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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावस्मि । विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो॥१३१॥ संस्कृतछाया. मोहो रागो द्वेषश्चित्तप्रसादश्च यस्य भावे । विद्यते तस्य शुभो वा अशुभो वा भवति परिणामः ।। १३१ ॥ पदार्थ- [यस्य] जिसके [भावे] भावोंमें [मोहः] गहलरूप अज्ञानपरिणाम [रागः] परद्रव्योंमें प्रीतिरूप परिणाम [द्वेषः] अप्रीतिरूप परिणाम [च] और [चित्तप्रसादः] चित्तकी प्रसन्नता [विद्यते] प्रवर्ते है [तस्य] उस जीवके [शुभः] शुभ [वा] अथवा [अशुभः] अशुभ ऐसा [परिणामः] परिणमन [भवति ] होता है । भावार्थ-इस लोकमें जीवके निश्चयसे जब दर्शनमोहनीय कर्मका उदय होता है तब उसके रसविपाकसे जो अशुद्ध तत्त्वके अश्रद्धानरूप परिणाम होय उसका नाम मोह है । और चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे जो इसके रसविपाकका कारण पाय इष्ट अनिष्ट पदार्थों में जो प्रीति अप्रीतिरूप परिणाम होय उसका नाम राग द्वेष है । उसही चारित्रमोह कर्मका जब मंद उदय हो और उसके रसविपाकसे जो कुछ विशुद्ध परिणाम होय तिसका नाम चित्तप्रसाद है। इसप्रकार जिस जीवके ये भाव होंहि तिसके अवश्यमेव शुभअशुभ परिणाम होते हैं। जहां देवधर्मादिकमें प्रसस्त राग और चित्तप्रसादका होना ये दोनों ही शुभपरिणाम कहाते हैं । और जहां मोहद्वेष होंहि और जहां इन्द्रियोंके विषयोंमें तथा धनधान्यादिकोंमें अप्रसस्त राग होय सो अशुभराग कहाता है । आगें पुण्यपापका स्वरूप कहते हैं । सुहपरिणामो पुण्णं अनुहो पावंति हवदि जीवस्स । दोण्हं पोग्गलमत्तो भावो कम्मत्तणं पत्तो ॥ १३२ ॥ संस्कृतछाया. शुभपरिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भवति जीवस्य । द्वयोः पुद्गलमात्रो भावः कर्मत्वं प्राप्तः ॥ १३२ ॥ पदार्थ-[जीवस्य] जीवके [शुभपरिणामः] सक्रियारूप परिणाम [पुण्यं] पुण्यनामा पदार्थ है [अशुभः] विषयकषायादिकमें प्रवृत्ति है सो [पापं इति ] पाप ऐसा पदार्थ [भवति] होता है [ द्वयोः] इन दोनों शुभाशुभ परिणामोंका [ पुद्गलमात्रः भावः] द्रव्यपिण्डरूप ज्ञानावरणादि परिणाम जो है सो [कर्मत्वं ] शुभाशुभ कर्मावस्थाको [प्राप्तः] प्राप्त हुवा है । ___ भावार्थ-संसारी जीवके शुभअशुभके भेदसे दो प्रकारके परिणाम होते हैं । उन परिणामोंका अशुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा जीव कर्ता है शुभपरिणाम कर्म है वही शुभ परिणाम द्रव्यपुण्यका निमित्तत्वसे कारण है। पुण्यप्रकृतिके योग्य वर्गणा तब होती है जब कि शुभपरिणामका निमित्त मिलता है । इसकारण प्रथम ही भावपुण्य होता है तत्पश्चात्
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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