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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । ५५ ज्यमानाः] अपना रसदेकर खिरते हैं तब [सुखदुःखं] साता असाता [ददति] देते हैं और [ भुञ्जन्ति ] भोगते हैं। ___ भावार्थ-जीव जो हैं वे पूर्ववन्धसे मोहरागद्वेषरूप भावोंसे स्निग्धरूक्ष हैं और पुद्गल अपने स्वभावसे ही स्निग्धरूक्षपरिणामोंद्वारा प्रवर्तता है। आगमप्रमाणमें गुण अंशकर जैसी कुछ बन्धअवस्था कही गई है, उस ही प्रकार अनादिकालसे लेकर आपसमें बंध रहे हैं । और जब फलकाल आता है तब पुद्गल कर्मवर्गणायें जीवके जो वंधरहीं हैं वे सुखदुःखरूप होती हैं. निश्चयकर आत्माके परिणामोंको निमित्त मात्र सहाय है. व्यवहारकर शुभअशुभ जो वाह्यपदार्थ हैं उनको भी कर्म निमित्त कारण हैं, सुखदुःखफलको देते हैं । और जीव जो हैं वे अपने निश्चयकर तो सुखदुःखरूप परिणामोंके भोक्ता हैं और व्यवहारकर द्रव्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुये जो शुभअशुभ पदार्थ तिनको भोगते हैं । जीवमें भोगनेका गुण है. कर्ममें यह गुण नहीं है क्योंकि कर्म जड़ है. जड़में अनुभवनशक्ति नहीं है । आगे कर्तृत्व भोक्तृत्वका व्याख्यान संक्षेप मात्र कहा जाता है. तमा कम्मं कत्ता भावेण हि संजुदोध जीवस्स। भोत्ता दु हवदि जीवो चेद्गभावेण कम्मफलं ॥ ६८ ॥ संस्कृतछाया. तस्मात्कर्म कर्ता भावेन हि संयुतमथ जीवस्य । भोक्ता तु भवति जीवश्चेतकभावेन कर्मफलं ।। ६८ ॥ पदार्थ-[तस्मात् ] तिस कारणसे [हि ] निश्चयकरकें [कर्म] द्रव्यकर्म जो है सो [कर्ता] अपने परिणामोंका कर्ता है कैसा है द्रव्यकर्म ? [जीवस्य ] आत्मद्रव्यका [भावेन] अशुद्ध चेतनात्मपरिणामोंकर [ संयुतं] संयुक्त है । भावार्थ-द्रव्यकर्म अपने ज्ञानावरणादिक परिणामोंका उपादानरूप की है. और आत्माके अशुद्ध चेतनात्मक परिणामोंको निमित्त मात्र है। इस कारण व्यवहारकर जीव भावोंका भी कर्ता कहा जाता है [अथ] फिर इसी प्रकार जीवद्रव्य अपने अशुद्ध चेतनात्मक भावोंका उपादानरूप कर्ता है. ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मको अशुद्ध चेतनात्मक भाव निमित्तभूत हैं । इस कारण व्यवहारसे जीव द्रव्यकर्मका भी कर्ता है [तु] और [जीवः] आत्मद्रव्य जो है सो [चेतकभावेन] अपने अशुद्ध चेतनात्मक रागादि भावोंसे [कर्मफलं] साता असातारूप कर्मफलका [भोक्ता] भोगनेवाला [ भवति ] होता है। भावार्थ-जैसें जीव और कर्म निश्चय व्यवहारनयोंकेद्वारा दोनों परस्पर एक दूसरेका कर्ता हैं तैसें ही दोनों भोक्ता नहीं हैं । भोक्ता केवल मात्र एक जीवद्रव्य ही है क्योंकि आप चैतन्यखरूप है इसकारण पुद्गलद्रव्य अचेतन स्वभावसे निश्चय व्यव मा
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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