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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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पृथिवी सात हैं सो सात प्रकारके ही नारकी जीव हैं । देव नारकी मनुष्य ये तीन प्रकारके जीव तो पंचेन्द्रिय ही हैं और तिर्यञ्चगति में एकेन्द्रियादिक भेद हैं ।
आगें गतिआयुनामकर्मके उदयसे ये देवादिक पर्याय होते हैं इसकारण इन पर्यायोंका अनात्मखभाव दिखाते हैं ।
खीणे पुब्वणि गर्दिणामे आउसे च ते वि खलु । पापुण्णंतिय अण्णं गदिसाउस्सं सलेसवसा ॥ ११९ ॥
संस्कृतछाया.
क्षीणे पूर्वनिबद्धे गतिनाम्नि आयुपि च तेऽपि खलु । प्राप्नुवन्ति चान्यां गतिमायुष्कं खलेश्यावशात् ॥ ११९ ॥
पदार्थ – [ पूर्वनिवद्धे ] पूर्वकालमें बांधा हुवा [ गतिनानि ] गतिनामका कर्म [च] और [ आयुषि ] आयुनामा कर्मके [ क्षीणे ] अपना रसदेकर खिर जानेपर [ खलु ते अपि ] निश्चय करके वे ही जीव [ स्वलेश्यावशात् ] अपनी कषायगर्भित योगोंकी प्रवृत्तिरूप लेश्याके प्रभावसे [अन्यां गतिं ] अन्यगतिको [च] और [ आयुष्कं ] आयुको [ प्रासुवन्ति ] पाते हैं ।
भावार्थ — जीवोंके गति और आयु जो बंधती है सो कषाय और योगोंकी परिणति सें वंधती है. यह शृंखलावत् नियम सदैव चला जाता है अर्थात् एक गति और आयु कर्म खिरता है और दूसरा गति और आयुकर्म बंधता है इसीकारण संसारमार्ग कम नहिं होता - अज्ञानी जीव इसीप्रकार अनादि कालसे भ्रमते रहते हैं । आगें फिर भी इनका विशेष दिखाते हैं ।
एदे जीवनिकाया देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा । देहविणा सिद्धा भव्या संसारिणो अभव्वा य ॥ १२० ॥
संस्कृतछाया.
एते जीवनिकाया देहप्रविचारमाश्रिताः भणिताः ।
देहविहीनाः सिद्धाः भव्याः संसारिणोऽभव्याश्च ॥ १२० ॥
पदार्थ – [ एते ] पूर्वोक्त [ जीवनिकायाः ] चतुर्गतिसंबन्धी जीव [ देहमविचारं ] देहके पलटनभावको [आश्रिताः ] प्राप्तहुये हैं ऐसा वीतराग भगवान् ने [ भणिताः ] कहा है । और जो [ देहविहीनाः ] देहरहित हैं वे [ सिद्धाः ] सिद्ध जीव कहाते हैं । तथा [ संसारिणः] संसारी जीव हैं ते [ भव्याः ] मोक्षअवस्था होने योग्य [च] और [ अभव्याः ] मुक्तभावकी प्राप्तिके अयोग्य हैं ।
भावार्थ - लोकमें जीव दो प्रकारके हैं । एक देहधारी और एक देहरहित । देहधारी तो संसारी हैं देहरहित सिद्धपर्यायके अनुभवी हैं । संसारी जीवोंमें फिर दो भेद हैं ।