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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । ८५ [ शङ्खाः स्रुक्तयः ] संख सीपियें [ अपादकाः कृमयः ] पांवरहित गिंडोड़ा कृमि लट आदिक अनेक जातिके जीव हैं ते [ रसं स्पर्श ] रस और स्पर्शमात्रको अर्थात् जीभसे खाद और स्पर्शेन्द्रियसे शीतोष्णादिकको [ जानन्ति ] जानते हैं, इसकारण [ते] वे [ जीवाः ] जीव [ द्वीन्द्रियाः ] दो इन्द्रिय संयुक्त जानने । भावार्थ- स्पर्श रसना इन्द्रियोंके न्द्रियों और मनआवरणके उदयसे स्पर्श दुःखके अनुभवी मनरहित बेइन्द्रिय जानने । अब तेइन्द्रिय जीवके भेद दिखाते हैं. आवरणका जब क्षयोपशम होय और बाकी इरसनाइन्द्रियसंयुक्त दो इन्द्रियों के ज्ञानसे सुख जूगागुं भीमक्कुणपिपीलया विच्छियादिया कीडा । जाणंति रसं फासं गंधं ते इंदिया जीवा ॥ ११५ ॥ संस्कृतछाया. यूकाकुम्भीमत्कुणपिपीलिका वृश्चिकादयः कीटाः । जानन्ति रसं स्पर्श गन्धं त्रींद्रियाः जीवाः ॥ ११५ ॥ पदार्थ – [ यूकाकुम्भीमत्कुणपिपीलिका वृश्चिकादयः ] जूं कुंभी खटमल चींटा वृश्चिक आदिक जो [कीटाः ] जीव हैं ते [ रसं स्पर्श ] रस और स्पर्श तथा [ गन्धं ] गन्ध इन तीन विषयोंको [ जानन्ति ] जानते हैं, इसकारण ये सब जीव [त्रींद्रियाः ] सिद्धान्तमें तेन्द्रिय कहे गये हैं । भावार्थ- जब इन संसारी जीवोंके स्पर्शन रसना नासिका इन तीन इन्द्रियों के आवरणका क्षयोपशम होय और अन्य इन्द्रियोंके आवरणका उदय होय तब तेइन्द्रिय जीव कहे जाते हैं । आगें चौइन्द्रियके भेद कहते हैं. उद्दसमसयमक्खियमधुकर भमरा पतंग मादीया । रूपं रसं च गन्धं फासं पुण ते वि जाणंति ॥ ११६ ॥ संस्कृतछाया. उद्दंशमशकमक्षिका मधुकरी भ्रमराः पतङ्गाद्याः । रूपं रसं च गन्धं स्पर्श पुनस्तेऽपि जानन्ति ॥ ११६॥ पदार्थ – [ उदंसमशक मक्षिकामधुकरी भ्रमरापतङ्गाद्याः] डांस मच्छर मक्खी मधुमक्खी भँवरा पतंगआदिक जीव [रूपं ] रूप [रसं] खाद [ गन्धं ] गन्ध [ पुनः] और [ स्पर्श ] स्पर्शको [ जानन्ति ] जानते हैं इस कारण [ते अपि ] वे निश्चय करके चौड़न्द्रिय जीव जानने । भावार्थ- जब इन संसारी जीवोंके स्पर्शन जीभ नासिका नेत्र इन चारों इन्द्रियों के आवरणका क्षयोपशम और कर्णइंद्रिय और मनके आवरणका उदय होय तब स्पर्श रस
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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