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श्रीपञ्चारित कायसमयसारः ।
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जुदा होता है तब शब्दसे रहित है । यद्यपि अपने स्निग्धरूक्ष गुणोंका कारण पाकर अनेक परमाणुरूपस्कन्धपरणतिको धरकर एक होता है तथापि अपने एकरूप से स्वभावको नहिं छोडता सदा एक ही द्रव्य रहता है ।
आगे समस्त पुलोंके भेद संक्षेपतासे दिखाये जाते हैं ।
उवभोज मंदिएहिं य इंदिय काया मणो य कस्माणि । जं हवदि सुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे ॥ ८२ ॥
संस्कृतछाया.
उपभोग्यमिन्द्रियैश्चेन्द्रियः काया मनश्च कर्माणि ।
यद्भवति मूर्त्तमन्यत् तत्सर्वं पुद्गलं जानीयात् ॥ ८२ ॥
पदार्थ – [ यत् ] जो [ इन्द्रियैः ] पांचों इन्द्रियोंसे [ उपभोग्यं ] स्पर्श रस गन्ध वर्ण शब्दरूप पांच प्रकारके विषय भोगने में आते हैं [च] और [ इन्द्रियः ] स्पर्श जीभ नासिका कर्ण नेत्र ये पांच प्रकारकी द्रव्यइन्द्रिय [ कायः ] औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण ये पांच प्रकारके शरीर [च] और [ मनः] पौलीक द्रव्यमन तथा [कर्माणि] द्रव्यकर्म नोकर्म और [ यत् ] जो कुछ [ अन्यत् ] और कोई [ मूर्त्त ] मूर्तीक पदार्थ [ भवति ] है [ तत्सर्वं . ] वे समस्त [ पुद्गलं ] पुद्गलद्रव्य [ जानीयात् ] जानो ।
भावार्थ- पांच प्रकार इन्द्रियोंके विषय, पांच प्रकारकी इन्द्रियें, द्रव्यमन, द्रव्यकर्म, नोकर्म, इनके सिवाय और जो अनेक पर्यायोंकी उत्पत्ति के कारण नानाप्रकारकी अनंतानंत पुद्गलवर्गणायें हैं. अनन्ती असंख्येयाणु वर्गणा हैं और अनंती वा असंख्याती संखेयाणु वर्गणा हैं, दो अणुके स्कन्धताई और परमाणु अविभागी इत्यादि जो भेद हैं वे समस्त ही पुद्गलद्रव्यमयी जानने. यह पुद्गलद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान पूर्ण हुवा |
आगें धर्म अधर्म द्रव्यास्तिकायका व्याख्यान किया जाता है जिसमेंसे प्रथम ही धर्म द्रव्यका स्वरूप कहा जाता है ।
धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमकासं । लोगोगाढं पुढं पिहुलमसंखादिपदेसं ॥ ८३ ॥
संस्कृतछाया. धार्मास्तिकायोऽरसोऽवर्णगन्धोऽशब्दोऽस्पर्शः ।
लोकावगाढः स्पष्टः पृथुलो संख्यातप्रदेशः ॥ ८३ ॥
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पदार्थ – [ धर्मास्तिकायः ] धर्म द्रव्य जो है सो काय सहित प्रवर्ते है । कैसा है वह धर्म द्रव्य ? [अरसः] पांच प्रकारके रसरहित [ अवर्णगन्धः ] पांच प्रकारके वर्ण और दो प्रकारके गन्धरहित [ अशब्द: ] शब्दपर्यायसे रहित [अस्पर्शः ] आठ प्रकारके स्पर्श गुणरहित है । फिर कैसा है ? [ लोकावगाढः ] समस्त लोकको व्याप्त होकर तिष्ठता