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________________ ५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हार दोनों नयोंमेंसे एक भी नयसे भोक्ता नहीं है । इस कारण जीवद्रव्य निश्चय नयकी अपेक्षा अपने अशुद्ध चेतनात्मक सुखदुःखरूप परिणामोंका भोक्ता है । व्यवहारकर इष्टानिष्ट पदार्थोका भोक्ता कहा जाता है । आगे कर्मसंयुक्त जीवकी मुख्यतासे प्रभुत्व गुणका व्याख्यान करते हैं । एवं कत्ता भोत्ता होज्झं अप्पा सगेहिं कम्महिं । .. हिंडति पारमपारं संसारं मोहसंछपणो ॥ ६९॥ संस्कृतछाया. एवं कर्ता भोक्ता भवन्नात्मा स्वकैः कर्मभिः । हिण्डते पारमपारं संसारं मोहसंछन्नः ॥ ६९ ॥ पदार्थ- [स्वकैः] अनादि विद्यासे उत्पन्न कियेहुये अपने [कर्मभिः ] ज्ञानावर. णादिक कर्मोंके उदयसे [आत्मा] जीवद्रव्य [एवं ] इस प्रकार [कर्ता] करनहारा [भोक्ता] भोगनेहारा [ भवन् ] होता हुवा [पारं] भव्यकी अपेक्षा सान्त [अपारं] अभव्यकी अपेक्षा अनन्त ऐसा जो [संसारं] पंचपरावर्तनरूप संसारको धरकर अनेक स्वरूपसे चतुर्गतिमें [हिंडते] भ्रमण करता है. कैसा है यह संसारी जीव ? [मोहसंछन्नः] मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्ररूप अशुद्ध परिणतिद्वारा आच्छादित है। भावार्थ—यह जीव अपनी ही भूलसे संसारमें अनेक विभाव पर्याय धरधरकर नचै है अर्थात् असत् वस्तुमें 'सत्'रूप मानता है. जैसें मदमत्त अगम्य पदार्थोंमें प्रवते है तैसी चेष्टा करता हुवा अपना शुद्धस्वभाव विसारता है । __ आगे कर्मसंयोगरहित जीवकी मुख्यतासे प्रभुत्वगुणका व्याख्यान करते हैं । उवसंतखीणमोहो मग्गंजिणभासिदेण समुवगदो। णाणाणुमग्गचारी वजदि णिव्वाणपुरं धीरो॥ ७० ॥ संस्कृतछाया. उपशान्तक्षीणमोहो मार्ग जिनभापितेन समुपगतः । ज्ञानानुमार्गचारी ब्रजति निर्वाणपुरं धीरः ॥ ७० ॥ पदार्थ-[उपशान्तक्षीणमोहः ] अपनी फलविपाक दशारहित उपशम भावको अथवा मूलसत्तासे विनाशभावको प्राप्त हुवा है असत्वस्तुमें प्रतीतिरूप मोहकर्म जिसका ऐसा [धीरः] अपने स्वरूपमें निश्चल सम्यग्दृष्टि जीव है सो [निर्वाणपुरं] मोक्षनगरमें [ब्रजति ] गमन करता है भावार्थ-जो सम्यग्दृष्टी जीव है सो गुणस्थानपरिपाटीके क्रमसे मोहका उपशम तथा क्षय करके मुक्त हुवा संता अनन्त आत्मीक सुखका भोक्ता होता है । कैसा है वह सम्यग्दृष्टी जीव ? [जिनभापितेन मार्ग समुपगतः] सर्वज्ञप्रणीत आगमकेद्वारा सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्गको प्राप्त हुवा है । फिर कैसा है ? [ज्ञानानुमार्गचारी] स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ज्ञानमार्गमें प्रवर्त्तता है।
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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