SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। __ पदार्थ-[जीवः] आत्मा [ सर्व ] समस्त ही [जानाति] जानता है [पश्यति] सबको देखता है [सौख्यं] सुखको [इच्छति] चाहता है और [दुःखात् ] दुःखसे [विभेति] डरता है [हितं] शुभाचारको [वा] अथवा [अहितं ] अशुभाचारको [करोति] करता है और [तयोः] उन शुभ अशुभ क्रियावोंके [ फलं ] फलको [ भुते ] भोगता है । भावार्थ-ज्ञानदर्शनक्रियाका कर्ता जीव ही है । जीवका चैतन्य स्वभाव है इस कारण यह ज्ञानदर्शनक्रियासे तन्मय है. उसहीका संबन्धी जो यह पुद्गल है सो चैतन्य क्रियाका कर्ता नहीं है. जैसें आकाशादि चारि अचेतनद्रव्य भी कर्त्ता नहीं है । सुखकी अभिलाषा दुःखसे डरना शुभाशुभ प्रवर्तन इत्यादि क्रियावोंमें संकल्प विकल्पका कर्ता जीव ही है । इष्ट अनिष्ट पदार्थोंकी भोगक्रियाका, अपने सुखदुःखरूप परिणामक्रियाका कर्ता एक जीव पदार्थको ही जानना. इनका कर्ता और कोई नहीं है । ये जो क्रियायें कहीं हैं, वे सब शुद्ध अशुद्ध चैतन्यभावमयी हैं इसकारण ये क्रियायें पुद्गलकी नहीं हैं आत्माकी ही हैं। आगे जीवअजीवका व्याख्यान संक्षेपतासे दिखाते हैं। एवमभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पजएहिं बहुगेहिं । अभिगच्छदु अजीवं णाणंतरिदेहिं लिंगेहिं ॥ १२३ ॥ संस्कृतछाया. एवमभिगम्य जीवमन्यैरपि पर्यायैर्बहुकैः । अभिगच्छत्वजीवं ज्ञानान्तरितैलिङ्गैः ॥ १२३ ॥ पदार्थ-[एवं] इसप्रकार [अन्यैः अपि] अन्य भी [वहुकैः पर्यायैः] अनेक पर्यायोंसे [जीवं ] आत्माको [अभिगम्य ] जानकरके [ज्ञानान्तरितैर्लिङ्गैः] ज्ञानसे भिन्न स्पशरसगन्धवर्णादि चिन्होंसे [अजीवं] पुद्गलादिक पांच अजीव द्रव्योंको [अभिगच्छतु] जानो। भावार्थ-जैसें पूर्वमें जीवकी करतूतें दिखाई तैसें ही व्यवहारनयसे कर्मपद्धतिके विचारमें जीवसमास गुणस्थान मार्गणास्थान इत्यादि अनेकप्रकार पर्यायविलासकी विचित्रतामें जीवपदार्थ जान लेना। और अशुद्ध निश्चयनयसे कदाचित् मोहरागद्वेषपरिणतिसे उत्पन्न अनेकप्रकार अशुद्ध पर्यायोंसे जीव पदार्थ जाना जाता है । और कदाचित् मोहजनित अशुद्ध परणतिके विनाश होनेसे शुद्ध चेतनामयी अनेक पर्यायोंसे जीव पदार्थ जाना जाता है-इत्यादि अनेक भगवत्प्रणीत आगमके अनुसार नयविलासोंसे जीव पदार्थको जाने और अजीवपदार्थोंका स्वरूप जानें सो अजीवद्रव्य जड़खभावोंकेद्वारा जाने जाते हैं. अर्थात् ज्ञानसे भिन्न अन्य स्पर्शरसगन्धवर्णादिक चिन्होंसे जीवसे वंधेहुये कर्म नोकर्मादिरूप तथा नहिं बन्धेहुये परमाणु आदिक सव ही अजीव हैं । जीव अजीव पदार्थोंके लक्षणका जो भेद किया जाता है सो एकमात्र भेदविज्ञानकी सिद्धिके निमित्त है । इसप्रकार यह जीवपदार्थका व्याख्यान पूर्ण हुवा ।
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy