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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगे जो कोई कहै कि धर्म अधर्म द्रव्य है ही नहीं तो उसका समाधान करनेकेलिये आचार्य कहते हैं.
जादो अलोगलोगो जेसिं सम्भावदो य गमणठिदी। । दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ॥ ८७॥ .
संस्कृतछाया. जातमलोकलोकं ययोः सद्भावतश्च गमनस्थितिः ।
द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च ।। ८७ ॥ पदार्थ- [ययोः] जिन धर्माधर्म द्रव्यके [ सद्भावतः] अस्तित्व होनेसे [अलोकलोकं ] लोक और अलोक [जातं] हुवा है [च] और जिनसे [गमनस्थिती] गति स्थिति होती है वे [द्वौ अपि] दोनों ही [विभक्तौ मतौ] अपने अपने स्वरूपसे जुदे जुदे कहे गये हैं किंतु [अविभक्तौ] एकक्षेत्र अवगाहसे जुदे २ नहीं है । [च] और [लोकमात्रौ] असंख्यातप्रदेशी लोकमात्र है।
भावार्थ-यहां जु प्रश्न किया था कि-धर्म अधर्म द्रव्य है ही नहीं-आकाश ही गति स्थितिको सहायक है तिसका समाधान इस प्रकार हुवा कि-धर्म अधर्म द्रव्य अवश्य है । जो ये दोनों नहिं होते तो लोक अलोकका भेद नहिं होता । लोक उसको कहते हैं जहां कि जीवादिक समस्त पदार्थ हों. जहां एक आकाश ही है सो अलोक है, इस कारण जीव पुद्गलकी गतिस्थिति लोकाकाशमें है अलोकाकाशमें नहीं है । जो इन धर्म अधर्मके गतिस्थिति निमित्तका गुण नहिं होता तो. लोक अलोकका भेद दूर हो जाता जीव और पुद्गल ये दोनों ही द्रव्य गति स्थिति अवस्थाको धरते हैं इनकी गति स्थितिको बहिरंग कारण धर्म अधर्म द्रव्य लोक ही है । जो ये धर्म अधर्म द्रव्य लोकमें नहिं होते तो लोक अलोक ऐसा भेद ही नहिं होता सब जगहँ ही लोक होता इस कारण धर्म अधर्म द्रव्य अवश्यों है । जहांतक जीवपुद्गलगति स्थितिको करते हैं तहां ताई लोक है उससे परे अलोक जानना-इसी न्याय कर लोक अलोकका भेद धर्म अधर्म द्रव्यसे जानना । ये धर्म अधर्म द्रव्य दोनों ही अपने २ प्रदेशोंकों लियेहुये जुदे जुदे हैं. एक लोकाकाश क्षेत्रकी अपेक्षा जुदे जुदे नहीं हैं क्योंकि लोकाकाशके जिन प्रदेशोंमें धर्मद्रव्य है उन ही प्रदेशोंमें अधर्मद्रव्य भी है दोनों ही हिलनचलनरूप क्रियासेरहित सर्वलोकव्यापी हैं । समस्त लोकव्यापी जीव पुद्गलोंको गतिस्थितिको सहकारी कारण हैं इसकारण दोनों ही 'द्रव्य लोकमात्र असंख्यातप्रदेशी हैं ।
आगे धर्म अधर्म द्रव्य प्रेरक होकर गति स्थितिको कारण नहीं है अत्यन्त उदासीन हैं ऐसा कथन करनेको गाथा कहते हैं.
___ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णवियस्स ॥
हवदि गती स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च ॥ ८८॥
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