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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। पदार्थ-जीवाः ] अनन्त जीव [पुद्गलकायाः] अनन्त पुद्गलपिंड [च] और [धर्माधर्मों ] धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य [लोकतः अनन्ये ] लोकसे बाहर नाहीं । ये पांच द्रव्य लोकाकाशमें है. [ततः] तिस लोकाकाशसे [अन्यत् ] जो और है [अनन्यत] और नहीं भी है ऐसा [आकाशं] आकाशद्रव्य है सो [अन्तव्यतिरिक्तं ] अनन्त है।
भावार्थ-आकाश लोक अलोकके भेदसे दो प्रकारका है । लोकाकाश उसे कहते है जो जीवादि पांच द्रव्योंकर सहित है। और अलोकाकाश वह है जहांपर आप एक आकाश ही है । वह अलोकाकाश एक द्रव्यकी अपेक्षा लोकसे जुदा नहीं है और वह अलोकाकाश पांचद्रव्यसे रहित है जब यह अपेक्षा लीजाय तब जुदा है । अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है । ___ यहां कोई प्रश्न करै कि लोकाकाशका क्षेत्र किंचिन्मात्र है । उसमें अनन्त जीवादि पदार्थ कैसें समा रहे हैं?
उत्तर-एक घरमें जिसप्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश समाय रहा है और जिसप्रकार एक छोटेसे गुटकेमें बहुतसी सुवर्णकी राशि रहती है उसीप्रकार असंख्यात प्रदेशी आकाशमें साहजीक अवगाहना खभावसे अनन्त जीवादि पदार्थ समा रहे हैं । वस्तुवोंके स्वभाव वचनगम्य नहीं है सर्वज्ञ देव ही जानते हैं इसकारण जो अनुभवी हैं वे संदेह उपजाते नहीं वस्तुखरूपमें सदा निश्चल होकर आत्मीक अनन्त सुख वेदते हैं । ___ आगे कोई प्रश्न करै कि धर्म अधर्मद्रव्य गतिस्थितिके कारण क्यों कहते हो आकाशको ही गतिस्थितिका कारण क्यों न कह देते ? उसको दूषण दिखाते हैं ।
आगासं अवगासं गमणहिदिकारणेहिं देदि जदि । उदंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ॥ ९२॥
- संस्कृतछाया. आकाशमवकाशं गमनस्थितिकारणाभ्यां ददाति यदि ।
ऊर्द्धगतिप्रधानाः सिद्धाः तिष्ठन्ति कथं तत्र ।। ९२ ॥ पदार्थ- [यदि] जो [आकाशं ] आकाश नामक द्रव्य [गमनस्थितिकारणाभ्यां] चलन और स्थिरताके कारण धर्म अधर्म द्रव्योंके गुणोंसे [अवकाशं ] जगह [ददाति] देता है [तदा] तो [ऊर्द्धगतिप्रधानाः ] ऊर्द्ध गतिवाले प्रसिद्ध जो [सिद्धाः] मुक्त जीव हैं ते [तत्र ] सिद्ध क्षेत्रपर [कथं ] कैसे [तिष्ठन्ति ] रहते हैं ?
भावार्थ-जो गमनस्थितिका कारण आकाशको ही मानलिया जाय तो धर्म अधर्मके अभाव होनेसे सिद्ध, परमेष्ठीका अलोकमें भी गमन होता, इसकारण धर्म अधर्म द्रव्य अवश्य है । उनसे ही लोककी मर्यादा है । लोकसे आगे गमनस्थिति नहीं है।