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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् गन्ध वर्ण इन चार विपयोंके ज्ञाता चार इन्द्रियसहित कर्ण और मनसे रहित चौइन्द्रिय । जीव होते हैं। अब पंचेन्द्रिय जीवोंके भेद कहते हैं.
सुरणरणारयतिरिया चण्णरसफासगंधसद्दण्ह । 'जलंचरथलचरखचरा वलिया पंचेंदिया जीवा ॥ ११७॥ .
संस्कृतछाया. सुरनरनारकतिर्यञ्चो वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दज्ञाः ।
जलचरस्थलचरखचरा वलिनः पञ्चेन्द्रिया जीवाः ॥ ११७ ॥ पदार्थ-[सुरनरनारकतिर्यञ्चः] देव मनुष्य नारकी और तिर्यञ्च गतिके जीव हैं ते [पञ्चेन्द्रियाः] पञ्चेन्द्रिय [जीवाः] जीव हैं जो कि [जलचरस्थलचरखचराः] जलचर भूमिचर व आकाशगामी हैं और [वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दज्ञाः] वर्ण रस गन्ध स्पर्श शब्द इन पांचों विषयोंके ज्ञाता हैं. तथा [वलिनः] अपनी क्षयोपशम शक्ति से बलवान् हैं ।
भावार्थ-जब संसारी जीवोंके पंचेन्द्रियोंके आवर्णका क्षयोपशम होय तब पांचों विषयके जाननहारे होते हैं । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं एक संज्ञी, एक असंज्ञी, जिन पंचेन्द्रिय जीवोंके मनआवरणका उदय होय वे तो मनरहित असंज्ञी हैं । और जिनके मनआवरणका क्षयोपशम होय वे मनसहित संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव होते हैं. अर्थात् तिर्यञ्च गतिमें मनसहित और मनरहित भी होते हैं । इसप्रकार इन्द्रियोंकी अपेक्षा जीवोंकी जातिका भेद कहा। अब इनही पांच जातिके जीवोंको चार गतिसंबंधसे संक्षेप कथन किया जाता है ।
देवा चउण्णिकाया मणुया पुण कस्मभोगभूमीया। तिरिया बहुप्पयारा णेरड्या पुढविभेयगदा ॥ ११८ ॥
संस्कृतछाया. देवाश्चतुर्निकायाः मनुजाः पुनः कर्मभोगभूमिजाः ।
तिर्यञ्चः वहुप्रकाराः नारकाः पृथिवीभेदगताः ॥ ११८ ॥ पदार्थ-देवाः ] देव देवगतिनामा कर्मके उदयसे जो देवशरीर पाते हैं सबसे उत्कृष्ट भोग भोगते हैं ते देव हैं सो [चतुर्निकायाः] चार प्रकारके हैं। एक भवनवासी दूसरे व्यन्तर तीसरे ज्योतिपी चौथे वैमानिक होते हैं । [पुनः] फिर [मनुजाः] मनुष्य हैं ते [कर्मभोगभूमिजाः] एक कर्मभूमिमें उपजते हैं दूसरे भोगभूमिमें उपजनेवाले इसप्रकार दो तरहके मनुष्य होते हैं और [ तिर्यञ्चः वहुप्रकाराः] तिर्यञ्चगतिके जीव एकेन्द्रियसे लगाकर सैनी पंचेन्द्रियपर्यन्त बहुत प्रकारके होते. हैं तथा [नारकाः पृथिवीभेदगताः] नारकी जीव हैं ते जितने नरक पृथिवीके भेद हैं उतने ही हैं, नरककी