरूपाख्यानमेतत् । प्रशस्तरागोऽनुकम्पापरिणतिः चित्तस्याकलुपत्वञ्चेति त्रयः शुभा भावाः । द्रव्यपुण्यासवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्व भावपुण्यास्रवः । तन्निमित्तः शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्यासवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभूतत्वात्तदास्रवक्षणादृ भावपुण्यासवः । तन्निमित्तः शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्याखब इति ॥
[१३६] प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत् । अर्हत्सिद्धसाधुपु भक्तिधर्म व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासना प्रधाना चेष्टा । गुरूणामाचार्यादीनां रसिकत्वेनानुगमनम् । एपः प्रशस्तो रागः प्रशस्तविषयत्वात् ।
१ निर्मलपरिणामः. २ परिणामयोर्मध्ये. ३ यस्मिन् जीवे. ४ अशुद्धनिश्चयनयेन. ५ पूर्व. ६ सनीचीनप्रवृत्तयः. ७ द्रव्यकर्म- ८ मृपकविषवत्. ९ आगामिमृर्तकर्म-. १० निश्चयनयेन जीवः अमृतोऽस्ति परन्तु अनादिमूर्तकर्मनिमित्तरागादिपरिणामस्निग्धः सन विशिष्टतया मृर्तानि कर्माणि अवगाहते.
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्राधान्यस्य ज्ञानिनो भवति । उपरितनभूमिकायामलव्यास्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थ तीव्ररागज्वरविनोदार्थ वा कंदाचिज्ञानिनोऽपि भवतीति ॥
[१३७] अनुकम्पास्वरूपाख्यानमेतत् । कञ्चिदुदयादिदुःखप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षाकुलितचित्तत्वमज्ञानिनोऽनुकम्पा । ज्ञानिनस्त्वधस्तनभूमिकासु विहरमाणस्य जन्मार्णवनिमनजगदवलोकनान्मनाग्मनःखेदें इति ॥
[१३८] चित्तकलुपत्वस्वरूपाख्यानमेतत् । क्रोध-मान-मायालोभानां तीब्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम् । तेषीमेव मन्दोदये तस्य प्रसादोऽकालुष्यम् । तत् कादाचित्कविशिष्टकपायक्षयोपशमे सत्यज्ञानिनोऽपि भवति । कषायोदयानुवृत्तेरसमग्रव्यावर्तितोपयोगस्यावान्तरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भवतीति ॥
[१३९ ] पापास्रवस्वरूपाख्यानमेतत् । प्रमादबहुलचUपरिणतिः, कालुष्यपरिणतिः, विषयलौल्यपरिणतिः, परपरितापपरिणतिः, परापवादपरिणतिश्चेति पञ्चाशुभा भावा द्रव्यपापास्रवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्व भावपापासवः । तन्निमित्तोऽशुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपापास्रव इति ॥
[१४० ] पापासवभूतभावप्रपञ्चाख्यानमेतत् । तीव्रमोहविपाकप्रभवा आहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञास्तीवकषायोदयानुरञ्जितयोगप्रवृत्तिरूपाः कृष्णनीलकपोतलेश्यास्तित्रः । रागद्वेषोदयप्रकर्षादिन्द्रियाधीनत्वरागद्वेषोद्रेकात्प्रियसंयोगाऽप्रियवियोगवेदनामोक्षणनिदानाकाङ्क्षणरूपमात । कपायकराशयत्वाद्धिसाऽसत्यास्तेयविषयसंरक्षणानन्दरूपं रौद्रम् । नैष्कर्म्यन्तु शुभकर्मणश्चान्यत्र दुष्टतया प्रयुक्तं ज्ञानम् । सामान्येन दर्शनचारित्रमोहनीयोदयोपजनिताविवेकरूपो मोहः । एपः भावपापासवप्रपञ्चो द्रव्यपापासवप्रपञ्चप्रदो भवतीति ॥
इति आस्रवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम् ।
अथ संवरपदार्थव्याख्यानम् । (१४१] अनन्तरत्वात्पापस्यैव संवराख्यानमेतत् । मार्गो हि संवरस्तन्निमित्तमिन्द्रियाणि कपायाश्च संज्ञाश्च यावतांशेन यावन्तं वा कालं निगृह्यन्ते तावतांशेन तावन्तं वा कालं पापास्रवद्वारं पिधीयते । इन्द्रियकपायसंज्ञाः भावपापासवो द्रव्यपापासवहेतुः पूर्वमुक्तः । इह 'तेन्निरोधो भावपापसंवरो द्रव्यपापसंवरहेतुरवधारणीय इति ॥
[१४२] सामान्यसंवरस्वरूपाख्यानमेतत् । यस्य रागरूपो द्वेषरूपो मोहरूपो वा समग्रपरद्रव्येषु न हि विद्यते भावः तस्य निर्विकारचैतन्यत्वात्समसुखदुःखस्य भिक्षोः शुभमशुभञ्च कर्म नासवति ।
१ प्रशस्तरागः. २ उपरितनशुद्धवीतरागदशायां, वा उपरितनगुणस्थानेषु. ३ अप्राप्तस्थानस्याज्ञानिनः इत्यर्थः. ४ अयोग्यदेवादिपदार्थेपु रागनिषेधार्थ. ५ कदाचित्प्रशस्तरागो भवति. ६ उदन्या तृषा इत्यर्थः. ७ पीडितम्. ८ तृष्णादिविनाशकप्रतीकारः. ९ अनुकम्पा भवति. १० क्रोधमानमायालोभानाम्. ११ तस्य चित्तस्य. १२ प्रसन्नता निर्मलता. १३ तत् अकालुष्यम्. १४ अपरिपूर्ण१५ हिंसानन्दं, असत्यानन्दं, स्तेयानन्दं, विषयसंरक्षणानन्दं । इति चतुद्धी रौद्रं भवति. १६ प्रयोजनं विना. १७ शुभकर्म त्यक्त्वा अन्यत्र प्रयुक्तं ज्ञानमित्यर्थः. १८ आखवादनन्तरं. १९ इन्द्रियादीनां निरोधः.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका। किन्तु संबियत एव । तदत्र मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो भावसंवरः । तन्निमित्तः शुभाशुभकर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यसंवर इति ॥
[१४३ ] विशेषेण संवरस्वरूपाख्यानमेतत् । यस्य योगिनो विरतस्य सर्वतो निवृत्तस्य योगे वाकानःकायकर्माणि शुभपरिणामरूपं पुण्यमशुभपरिणामरूपं पापञ्च यदा न भवति तस्य तदा शुभाशुभभावकृतस्य द्रव्यकर्मणः संवरः स्वकारणभावात्प्रसिध्यति । तत्र शुभाशुभपरिणामनिरोधो भावपुण्यपापसंवरो द्रव्यपुण्यपापसंवरस्य हेतुः प्रधानोऽवधारणीय इति ॥
इति संवरपदार्थज्ञानं समाप्तम् ।
अथ निर्जरापदार्थव्याख्यानम् । [ १४४ ] निर्जरास्वरूपाख्यानमेतत् । शुभाशुभपरिणामनिरोधः संवरः । शुद्धोपयोगः । ताभ्यां युक्तस्तपोभिरनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्याशनकायक्लेशादिभेदावहिरङ्गैः प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गाध्यानभेदादन्तरङ्गैश्च बहुविधैर्यश्चेष्टते स खलु बहूनां कर्मणां निर्जरणं करोति । तदत्र कर्मवीर्य्यशातनसमर्थों बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिर्वहितः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा | तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानां द्रव्यनिर्जरेति ॥
[ १४५ ] मुख्यनिर्जराकारणोपन्यासोऽयम् । यो हि संवरेण शुभाशुभपरिणामपरमनिरोधेन युक्तः परिज्ञातवस्तुस्वरूपः परप्रयोजनेभ्यो व्यावृत्तबुद्धिः केवलं स्वप्रयोजनसाधनोद्यतमनाः आत्मानं स्वोपलम्भेनोपलभ्य गुणगुणिनोर्वस्तुत्वेनाभेदात्तमेव ज्ञानं स्वं स्वेनाविचलितमनास्संचेतयते स खलु नितान्तनिस्नेहः ग्रहीणस्नेहाभ्यङ्गपरिष्वङ्गशुद्धस्फटिकस्तम्भवत् पूर्वोपात्तं कर्मरजः संधुनोति । एतेन निर्जरामुख्यत्वे हेतुत्वं ध्यानस्य द्योतितमिति ॥
[ १४६ ] ध्यानस्वरूपाभिधानमेतत् । शुद्धस्वरूपे विचलितचैतन्यवृत्तिर्हि ध्यानम् । अथास्यात्मलाभविधिरभिधीयते । यदा खलु योगी दर्शनचारित्रमोहनीयविपाकपुद्गलकर्मत्वात् कर्मसु संहृत्य, तदुनुवृत्तेः व्यावृत्त्योपयोगममुह्यन्तमरज्यन्तमद्विषन्तं चात्यन्तशुद्ध एवात्मनि निष्कम्पं निवेशयति, तदास्य निष्क्रियचैतन्यरूपविश्रान्तस्य वाङ्मनःकायानभावयतः स्वकर्मस्वव्यापारयतः सकलशुभाशुभकर्मन्धनदहनसमर्थत्वात् अग्निकल्पं, परमपुरुषार्थसिद्धयुपायभूतं ध्यानं जायते इति । तथा चोक्तम् :
"अज्जवि तिरियण शुद्धा, अप्पा झाए वि लहइ इंदत्तं । लोयंति य देवत्तं तत्थ चुया णिव्वुदि जंति ॥१॥ अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा। तण्णवरिसिक्खियव्वं जं जरमरणं खई कृणइ" ॥२॥
इति निर्जरापदार्थव्याख्यानं समाप्तम् । १ संवरो भवति. २ ज्ञानादि आत्मनः गुणाः, आत्मा गुणी तयोः. ३ अतिशयेन रागद्वेपमोहरहितः. ४ निराकरोति. ५ कथनेन..
६ आर्या अपि तिर्यश्चः, शुद्धात्मध्यानेऽपि लभन्ते इन्द्रलम् ।
लोकन्ते च देवत्वं, तत्र च्युता निवृति यान्ति ॥ १॥ इति च्छाया । ७ अन्तो नान्ति श्रुतीनां, कालः स्तोको वयं च दुर्मेधाः । तत् परिशिक्षितव्यं, यत् जरामरणक्षयं करोति ॥ २॥ इति च्याया।
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रायचन्द्र जैनश | रूखमालायाम्
स्थितत्वेन । स खलु स्वकं चरति जीवः । यतो हि दृशिज्ञप्तिस्वरूपे पुरुष तन्मात्रत्वेन वर्तनं स्वरितमिति ॥
[१५९ ] शुद्धस्वचरितप्रवृत्तिपथप्रतिपादनमेतत् । यो हि योगीन्द्रः समस्तमोहव्यूह बहिर्भूतत्वात्परद्रव्यस्वभावभावरहितात्मा सन् स्वद्रव्यमेवाभिमुख्येनानुवर्तमानः स्वस्वभावभूतं दर्शनज्ञानविकल्पमप्यात्मनोऽविकल्पत्वेन चरति, स खलु स्वकं चरितं चरति । एवं हि शुद्धद्रव्याश्रितमभिन्नसाध्यसाधनभावं निश्चयनयमाश्रित्य मोक्षमार्गप्ररूपणम् ॥
[ १६० - १६१] यत्तु पूर्वमुद्दिष्टं तत्स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररूपितम् । न चैतद्विप्रतिषिद्धनिश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात्नुवर्णसुर्वणपाषाणवत् । अत एवोभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति ॥
[ १६२] निश्चयमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टव्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्र धर्मादीनां द्रव्यपदार्थविकल्पवतां तत्त्वार्थश्रद्धानभावस्वभावं भावान्तरं श्रद्धानाख्यं सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धाननिर्वृत्तौ सत्यामङ्गपूर्वगतार्थपरिच्छित्तिर्ज्ञानम् । आचारादिसूत्रप्रपञ्चितविचित्रयतिवृत्तसमस्त समुदयरूपे तपसि चेष्टा च । इत्येषः स्वपरप्रत्ययपाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्यानुगम्यमानो मोक्षमार्गः । कार्तस्वरपाषाणार्पितदीप्तजातवेदोवत्समाहितान्तरङ्गस्य प्रतिपदमुपरितनशुद्धभूमिकासु परमरम्यासु विश्रान्तिमभिन्नां निष्पादयन्, जात्यकार्तस्वरस्येव शुद्धजीवस्य कथंचिद्भिन्नसाध्यसाधनभावाभावात्स्वयंसिद्धस्वभावेन विपरिणममानस्य निश्चयमोक्षमार्गस्य साधनभावमापद्यत इति ॥
[ १६३ ] व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गपन्यासोऽयम् । सम्यदर्शनज्ञानचा - रित्रसमाहित आत्मैव जीवस्वभावनियतचरित्रत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्गः । अथ खलु कथञ्चनानाद्यवि - द्याव्यपगमाद्यवहारमोक्षमार्गमनुपपन्नो धर्मादितत्त्वार्थाश्रद्धानाङ्ग पूर्वगताथीज्ञानातपश्चेष्टानां धर्मादितत्त्वार्थश्रद्धानाङ्गपूर्व गतार्थज्ञान तपश्चेष्टानाश्च त्यागोपादानाय प्रारब्धविविक्तभावव्यापारः, कुतश्चिदुपादे - यत्यागे त्याज्योपादाने च पुनः प्रवर्तितप्रतिविधानाभिप्रायो यस्मिन्यावतिकाले विशिष्टभावनासौष्ठववशात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः स्वभावभूतैः सममङ्गाङ्गिभावपरिणत्या तत्समाहितो भूत्वा त्यागोपादानविकल्पशून्यत्वाद्विश्रान्तभावव्यापारः सुनिःप्रकम्पः अयमात्मावतिष्ठते । तस्मिन् तावति काले अयमेवात्मा जीवस्त्रभावनियतचरितत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्ग इत्युच्यते । अतो निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्नः ॥
[ १६४ ] आत्मनश्चारित्रज्ञानदर्शनत्वद्योतनमेतत् । यः खल्वात्मानमात्ममयत्वादनन्यमयमात्मना चरति । स्वभावनियतास्तित्वेनानुवर्त्तते । आत्मना जानाति । स्वप्रकाशकत्वेन चेतयते । आत्मना पश्यति । याथातथ्येनावलोकयते । स खल्वात्मैव चारित्रं ज्ञानं दर्शनमिति । कर्तृकर्मकरणानामभेदान्निश्चितो भवति । अतश्चारित्र - ज्ञानदर्शन रूपत्वाज्जीवस्वभावनियतचरितत्व - लक्षणं निश्चयमोक्षमार्गत्वमात्मनो नितरामुपपन्न इति ॥
[ १६५ ] सर्वस्यात्मनः संसारिणो मोक्षमार्गहत्वनिरासोऽयम् । इह हि स्वभावप्रातिकूल्या भावहेतुकं सौख्यं | आत्मनो हि दृग्- ज्ञप्ती स्वभावरतयोर्विषयप्रतिबन्धः प्रातिकूल्यं । मोक्षे खल्वात्मनः सर्व
१ सन्मुखीभूला २ पुनः तदग्रे प्रतिपाद्यते.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका।। विजानतः पश्यतश्च तदभावः । ततस्तद्धेतुकस्यानाकुलत्वलक्षणस्य परमार्थसुखस्य मोक्षेऽनुभूतिरचलिताऽस्ति । इत्येतद्भव्य एव भावतो विजानाति । ततस्स एव मोक्षमार्गा) नैतदभव्यः श्रद्धत्ते । ततः स मोक्षमार्गानह एव इति ॥ अतः कतिपये एव संसारिणो मोक्षमार्गार्हा न सर्व एवेति ॥
[१६६ ] दर्शनज्ञानचारित्राणां कथंचिद्वन्धहेतुत्वोपदर्शनेन जीवस्वभावे नियतचरितस्य साक्षान्मोक्षहेतुताद्योतनमेतत् । अमूनि हि दर्शनज्ञानचारित्राणि कियन्मात्रयापि परसमयप्रवृत्त्या संवलितानि कृशानुसंवलितानीव घृतानि कथञ्चिद्विरुद्ध कारणत्वरूढेवन्धकारणान्यपि भवन्ति । यदा तु समस्तपरसमयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपया स्वसमयप्रवृत्त्या सङ्गच्छते, तदा निवृत्तकृशानुसंवलनानीव धृतानि विरुद्धकार्यकारणाभावाऽभावात्साक्षान्मोक्षकारणान्येव भवन्ति । ततः स्वसमयप्रवृत्तिनामो जीवस्वभावनियतचरितस्य साक्षान्मोक्षमार्गत्वमुपपन्नमिति ॥
[१६७] सूक्ष्मपरसमयस्वरूपाख्यानमेतत् । अहंदादिषु भगवत्सु सिद्धिसाधनीभूतेषु भक्तिवलानुरञ्जिता चित्तवृत्तिरत्र शुद्धसंप्रयोगः । अथ खल्वज्ञानलवावेशाद्यदि यावज्ञानवानपि ततः शुद्धसंप्रयोगान्मोक्षो भवतीत्यभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत्सोऽपि रागलवसद्भावात्परसमयरत इत्युपगीयते । अथ न किं पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरङ्गवृत्तिरितरो जन इति ॥
[१६८ ] उक्तशुद्धसंप्रयोगस्य कथञ्चिद्वन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिरासोऽयम् । अहंदादिभक्तिसंपन्नः कथञ्चिच्छुद्धसंप्रयोगोऽपि सन् जीवो जीवद्रागलवत्वाच्छुभोपयोगतामजहन , बहुशः पुण्यं बध्नाति; न खलु सकलकर्मक्षयमारभते । ततः सर्वत्र रागकणिकाऽपि परिहरणीया । परसमयप्रवृत्तिनिवन्धनत्वादिति ॥
[१६९ ] स्वसमयोपलम्भाभावस्य रागैकहेतुत्वद्योतनमेतत् । यस्य खलु रागरेणुकणिकाऽपि जीवति हृदये न नाम स समस्तसिद्धान्तसिन्धुपारगोऽपि निरुपरागशुद्धस्वरूपं स्वसमयं चेतयते । ततः स्वसमयसिध्यर्थं पिञ्जनलमतृलन्यासन्यायमभिधताऽहंदादिविपयेऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति ॥
[१७० ] रागलवमूलदोषपरंपराख्यापनमेतत् । इह खल्बर्हदादिभक्तिरपि न रागानुवृत्तिमन्तरेण भचति । रागाद्यनरत्तौ च सत्यां बुद्धिप्रसरमन्तरेणात्मा न तत्कथंचनाऽपि धारयितुं शक्येत । बुद्धिप्रसारे च सति शुभस्याशुभस्य पा कर्मणो न निरोधोऽस्ति । ततो रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसन्तान इति ॥
[१७१ ] रागकलिनिःशेषीकरणस्य करणीयत्वाख्यानमेतत् । यतो रागाद्यनुवृत्ती चित्तोब्रान्तिः, चित्तोब्रान्तो कर्मवन्ध इत्युक्तम् । ततः खलु मोक्षार्थिना कर्मवन्धमूलचित्तोड्रान्तिमूलभूता रागाद्यनुवृत्तिरेकान्तेन निःशेपीकरणीया । निःशेषितायां तयां प्रसिद्धनैःसङ्गवनैमल्यशुद्धात्मद्रव्यविश्रान्तिरूपां पारमार्थिकी सिद्धभक्तिमनुवित्राणः प्रसिद्धः स्वसमयप्रवृत्तिर्भवति । तेन कारणेन स एव निःशेषितकर्मवन्धः सिद्धिमवामोतीति ॥
[१७२ ] अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्ती साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावेऽपि परम्परया मोक्षहेतुत्वसद्भाद्योतनमेतत् । यः खल मोक्षार्थमुद्यतमनाः समुपार्जिताचिन्त्यसंयमतपोभारोऽप्यसंभावितपरमवैराग्यभूमिकाधिरोहणसमर्थप्रभुशक्तिः पिल्लनलग्नतृलन्यासन्यायभयेन नवपदाथैः सहाहंदादिचिरूपां परसमयप्रवृत्ति परित्यक्तुं. नोत्सहतेः म सलु न नाम साक्षान्मोक्षं लभते । किन्तु सुरलोकादिल्लेशमाप्तिरूपया परन्तरमा तन्वामोतीति !!
तन्तिलाक लायन । २ गोक्षम् ।
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [१७३ ] अहंदादिभक्तिमात्र-रागजनितसाक्षान्मोक्षस्यान्तरायद्योतनमेतत् । यः खल्बर्हदादिभक्तिविधेयबुद्धिः सन् परमसंयमप्रधानमतितीव्र तपस्तप्यते; स तावन्मात्ररागकलिकलङ्कितस्वान्तः साक्षान्मोक्षस्यान्तरायीभूतं विषयविषद्रुमामोदमोहितान्तरङ्गं स्वर्गलोकं समासाद्य, सुचिरं रागागारैः पच्यमानोऽन्तस्ताम्यतीति ॥
[१७४ ] साक्षान्मोक्षमार्गसारसूचनद्वारेण शास्त्रतात्पर्योपसंहारोऽयम् । साक्षान्मोक्षमार्गपुरस्सरं हि वीतरागत्वम् । ततः खल्वहंदादिगतमपि रागं चन्दननगसङ्गतमग्निमिव सुरलोकादिक्लेशप्राप्त्याऽत्यन्तमन्त
हाय कल्पमानमाकलय्य साक्षान्मोक्षकामो महाजनः समस्तविषयमपि रागमुत्सृज्यात्यन्तवीतरागो भूत्वा समुच्छलदुःखसौख्यकल्लोलं कर्माभितप्तकलकलोदभारप्राग्भारेभयङ्करं भवसागरमुत्तीर्य, शुद्धत्वरूपपरमामृतसमुद्रमध्यास्य सद्यो निर्वाति । अलं विस्तरेण । स्वस्ति साक्षान्मोक्षमार्गसारत्वेन शास्त्रतात्पर्यभूताय वीतरागत्वायेति । द्विविधं किल तात्पर्यम् । सूत्रतात्पर्य शास्त्रतात्पर्यञ्चेति । तत्र सूत्रतात्पर्य किल प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् । शास्त्रतात्पर्य त्विदं प्रतिपाद्यते । अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य सकलपुरुषार्थसारभूतमोक्षतत्वप्रतिपत्तिहेतोः पञ्चास्तिकायषड्व्व्य स्वरूपप्रतिपादनेनोपदर्शितसमस्तवस्तुस्वभावस्य, नवपदार्थप्रपश्वसूचनाविष्कृतबन्धमोक्षसंवन्धिवन्धमोक्षायतनबन्धमोक्षविकल्पस्य, सम्यगावेदितनिश्चयव्यवहाररूपमोक्षमार्गस्य साक्षान्मोक्षकारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति। तदिदं वीतरागत्वम् व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये न पुनरन्यथा । व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्व्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थ प्राथमिकाः । तथाहीदं श्रद्धेयमिदमश्रद्धेयमयं श्रद्धातेदं श्रद्धानमिदमश्रद्धानमिदं ज्ञेयमयं ज्ञातेदं ज्ञानमिदमज्ञानमिदं चर णीयमिदमचरणीयमिदमचरितमिदं चरणमिति कर्तव्याकर्तव्यकर्तृकर्मविभागावलोकनोल्लसितपशेलोत्साहाः। शनैःशनैर्मोहमल्लमुन्मूलयन्तः । कदाचिदज्ञानान्मदप्रमादतन्त्रतया शिथिलितात्माधिकारस्यात्मनो न्याय्य पथप्रवर्तनाय प्रयुक्तप्रचण्डदण्डनीतयः । पुनः पुनर्दोषानुसारेण दत्तप्रायश्चित्ताः सन्ततोयुक्ताः सन्तोऽथ तस्यैवात्मनो भिन्नविषयश्रद्धानज्ञानचारित्रैरधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्यसाधनभावस्य रजकशिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतविहिताऽध्वपरिष्वङ्गमलिनवासस इव मनाङ्मनाग्विशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावभावाद्दर्शनज्ञानचारित्रसमाहिततत्वरूपे विश्रान्तसकलक्रियाकाण्डाडम्ब रनिस्तरङ्गपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमासूचय॑न्तः क्रमेण समुपजातसमरसीभावाः परमवीतरागभावमधिगम्य, साक्षान्मोक्षमनुभवन्तीति । अथ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते खलु भिन्नसाधनभावाऽवलोकनेनाऽनवरतं नितरां खिद्यमाना मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्धानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतसः, प्रभूतश्रुतसंस्काराधिरोपितविचित्र विकल्पजालकल्माषितचैतन्यवृत्तयः, समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतपःप्रवृत्तिरूपकर्मकाण्डोड्डुमराचलिताः, कदाचित्किञ्चिद्रोचमानाः, कदाचित्किञ्चिद्विकल्पयन्तः, कदाचित्किञ्चिदाचरन्तः, दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्तः, कदाचित्संविजमानाः, कदाचिदनुकम्प्यमानाः, कदाचिदास्तिक्यमुद्वहन्तः, शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामूढदृष्टितानां व्युत्थापननिरोधाय नित्यबद्धपरिकराः, उपहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनां भावयमाना, वारंवारमभिवर्धितोत्साहा, ज्ञानचरणाय स्वाध्यायकालमवलोकयन्तो, बहुधा विनयं प्रपञ्चयन्तः, प्रविहितदुर्द्धरोपधानाः, सुष्टुवहुमानमातन्वन्तो, निहवापत्तिं नितरां निवारयन्तोऽर्थव्यञ्जनतदुभयशुद्धौ नितान्तसावधानाः, चारित्राच
१ वाहुल्य,-- २ अवगाह्य. ३ निर्वाणं याति.
४ वैराग्यमानाः.
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पञ्चास्तिकायसमयसारस्य टीका ।
रणाय हिंसान्तस्तेयाब्रह्मपरिग्रहसमस्तविरतिरूपेषु पञ्चमहाव्रतेषु तन्निष्ठवृत्तयः, सम्यग्योगनिग्रहलक्षणासु गुप्तिषु नितान्तं गृहीतोद्योगा, ईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गरूपासु समितिष्वत्यन्तनिवेशितप्रयत्नास्तप आचरणायानशनावमोदर्यप्रवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्याशनकायक्लेशेष्वभीक्ष्णमुत्सहमानाः, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यव्युत्सर्गस्वाध्यायध्यानपरिकरांकुशितस्वान्ता, वीर्याचरणाय कर्मकाण्डे सर्वशक्त्या व्याप्रियमाणाः, कर्मचेतनाप्रधानत्वाद्दूरनिवारिताऽशुभकर्मप्रवृत्तयोऽपि समुपात्तशुभकर्मप्रवृत्तयः, सकलक्रियाकाण्डाडम्बरोत्तीर्णदर्शनज्ञानचारित्रैक्यपरिणतिरूपां ज्ञानचेतनां मनागप्यसंभावयन्तः, प्रभूतपुण्यभारमन्धरितचित्तवृत्तयः, सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं संसारसागरे भ्रमन्तीति । उक्तञ्च---"चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरमत्थमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं, णित्थयसुद्धं ण याणंति" येऽत्र केवलनिश्चयावलम्बिनः सकलक्रियाकर्मकाण्डाडम्बरविरक्तवुद्धयोऽर्धमीलितविलोचनपुटाः किमपि स्वबुद्धयाऽवलोक्य यथासुखमासते; ते खल्ववधीरितभिन्नसाध्यसाधनभावा अभिन्नसाध्यसाधनभावमलभमाना अन्तराल एव प्रमादकादम्बरीमदभरालसचेतसो मत्ता इव, मूच्छिता इव, सुपुप्ता इव, प्रभूतघृतसितोपलपायसासादितसाहित्या इव, समुल्बणबलसञ्जानितजाड्या इव, दारुणमनो-भ्रंशविहितमोहा इव, मुद्रितविशिष्टचैतन्या वनस्पतय इव, मौनीन्द्री कर्मचेतनां पुण्यवन्धभयेनानवलम्बमाना अनासादितपरमनैष्कर्म्यरूपज्ञानचेतनाविश्रान्तयो व्यक्ताव्यक्तप्रमादतन्द्रा अरमागतकर्मफलचेतनाप्रधानप्रवृत्तयो वनस्पतय इव केवलं पापमेव वनन्ति । उक्तञ्च----"णिच्छयमालम्बंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता । णासंति चरणकरणं वाहरिचरणालसा केई” ॥ ये तु पुनरपुनर्भवाय नित्यविहितोद्योगमहाभागा भगवन्तो निश्चयव्यवहारयोरन्यतरानवलम्बनेनात्यन्तमध्यस्थीभूताः । शुद्धचैतन्यरूपात्मतत्वविश्रान्तिविरचनोन्मुखाः प्रमादोदयानुवृत्तिनिवर्तिकां क्रियाकाण्डपरिणतिमाहात्म्यान्निवारयन्तोऽत्यन्तमुदासीना यथाशक्त्याऽऽत्मानमात्मनाऽऽत्मनि संचेतयमाना नित्योपयुक्ता निवसन्ति ते खलु स्वतत्त्वविश्रान्त्यनुसारेण क्रमेण कर्माणि सन्यसन्तोऽत्यन्तनिष्प्रमादा नितान्तनिष्कम्पमूर्तयो वनस्पतिभिरुपमीयमाना अपि दूरनिरस्तकर्मफलानुभूतयः कर्मानुभूतिनिरुत्सुकाः केवलज्ञानानुभूतिसमुपजाततात्विकानन्दनिर्भरतरास्तरसा संसारसमुद्रमुत्तीर्य शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतस्य भोक्तारो भवन्तीति ॥
[१७५ ] वर्तुः प्रतिज्ञानियूंढिसूचिका समापनेयम् । मार्गो हि परमवैराग्यकरणप्रवणा पारमेश्वरी परमाज्ञा । तस्याः प्रभाव प्रख्यापनद्वारेण प्रकृष्टपरिणतिद्वारेण वा समुद्योतनं । तदर्थमेव परमागमानुरागवेगप्रचलितमनसा संक्षेपतः समवस्तुतत्त्वसूचकत्वादतिविस्तृतस्यापि प्रवचनसारस्य सारभृतं पञ्चास्तिकायसङ्ग्रहाभिधानं भगवत्सर्वज्ञोपज्ञत्वात् सूत्रमिदमभिहितं मयेति । अथैवं शास्त्रकारः प्रारब्धस्यान्तमुपगम्यात्यन्तं कृतकृत्यो भृत्वा परमनप्कर्म्यरूपे शुद्धस्वरूपे विश्रान्त इति श्रद्धीयते । इति श्रीसमयव्याख्यायां नवपदार्थपुरस्सरमोक्षमार्गप्रपञ्चवणात्मको द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ।
स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्वैर्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ॥ १ ॥
इति पञ्चास्तिकायविधानस्य समयस्य व्याख्या समाप्ता ॥
चरणस्य सारं, निश्चयशुद्धं न जानन्ति ।। इति च्छाया । २ निश्चयमालम्बन्तो, निश्चयतो निश्चयं अजानन्तः । नाशयन्ति चरणकरणं, वाघचरणालमाः केऽपि ।। इति च्याया ।
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