SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । भावार्थ-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छ द्रव्य हैं. इनमेंसे काल द्रव्यके विना पांचद्रव्य पंचास्तिकाय हैं. क्योंकि इन पांचों ही द्रव्योंके प्रदेशोंका समूह है. जहां प्रदेशोंका समूह होय तहाँ काय संज्ञा कही जाती है. इस कारण ये पांचों ही द्रव्य कायवन्त हैं । कालद्रव्य बहुप्रदेशी नहीं है. इस कारण वह अकाय है. यह कथन विशेषकरके आगमप्रमाणसे जाना जाता है। ___ आगे यद्यपि कालको कायसंज्ञा नहिं कही, तथापि द्रव्यसंज्ञा है. इसके विना सिद्धि होती नहीं. यह काल अस्तिस्वरूप वस्तु है, ऐसा कथन करते हैं । सम्भाव सभावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च । परियणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो ॥ २३ ॥ संस्कृतछाया. सन्नावस्वभावानां जीवानां तथैव पुद्गलानां च ।। परिवर्तनसम्भूतः कालो नियमेन प्रज्ञप्तः ॥ २३ ॥ पदार्थ-[सद्भावस्वभावानां] उत्पादव्ययध्रुवरूप अस्तिभाव जो है सो [जीवानां] जीवोंके [च] और [तथैव ] तैसे ही [ पुद्गलानां] पुद्गलोंके अर्थात् इन दोनों पदार्थोके [परिवर्तनसम्भूतः] नवजीर्णरूप परिणमनकर जो प्रगट देखनेमें आता है, ऐसा जो पदार्थ है सो [नियमेन ] निश्चयकरके [काल:] काल [प्रज्ञप्तः] भगवन्त देवाधिदेवने कहा है। भावार्थ-इस लोकमें जीव और पुद्गलके समय समयमें नवजीर्णतारूप स्वभाव ही से परिणाम है. सो परिणाम किस ही एक द्रव्यकी विना सहायताके होता नहीं । कैसे ? जैसे कि गतिस्थिति अवगाहना धर्मादि द्रव्यके सहाय विना नहिं होय, तैसें ही जीव पुद्गलकी परिणति किस ही एक द्रव्यकी सहायताके विना नहिं होती. इसकारण परिणमनको. कोई द्रव्य सहाय चाहिये, ऐसा अनुमान आता है. अतएव आगम प्रमाणतासे कालद्रव्यही निमित्त कारण बनता है. उस कालके विना द्रव्यों के परिणामकी सिद्धि होती नहीं। इस कारण निश्चय काल अवश्य मानना योग्य है । उस विश्चयकालकी जो पर्याय है, सो समयादिरूप व्यवहार काल जानना । यह व्यवहारकाल जीव और पुद्गलको परिणतिद्वारा प्रगट होता है। पुद्गलके नवजीर्णपरिणामके आधीन जाना जाता है। इन जीव पुद्गलके परिणामोंको और कालको आपसमें निमित्तनैमित्तिकभाव है। कालके अस्तित्वसे जीवपुद्गलके परिणामका अस्तित्व है । और जीवपुद्गलके परिणामोंसे कालद्रव्यका पर्याय जाना जाता है । आगे निश्चयकालके स्वरूपको दिखाते हैं और व्यवहारकालको कथंचित् प्रकारसे पराधीनता दिखाते हैं। वरगदपणवण्णरसो ववगद्दोगंधअट्टफासो य । अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालोत्ति ॥ २४ ॥
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy