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________________ مه रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् एक भव्य और दूसरे अभव्य. जो जीव शुद्धस्वरूपको प्राप्त होंयगे उनको भव्य कहते हैं। और जिनके शुद्धस्वभावके प्राप्त होनेकी शक्ति ही नहीं उनको अभव्य कहते हैं. जैसे एक मूंगका दाना तो ऐसा होता है कि वह सिजानेसे सीज जाता है अर्थात् पक जाता है और कोई २ मूंग ऐसा होता है कि उसके नीचें कितनी ही लकड़ियं जलावो वह सीजता ही नहीं, उसको कोरडू कहते हैं । ___ आगें सर्वथा प्रकार व्यवहारनयाश्रित ही जीवोंको नहिं कहे जाते कथंचित् अन्य प्रकार• भी हैं सो दिखाते हैं। ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता। जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवंति ॥ १२१ ॥ संस्कृतछाया. - नहीन्द्रियाणि जीवाः कायाः पुनः पट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः । यद्भवति तेषु ज्ञानं जीव इति च तत्प्ररूपयन्ति ।। १२१ ॥ पदार्थ- [इन्द्रियाणि] स्पर्शादि इन्द्रियें [जीवाः] जीवद्रव्य [न हि] निश्चय करके नहीं है । [पुनः] फिर [षट्प्रकाराः] छहप्रकार [कायाः] पृथिवीआदिक काय [प्रज्ञप्ताः] कहे हैं वे भी निश्चय करके जीव नहीं है । तब जीव कौन है? [यत्] जो [तेषु] तिन इन्द्रिय और शरीरोंमें [ज्ञानं] चैतन्यभाव [भवति ] है [तत् ] उसको ही [जीव इति] जीव इस नामका द्रव्य [प्ररूपयंति] महापुरुष कहते हैं। भावार्थ-जो एकेन्द्रियादिक और पृथिवीकायादिक व्यवहारनयकी अपेक्षा जीवके मुख्य कथनसे जीव कहे जाते हैं. वे अनादि पुद्गल जीवके सम्बन्धसे पर्याय होते हैं । निश्चयनयसे विचारा जाय तो स्पर्शनादि इन्द्रिय, पृथिवीकायादिक काया चैतन्यलक्षणी जीवके स्वभावसे भिन्न हैं जीव नहीं हैं. उन ही पांच इन्द्रिय षट्कायोंमें जो खपरका जाननहारा है अपने ज्ञान गुणसे यद्यपि गुणगुणीभेदसंयुक्त है तथापि कथंचित् अभेदसंयुक्त है। बह अविनाशी अचल निर्मल चैतन्यस्वरूप जीव पदार्थ जानना । अनादि अविद्यासे देहधारी होकर पंच इंद्रिय विषयोंका भोक्ता है । मोही होकर मत्त पुरुषकी समान परद्रव्यमें ममत्वभाव करता है मोक्षके सुखसे पराङ्मुख है. ऐसा जो संसारी जीव है उसका जो स्वाभाविक भावसे विचार किया जाय तो निर्मल चैतन्यविलासी आत्माराम है। आगें अन्य अचेतनद्रव्योंमें न पायी जाय ऐसी कौन २ करतूत है ऐसा कथन करते हैं। जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं विभेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं ॥ १२२ ॥ संस्कृतछाया. जानाति पश्यति सर्वमिच्छति सौख्यं विभेति दुःखात् । करोति हितमहितं वा भुङ्क्ते जीवः फलं तयोः ॥ १२२ ॥
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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