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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् · आर्गे लोकाग्रमें सिद्धोंकी थिरता दिखाते हैं । जमा उवरिहाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । तमा गमणहाणं आयासे जाण णस्थित्ति ॥ १३ ॥ संस्कृतछाया. यस्मादपरिस्थानं सिद्धानां जिनवरैः प्रज्ञप्तं । तस्माद्गमनस्थानमाकाशे जानीहि नास्तीति ।। ९३ ॥ पदार्थ-[जिनवरैः] वीतराग सर्वज्ञ देवोंने [ यस्मात् ] जिस कारणसे [सिद्धानां] सिद्धोंका [स्थानं ] निवासस्थान [उपरि] लोकके उपरि [प्रज्ञप्तं ) कहा है [तस्मात्] तिस कारणसे [आकाशे] आकाश द्रव्यमें [गमनस्थानं] गतिस्थिति निमित्त गुण [नास्ति ] नहीं है [इति ] यह [जानीहि] हे शिष्य तू जान । ___ भावार्थ---जो सिद्धपरमेष्ठीका गमन अलोकाकाशमें होता तो आकाशका गुण गतिस्थिति निमित्त होता, सो है नहीं. गतिस्थितिनिमित्त गुण धर्म अधर्म द्रव्यमें ही है क्योंकि धर्म अधर्म द्रव्य लोकाकाशमें है आगे नहीं हैं यही संक्षेप अर्थ जानना । आगे आकाश गतिस्थितिको निमित्त क्यों नहीं है सो दिखाते हैं। जदि हवदि गमण हेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं। पसजदि अलोगहाणी लोगस्स य अंतपरिबुट्ठी ॥१४॥ संस्कृतछाया. - यदि भवति गमनहेतुराकाशं स्थानकारणं तेषां । प्रसजत्यलोकहानिर्लोकस्य चान्तपरिवृद्धिः ॥ ९४ ॥ . पदार्थ-[यदि] जो [आकाशं ] आकाश द्रव्य [तेषां] उन जीवपुद्गलोंको [गमन हेतुः] गमन करनेकेलिये सहकारी कारण तथा [स्थानकारणं] स्थितिको सहकारी कारण [भवति ] होय ['तदा' ] तो [अलोकहानिः] अलोकाकाशका नाश [प्रसजति] उत्पन्न होय [च] और [लोकस्य ] लोकके [अन्तपरिवद्धिः] अन्तकी (पूर्णताकी) वृद्धि हो जायगी। भावार्थ-आकाश गतिस्थितिका कारण नहीं है क्योंकि-जो आकाश कारण हो जाय तो लोक अलोककी मर्यादा (हद्द) नहिं होती अर्थात् सर्वत्र ही जीव पुद्गलकी गतिस्थिति हो जाती । इसकारण लोक अलोककी मर्यादाका कारण धर्म अधर्म द्रव्य ही है. आकाश द्रव्यमें गतिस्थिति गुणका अभाव है. जो ऐसा न होय तो अलोकाकाशका अभाव होता और लोकाकाश असंख्यात प्रदेशप्रमाणवाले धर्म अधर्म द्रव्योंसे अधिक हो जाता अर्थात् समस्त अलोकाकाशमें जीवपुद्गल फैल जाते, अतएव गतिस्थिति गुण आकाशका नहीं है किन्तु धर्म अधर्म द्रव्यका है । जहांतक ये दोनों द्रव्य अपने असंख्यात प्रदेशोंसे स्थित हैं तहां ताई लोकाकाश है और वहीं तक गमनस्थिति है।
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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