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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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[ शङ्खाः स्रुक्तयः ] संख सीपियें [ अपादकाः कृमयः ] पांवरहित गिंडोड़ा कृमि लट आदिक अनेक जातिके जीव हैं ते [ रसं स्पर्श ] रस और स्पर्शमात्रको अर्थात् जीभसे खाद और स्पर्शेन्द्रियसे शीतोष्णादिकको [ जानन्ति ] जानते हैं, इसकारण [ते] वे [ जीवाः ] जीव [ द्वीन्द्रियाः ] दो इन्द्रिय संयुक्त जानने ।
भावार्थ- स्पर्श रसना इन्द्रियोंके न्द्रियों और मनआवरणके उदयसे स्पर्श दुःखके अनुभवी मनरहित बेइन्द्रिय जानने । अब तेइन्द्रिय जीवके भेद दिखाते हैं.
आवरणका जब क्षयोपशम होय और बाकी इरसनाइन्द्रियसंयुक्त दो इन्द्रियों के ज्ञानसे सुख
जूगागुं भीमक्कुणपिपीलया विच्छियादिया कीडा । जाणंति रसं फासं गंधं ते इंदिया जीवा ॥ ११५ ॥
संस्कृतछाया.
यूकाकुम्भीमत्कुणपिपीलिका वृश्चिकादयः कीटाः ।
जानन्ति रसं स्पर्श गन्धं त्रींद्रियाः जीवाः ॥ ११५ ॥
पदार्थ – [ यूकाकुम्भीमत्कुणपिपीलिका वृश्चिकादयः ] जूं कुंभी खटमल चींटा वृश्चिक आदिक जो [कीटाः ] जीव हैं ते [ रसं स्पर्श ] रस और स्पर्श तथा [ गन्धं ] गन्ध इन तीन विषयोंको [ जानन्ति ] जानते हैं, इसकारण ये सब जीव [त्रींद्रियाः ] सिद्धान्तमें तेन्द्रिय कहे गये हैं ।
भावार्थ- जब इन संसारी जीवोंके स्पर्शन रसना नासिका इन तीन इन्द्रियों के आवरणका क्षयोपशम होय और अन्य इन्द्रियोंके आवरणका उदय होय तब तेइन्द्रिय जीव कहे जाते हैं ।
आगें चौइन्द्रियके भेद कहते हैं.
उद्दसमसयमक्खियमधुकर भमरा पतंग मादीया ।
रूपं रसं च गन्धं फासं पुण ते वि जाणंति ॥ ११६ ॥
संस्कृतछाया.
उद्दंशमशकमक्षिका मधुकरी भ्रमराः पतङ्गाद्याः ।
रूपं रसं च गन्धं स्पर्श पुनस्तेऽपि जानन्ति ॥ ११६॥
पदार्थ – [ उदंसमशक मक्षिकामधुकरी भ्रमरापतङ्गाद्याः] डांस मच्छर मक्खी मधुमक्खी भँवरा पतंगआदिक जीव [रूपं ] रूप [रसं] खाद [ गन्धं ] गन्ध [ पुनः] और [ स्पर्श ] स्पर्शको [ जानन्ति ] जानते हैं इस कारण [ते अपि ] वे निश्चय करके चौड़न्द्रिय जीव जानने ।
भावार्थ- जब इन संसारी जीवोंके स्पर्शन जीभ नासिका नेत्र इन चारों इन्द्रियों के आवरणका क्षयोपशम और कर्णइंद्रिय और मनके आवरणका उदय होय तब स्पर्श रस