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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः।
संस्कृतछाया. न च गच्छति धर्मास्तिको गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य । .
भवति गतेः सः प्रसरो जीवानां पुद्गलानां च ।। ८८ ।। पदार्थ-[धर्मास्तिकः ] धर्मास्तिकाय [न] नहीं [गच्छति ] चलता हिलता है । [च] और [अन्यद्रव्यस्य ] अन्य जीव पुद्गलका प्रेरक होयकर [गमनं ] हलन चलन क्रियाको [न] नहीं [करोति ] करता है [सः] वह धर्मद्रव्य [जीवानां] जीवोंकी और [पुद्गलानां] पुद्गलोंकी [ गतेः] हलन चलन क्रियाका [प्रसरः ] प्रवर्तक [ भवति] होता है । [च] फिर इसप्रकारही अधर्मद्रव्य भी स्थितिको निमित्तमात्र कारण जानना ।
भावार्थ-जैसें पवन अपने चंचलस्वभावसे ध्वजावोंकी हलन चलन क्रियाका कर्ता देखनेमें आता है तैसें धर्मद्रव्य नहीं है । धर्म द्रव्य जो है सो आप हलनचलनरूप क्रियासे रहित है किसी कालमें भी आप गति परणतिको (गमनक्रियाको) नहिं धारता । इसकारण जीवपुद्गलकी गतिपरणतिका सहायक किस प्रकार होता है उसका दृष्टान्त देते हैं. जैसे कि निःकम्प सरोवरमें 'जल' मच्छियोंकी गतिको सहकारी कारण है-जल स्वयं प्रेरक होकर मच्छियोंको नहिं चलाता, मच्छियें अपने ही गति परिणामके उपादान कारणसे चलती हैं परन्तु जलके विना नहिं चल सक्ती, जल उनको निमित्तमात्र कारण है । उसी प्रकार जीवपुद्गलोंकी गति अपने उपादान कारणसे है धर्मद्रव्य आप चलता नही किन्तु अन्य जीवपुद्गलोंकी गतिकेलिये निमित्तमात्र होता है । इसीप्रकार अधर्मद्रव्य भी निमित्तमात्र है जैसें घोड़ा प्रथम ही गति क्रियाको करके फिर स्थिर होता है असवारकी स्थितिका कर्ता देखिये है, उसी प्रकार अधर्मद्रव्य प्रथम आप चलकर जीवपुद्गलकी स्थिरक्रियाका आप कर्त्ता नहीं है किंतु आप निःक्रिय है इसकारण गतिपूर्वस्थिति परणाम अवस्थाको प्राप्त नहिं होता है । यदि परद्रव्यकी क्रियासे इसकी गति पूर्वक्रिया नहिं होती तो किसप्रकार स्थिति क्रियाका सहकारी कारण होता है ? जैसें घोड़ेकी स्थिति क्रियाका निमित्त कारण भृमि (पृथिवी) होती है। भूमि चलती नहीं परन्तु गतिक्रियाके करनेहारे घोड़ेकी स्थितिक्रियाको सहकारिणी है, उसीप्रकार अधर्मद्रव्य जीवपुद्गलकी स्थितिको उदासीन अवस्थासे स्थितिक्रियाका सहायी है।
आगें धर्म अधर्म द्रव्यको उपादानकारण गतिस्थितिका मुख्यतारूप नहीं है उदासीन मात्र भावसे निमित्तकारणमात्र कहा जाता है ।
विजदि जेसिं गमणं ठाणं पुणतेसिमेव संभवदि । ते सगपरणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति ॥ ८९॥
संस्कृतछाया. विद्यते येपां गमनं पुनस्तेपामेव सम्भवति । ते स्वकपरिणामैस्तु गमनं स्थानं च कुर्वन्ति ।। ८९ ॥