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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
संस्कृतछाया.
यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः । परिणामात्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः ।। १२८ ।। गतिमधिगतस्य देहो देहादिन्द्रियाणि जायन्ते । तैस्तु विपयग्रहणं ततो रागो वा द्वेपो वा ।। १२९ ॥ जायते जीवस्यैवं भावः संसारचक्रवाले |
इति जिणवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा ॥ १३० ॥
पदार्थ – [ यः ] जो [खलु] निश्चय करके [ संसारस्थः] संसार में रहनेवाला [जीवः ] अशुद्ध आत्मा [ततः तु ] उससे तो [ परिणामः ] अशुद्धभाव और [ परिणामात् ] उस रागद्वेषमोहजनित अशुद्धपरिणामोंसे [कर्म] आठप्रकारका कर्म [ भवति ] होता हैं। [कर्मणः] उस पुद्गलमयी कर्मसे [ गतिपु] चार गतियों में [ गतिः ] नारकादि गतियोंमें जाना [ भवति ] होता है [ गतिं ] गतिको [ अधिगतस्य ] प्राप्त होनेवाले जीवके [देहः ] शरीर और [ देहात् ] शरीरसे [ इन्द्रियाणि ] इन्द्रियें [ जायन्ते ] होतीं हैं [तु] और [:] उन इन्द्रियोंसे [ विषयग्रहणं ] स्पर्शनादि पांचप्रकारके विषयोंका राग बुद्धिसे ग्रहण [वा] अथवा [ततः] उस इष्ट अनिष्ट पदार्थसे [ रागो ] राग [ वा] अथवा [ द्वेपो ] द्वेषभाव उपजता है । फिर उनसे पूर्वक्रमानुसार कर्मादिक उपजते हैं यही परिपाटी जबतक काललव्धि नहिं होती तबतक इसीप्रकार चली जाती है [ संसारचक्रवाले] संसाररूपी चक्रके परिभ्रमणमें [जीवस्य ] राग द्वेषभावों से मलीन आत्माके [ एवं भावः ] इसी प्रकारका अशुद्धभाव [जायते] उपजता है [ स भावः ] वह अशुद्धभाव [ अनादिनिधनः ] अभव्य जीवकी अपेक्षा अनादि अनन्त है [वा] अथवा [ सनिधनः ] भव्य जीवकी अपेक्षा अन्तकरके सहित है । [ इति ] इसप्रकार [जिनवरैः ] जिनेन्द्र भगवान् करकैं [ भणितः ] कहा गया है.
भावार्थ - इस संसारी जीवके अनादि बंधपर्यायके वशसे सरागपरिणाम होते हैं। उनके निमित्तसे द्रव्यकर्मकी उत्पत्ति है, उससे चतुर्गति में गमन होता है, चतुर्गतिगमन से देह, देहसे इन्द्रियें, इन्द्रियोंसे इष्टानिष्ट पदार्थोंका ज्ञान होता है, उससे रागद्वेपबुद्धि और उससे स्निग्धपरिणाम होते हैं उनसे फिर कर्मादिक होते हैं । इसीप्रकार परस्पर कार्यकारणरूप जीव पुद्गल परिणाममयी कर्मसमूहरूप संसारचक्रमें जीवके अनादिअनंत अनादिसान्त कुम्हारके चाककी समान परिभ्रमण होता है. इससे यह बात सिद्ध हुई कि-पुद्गलपरिणामका निमित्त पाकर जीवके अशुद्ध परिणाम होते हैं, और उन अशुद्ध परिणामोंके निमित्तसे पुद्गलपरिणाम होते हैं ।
आगें पुण्यपापपदार्थका व्याख्यान करते हैं सो प्रथम ही पुण्यपापपदार्थों के योग्य परिणामोंका स्वरूप दिखाते हैं.